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मालवा के किसान और खेतिहर मज़दूर कई संघर्षों से जूझ रहे हैं

प्रधानमंत्री की घोषणा के बाद चारों ओर मनाई जा रही ख़ुशी और जश्न किसानों के हालात में सुधार नहीं कर सकते हैं और न ही उनकी तकलीफ़ों को कम कर सकते हैं।
cotton farmers
छवि:तृप्ता नारंग  

गुरु नानक जयंती के अवसर पर, प्रधानमंत्री मोदी ने आम लोगों के जीवन और आजीविका को प्रभावित करने वाले तीन कृषि कानूनों को रद्द करने के लिए खुद की सरकार के निर्णय की घोषणा की – ये कानून विशेष रूप से बहुत छोटे और सीमांत किसानों और आम लोगों यानी कृषि उपज के उपभोक्ताओं को काफी प्रभावित करने की क्षमता रखते थे। किसान, कड़ाके की सर्दी, भीषण गर्मी, और भारी बारिश के साथ-साथ देश में कहर बरपाने वाली कोविड-19 की घातक दूसरी लहर का सामना करते हुए, एक साल से दिल्ली की सीमाओं पर विरोध जारी रखे हुए थे, जिसकी वजह से आज उनकी बड़ी जीत हुई है। यह उनके जुझारूपन और लगन की जीत है।

सरकार की घोषणा के बाद खुशी और जश्न का माहौल हालांकि उनके हालात को बदल नहीं सकता है और न ही उन्हे उनकी तकलीफ़ों से उबरने में मदद ही कर सकता है।

देश के बाकी हिस्सों की तरह पंजाब भी देश में कृषि संकट से अछूता नहीं रहा है। कृषि अर्थशास्त्री और पंजाबी विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर डॉ ज्ञान सिंह बताते हैं कि कृषि संकट का मतलब किसानों और खेतिहर मजदूरों के सामने आने वाले संकट, मिट्टी की सेहत, तेजी से घटते जल स्तर, बढ़ते प्रदूषण और बदलती जलवायु के प्रभाव से उत्पन्न होने वाली चुनौतियों हैं – फिर चाहे वह अनिश्चित वर्षा हो या सूखा।

सतलुज, ब्यास और रावी नदियों के इर्द-गिर्द बसे जिलों के आधार पर पंजाब को तीन क्षेत्रों - मालवा, मांझा और दोआबा में बांटा गया है। न्यूज़क्लिक ने मालवा क्षेत्र का दौरा किया जो राज्य का सबसे बड़ा भौगोलिक क्षेत्र है, जिसमें 11 जिले शामिल हैं। यह क्षेत्र राजनीतिक रूप से भी महत्वपूर्ण है क्योंकि इसमें राज्य की कुल 117 में से 69 विधानसभा सीटें आती हैं और यह दो पूर्व मुख्यमंत्रियों प्रकाश सिंह बादल और अमरिंदर सिंह का घर रहा है।

डेरा सच्चा सौदा ("धार्मिक पंथ" और "गैर-लाभकारी सामाजिक कल्याण डेरा" के रूप में वर्णित एक गैर-सरकारी संगठन) का भी इस क्षेत्र में एक मजबूत आधार है। ये डेरे हाल ही में भटिंडा के सलाबतपुरा में आयोजित किए गए थे, जो चुनावों के दौरान मतदाताओं को प्रभावित करने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं और इसलिए, इन्हे राजनीतिक दलों से समर्थन और 'आश्रय' प्राप्त है। इस क्षेत्र को पंजाब की कपास पट्टी के रूप में भी जाना जाता है। दुर्भाग्य से इसे राज्य का 'कैंसर बेल्ट' भी कहा जाता है।

मजबूत राजनीतिक, सामाजिक-धार्मिक दबदबे के बावजूद, यह क्षेत्र सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़ा हुआ है, उस पर किसानों की आत्महत्याओं, नशीली दवाओं के दुरुपयोग और कैंसर की बढ़ती घटनाओं से जूझ रहा है, जो बीमारी आमतौर पर कीटनाशकों के अत्यधिक इस्तेमाल और पानी के दूषित होने के कारण पैदा होती हैं।

जलस्तर कम होने के कारण यहां के किसान लगभग 16 वर्षों से बीटी कपास की खेती कर रहे हैं। इस वर्ष कपास किसानों, विशेष रूप से भटिंडा जिले के किसानों को पिंक बॉलवर्म (कपास की खेती में लगाने वाले कीड़े की बीमारी) के हमले का सामना करना पड़ा, जिससे फसल को काफी  नुकसान पहुंचा है।

छवि: तृप्ता नारंग

तुंगवाली गांव के जकसीर सिंह पिछले 15-16 साल से ठेके पर (भूमि किराए पर लेकर) खेती कर रहे हैं। जबकि पहले उन्हें 1 एकड़ जमीन से करीब 30-40 टन फसल मिल रही थी, इस साल का उत्पादन लगभग 52,000 रुपये के निवेश के बाद भी 7-8 टन तक गिर गया है और नतीजतन कमाई भी काफी कम हो गई है। उन्होंने अन्य किसानों के साथ मिलकर सरकार से 60 हजार रुपये मुआवजे की मांग की है।

उसी गाँव के एक अन्य किसान, संदीप सिंह ने न्यूज़क्लिक को बताया कि सरकार ने तीन स्तरों पर मुआवजा देने का फैसला किया है: 100 प्रतिशत नुकसान वाली फसल को 14,000 रुपये, 60 प्रतिशत वाली फसल के नुकसान के लिए 12,000 रुपये, और 40 प्रतिशत नुकसान वाली फसल को 10,000 रुपये। यह पर्याप्त नहीं है क्योंकि किसानों के मुताबिक लागत बढ़ गई है और प्रति एकड़ का खर्च की लागत करीब 15,000 रुपये है। संदीप सिंह का मानना है कि इन चुनौतियों के मद्देनजर आने वाले विधानसभा चुनावों में 80 प्रतिशत कपास किसानों के मतदान में हिस्सा लेने की संभावना नहीं है।

कृषि संकट और उसके प्रभाव एक समान नहीं हैं। वे अलग-अलग किसानों को अलग तरह से प्रभावित करते हैं और सबसे खराब स्थिति छोटे किसान हैं। इसी तरह कर्ज़ का बोझ किसानों को अलग तरह से प्रभावित करता है। हालांकि कुल मिलाकर सीमांत किसानों या खेतिहर मजदूरों के कर्ज़ कम हैं, लेकिन चुकाने की उनकी क्षमता लगभग न के बराबर है। कुछ किसान या मजदूर तो खुद के दैनिक भोजन के लिए भी उधार पर निर्भर हैं। भूमिहीन मजदूर एक किस्म से बंधुआ मजदूरों की तरह ही हैं, भले ही यह प्रथा अवैध है। उनके पास साइकिल, मशीन, स्कूटर, मेज या कुर्सी जैसी कुछ टिकाऊ वस्तुएं हो सकती हैं, जो उन्हें अमीर किसानों ने उनके सस्ते श्रम के बदले में दी हैं। लेकिन वे गरीब और अक्सर अनपढ़ रहते हैं - जिससे वे हर तरह के शोषण और दुर्व्यवहार के शिकार बन जाते हैं।

पंजाबी विश्वविद्यालय में मनोविज्ञान विभाग की प्रमुख डॉ हरप्रीत कौर का मानना है कि कर्ज़  उन कई कारकों में से एक है जो किसानों को आत्महत्या की ओर धकेल रहा है। अन्य कारकों में अवसाद, ड्रग्स, अपमान, परिवार या ग्रामीणों के साथ विवाद आदि (या किसी की मृत्यु के कारण अंतहीन दुःख का होना) शामिल हैं।

जबकि, डॉ ज्ञान सिंह का मानना है कि कर्ज़ न चुकाने और उसकी वजह से होने वाला अपमान  किसानों को आत्महत्या की ओर धकेलने वाले प्रमुख कारणों में से हैं।

गरीब, जोकि अनिवार्य रूप से खेतिहर मजदूर है - गैर-संस्थागत कर्ज़ में दुबे रहते हैं, वे अक्सर पड़ोस की किराने की दुकानों, अनौपचारिक साहूकारों और बड़े जमींदारों के कर्ज़ में दुबे रहते हैं। उन्हे ये कर्ज़ बड़ी ब्याज दरों पर दिए जाते हैं। इस बीच, माइक्रो-फाइनेंसिंग फर्मों के संस्थागत ऋणों की ब्याज दरें भी अधिक होती हैं और उनकी वसूली के तरीके काफी निर्दयी होते हैं। ऐसे तबकों को अक्सर कर्ज़ नहीं मिलता है। सरकारें अपने वादे पूरा नहीं करती हैं और अक्सर  गरीब किसानों और खेत मजदूरों को निराश करती हैं। 2017 में, एक लाख करोड़ से अधिक के सभी ऋण (संस्थागत और गैर-संस्थागत) को माफ करने का वादा करने के बाद, सरकार ने केवल 4,624 करोड़ रुपये का कर्ज़ ही माफ किया था।

खेतिहर मजदूर आमतौर पर अनुसूचित जाति समुदायों से होते हैं और गांवों में उन्हें रामदसिया और वाल्मीकि सिख कहा जाता है। दूसरी ओर, अधिकांश किसान जाट समुदाय से हैं। स्थायी जाति व्यवस्था, भूमिहीनता, और बढ़ते मशीनीकरण के कारण श्रम की मांग कम होती जाती है और गरीबी बढ़ती है और साथ ही भेदभाव भी बढ़ता है – जो आहिस्ता-आहिस्ता कृषि श्रम को हाशिए पर ले जा रहा है। महिलाओं और बच्चों को मजदूरी में भेदभाव को भी झेलना पड़ता है।

लगता है कि पिछले कुछ वर्षों में, कृषि श्रमिकों की राजनीतिक भागीदारी बढ़ी है। आरक्षण की वजह से कहीं-कहीं वे ग्राम प्रधान भी बने हैं। फिर भी, निर्वाचित महिला प्रतिनिधियों की तरह, वे हमेशा निर्णय लेने के स्थिति में नहीं होते हैं। उन्हें अक्सर धार्मिक और राजनीतिक नेताओं और अमीर जमींदारों जैसे प्रभावशाली लोगों के अनुसार काम करना पड़ता है।

पंजाब में पंचायत की एक तिहाई जमीन को नीलामी के जरिए अनुसूचित जाति को किराए पर दिया जाता है। हालांकि, अमीर और प्रभावशाली लोग इस जमीन को फर्जी नीलामियों के माध्यम से या मजदूरों को दिए गए कर्ज़ों की अदायगी के एवज़ में हथियाने की सफल कोशिश करते हैं।  जमीन प्राप्ति संघर्ष समिति कब्जा की गई जमीन को वापस लेने की कोशिश कर रही है और संगरूर जिले के बलद कलां गांव में 550 बीघे और उसी जिले के झेंरी गांव में 198 बीघे ज़मीन को वापस लेने में सफल रही है।

मालवा क्षेत्र का किसान कई मोर्चों पर लड़ रहा है। वह तकनीकी प्रगति, आजीविका के मुद्दों, कर्ज़ और वित्तीय बहिष्कार के कारण पनपी गरीबी, भूमिहीनता से तो लड़ रहा है साथ ही जाति भेद, निरक्षरता और कैंसर जैसी बीमारियां भी उन्हे सता रही हैं क्योंकि साफ पानी तक उनकी पहुंच नहीं है और जलवायु परिवर्तन की मार भी उन पर पड़ रही है। ये बहुत ही जटिल मुद्दे हैं और इनके व्यापक समाधान की जरूरत है जिन्हें सिर्फ कृषि कानूनों को रद्द करने से हासिल नहीं किया जा सकता है।

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें।

Malwa Farmers and Farm Labourers Continue to Fight Multiple Battles

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