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एक पत्र उन बुद्धिजीवियों के नाम जो पवित्रता के नाम पर क्रांतियों का मज़ाक़ उड़ाते हैं

रौक्सैन डनबर-ओर्टिज़, एना माल्डोनाडो, पिलर ट्रोया फ़र्नान्डीज़ और विजय प्रसाद ने लैटिन अमेरिका में जारी प्रगतिशील प्रक्रियाओं के ख़िलाफ़ बुद्धिजीवियों की टिप्पणियों का जवाब दिया है।
bolivia

क्रांतियाँ अचानक से नहीं हो जातीं, और न ही वे अचानक से समाज को रूपांतरित कर सकती हैं। क्रांति एक प्रक्रिया है, जो अलग-अलग गति से क्रियाशील रहती है। जिसका टेम्पो तेज़ी से बदल सकता है यदि इतिहास की गाड़ी वर्ग संघर्ष के द्वारा तेज़ होने लगे। लेकिन अधिकतर समय क्रांति की गति किसी बर्फ़ के समान ठंडी होती है। और किसी समाज और राज्य को रूपांतरित करते समय तो इसकी रफ़्तार कहीं और अधिक मंथर गति से चलती है।

1930 में अपने तुर्की निर्वासन के दौरान लीओन ट्रोट्स्की ने रूसी क्रांति का सबसे उल्लेखनीय अध्ययन लिखा। जारशाही साम्राज्य को उखाड़े हुए 13 साल बीत चुके थे। लेकिन क्रांति की खिल्ली इससे पहले से ही उड़ाई जानी शुरू हो चुकी थी, यहाँ तक कि उन लोगों द्वारा भी जो वाम को मान्यता देते थे। ट्रोट्स्की ने अपनी पुस्तक के निष्कर्ष में लिखा, ‘पूंजीवाद’ को ‘विज्ञानं और तकनीक को ऊँचाइयों पर ले जाने और मानवता को युद्ध के नर्क और संकट में डुबो देने के लिए कम से कम सौ साल और चाहिए। समाजवाद के लिए इसके दुश्मन ने सिर्फ़ पन्द्रह वर्ष दिए हैं कि वह अपने लिए एक स्थलीय स्वर्ग का निर्माण करे और प्रस्तुत करे। हमने अपने उपर ऐसी कोई ज़िम्मेदारी नहीं ली। हमने ऐसी कोई तिथि नहीं निर्धारित की। इस विशाल परिवर्तन की प्रक्रिया को किसी सटीक पैमाने के ज़रिये मापा जाना चाहिए’।

जब ह्यूगो चावेज़ ने वेनेजुएला के आम चुनावों में जीत हासिल की (दिसम्बर 1998 में) और जब ईवो मोरालेस आयमा ने बोलीविया (दिसम्बर 2005) में चुनाव जीता तो उत्तरी अमेरिका और यूरोप के वामपंथी धड़ों ने उनकी सरकारों को साँस लेने तक का वक़्त नहीं दिया। वाम रुझान के कुछ प्रोफ़ेसरों ने इन सरकारों की सीमाओं और यहाँ तक कि उनकी असफलताओं को लेकर तत्काल आलोचना शुरू कर दी। यह राजनीतिक रूप से संकुचित दृष्टिकोण था- क्योंकि इन प्रयोगों के साथ किसी प्रकार की एकजुटता ज़ाहिर नहीं की गई; यह बौद्धिक स्तर पर भी संकुचित दृष्टिकोण को दर्शाता है- क्योंकि तीसरी दुनिया के देशों में सामाजिक पदानुक्रम और ख़ाली होते वित्तीय संसाधनों में अकड़े देशों में समाजवादी प्रयोगों को लागू करने में किन मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा इसकी समझ नज़र नहीं आती।

क्रांति की गति  

रूसी क्रांति के दो वर्षों के भीतर लेनिन ने लिखा था कि नव निर्मित सोवियत संघ कोई ‘चमत्कारी रूप से काम करने वाली ताबीज’ नहीं है, और न ही इसने ‘समाजवाद के लिए कोई मार्ग प्रशस्त कर दिया है। जो लोग अभी तक उत्पीड़ित थे, यह उन्हें मौक़ा देता है कि वे अपनी पीठ सीधी कर सकें और एक आगे बढ़कर समूचे देश का शासन, अर्थव्यवस्था की समूची प्रशासनिक व्यवस्था और उत्पादन के समूचे प्रबंधन को अपने अपने हाथों में ले सके’। 

लेकिन तब भी- यह सब, और वह सब- आसान नहीं होने जा रहा। लेनिन ने लिखा कि यह ‘एक दीर्घ, बेहद कठिन, और ज़िद्दी क़िस्म का वर्ग संघर्ष  है, जो पूंजीवादी शासन को उखाड़ फेंकने के बाद, बुर्जुआ राज्य के ध्वंस के बाद।।।।अपने आप समाप्त नहीं होने वाला ।।।।बल्कि सिर्फ़ अपने स्वरूप को बदल लेता है और कई अर्थों में और भी अधिक भीषण स्वरूप अख्तियार कर लेता है’। लेनिन का विश्लेष्ण यह तब था जब जारशाही राज्य का ख़ात्मा हो चला था और समाजवादी सरकार ने शक्ति के समेकन की प्रक्रिया को आरंभ कर दिया था। अलेक्सांद्र कोल्लान्तई ने (जैसा कि लव इन दी टाइम ऑफ़ वर्कर बीज) समाजवाद के निर्माण में संघर्षों के बारे में लिखा है, अपने उद्येश्यों की प्राप्ति के लिए समाजवाद के अंदर के द्वन्द के बारे में। कोई भी चीज़ अपने आप नहीं होती; हर चीज़ में संघर्ष है। 

लेनिन और कोल्लान्तई इस बात पर ज़ोर देते हैं कि जब कोई क्रांतिकारी सरकार राज्य पर क़ब्ज़ा कर लेती हो तो मात्र इससे वर्ग संघर्ष का ख़ात्मा नहीं हो जाता। वास्तव इसके विरोध में यह और ‘तीखा’ हो जाता है, क्योंकि काफ़ी कुछ दाँव पर लगा होता है। और किसी भी क्षण खतरनाक बन जाता है क्योंकि विरोध में खड़े बुर्जुआ और पूर्व अभिजात्य-वर्ग की पीठ पर साम्राज्यवाद का वरदहस्त प्राप्त है। विंस्टन चर्चिल ने कहा था, ‘बोल्शेविज्म को उसके पालने में ही गला घोंट कर मार देना होगा’। और इसी प्रकार पश्चिमी सेनाओं ने श्वेत सेना के साथ मिलकर सोवियत रिपब्लिक के खिलाफ लगभग घातक सैन्य आक्रमण कर दिया था। यह आक्रमण 1917 के अंतिम दिनों से लेकर 1923 तक चला- पूरे छह सालों तक चलने वाला निरंतर सैन्य हमला।  

पिछले 20 वर्षों में न तो वेनेजुएला में और न बोलीविया और ना ही किसी एक भी देश में बुर्जुआ राज्य को पूरी तरह से पार किया गया है और न ही पूंजीवादी शासन को ही उखाड़ फेंका गया है। इन देशों में क्रांतिकारी प्रक्रियाओं को धीरे धीरे पूंजीवादी शासन को जारी रखते हुए श्रमिक वर्ग के लिए ऐसे संस्थानों को निर्मित खड़े करने की जरुरत है। ये संस्थान भागीदारी पर आधारित लोकतंत्र के एक अनोखे राज्य-के स्वरूप के उद्भव को प्रतिबिंबित करते हैं; जिसे दूसरों के बीच मिशनस सोशलेस के रूप में अभिव्यक्ति मिलती है। पूंजीवाद को पूरी तरह से लाँघने के किसी भी प्रयास को बुर्जुआ शक्तियों द्वारा बाधित कर दिया जाता है। और इसे बारम्बार चुनावों द्वारा पूर्ववत नहीं किया जा सकता, और जो अब प्रति-क्रांति का उदगम स्थल बन चुका है। इसे साम्राज्यवाद की ताकत ने बाधित कर दिया था- जिसे हाल फ़िलहाल बोलीविया में तख्तापलट करने में सफलता मिली है और जो रोज ही वेनेजुएला में तख्तापलट की धमकी देता रहता है।  

1998 या 2005 में किसी ने भी यह नहीं सुझाया कि वेनेजुएला और बोलीविया में जो घटित हुआ वह रुसी क्रांति जैसी कोई ‘क्रांति’ है। जबकि चुनावों में मिलने वाली जीतें एक प्रकार से क्रांतिकारी प्रक्रिया का ही हिस्सा हैं। गणतंत्र की एक बार फिर से नींव रखने की एक घटक प्रक्रिया के रूप में चावेज़ ने अपनी सरकार के प्रथम चरण के रूप में इसकी घोषणा की। इसी प्रकार, एवो ने 2006 में इस बात की पुष्टि की कि मूवमेंट ऑफ़ सोशलिज्म (MAS) सरकार में चुनकर तो आई है लेकिन इसने सत्ता पर कब्ज़ा नहीं किया है। इसके कहीं बाद में एक घटक प्रक्रिया की शुरुआत की गई थी, जो खुद में अपने आप में एक लंबी यात्रा थी। वेनेजुएला एक विस्तारित ‘क्रांतिकारी प्रक्रिया’ में प्रवेश कर गया, जबकि बोलीविया ‘बदलाव की प्रक्रिया’ में उतर गया। या जैसा कि वे इसे सामान्य अर्थों में ‘प्रक्रिया’ का नाम देते हैं, जो तख्तापलट के बावजूद आज भी जारी है। बहरहाल, दोनों ही देशों वेनेजुएला और बोलीविया ने ‘हाइब्रिड युद्ध’ के पूरे दबाव को अनुभव किया है। जिसमें भौतिक बुनियादी ढांचे को चोट पहुँचाने से लेकर पूंजी बाजार से धन जुटाने की क्षमता पर आघात पहुँचाने तक का युद्ध शामिल है।

लेनिन ने समझाया था कि जब राज्य पर कब्ज़ा हो गया और पूंजीवादी स्वामित्व को उखाड़ फेंका गया तब उस समय भी नए सोवियत गणराज्य में क्रांतिकारी प्रक्रिया बेहद कठिन थी। अड़ियल वर्ग संघर्ष जिन्दा था। कल्पना कीजिये कि वेनेजुएला और बोलीविया में इस अड़ियल संघर्ष से मुकाबला करना कितना अधिक कठिन है। 

आवश्यकता के दायरे में क्रांतियाँ

एक बार फिर कल्पना कीजिये कि किसी ऐसे देश में जहाँ पर भरपूर प्राकृतिक संसाधनों की मौजूदगी हो, लेकिन इसके बावजूद एक समाजवादी समाज के निर्माण करना कितना मुश्किल भरा है जहाँ भयंकर गरीबी और गैर-बराबरी बनी हुई है। इसके बावजूद अगर गहराई में जाएँ तो पायेंगे कि सांस्कृतिक सच्चाई के रूप में जनसंख्या के एक विशाल हिस्सा अभी भी पीड़ित है और सदियों की सामाजिक उपेक्षा से जूझ रहा है। इस बात में कोई आश्चर्य नहीं कि इन देशों में सबसे उत्पीडित वर्गों में खेतिहर मज़दूर, खदान कर्मी और शहरी श्रमिक वर्ग या तो देशज समुदायों से आते हैं या उन समुदायों से आते हैं जो अफ़्रीकी प्रवास से आए हैं। संसाधनों पर पहुँच के अभाव और कुचले गए गौरवहीन बोझ से दबे होने के चलते क्रांतिकारी प्रक्रियाओं की ‘ज़रूरत के दायरे’ ने और भी कठिन बना दिया है।

1844 की आर्थिक और दार्शनिक पांडुलिपियां निबंध में मार्क्स ने ‘आज़ादी के दायरे’ और ‘आवश्यकता के दायरे’ के बीच के फर्क को दर्शाया है। जहाँ श्रम जिसे आवश्यकता के द्वारा निर्धारित किया जाता है और बाकी सांसारिक संदर्भों का अस्तित्व निरस्त हो जाते हैं, उसी तरह ‘आवश्यकता के दायरे’ में शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं हो सकती। औपनिवेशिक दासता के लम्बे इतिहास और फिर साम्राज्यवादी चोरी ने इस गृह के बड़े हिस्से की संपदा को निचोड़ लिया है और खासकर अफ्रीका, एशिया और लैटिन अमेरिका जैसे क्षेत्रों में लगता है जैसे ये हमेशा के लिए ‘जरुरत के दायरे’ में सिमट कर रह गए हैं।

जब चावेज़ ने वेनेजुएला में पहली बार चुनावों में जीत हासिल की थी, तब गरीबी दर असामान्य रूप से 23।4% पर थी। बोलीविया में जब मोरालेस ने पहला चुनाव जीता तब गरीबी का प्रतिशत 38।20% की ऊँचाइयों को छू रहा था। ये आँकड़े सिर्फ जनसंख्या के व्यापक हिस्से की सम्पूर्ण गरीबी को ही नहीं दिखाते, बल्कि वे अपने अंदर सामाजिक अपमान और आत्मसम्मान को ठेस पहुँचाने वाली अनगिनत कहानियों को भी उजागर करते हैं जो किसी साधारण सांख्यिकी के जरिये बताना संभव नहीं है।

क्रांतियाँ और क्रांतिकारी प्रक्रियाएं ऐसा लगता है कि जरुरत के दायरे में जारशाही रूस, चीन, क्यूबा और वियतनाम में कहीं अधिक गहराई में जड़ जमाये थीं, जबकि इसके बजाय यूरोप और संयुक्त राज्य अमेरिका में यह स्वतंत्रता के दायरे में मौजूद थीं। ये क्रांतियाँ और इस प्रकार की क्रांतिकारी प्रक्रियाएँ - जैसे वेनेजुएला और बोलीविया में जैसी जगहों पर निर्मित की जाती हैं जहाँ सिर्फ संपत्ति का संचय नहीं किया जाता बल्कि उसे सामाजिक बनाया जा सकता है। इन समाजों में पूंजीपति वर्ग क्रांति या क्रांतिकारी परिवर्तन के क्षण में अपनी धन दौलत के साथ भाग खड़ा होता है, या वह रहता तो यहीं पर है, लेकिन अपने धन को टैक्स हैवन या न्यूयॉर्क और लंदन जैसी जगहों पर रखता है। नई सरकार इस धन को जो लोगों के परिश्रम का नतीजा है को साम्राज्यवाद के प्रकोप के बिना अपनी पहुँच नहीं बना सकती है। देखिये कि किस शीघ्रता से संयुक्त राज्य अमेरिका ने वेनेज़ुएला के सोने को बैंक ऑफ लंदन के 

रिये जब्त कर लिया। और ईरान और वेनेजुएला की सरकारों के बैंक खातों को अमेरिका द्वारा फ्रीज कर दिया गया। और देखिये कितनी चपलता से निवेश सूख गया जब वेनेजुएला, इक्वाडोर, निकारागुआ और बोलीविया ने विश्व बैंक के निवेशक-राज्य निपटान तंत्र का पालन करने से इनकार कर दिया।

चावेज और मोरालेस दोनों ने अपने देश में संसाधनों पर नियंत्रण की कोशिशें की, जिसे साम्राज्यवाद ने अविश्वास के साथ देखा। दोनों को ‘तानाशाह’ के रूप में दोषी करार देकर में फटकार दी गई क्योंकि उन्होंने संसाधनों को लूटने की पिछली सरकारों के समझौतों पर नए करार का प्रयास किया था। उन्हें यह पूँजी किसी व्यक्तिगत उत्थान के लिए नहीं चाहिये थी और कोई भी उनके उपर इस तरह का व्यक्तिगत लांछन नहीं लगा सकता है। इस पूँजी की जरूरत उन्हें अपने लोगों के सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक हैसियत बढ़ाने के लिए थी।

क्रांतिकारी प्रक्रियाओं के संघर्ष में ‘आवश्यकता के दायरे’ में यह लड़ाई प्रतिदिन का संघर्ष बनी रहती है। इसका सबसे बेहतरीन उदहारण क्यूबा है, जिसकी क्रांतिकारी सरकार को बेहद शुरुआती दिनों से ही कुचल देने वाले व्यापार प्रतिबंधों, हत्या की कोशिशों के खतरों और तख्तापलट का सामना करते हुए बिताना पड़ा है।

महिलाओं की क्रांतियाँ 

इस तथ्य को मान्यता मिली है, क्योंकि इससे इन्कार करना मूर्खतापूर्ण होता कि बोलीविया में हुए तख्तापलट के विरोध के केंद्र में महिलायें मौजूद हैं। वे मोरालेस सरकार की बहाली की माँग पर अड़ी हुई हैं और वेनेजुएला में भी बहुसंख्यक जनता बोलिवियन क्रांति की रक्षा के लिए सड़कों पर हैं, उनमें महिलाओं की भूमिका अग्रणी रूप से सामने आई है। हो सकता है कि इन महिलाओं में अधिकतर संख्या मासिस्ता या चाविस्ता समर्थक न हों, लेकिन वे निश्चित रूप से इस बात को समझती हैं कि ये क्रांतिकारी प्रक्रियाएं महिला समर्थक और समाजवाद लाने वाली हैं। इसके साथ ही ये प्रक्रियाएं देशज और अफ़्रीकी-वंशजों के प्रति होने वाले अपमान का खात्मा करने की ओर ले जाने वाली हैं।

वेनेजुएला और बोलीविया, इक्वेडोर और अर्जेंटीना जैसे देशों में अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) की ओर से 1980 और 1990 के दशक में स्वास्थ्य सेवा, शिक्षा और वृद्धों की देखभाल पर राज्य द्वारा किये जाने वाले खर्चों पर भारी कटौती करने का जबर्दस्त दबाव था। इन अहम सामाजिक सहयोग व्यवस्थाओं के टूटन ने ‘देखभाल अर्थव्यवस्था’ पर अतिरिक्त बोझ डालने का काम किया, जिसे पित्रसत्तात्मक मूल्यों के चलते महिलाओं द्वारा कायम रखा गया। यदि लोगों की देखभाल ‘अदृश्य हाथ’ करने में असफल रहा तो इसकी जिम्मेदारी ‘अद्रश्य  दिलों’ की थी। देखभाल अर्थव्यवस्था में जबर्दस्त कटौती के अनुभवों ने हमारे समाज में महिलाओं के विद्रोही चरित्र के निर्माण की प्रक्रिया को गहराई से निर्मित करने में मदद की है।

उनके नारीवाद की उत्पत्ति पितृसत्तात्मक और संरचनात्मक समायोजन की नीतियों के उनके अनुभवों से निर्मित हुई। पूंजीवाद द्वारा हिंसा और अभाव को फलने फूलने की प्रवत्ति को बढ़ावा देने के चलते श्रमिक वर्ग और देशज नारीवाद की यात्रा को सीधे चावेज़ और मोरालेस की समाजवादी प्रोजेक्ट्स के रूप में तब्दील कर दिया। जैसे जैसे नवउदारवाद की लहरों ने दुनिया की सफाई अभियान को जारी रखा और इसने अनेक समाजों में दुश्चिंता और दिल दुखाने की प्रक्रिया को अपनी आगोश में लेना शुरू किया, ऐसे समय में ये महिलाएं ही हैं जो एक अलग दुनिया के निर्माण की लड़ाई में सबसे अधिक सक्रिय रूप में अपनी मौजूदगी को दर्शा रही हैं। 

मोरालेस और चावेज़ दोनों पुरुष हैं, लेकिन क्रांतिकारी प्रक्रिया में समस्त समाज के लिए वे अलग अलग वास्तविकताओं के प्रतीक के रूप में नजर आ रहे हैं। अलग अलग स्तरों पर, उनकी सरकारों ने खुद को एक ऐसे मंच के लिए प्रतिबद्ध किया है जो पितृसत्ता की संस्कृतियों और सामाजिक कटौतियों की नीतियों का जवाब खोजने में पर खुद को लगाये हुए है, जहाँ पर समाज को एकजुट रखने का सारा बोझ महिलाओं के उपर डालने की परंपरा रही है। इसलिये, लैटिन अमेरिका में इन  क्रांतिकारी प्रक्रियाओं की गहराई में महिलाओं, देशज और अफ़्रीकी-वंशजों को संघर्ष के केंद्र में देखने की आवश्यकता है।

इस बात से कोई इंकार नहीं कर सकता कि सरकारों ने सैकड़ों गलतियाँ की हैं, निर्णय लेने में ऐसी गलतियाँ जिसने पित्रसत्तात्मकता और नस्लवाद के खिलाफ लड़ाई को पीछे धकेल दिया। लेकिन वे ऐसी गलतियाँ हैं जिसे सुधारा जा सकता है और ये किसी प्रकार से क्रांतिकारी प्रक्रिया के संरचनात्मक विशेषताओं से छेड़छाड़ नहीं करतीं। यह वह चीज थी जिसे इन देशों की देशज और एफ्रो-वंशज महिलाओं ने गहराई से स्वीकार किया है। इस स्वीकारोक्ति को आप इस या उस लेखों में नहीं पायेंगे जो उन्होंने लिख डाली है, बल्कि इसे सड़कों उए गलियों में उनके सक्रिय और उत्साहजनक उपस्थिति में महसूस किया जा सकता है।

वेनेजुएला में बोलिवैरियाई प्रक्रिया के एक हिस्से के रूप में पूंजीवाद के खर्चों में कटौती के चलते उजाड़ दिए गए सामाजिक ढांचों के पुनर्निर्माण की प्रक्रिया में महिलाओं की आवश्यक भूमिका देखी गई। उनका काम जनता की ताकत को बढ़ाने और सहभागिता आधारित लोकतंत्र के निर्माण में केन्द्रीय भूमिका के रूप में रहा। कुल 3,186 कम्यून में से 64% प्रवक्ताओं की संख्या महिलाओं से आती है। और इसी प्रकार 48,160 सामुदायिक काउंसिलों में से अधिकतर नेता और स्थानीय वितरण और उत्पादन समितियों में 65% महिलाएं मौजूद हैं। ये महिलाएं न सिर्फ कामकाज की जगहों पर समानता की माँग कर रही हैं, बल्कि सामाजिक क्षेत्र के दायरे में भी समानता की माँग कर रही हैं, जहाँ पर कोमुनस बोलिवैरियाई समाजवाद के परमाणुओं के रूप में उपस्थित हैं। सामाजिक क्षेत्र में महिलाएं ने स्व-शासन की संभावनाओं की लड़ाई लड़ी है, दोहरे-शक्ति के निर्माण और इस प्रकार धीरे धीरे उदार राज्य के स्वरूप को उखाड़ फेंकने में जुटी हुई हैं। भूखे रखने वाले पूंजीवाद के खिलाफ, महिलाओं ने अपनी रचनात्मकता, अपनी ताकत और अपनी एकजुटता को न केवल नवउदारवादी नीतियों के खिलाफ, बल्कि समाजवादी प्रयोग और हाइब्रिड वार के खिलाफ भी जगजाहिर किया है।

लोकतंत्र और समाजवाद 

सोवियत रूस के पराभव के बाद से वाम बुद्धिजीवी तरंगें बुरी तरह से चोटिल हुई हैं। मार्क्सवाद और द्वंद्वात्मक भौतिकवाद ने अपनी विश्वसनीयता में हुए ह्रास को न सिर्फ पश्चिमी देशों में बल्कि दुनिया के बड़े हिस्से में झेला है। फलस्वरूप, बौद्धिक और अकादमिक जगत में उभर कर आईं उत्तर-औपनिवेशिकवाद और सबआलटर्न अध्ययनों ने, जो उत्तर-संरचनावाद और उत्तर-आधुनिकतावाद के विभिन्न रूप हैं। इस हिस्से के विद्वानों की मुख्य संकल्पना इस रूप में उभर कर सामने आई  कि सामाजिक बदलाव के हथियार के रूप में ‘राज्य’ की भूमिका अब खत्म हो चुकी है, और इसकी मुक्ति अब ‘सिविल सोसाइटी’ के जरिये ही संभव है। उत्तर-मार्क्सवाद और अराजक सिद्धांत के संयुक्त तर्कों पर चलकर इसने राज्य सत्ता द्वारा समाजवाद के किसी भी प्रयोगों की खिल्ली उड़ाने का काम किया। लेकिन यदि जनता राज्य पर विजय प्राप्त करने की लड़ाई को ही छोड़ देगी तो बिना किसी मुकाबले के राज्य, कुलीनतंत्र की सेवा करने और गैर-बराबरी और भेदभाव को बढाने का औजार ही साबित होगी।  

राजनीतिक आंदोलनों पर 'सामाजिक आंदोलनों' की श्रेष्ठता को साबित करने का विचार, राष्ट्रीय मुक्ति के बहादुराना दौर के साथ हुए मोहभंग को दर्शाता है, जिसमें देशज लोगों की मुक्ति के आन्दोलन भी शामिल हैं। यह लोगों के राजनैतिक आंदोलनों के सन्दर्भ में जनता के संगठनों के वास्तविक इतिहास को भी नकारने का काम करता है, जिसने एक समय राज्य सत्ता पर विजय हासिल करने का काम किया था। 1977 में देशज संगठनों के लगातार जारी आंदोलनों के ज़रिये संयुक्त राष्ट्र को इसे लेकर एक प्रोजेक्ट आरंभ करने के लिए विवश होना पड़ा जिससे समूचे अमेरिकी जगत में देशज जनसंख्या पर होने वाले भेदभाव को खत्म किया जा सके।

ला पाज़ में आधारित दक्षिणी अमेरिकी इंडियन काउंसिल एक ऐसा ही संगठन था जिसने वर्ल्ड पीस काउंसिल, विमेंस इंटरनेशनल लीग फॉर पीस एंड फ्रीडम, के साथ ही तमाम राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलनों जैसे कि (अफ्रीकन नेशनल कांग्रेस, दी साउथ-वेस्ट अफ्रीका पीपल्स आर्गेनाइजेशन और फिलिस्तीनी मुक्ति संगठन) के साथ घनिष्ठ रूप से कार्य किया। इस एकता और संघर्ष का ही परिणाम था जिसके चलते संयुक्त राष्ट्र ने देशज जनसंख्या के लिए 1981 में वर्किंग ग्रुप का निर्माण किया। इन्हीं प्रयासों के चलते यूएन ने 1993 वर्ष को देशज लोगों का अंतर्राष्ट्रीय वर्ष घोषित किया। 2007 में एवो मोरालेस ने यूएन के समक्ष देशज लोगों के अधिकारों की घोषणा करने के आन्दोलन का नेतृत्व किया। यह जन आंदोलनों और भाईचारे वाले राज्यों के बीच एकता और संघर्ष के महत्त्व का एक बेहद स्पष्ट उदहारण था। यदि दोनों 1977 से 2007 के जन-आंदोलनों के दौरान बिरादराना राज्यों द्वारा सहयोग और बढ़ावा नहीं मिलता, यदि 2007 में बोलीविया सरकार नहीं होती  तो यह घोषणा-जिसमें इस संघर्ष को आगे ले जाने का विशेष महत्व है, शायद ही पारित हो पाता।

अमेरिकाओं के देशज विद्वानों ने इस आन्दोलन से उपजी राजनीति की इस जटिलता को समझा कि देशज लोगों के लिए आत्मनिर्णय का अधिकार समाज और राज्य को बुर्जुआ और औपनिवेशिक सत्ता के बरक्श समाजवाद में रूपांतरण के औजारों को ढूंढने की जद्दोजहद का कितना महत्त्व है। जिसे कोमुना के रूप में पेरू के जोसे कार्लोस मारियातेगुई और इक्वेडोर के नेला मार्टिनेज़ ने लगभग एक शताब्दी पहले पहचान लिया था।

बोलीविया और वेनेजुएला की क्रांतियों ने न सिर्फ पुरुष और महिला और देशज समुदायों और गैर-देसज समुदायों के बीच के सम्बन्धों को ही राजनैतिक रूप से तीक्ष्ण बनाने का काम किया, बल्कि उसने लोकतंत्र और समाजवाद की समझ तक को चुनौती देने का काम किया है। इन क्रांतिकारी प्रक्रियाओं को न सिर्फ उदार लोकतंत्र की सीमाओं के अंदर काम करना था वरन उसी दौरान उनके पास कोमुनस और दूसरे प्रारूपों के जरिये नए संस्थानाताम्क प्रारूपों को तैयार करने की भी चुनौती मौजूद थी।

यह चुनावों में जीत हासिल करने और राज्य संस्थानों का अधिकार अपने हाथ में लेने के कारण ही संभव हो पाया कि बोलिवेरियन क्रांति ने संसाधनों पर सामाजिक खर्च (स्वास्थ्य, शिक्षा, आवास) को बढ़ाने का काम किया और वह पितृसत्ता और नस्लवाद पर सीधा हमला करने में सक्षम हो पाई। वाम के हाथों में राज्य सत्ता के होने को इन नए संस्थागत ढांचों के निर्माण में लगाया गया, जो राज्य से अतिरिक्त और उसके परे तक जाती है। उदार लोकतान्त्रिक संस्थाओं और समाजवादी नारीवादी संस्थाओं के अस्तित्व में आने से काल्पनिक ‘उदार बराबरी’ के पूर्वाग्रहों की हवा निकालने में मदद मिली। लोकतंत्र को अब तक यहाँ तक लाकर खड़ा कर दिया गया था कि जिसमें एक नागरिक इस बात पर विश्वास करने में सक्षम हो सके कि चाहे उनकी सामाजिक-आर्थिक, राजनैतिक और सांस्कृतिक हैसियत कुछ भी हो उनके वोट देने का अधिकार वही है जो अन्य नागरिकों के पास है। 

क्रांतिकारी प्रक्रिया ने इस उदार भ्रम को चुनौती देने का काम तो किया, लेकिन इसपर जीत हासिल करने में अभी भी उसे सफलता हासिल नहीं मिल सकी थी, जिसे दोनों बोलीविया और वेनेजुएला के देशों के संदर्भ में देखा जा सकता है। यह समाजवादी लोकतंत्र के इर्द-गिर्द एक नई सांस्कृतिक सहमति बनाने का संघर्ष है, एक ऐसा लोकतंत्र जिसकी जडें मात्र ‘एक समान वोट’ में नहीं, बल्कि एक नए समाज के निर्माण के ठोस अनुभव में निहित है।

किताबी गतिविज्ञान के हिसाब से एक वामपंथी सरकार होने का अर्थ है कि यह लोगों के कई सामाजिक और राजनीतिक आंदोलनों के मुद्दे को उठाती है। और ठीक उसी समय, इन आंदोलनों से निकलकर कई कर्मियों के साथ-साथ ढेर सारे गैर-सरकारी संगठनों के लोग भी सरकार में शामिल होते हैं। वे अपने साथ आधुनिक सरकार के जटिल संस्थानों के अंदर ढेर सारे कौशलों को वहन करने लायक बनाने में मदद करते हैं। इससे एक किस्म का विरोधाभासी प्रभाव भी पड़ता है: एक तरफ यह लोगों की आकाँक्षाओं को पूरा करता है, वहीँ इसके साथ ही इसके अंदर विभिन्न प्रकार के स्वतंत्र संगठनों को कमजोर करने की प्रवृत्ति भी छुपी होती है। ये घटनाक्रम सत्ता में वाम सरकार होने की प्रक्रिया का हिस्सा हैं, चाहे वह एशिया में हो या दक्षिण अमेरिका में हो। वे लोग जो खुद को प्रासंगिक बनाये रखने के लिए सरकार के संघर्ष से स्वतंत्र रहना चाहते हैं; वे अक्सर सरकार के कटु आलोचक बन जाते हैं, और उनकी आलोचनाओं को अक्सर साम्राज्यवादी ताकतें अपना हथियार बनाकर अंत की ओर ले जाती हैं, जो इस प्रकार की आलोचना करने वालों के लिए भी बिलकुल अपरिचित होती हैं।

उदारवादी मिथक जनता के वास्तविक हितों और आकांक्षाओं पर पर्दा डालने के उद्येश्य से आम लोगों की बोली बोलता है, खासकर महिलाओं, देशज समुदायों और एफ्रो-वंशजों की और से। बोलीविया और वेनेजुएला के अनुभवों के भीतर मौजूद वाम ने जनता के विवादास्पद वर्ग संघर्षों में सामूहिक महारत हासिल करने की कोशिश की है। यह एक ऐसी स्थिति है जो ‘राज्य’ के दमनकारी रूप में ही पहचानता है और उसके विचार को ही ख़ारिज करता है। लेकिन यह नहीं देख पाता कि बोलीविया और वेनेजुएला में राज्य के उपभोग के जरिये ही वह एक नई राजनैतिक संश्लेषण के माध्यम से दोहरी सत्ता के सस्थान बनाने की जद्दोजहद में है, जिसके नेतृत्व में महिलाएं सबसे आगे खड़ी हैं।

बिना किसी क्रांतिकारी अनुभव के क्रांतिकारी सलाह देना

क्रांतियों का उद्भव कोई हंसी खेल नहीं है। वे पीछे हटने और गलतियों से भरी पड़ी हैं, क्योंकि इन्हें वे लोग निर्मित करते हैं जो अधूरे हैं और जिनके राजनैतिक दलों को सीखने के लिए सीखने की जरुरत पड़ती ही है। उनके अनुभव ही उनके शिक्षक का काम करते हैं। उनके बीच से ही वे लोग निकलते हैं जिनके पास शिक्षित करने और उनके अनुभवों को शिक्षाओं में तब्दील कर बताने का समय निकालना पड़ता है। कोई भी क्रांति खुद के ढाँचे में अपने में सुधार लाने और अपने अंदर उठने वाली विरोधी स्वरों को समायोजित किये बिना खड़ी नहीं हो सकती है। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि किसी भी क्रांतिकारी प्रक्रिया को आलोचनाओं के प्रति बहरा हो जाना चाहिए। इसे उसका स्वागत करना चाहिए।

आलोचना का हमेशा स्वागत है, लेकिन आलोचना को किस क्रम में आना चाहिए? इसे दो तरह की विशिष्ट ‘लेफ़्ट’ आलोचना के रूप में समझा जा सकता है, जो पवित्रता के नाम पर क्रांतियों का मज़ाक़ उड़ाती है।

  1. यदि आलोचना पूर्णता के दृष्टिकोण से आती है, तो उनका मानक न केवल बहुत उच्च स्तर पर निर्धारित किया गया है, बल्कि यह वर्ग संघर्ष की प्रकृति को समझने में विफल है जिसे पीढ़ी दर पीढ़ी विरासत में जमा की गई शक्ति के साथ संघर्ष में जाना पड़ता है।

  2. यदि आलोचना से यह समझा जाता है कि चुनावी दायरे में लड़े जाने वाले सभी प्रोजेक्ट्स क्रांति के साथ धोखा देंगे, तब बहु आयामी चुनावी अभियानों और दोहरे शक्ति परीक्षणों के प्रयोग को समझने की गुंजाईश न के बराबर होने जा रही है। क्रांतिकारी शिथिलता से कार्यवाही करने की संभावनाओं में रुकावट आती है। आप तब तक सफल नहीं हो सकते, जब तक आप खुद को असफल होने नहीं देते, और दोबारा कोशिश नहीं करते। समालोचना का यह दृष्टिकोण सिर्फ निराशा को बढ़ावा देता है।

क्रांतिकारी प्रक्रिया के भीतर चलने वाले ‘ज़िद्दी वर्ग संघर्ष’ में चाहिए कि यह किसी ऐसे व्यक्ति को जो ख़ुद इस क्रांतिकारी प्रक्रिया का हिस्सा नहीं है उसे अपने साथ बनाए रखे। वह सरकार की इस या उस नीति के प्रति सहानुभूतिपूर्ण तरीक़े से विचार न कर इसकी कठिनाई और इसकी आवश्यकता को समझे- या कहें कि इस पर ख़ुद की प्रक्रिया को समझे।

रौक्सैन डनबर-ओर्टिज़ के बारे में 

रोक्सेन डनबर-ओर्तीज़ एक लम्बे-समय तक कार्यकर्त्ता, यूनिवर्सिटी प्रोफ़ेसर और वकील के रूप में कार्यरत रही हैं। कई विद्वतापूर्ण पुस्तकों और लेखों के अलावा, उन्होंने तीन ऐतिहासिक संस्मरण, रेड डर्ट: ग्रोइंग अप ओकी (वर्सो, 1997), आउटलॉ वुमन: मेमॉयर ऑफ़ द वॉर इयर्स, 1960-1975 (सिटी लाइट्स, 2002), और ब्लड ऑन द बॉर्डर: मेमॉयर ऑफ़ कॉन्ट्रा वॉर (साउथ एंड प्रेस, 2005) सान्दिनिस्ता के ख़िलाफ़ 1980 के दशक के युद्ध के बारे में; और हाल ही में एन इंडिजेनस पीपल्स हिस्ट्री ऑफ़ द यूनाइटेड स्टेट्स की लेखिका हैं।

एना माल्डोनाडो 

एना माल्डोनाडो, फ्रांटे फ्रांसिस्को डी मिरांडा (वेनेज़ुएला) से हैं

पिलर ट्रॉया फ़र्नांडीज़ के बारे में

पिलर ट्रॉया फर्नांडीज, इंस्टीट्यूट फॉर सोशल रिसर्च: ट्रिकॉन्टिनेंटल में कार्यरत हैं।

विजय प्रसाद के बारे में 

विजय प्रसाद एक भारतीय इतिहासकार, सम्पादक और पत्रकार हैं। वे फ़ेलो लेखक होने के साथ-साथ  Globetrotter के मुख्य संवाददाता हैं, जो स्वतंत्र मीडिया संस्थान का एक प्रोजेक्ट है। वे  LeftWord Books के प्रधान सम्पादक हैं और ट्राईकॉन्टिनेंटल: इंस्टीट्यूट फॉर सोशल रिसर्च के निदेशक हैं। उन्होंने 20 से अधिक किताबें लिखीं हैं, जिसमें दी डार्कर नेशनस: अ पीपल्स हिस्ट्री ऑफ़ दी थर्ड वर्ल्ड(दी न्यू प्रेस, 2007), दी पुअरर नेशंस: अ पॉसिबल हिस्ट्री ऑफ़ दी ग्लोबल साउथ(वर्सो, 2013), दी डेथ ऑफ़ थे नेशन एंड दी फ्यूचर ऑफ़ दी अरब रिवोल्यूशन (यूनिवर्सिटी ऑफ़ कैलिफोर्निया प्रेस, 2016) और रेड स्टार ओवर दी थर्ड वर्ल्ड (लेफ्टवर्ड, 2017) हैं। आप फ्रंटलाइन, दी हिन्दू, न्यूज़क्लिक, आल्टरनेट और बीरगन के लिए नियमित तौर पर लेखन का काम करते हैं।

अंग्रेजी में लिखा मूल आलेख आप नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं।

A Letter to Intellectuals Who Deride Revolutions in the Name of Purity

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