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महाराष्ट्र : गांवों के शिक्षित युवाओं के लिए रोज़गार की तलाश कभी न ख़त्म होने वाली दौड़ है

महाराष्ट्र में ग्रामीण क्षेत्रों के शिक्षित युवा रोज़गार के लिए होने वाली प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी की पढ़ाई करने के लिए के लिए पुणे जाते हैं, बेहतर रोज़गार न मिलने पर वे अंतत: जीवित रहने के लिए छोटे-मोटे काम करने लगते हैं।
unemployment in india
प्रतीकात्मक तस्वीर

पुणे: वे बेहतर और सुरक्षित नौकरी की तलाश में गाँवों और छोटे क़स्बों को छोड़ अपनी खुली आँखों में सपने लिए पढ़ाई करने के लिए शहर आते हैं। लेकिन महाराष्ट्र जो विधानसभा चुनाव के मुहाने पर खड़ा है लगता है उसने हज़ारों युवाओं की उम्मीदों को तोड़ दिया है। कुछ लोग कह रहे हैं कि वे फंस गए हैं, क्योंकि उन्हें वापस अपने गांव जाने में हिचकिचाहट है।

रवि मेहर का ही मामला ले लें, वे अपने दिन की शुरुआत पुणे के अंग्रेज़ी और मराठी दैनिक समाचार पत्रों में वर्गीकृत विज्ञापनों में रोज़गार की तलाश से करते हैं इस उम्मीद में कि शायद आज उनके लिए कोई बेहतर रोज़गार उपलब्ध हो। वे पुणे के सावित्रीबाई फुले विश्वविद्यालय से अर्थशास्त्र में एम.ए हैं। अब उन्होंने समाचार पत्रों के नौकरी खोजनी कम कर दी है क्योंकि इस तरह के विज्ञापनों में ज़्यादातर छोटी नौकरी जैसे क्लर्क या हेल्पर्स का विज्ञापन दिया जाता है।

रवि कहते हैं, "अगर मेरे पास नौकरी नहीं है तो मैंने जो शिक्षा हासिल की है उसका क्या फ़ायदा? मैं कब तक अपने परिवार से पैसे मांगता रहूँगा। इसलिए, मुझे जो भी नौकरी मिलती है, मैं उसे कर लेता हूं यह सोच कर कि कुछ तो ख़र्च निकलेगा।"

दरअसल, रवि मूल रूप से पुणे से नहीं हैं। वे उत्तर महाराष्ट्र के अहमदनगर ज़िले से संबंध रखते हैं, और पिछले पांच वर्षों से पुणे में रह रहे हैं, वे प्रतियोगी परीक्षाओं में भाग लेने के लिए यहां आए थे।

रवि की कहानी महाराष्ट्र के ग्रामीण क्षेत्रों से पुणे में आए उन हज़ारों छात्रों-युवाओं की कहानी है जो रोज़गार की तलाश में यहाँ आते हैं। वे बेहतर रोज़गार के लिए प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करते हैं और अगर वे इन परीक्षाओं के ज़रीये बेहतर रोज़गार नहीं ढूंढ पाते हैं, तो वे छोटी-मोटी नौकरियों ढूंढ कर काम करने लगते हैं या अपनी खेती के काम लिए अपने मूल स्थानों यानी गावों में लौट जाते हैं।

न्यूज़क्लिक ऐसे युवाओं के एक समूह से प्रतिष्ठित शनीवरवाड़ा में मिला जो कभी 18वीं शताब्दी के पेशवा शासकों का मुख्यालय हुआ करता था।

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रवि बताते हैं कि "आपको पुणे शहर में मेरे जैसे हज़ारों युवा मिलेंगे। उनमें से बहुत से युवा प्रतियोगी परीक्षा  पास करने के लिए पांच साल या यहां तक कि 10 साल से यहाँ रह रहे हैं और लगातार परीक्षा दे रहे हैं। मैं ख़ुद आठ बार पुलिस सब इंस्पेक्टर की फ़ाइनल परीक्षा में बैठा, तीन बार सेल्स टैक्स इंस्पेक्टर की फ़ाइनल परीक्षा और दो बार सहायक अनुभाग अधिकारी की फ़ाइनल परीक्षा में भाग लिया। लेकिन मैं हर बार असफल रहा। इसलिए, मैं अब परीक्षा देने के साथ-साथ नौकरी की तलाश भी कर रहा हूं।

सरकारी नौकरी की रिक्तियाँ

रवीश की कहानी का एक अन्य महत्वपूर्ण सूत्र सरकारी क्षेत्र में ख़ाली पड़े पद या नौकरियाँ भी हैं। महाराष्ट्र के भीतर सरकारी विभागों में हज़ारों रोज़गार ख़ाली पड़े हैं। सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) और शिवसेना सरकार ने कहा था कि वे राज्य सरकार के सभी विभागों में भर्ती अभियान चलाएंगे। उन्होंने 72,000 पदों की एक मेगा भर्ती की भी घोषणा की थी।

यद्यपि, स्कूली शिक्षकों, न्यायालयों व अन्य विभागों की भर्तियां भी लंबित पड़ी हुई हैं।

ज्ञानेश्वर तुपे जो एक युवा बेरोज़गार हैं वे न्यूज़क्लिक से पुणे में मिले और बताया कि "अगर यह 'मेगा भर्ती' हो जाती तो वर्तमान तनाव कम हो जाता। आज हो यह रहा है, कि हम सब लोग लगातार सरकारी नौकरी पाने के दबाव में काम कर रहे हैं और इसलिए परीक्षा की तैयारी कर रहे हैं, जबकि सरकार के मोर्चे पर कुछ नहीं हो रहा है। यह देख कर काफ़ी निराशा होती है।"

ज्ञानेश्वर पुणे ज़िले के रहने वाले हैं और पिछले एक साल से शहर में रह रहे हैं। उनके भूमिहीन पिता दैनिक मज़दूर हैं और खेत मज़दूर के रूप में काम करते हैं। आर्थिक बाधाओं के बावजूद, ज्ञानेश्वर ने बीए राजनीति शास्त्र में पढ़ाई की है।

वे कहते हैं, "मैं अपने से वरिष्ठ सहपाठियों को देखता हूँ जो छह से आठ साल तक पढ़ाई करने के बाद भी नौकरियाँ हासिल नहीं कर पाए हैं ये हालात हमारे आत्मविश्वास को चोट पहुंचाते हैं। लेकिन हम करें तो क्या करें? हमारे पास कोई विकल्प नहीं है।"

पुणे में रहकर पढ़ाई करना इन छात्रों के लिए काफ़ी महंगा पड़ता है, क्योंकि ये ज़्यादातर ग्रामीण क्षेत्रों से संबंधित हैं। वे आर्थिक रूप से मज़बूत पृष्ठभूमि के बच्चे नहीं हैं। उनमें से कई, जैसे रवि या ज्ञानेश्वर, ऐसे परिवारों से हैं जो या तो छोटे किसान हैं या भूमिहीन परिवार से हैं। इसलिए, पढ़ाई पर निवेश करना उनके लिए आसान बात नहीं है।

कभी-कभी तो ख़र्च की मार बहुत ही ज़्यादा पड़ जाती है। अब अशोक सोलुंके की बात करें, ये साहब पिछले चार सालों से पुणे में हैं। वे प्रतियोगी परीक्षाओं में भी बैठ रहे हैं। उनके मुताबिक़ "शहर में रहने के लिए उन्हें हर महीने लगभग 6,000-7,000 रुपये की आवश्यकता होती है। ज़्यादातर युवा छात्र कमरे और किताबें साझा करते हैं। लेकिन किराए और टिफ़िन के लिए बुनियादी धन की आवश्यकता होती है। घर से पैसे मांगना भी हर बार संभव नहीं होता है। इसलिए, हम हमेशा कोई न कोई काम खोजने की कोशिश करते रहते हैं। अशोक कहते हैं कि छोटी-मोटी नौकरी से हमें न्यूनतम राशि तो मिल जाती है लेकिन इससे हमारी पढ़ाई भी प्रभावित होती है। यह एक भायनक दुष्चक्र है।"

इस हालत में, गाँव में वापस आना और भी कठिन काम है। रवि अपनी माँ और भाई से मिलने छह से नौ महीने में एक बार अपने घर जाते हैं, रवि कहते हैं, "हमारे गाँव के पड़ोसी हमारी पढ़ाई और नौकरियों के बारे में पूछते रहते हैं। अब हम उन्हें क्या जवाब दें? हमारे पास कोई जवाब नहीं होता है। कई बार तो हमें लगता है कि वापस जाना ही बेहतर है।"

पुणे औद्योगिक क्षेत्र

पुणे जैसे शहरों में विभिन्न क़िस्म के उद्योग हैं। जब उनसे पूछा गया कि वे यहाँ उपयुक्त नौकरियों की तलाश क्यों नहीं करते हैं, तो युवाओं ने कहा कि वहां कोई नौकरी ही नहीं है।

रोज़गार है कहाँ? सरकारी नौकरी क्या, यहाँ तो निजी क्षेत्र में भी रोज़गार नहीं है। बहुत कम काम है। अकोला ज़िले के 28 वर्षीय रूपेश मोहोड़ यह सब बताते हैं, जिन्होंने राजनीति शास्त्र में एम.एस किया है। और वे पिछले छह वर्षों से प्रतियोगी परीक्षाओं में बैठ रहे हैं। 

भले ही इनमें से कुछ युवाओं को निजी क्षेत्र में नौकरी मिल जाती है लेकिन वे सभी नौकरियाँ या तो ठेके पर होती हैं या फिर काफ़ी कम समय के लिए होती हैं। उन्हें महीने में 10 से 17 दिन का काम मिलता है या कभी-कभी नियमित रूप से तीन से पांच महीने तक काम मिल जाता है और फिर एक बड़ा अंतराल दे दिया जाता है। ज़ाहिर है, कंपनियों द्वारा स्थायी पदों पर भर्ती न करना इस बात का प्रमाण है कि मालिक लोग श्रम क़ानूनों के दायरे में नहीं आना चाहते हैं।

उस्मानाबाद ज़िले के एक अन्य युवा मंगेश राठौड़ कहते हैं कि "हम क़ानून का अध्ययन करते हैं। हम जानते हैं कि मालिक लोग श्रम क़ानूनों को धोखा दे रहे हैं। लेकिन हम क्या करें? हम कैसे इनसे लड़ सकते हैं? हमें नौकरी चाहिए, चाहे फिर वह साल में छह महीने के लिए ही क्यों न हो। यह कमाई हमें कम से कम उन छह महीने जीवित रहने में मदद मिलती है।" मंगेश पिछले चार सालों से पुणे में पढ़ रहे हैं।

संक्षेप में, यह महाराष्ट्र में हज़ारों शिक्षित युवाओं की यह ज़मीनी हक़ीक़त है जो उनकी दुर्दशा की कहानी कहती है। जैसे-जैसे उन्हें नौकरी नहीं मिलती है, वे अलग-अलग परीक्षाओं में अपनी क़िस्मत आज़माते रहते हैं। साथ ही वे प्राइवेट नौकरी की भी खोजते रहते हैं। लेकिन जितना प्रयास ये लोग करते हैं उसकी तुलना में सफलता दर बहुत ही कम है। यह भारत में बढ़ती बेरोज़गारी की कहानी है, जहां नौकरियों की मैराथन दौड़ कभी ख़त्म नहीं होती है।

अंग्रेजी में लिखा मूल लेख आप नीचे लिंक पर क्लिक करके पढ़ सकते हैं। 

It’s an Unending Run for Jobs for Rural Educated Youth in Maharashtra

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