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शिक्षक, पुस्तक लेके रहेंगे!

उत्तराखंड के मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत राज्य के स्कूल-कॉलेजों में ‘शौर्य दीवार’ बनाने की बातें करते हैं। जबकि स्कूल-कॉलेजों में सबसे ज्यादा जरूरी किताबें और शिक्षक हैं।
किताबों और शिक्षकों की मांग को लेकर पिथौरागढ़ ज़िले के युवा आंदोलन कर रहे हैं।

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न किताब छन, न मासाब छन, की छ पै? कि चै पै? किताब और मासाब !

(न किताब है, न मास्टर साहब हैं, क्या है फिर, क्या चाहिए फिर, किताब और मास्टर साहब)

ये मौन गर टूटेगा, सैलाब बन कर फूटेगा !

उम्मीद है तभी चुप हैं...वरना....

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किताबों और शिक्षकों की मांग को लेकर पिथौरागढ़ ज़िले के युवा आंदोलन कर रहे हैं। ये उनके लिखे कुछ नारे हैं। इस आंदोलन की लहर अब देहरादून तक पहुंच गई है। देहरादून से आंदोलन को खत्म करने का दबाव पिथौरागढ़ तक पहुंचने लगा है।

 सीमांत ज़िले पिथौरागढ़ के लक्ष्मण सिंह महर राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय के छात्र-छात्राओं ने 17 जून से धरना शुरू किया। इस आंदोलन को लेकर छात्रसंघ अध्यक्ष राकेश जोशी कहते हैं कि पांच बार ज़िलाधिकारी कार्यालय के माध्यम से भी किताबों और शिक्षकों को लेकर ज्ञापन भेजा जा चुका है। एक बार नैनीताल जाकर कुलपति और उच्च शिक्षा निदेशालय से भी बात की गई थी। ये सारी कोशिश सार्थक नहीं हुईं। धरने पर बैठने से पहले अंतिम कोशिश के तौर पर उन्होंने ज़िलाधिकारी के माध्यम से कुलपति और शिक्षा मंत्रालय को पत्र भेजा। एक हफ्ते तक जवाब न आने पर आंदोलन शुरू करने का निर्णय लिया गया।

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किताबों और शिक्षकों के लिए आंदोलनरत युवाओं को देखकर मुझे निर्भया आंदोलन की भी याद आती है। जब महिलाओं पर जुल्म के खिलाफ दिल्ली के युवा हाथ में पोस्टर-बैनर लेकर सड़कों पर उतरे थे। जिन पर पानी की बौछारें और पुलिस की लाठियां दोनों पड़ी थीं। इस आंदोलन का मिज़ाज दूसरा है। बच्चे बारिश और धूप में भी किताबों की खातिर धरने पर बैठे हैं। परीक्षाओं के बीच भी धरना दे रहे हैं। उनके पोस्टर पर लिखे नारे बताते हैं कि पिथौरागढ़ जैसे पहाड़ी ज़िले के युवाओं के भविष्य से किस तरह खिलवाड़ किया जा रहा है और वे कितने रचनात्मक बच्चे हैं।

छात्र-छात्राओं के इस आंदोलन को अभिवावकों के साथ शिक्षकों का भी समर्थन हासिल है। हालांकि शिक्षक खुले तौर पर सामने नहीं आ रहे हैं। अभिवावकों ने भी पुस्तक-शिक्षक आंदोलन के समर्थन में जिले के सड़कों पर रैली निकाली। छात्र-छात्राओं ने मुंह पर काली पट्टी बांध कर रैली निकाली, ये बताते हुए कि वे चुप नहीं मौन हैं, क्योंकि उम्मीद अभी बाकी है।

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पिथौरागढ़ महाविद्याल के विद्यार्थियों की मांगें

·       किताबों की उपलब्धता सुनिश्चित करायी जाए।

·       प्राध्यापकों के रिक्त पदों को तुरंत भरा जाए और नए पदों का सृजन हो

·       शोधार्थियों को शोध सहायता दी जाए

·       सब-रजिस्ट्रार कार्यालय खोला जाए, जिसके न होने की वजह से छात्रों को डिग्री लेने या मार्क शीट में गलती होने जैसी छोटी-छोटी समस्याओं के लिए नैनीताल जाना पड़ता है।

·       कुलपति महाविद्यालय में आकर बच्चों की समस्याएं सुनें

 हम नब्बे के दशक की किताबें पढ़ रहे हैं

पिथौरागढ़ महाविद्यालय से बीएससी-एमएससी करने के बाद पीएचडी की तैयारी कर रहे छात्र शिवम पांडेय बताते हैं कि यहां की लाइब्रेरी में अब भी नब्बे के दशक की किताबें हैं। प्रयोगशालाएं धूल खा रही हैं और विज्ञान के विद्यार्थियों को शायद ही कभी इन प्रयोगशालाओं में ले जाया गया हो। किताबें न होने की सूरत में एक-दूसरे के नोट्स की फोटोकॉपी की जाती है या फिर परीक्षा में पास होने लायक गाइड का सहारा लिया जाता है। शिवम कहते हैं कि विज्ञान जैसे विषय की हमने इन्हीं नोट्स से पढ़ाई की है, फिर ऐसी डिग्री का क्या फायदा।

आंदोलन को लेकर छात्र-छात्राओं के तैयार किये गये नोट में एम.ए. इतिहास के छात्र किशोर जोशी ने लिखा है कि हम अब भी 90 के दशक की किताबें पढ़ रहे हैं, उन किताबों में सोवियत रूस अभी भी महाशक्ति है और शीत युद्ध चरम पर है, ऐसे में हमसे कैसे उम्मीद की जा सकती है कि तेज़ी से बदल रहे वैश्वीकरण के इस दौर में हम अच्छे शिक्षण संस्थाओं से मुकाबला करें।

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इस महाविद्यालय में करीब सात हज़ार छात्र-छात्राएं पढ़ते हैं। सीमांत क्षेत्र का सबसे बड़ा महाविद्यालय होने की वजह से यहां पड़ोसी ज़िले अल्मोड़ा और चंपावत से भी बड़ी संख्या में युवा पढ़ाई करने के लिए आते हैं। नेपाली छात्र-छात्राएं भी यहां अच्छी संख्या में हैं। इस सबके बावजूद यहां मूलभूत सुविधाओं का अभाव है। सात हज़ार विद्यार्थियों पर 120 प्राध्यापकों के पद ही सृजित हैं, जिनमें से लगभग तीन दर्जन पद रिक्त पड़े हैं। गेस्ट टीचर्स का सहारा लिया जाता है। शिवम बताते हैं कि होम साइंस डिपार्टमेंट में तो कोई शिक्षक ही नहीं है।

पिथौरागढ़ के युवाओं की कोशिश के चलते इस आंदोलन की ख़बरें ज़िले की सीमाओं को पारकर दिल्ली-देहरादून तक पहुंचीं। सोशल मीडिया पर इन छात्रों की पोस्ट वायरल हुई। अब तक छात्रों की सुध न ले रहे प्रिंसिपल डॉ. डीएस पांगती आंदोलन खत्म करने का दबाव बनाने लगे। शिवम पांडेय बताते हैं कि प्रिंसिपल ने उनसे कहा कि हम कुछ किताबें मंगवा देंगे, आप लोग अपना आंदोलन खत्म करो। वो बताते हैं कि जो ज़िलाधिकारी ये कह रहे थे कि तुम लोगों का काम ही क्या है धरना-प्रदर्शन के अलावा, वो भी फ़ोन करने लगे और मिलने के लिए बुलाया।

राज्य के उच्च शिक्षा मंत्री डॉ. धन सिंह रावत, जो कॉलेजों में ड्रेसकोड लागू कराने के लिए युद्ध स्तर पर प्रयासरत रहे, उन्हें आभास हुआ कि विद्यार्थियों का ये मौन अगर फूटेगा तो सचमुच कहर बनकर टूटेगा तो उन्होंने भी दिल्ली से नैनीताल और पिथौरागढ़ तक फोन खड़काया। लेकिन सार्वजनिक तौर पर इस आंदोलन को लेकर अब तक कुछ नहीं कहा। मज़ेदार ये है कि डॉ. धन सिंह रावत की प्रतिक्रिया लेने के लिए फ़ोन करने पर पता चला कि सार्वजनिक फोन नंबर पर इनकमिंग की सुविधा उपलब्ध नहीं है। उनकी फेसबुक वॉल पर बधाइयों के ताज़ा संदेश हैं। वे भारतीय जनता पार्टी के सदस्यता अभियान में व्यस्त हैं।

मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत राज्य के स्कूल-कॉलेजों में शौर्य दीवार बनाने की बातें करते हैं। जबकि स्कूल-कॉलेजों में सबसे ज्यादा जरूरी किताबें और शिक्षक हैं।

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शिक्षक, पुस्तक लेके रहेंगे!

पिथौरागढ के विद्यार्थियों का ये आंदोलन दरअसल सिर्फ इस सीमांत ज़िले की स्थिति नहीं है। पूरे उत्तराखंड में शिक्षा व्यवस्था चौपट है। पहाड़ों के स्कूल खाली हो रहे हैं। खाली स्कूल में शिक्षकों की तैनाती कर दी जा रही है। शिक्षा राज्य में पलायन की बड़ी वजह है। राज्य के स्कूल-कॉलेजों में इन्हीं स्थितियों में पढ़ रहे छात्र कहते हैं कि पढ़ने के बाद यहां नहीं ठहरना है, नौकरी के लिए पहाड़ से उतरना है।

वर्ष 2013 से राज्य में राष्ट्रीय उच्चतर शिक्षा अभियान (रुसा) शुरू हुआ। उच्च शिक्षा में गुणवत्ता लाने के उद्देश्य से शुरू किये गये इस अभियान में दिसंबर 2018 तक 159.96 करोड़ रुपये दिये जा चुके हैं। जिसका 87.87 प्रतिशत खर्च किया जा चुका है। इसके बावजूद राज्य के महाविद्यालयों की लाइब्रेरी नई किताबों के इंतज़ार में है। पिथौरागढ़ महाविद्यालय की स्थिति इससे भी समझी जा सकती है कि नैक की टीम ने इसे बी++ ग्रेड दिया है और ये कुमाऊं विश्वविद्लय से जुड़े अव्वल महाविद्यालयों में से एक है।

पिथौरागढ़ के विद्यार्थियों के समर्थन में देहरादून में भी शहीद स्मारक पर विरोध प्रदर्शन किया गया। सामाजिक कार्यकर्ता गीता गैरोला कहती हैं कि इस आंदोलन की ख़ास बात ये है कि वेतन बढ़ाने का आंदोलन नहीं है। बेरोजगारी का आंदोलन नहीं है। किताबों और शिक्षकों के लिए इससे पहले कब आंदोलन हुआ। उनका मानना है कि इस आंदोलन से राज्य की शिक्षा व्यवस्था को पटरी पर लाने की कोशिश करनी चाहिए।

पिथौरागढ़ महाविद्यालय के बाहर धरने पर बैठे बच्चे कुछ नए पोस्टर बना रहे हैं, नई इबारतें लिख रहे हैं, वे रचनात्मकता और पढ़ने की संस्कृति को आगे ले जाना चाहते हैं, वे कहते हैं कि आप यहां आइये, हमसे मिलिए, हम वैचारिक मज़बूती के साथ डटे हुए मिलेंगे।

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