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मंदी से निपटने में राज्यों की क्या भूमिका है?

जीएसटी आने के बाद राज्यों के पास टैक्स लगाकर राजस्व इकट्ठा करने के बहुत कम क्षेत्र रह गए हैं और जब राज्यों को आमदनी नहीं होगी तो मंदी से लड़ाई कैसे होगी।
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भारत की अर्थव्यवस्था इस समय मंदी की चपेट में है। केंद्र सरकार के कदमों पर तो बहुत बातचीत हुई लेकिन राज्यों को लेकर अमूमन कम ही चर्चा होती है। राज्य सरकार की आमदनी और खर्चों को समझने के बाद ही यह बात समझ में आएगी कि क्या राज्यों की आमदनी इतनी है कि वह मंदी से उबर पाएं।  

अभी हाल की दो घटनाओं की तरफ ध्यान देते हैं। उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश समेत दूसरे कुछ राज्यों ने बिजली की दर को महंगा किया है। इन राज्यों को नेशनल थर्मल पावर कॉरपोरेशन ने उधार बिजली देने से मना कर दिया है। जबकि मंदी के दौर में बिजली के दर बढ़ने से न उत्पादन बढ़ता है और न ही खपत बढ़ती है।

दूसरा वाकया वित्त राज्य मंत्री अनुराग ठाकुर के बयान से जुड़ा है। उन्होंने कहा कि मंदी से लड़ने के लिए राज्यों को टैक्स कम करना होगा। जबकि असलियत यह है कि जीएसटी आने के बाद राज्यों के पास टैक्स लगाकर राजस्व इकट्ठा करने के बहुत कम क्षेत्र रह गए हैं और जब राज्यों को आमदनी नहीं होगी तो मंदी से लड़ाई कैसे होगी?

गौरतलब है कि अर्थशास्त्र का सामान्य सिद्धांत है कि जब मंदी का दौर चल रहा हो तो सरकारों को खूब खर्च करके मांग में इजाफा करना चाहिए।  लेकिन क्या राज्य इस स्थिति में हैं? आंकड़ों की तरफ चलते हैं।

स्टेट बजट डॉक्यूमेंट के तहत साल 2018-19 के वित्त वर्ष में उम्मीद थी कि राज्य केंद्र से तकरीबन 72 फीसदी अधिक खर्च करेंगे। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। कर उगाही के तौर पर वस्तु और सेवा कर यानी जीएसटी लागू होने की वजह से कर उगाही की अधिक शक्तियां केंद्र के हाथों में चली गयी और राज्यों को अपने राजस्व में नुकसान सहना पड़ा।

राज्यों द्वारा सातवां वेतन आयोग लागू किया गया। इस वजह से सरकारी कर्मचारियों की आय बढ़ी। इस वजह से राज्यों का राजस्व खर्चा साल 2017-18 में तकरीबन 25 फीसदी बढ़ा। यानी राजस्व आय तो कम ही रही लेकिन खर्च बढ़ाने का जुगाड़ पहले से कर लिया गया है।  

राज्यों को दो तरह से राजस्व मिलता है। पहला वह खुद राज्य कर और शुल्क आदि लगाकर राजस्व हासिल करते हैं और दूसरा वह केंद्र से आर्थिक मदद लेते हैं। साल 2018 -19 में राज्यों  को कुल राजस्व का तकरीबन 52 फीसदी खुद से उगाही कर लेने की उम्मीद थी और 48 फीसदी केंद्र से मिलने की उम्मीद थी।  लेकिन जीएसटी लागू होने की वजह से राज्य के खुद के तकरीबन 17 फीसदी राजस्व केंद्र के हाथों में चल गए। यानी शेष बचे 35 फीसदी पर ही राज्यों को खर्च करने की अधिकारिता बची रही।

राज्यों को अगर राजस्व की कमी होती है तो जीएसटी कानून के तहत केंद्र की तरफ से क्षतिपूर्ति करने का प्रावधान है। लेकिन केंद्र की राजस्व प्राप्ति भी कम हुई है, इसलिए केंद्र भी राजस्व की भरपाई करने की स्थिति में नहीं है।  

इनमें भी ऐसा नहीं होता कि सभी राज्य अपनी जरूरत के हिसाब से सारा पैसा खुद यानी राज्य से उगाह ले। अधिकांश राज्यों को केंद्र की मदद की अधिक जरूरत होती है। साल 2018-19 में  26 राज्यों में से जो कुल आबादी के तकरीबन 99 फीसदी का प्रतिनिधित्व करते हैं, उसमे से 15 राज्यों को अपने खर्चे के लिए 50 फीसदी से अधिक राशि केंद्र सरकार से लेनी पड़ी।

कहने का मतलब है कि राजस्व उगाही के मामलें में जैसी स्थिति दिल्ली, केरल, गुजरात, पंजाब, महाराष्ट्र, हिमाचल प्रदेश की है, वैसे दूसरे राज्यों की नहीं है। दूसरे राज्यों को अपने राज्य से जरूरत के हिसाब से उगाही नहीं हो पाती है। अभी पेट्रोलियम पदार्थों पर जीएसटी नहीं लगायी जाती है। पेट्रोलियम पदार्थो पर केंद्र सरकार की तरफ से उत्पादन शुल्क और राज्य सरकार की तरफ से वैल्यू एडेड टैक्स लगाया जाता है। जीएसटी काउंसिल जब इसे भी जीएसटी में शामिल कर लेगी तो राज्यों को बहुत अधिक नुकसान सहना पड़ेगा।

इसी तरह साल 2011 से 2019 का ट्रेंड बताता है कि कुल खर्चे में से 85 फीसदी खर्चा राजस्व खर्चे से जुड़ा हुआ है। यानी राज्यों का अधिकांश खर्चा रोजाना के कामों को चलाने के लिए हुआ है।  पूंजीगत खर्चा कम हुआ है। यानी संसाधनों के निर्माण पर राज्यों ने खर्च कम किया है। जिसका फायदा लम्बी अवधि में सबको होता है और पूंजी निर्माण की शक्ति बढ़ती है। साल 2011 से 2017 तक राज्यों के राजस्व आय में 10 फीसदी की गिरावट हुई है। साल 2011 से 2017 तक के आंकड़े बताते हैं कि बहुत सारे राज्य अपने कुल बजट से निर्धारित खर्च का 9 फीसदी कम खर्च कर रहे हैं।  

वरिष्ठ आर्थिक पत्रकार अंशुमान तिवारी अपने ब्लॉग में लिखते हैं, 'खर्च के आंकड़े खंगालने पर मंदी बढ़ने की वजह हाथ लगती है। इस तिमाही में राज्यों का खर्च पिछले तीन साल के औसत से भी कम बढ़ा। हर साल एक तिमाही में राज्यों का कुल व्यय करीब 15 फीसदी बढ़ रहा था।  इसमें पूंजी या विकास खर्च मांग पैदा करता है लेकिन पांच फीसदी की ढलान वाली तिमाही में राज्यों का विकास खर्च 19 फीसदी कम हुआ। केवल चार फीसदी की बढ़त 2012 के बाद सबसे कमजोर स्थिति को बताती है।

केंद्र का विकास या पूंजी खर्च 2018-19 में जीडीपी के अनुपात में सात साल के न्यूनतम स्तर पर था मतलब यह कि जब अर्थव्यवस्था को मदद चाहिए तब केंद्र और राज्यों ने हाथ सिकोड़ लिए।  टैक्स तो बढ़े, पेट्रोल डीजल भी महंगा हुआ लेकिन मांग बढ़ाने वाला खर्च नहीं बढ़ा। राज्यों के राजस्व में बढ़ोत्तरी की दर इस तिमाही में तेजी से गिरी। राज्यों का कुल राजस्व 2012 के बाद न्यूनतम स्तर पर हैं लेकिन नौ सालों में पहली बार किसी साल की पहली तिमाही में राज्यों का राजस्व संग्रह इस कदर गिरा है। केंद्र ने जीएसटी से नुकसान की भरपाई की गारंटी न दी होती तो मुसीबत हो जाती। 18 राज्यों में केवल झारखंड और कश्मीर का राजस्व बढ़ा है।'

उन्होंने आगे लिखा है, 'केंद्र सरकार का राजस्व तो पहली तिमाही में केवल 4 फीसदी की दर से बढ़ा है,जो 2015 से 2019 के बीच इसी दौरान 25 फीसदी की दर से बढ़ता था।खर्च पर कैंची के बावजूद इन राज्यों का घाटा तीन साल के सबसे ऊंचे स्तर पर है। आंकड़ों पर करीबी नजर से पता चलता है कि 13 राज्यों के खजाने तो बेहद बुरी हालत में हैं। छत्तीसगढ़ और केरल की हालत ज्यादा ही पतली है।

18 में सात राज्य ऐसे हैं जिनके घाटे पिछले साल से ज्यादा हैं। इनमें गुजरात, आंध्र, कर्नाटक, हरियाणा, राजस्थान, उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य हैं। इनके खर्च में कमी से मंदी और गहराई है। केंद्र और राज्यों की हालत एक साथ देखने पर कुछ ऐसा होता दिख रहा है जो पिछले कई दशक में नहीं हुआ। साल की पहली तिमाही में केंद्र व राज्यों की कमाई एक फीसदी से भी कम रफ्तार से बढ़ी। जो पिछले तीन साल में 14 फीसदी की गति से बढ़ रही थी। इसलिए खर्च में रिकॉर्ड कमी हुई है।'

इस वित्त वर्ष के पहले महीने की वित्तीय स्थिति भी राज्यों की खस्ताहाली बयान करती है। पहले महीने में ही राज्यों ने 8 हजार करोड़ रुपये से अधिक का उधार ले लिया। अभी अपने कर्मचारियों का वेतन, बकाया बिल आदि का भुगतान करने के लिए राज्य ने केंद्र से निवेदन किया है। इस पर केंद्र और आरबीआई दोनों ने राज्यों को चेताया है कि वे अपने वित्तीय स्थिति पर ध्यान दें। इसका मतलब साफ है कि राज्य भी वित्तीय संकट से गुजर रहे हैं।

अर्थशास्त्री अरुण कुमार कहते हैं, 'मौजूदा स्थिति में यह साफ है कि जीडीपी के आंकड़ें सही तस्वीर प्रस्तुत नहीं कर रहे हैं। जब तक आंकड़ें सही नहीं मिलेंगे तब तक मंदी से उबरने की सरकार की स्पष्ट रणनीति नहीं बनेगी। मौजूदा समय में राजकोषीय घाटे को 3.3 फीसदी तक रखने के लिए सरकार सारे उपाय कर रही है। इसलिए रिजर्व बैंक के 1.76 लाख करोड़ रुपये का भी इस्तेमाल हुआ है। लेकिन वास्तविक स्थिति यह है कि राज्यों और पब्लिक सेक्टर यूनिटों का कुल राजकोषीय घाटा इस समय तकरीबन 9 फीसदी के आसपास है।'

अब 15वें वित्त आयोग के तहत यह होने वाला है कि राज्यों को साल 2011 के आबादी के आधार पर केंद्र की तरफ से दिए गए राशि का बंटवारा होगा। पहले यह 1971 के आबादी के पर था। यानी जिन राज्यों ने 1971 के बाद से अपनी राज्य की आबादी पर नियंत्रण किया है, उन्हें हानि होने वाली है। उन्हें कम राशि मिलने वाली है। यानी खर्च करने के लिए उनके पास कम राशि रहने वाली है।

उपरोक्त सारे तथ्यों से यह स्पष्ट है कि राज्यों के पास खर्च करने के लिए आमदनी की कमी है।  और बिना सरकार के खर्च से मंदी से निपटना बहुत मुश्किल है। इसलिए अब देखने वाली बात यह होगी कि केंद्र और राज्य अपनी वित्तीय खस्ताहाली के बावजूद मंदी से कैसे निपटते हैं?

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