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मुख्यमंत्री जी, स्कूल-कॉलेजों में ‘शौर्य दीवार’ की नहीं रीडिंग रूम की ज़रूरत है

जिस समय हमें वैज्ञानिक सोच को बढ़ावा देने के लिए पुस्तकालय और प्रयोगशालाएं तैयार करानी चाहिए, उस समय में हम अपने शैक्षिक संस्थानों में सेना के टैंक लगाने, 150 फीट ऊंचे तिरंगे फ़हराने और शौर्य दीवारें बनवाने में व्यस्त हैं।
उत्तराखंड

जिस समय में हम देश में नई शिक्षा नीति पर कार्य कर रहे हैं और अगले कई सालों के लिए बच्चों के भविष्य का खाका तैयार कर रहे हैं, हमें संदर्भ के रूप में पिथौरागढ़ महाविद्यालय के बच्चों के किताब-शिक्षक आंदोलन को साथ रख लेना चाहिए। जिस महाविद्यालय को नैक यानी नेशनल असेसमेंट एंड एक्रेडिटेशन काउंसिल की ओर से बी++ की श्रेणी दी गई है। इससे हम किसी शैक्षिक संस्थान की गुणवत्ता को परखते हैं। बी++ श्रेणी का संस्थान गुणवत्ता के आधार पर बेहतर संस्थान माना जाता है, इससे आगे की श्रेणी  और ए++ है। बी++ श्रेणी के संस्थान की लाइब्रेरी में कई वर्षों से नई किताबें नहीं आईं। बिना शिक्षक के एक पूरा विभाग चलता है। सात हज़ार छात्रों पर मात्र 120 शिक्षक हैं।

पिथौरागढ़ महाविद्यालय के छात्र-छात्राएं कहते हैं कि वे किताबें और शिक्षक लेकर रहेंगे। हमें इस पर तसल्ली भी होनी चाहिए कि ये बच्चे अपने हक़ को समझ रहे हैं और इसके लिए आवाज़ उठा रहे हैं, सड़कों पर उतर रहे हैं, वरना गर्मी-बरसात में आंदोलन करना और उसका हिस्सा बनना सबके बस की बात नहीं है।

इसी आंदोलन के चश्मे से हम अपनी सरकारों की प्राथमिकता भी परख सकते हैं। उत्तराखंड में भाजपा की त्रिवेंद्र सिंह रावत सरकार के दो वर्ष पूरे हो चुके हैं। इन दो वर्षों में उन्होंने स्कूल-कॉलेजों में किताबों और अन्य बुनियादी सुविधाओं की बातें कम कीं लेकिन स्कूल-कॉलेजों में शौर्य दीवार बनाने की चर्चा खूब की। लोकसभा चुनाव के बाद वे राज्य को सैनिक धाम बनाने की चर्चा कर रहे हैं। इन शौर्य दीवारों पर शहीदों की तस्वीरें लगी हैं। मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत राज्यभर के कई स्कूल-कॉलेज में इस तरह की शौर्य दीवार का अनावरण कर चुके हैं। उनका मानना है कि इससे युवाओं में देशभक्ति की भावना जगेगी। हालांकि इसके लिए हर छोटे-बड़े शहर में शहीद स्मारक पहले से मौजूद हैं। विश्वविद्यालयों में पुस्तकालय ही शोभा देते हैं।

कुछ ऐसा दी दिल्ली में जेएनयू के भीतर करने की कोशिश की गई थी। पिछले वर्ष कन्हैया और छात्र आंदोलन के समय कैंपस के अंदर सेना से आर्मी टैंक लगाने की मांग की थी। जेएनयू प्रशासन को लगा कि इससे छात्रों के अंदर देशभक्ति की भावना बढ़ेगी। जबकि छात्रों ने प्रशासन के इस फैसले का खुलकर विरोध किया। देशभक्ति के सबक हम सेना के टैंक से नहीं सीख सकते, बल्कि अपनी मिट्टी-पानी से जुड़ कर सीख सकते हैं।

सवाल ये है कि हम अपने स्कूल-कॉलेज, विश्वविद्यालयों को देशभक्ति की प्रयोगशाला बनाना चाहते हैं या यहां से भावी शिक्षक, डॉक्टर, इंजीनियर, वैज्ञानिक, अर्थशास्त्री, उद्यमी, राजनीतिज्ञ तैयार करना चाहते हैं। जिस समय हमें वैज्ञानिक सोच को बढ़ावा देने के लिए पुस्तकालय और प्रयोगशालाएं तैयार करानी चाहिए, उस समय में हम अपने शैक्षिक संस्थानों में सेना के टैंक लगाने, 150 फीट ऊंचे तिरंगे फ़हराने और शौर्य दीवारें बनवाने में व्यस्त हैं। पिथौरागढ़ महाविद्यालय के सात हज़ार विद्यार्थियों में से विज्ञान विषय के छात्रों ने प्रयोगशालाओं में धूल देखी है, वे फिजिक्स-कैमेस्ट्री की लैब में नहीं गए, जियोलॉजी और बॉटनी की सस्ते नोट्स से पढ़ाई की है। देशभक्ति सीखने के बाद वे नौजावन करेंगे क्या? आप उन्हें कौन सा रोजगार देंगे? बारहवीं की परीक्षा में 90 फीसदी नंबर लाने वाले बच्चों को दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ने के लिए अपनी पसंद के विषय नहीं मिलते, देश के किस कैंपस में सिर्फ देशभक्ति से दाखिला मिल जाता है?

दरअसल हम जब भी शिक्षा में राजनीति लाने की कोशिश करते हैं तो यहीं सारी गड़बड़ हो जाती है। कभी हम शैक्षिक संस्थानों में देशभक्ति का फॉर्मुला पढ़ाने लग जाते हैं। कभी अचानक संस्कृत भाषा की याद आ जाती है और इसे अनिवार्य करने चल देते हैं। कभी हम ड्रेस कोड को लेकर छात्र-छात्राओं में उथल-पुथल मचा देते हैं। कभी हम गणेश की सूंड के सहारे पौराणिक युग में सर्जरी करने लग जाते हैं। जटायू विमान उड़ाते हैं। वेद-पुराण से छूटते हैं तो बेचारी गौ-माता को पकड़ लेते हैं। हम असल मुद्दों पर बात ही नहीं करते। इसीलिए उत्तराखंड के दुर्गम क्षेत्रों में बच्चे न होने की वजह से प्राइमरी स्कूल बंद करने की नौबत आ गई तो पिछले वर्ष उसे आरएसएस की संस्था विद्याभारती को सौंपने की तैयारी होने लगी। यानी जो कार्य सरकार नहीं करा सकी, वो आरएसएस करा लेगी। हम अपने शैक्षिक संस्थानों से चाहते क्या हैं, हमारी नई शिक्षा नीति में ये स्पष्ट होना चाहिए।    

उत्तराखंड की ही बात करें तो शिक्षा सहित कई मुद्दों पर यहां जबरदस्त भटकाव की स्थिति है। इसे अलग राज्य बने 18 वर्ष से अधिक समय हो चुका है। यानी राज्य अपने युवावस्था में प्रवेश कर चुका है। जिस उम्र में उच्च शिक्षा की जरूरत होती है। उस उम्र में ये पहाड़ी राज्य भटक रहा है। उसे पता ही नहीं कि शिक्षा के क्षेत्र में उसकी जरूरतें क्या हैं। वर्ष 2009 में यहां राज्य का पहला एनआईटी (राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान) पौड़ी के श्रीनगर में खुला। खुलने के दस वर्ष बाद भी श्रीनगर में इसका स्थायी कैंपस नहीं बन सका। दिसंबर 2018 को एनआईटी श्रीनगर में पढ़ रहे 600 से अधिक छात्र-छात्रा जयपुर शिफ्ट कर दिये गए। इन छात्रों के भविष्य को लेकर भी हापोह की स्थिति बनी हुई है। ये दर्शाता है कि हम शिक्षा को कितनी गंभीरता से लेते हैं।

हमें अपनी देशभक्ति और अपनी विद्या पद्धति को अलग-अलग रखना होगा। ये तो हमने अपनी आज़ादी के दौर में ही जान लिया था कि जो काम कलम कर सकती है वो तलवार नहीं कर सकती। कलम में ताकत किताबों से आती है। इसलिए हमें अपने बच्चों के हाथों में कलम-किताबें पकड़ानी चाहिए। तलवार की जरूरत खत्म हो जाएगी। जरूरी ये है कि हम इस किताब आंदोलन को हर शहर, कस्बे, गांव में ले जाएं। हमें अपने शैक्षिक संस्थानों में शौर्य दीवारों की नहीं रीडिंग रूम की जरूरत है।

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