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किसानी की हालत सुधारनें में फेल हैं सरकारी नीतियाँ

पिछले 2 सालों में किसानों की कुल आमदनी में तकरीबन 6 फीसदी सलाना के दर से कमी आयी है वहीं सरकारी नीतियों की वजह से अनाज का उपभोग वाले लोगों ने 25 फीसदी कम खर्च किया है।
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 साल 2014 में  जितनी शानदार मोदी जी की भाषण की रणनीतियां थी उतनी ही बेकार अभी तक उनकी ज़मीनी हकीकत रही है। मोदी जी अपनी चुनावी रैलियों में किसानों की दो गुनी आय और स्वामीनाथन आयोग के तहत लागत से 50 फीसदी अधिक दाम  दिलाने की रणगर्जना करते थें । लेकिन हाल-फिलाहल की ज़मीनी हकीकत मोदी जी की चुनावी रणगर्जना को हवा हवाई  साबित कर रही है ।  

आर्गेनाईज़ेशन फॉर इकोनॉमिक एंड डेवेलपमेंण्ट और इंडियन काउंसिल फॉर रिसर्च ऑन इंटरनेशनल इकोनॉमिक रिलेशंस ने  एग्रीकल्चर पॉलिसी इन इंडिया नाम से रिपोर्ट प्रकाशित की है । इस रिपोर्ट में किसानी से जुड़ी  सरकारी नीतियों की तहकीकात की गयी है। पिछले 2 सालों में सरकार की किसानी नीतियों से  किसानों और आम आदमी पर पड़े प्रभाव का आकलन किया गया है।  

इस रिपोर्ट के निष्कर्ष भी ठीक वैसे ही हैं जैसी किसानों की तंगहाली है। पिछले 2 सालों में किसानों की कुल आमदनी में तकरीबन 6 फीसदी सलाना के दर से कमी आयी है वहीं सरकारी नीतियों की वजह से अनाज का उपभोग  करने वाले लोगों ने 25 फीसदी कम खर्च किया है। इसका मतलब यह है कि किसानों की आमदनी की हालत सुधारने के बजाए और अधिक बिगड़ी है। किसानी पहले भी उत्पादक केंद्रित न होकर उपभोक्ता केंद्रित थी और अब भी यही हालत चल रही है जो पिछले  2 सालों  में और बदतर हो चुकी है। 

सरल शब्दों में इसे ऐसा समझा जा सकता है कि किसान को अपनी उपज पैदा करने में 100  रूपये खर्च करने पड़ते हैं लेकिन उपज को बेचने के बाद उसे उपज की लागत से कम, मात्र 94 रूपये मिलते हैं। किसान की उपज और किसान की आमदनी से जुड़ी सारी सरकारी योजनाएं कमज़ोर साबित हो रहीं है। प्रधानमंत्री सिंचाई योजना से लेकर बीज और खाद पर मिलने वाली सरकारी सब्सिडी मिलकर भी उपज की लागत को उतना कम नहीं कर पा रहे हैं जितना कि  बाज़ार उपज का मूल्य देना चाहता है। यानि कि किसान उत्पादकों को किसान नीतियों से कोई लाभ नहीं मिल रहा है। वहीं किसानी  उपज से जुड़ी डोमेस्टिक मॉर्केट रेगुलेशन ,एसेंशियल कमोडिटी एक्ट, एग्रीकल्चर रिलेटेड इम्पोर्ट एंड एक्सपोर्ट पॉलिसी आदि सरकारी नीतियों से आम आदमी किसानी उपज पर पहले की अपेक्षा 25 फीसदी कम खर्च करने लगा है। यानि कि किसान भलाई के नाम पर बनाई गयी सरकारी नीतियों से किसान की भलाई होने की बजाए बाज़ार से से चलने वाले उपभोक्ताओं की भलाई हो रही है।

 इस रिपोर्ट में भारतीय किसानों की हालत की तुलना अन्य देशों से भी कि गई है। OECD में 36 देश शामिल हैं । किसानी उपज से आमदनी के रूप में भारत की स्थिति अन्यों देशों के मुकाबले बेहद कमजोर है। सभी देशों की आमदनी की स्थिति नीचे दिए गए ग्राफ से समझी जा सकती है ।

graph

भारत अन्य देशों के मुकाबले अपने किसानों को सबसे कम न्यूनतम समर्थन मूल्य देता है।मार्केट रेगुलेशन के लिए बनाई गई  सरकार की प्रतिबंधित व्यापार  नीतियों की वजह से किसानों को अपनी आमदनी में 14 फिसदी का नुकसान सहन करना पड़ता है। इसलिए पिछले साल भर से किसानों को वाजिब मूल्य दिलाने के लिए ज़मीन पर लड़ी गयी हर लड़ाई की महत्ता भी स्पष्ट होती है और उन लोगों की महत्वहीनता स्पष्ट होती है जो किसानों की लड़ाई को खारिज करने पर तुले होते हैं। 

इस तरह से यह साफ दिखता है कि सरकारी नीतियां किसानों की भलाई नहीं कर पा रही हैं। ज़मीनी हकीकत और सरकारी नीतियों के बीच खासा अंतर मौजूद है। किसानों की आमदनी और आम जन के रोज़ाना के खर्चे के बीच फूड सिक्योरिटी कानून के तहत सबसे कमज़ोर लोगों तक भी अन्न पहुंचाना सरकार की जिम्मेदारी है। यह सब मिलकर भारतीय खेती-किसानी की दुनिया को बहुत जटिल बना देती है।  इसका हल खेती किसानी की परेशानी को गंभीरता से लेने में छिपा हुआ है । किसान से लेकर उपभोक्ता के बीच बनने वाली प्राइस चेन को दुरस्त करने में मौजूद है। किसानों को अपनी उपज का वाजिब मूल्य दिलाने की प्रतिबद्धता में छिपा हुआ है। आज हर जगह की अनाज मंडियों की हालत खराब है। सरकारी तंत्र हर जगह घोषित न्यूनतम समर्थन मूल्य दिलाने में असफल रहा है।  योगेंद्र यादव के किसान आंदोलन ने देश की हर अनाज मंडी की खस्ताहाली और बदहाली को जगजाहिर करते हुए पाया कि कहीं  भी किसान को अपनी उपज की लागत से 50 फीसदी अधिक मेहनताना नहीं मिला। 

इस लिहाज से नीतिगत तौर पर नीति आयोग की आर्टिफिसियल इंटेलिजेंस के सहारे किसानी की समस्या का हल निकालने की कोशिश कोरी कल्पना लगती है और नेतृत्व के तौर पर प्रधानमंत्री की किसानों की आय दोगुनी करने जैसी भाषणबाज़ी कोरी बकवास लगती  है।

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