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नितीश की नई पारी और बिहार में राजनीतिक भूचाल

लालू यादव और उनके परिवार के भ्रष्टाचार के मामले सामने आने के बाद से ही ये अटकलें लगायी जाने लगी थी कि , बिहार में राजनितिक उथल पुथल होना संभव है ।
नितीश की नई पारी और बिहार के राजनीतिक भूचाल

लालू यादव और उनके परिवार के भ्रष्टाचार के मामले सामने आने के बाद से ही ये अटकलें लगायी जाने लगी थी कि , बिहार में राजनीतिक उथल पुथल  होना संभव है ।  बीजेपी ने इन मामलों के बाहर आते  ही तेजस्वी यादव के इस्तीफे की मांग करना शुरू कर दी थी और मीडिया में भी अटकलें तेज़ हो गयी  कि जेडीयू,  तेजस्वी पर इस्तीफे का दबाव डाल सकती है।  पर नितीश के मुख्यमंत्री पद से इस्तीफे और उसके कुछ ही घंटों में बीजेपी के समर्थन से सरकार बना लेने के फैसले ने सबको भौंचक्का कर दिया । इस पूरे घटनाक्रम से ये साफ़ हो जाता है की नितीश कुमार और बीजेपी की पहले से सांठ गांठ थी , और वह बस एक अच्छे मौके  की तलाश  में थे। यह तक कहा जा रहा है की जदयु के कुछ बड़े नेता भी इस बात से अनभिज्ञ थे । जानकारों का मानना है की नोटबंदी के  समय नितीश का बीजेपी को समर्थन इसी बात का संकेत था की वो कभी भी अपना पाला बदल सकते है। 

ये सब होने के बाद राजद ने नितीश पर जनादेश से धोखा करने का आरोप लगाया। राजद के नेता तेजस्वी यादव ने कहा "हे राम से जय श्री राम हो गए  है नितीश''।  साथ ही  उन्होंने कहा की उनसे कभी इस्तीफा देने को कहा ही नहीं गया था।  बिहार में सक्रिय वामपंथी पार्टी  भकपामाले ने भी इसे जनादेश से गद्दारी कहा और उनके विधायकों ने "नो कॉन्फिडेंस मोशन " में नितीश सरकार  के खिलाफ वोट किया। 

जनवादी हलकों में नितीश के इस कदम को मौकापरस्ती का नाम दिया जा रहा है , क्योंकि बिहार में संघ और बीजेपी की फासीवादी राजनीति को रोकने की उम्मीद उनसे लगायी जा रही थी।  बिहार के अलावा देश के जनवादी आंदोलन को भी इससे काफी धक्का लगेगा क्योंकि नितीश २०१९ के लोक सभा चुनाव के मुख्य विपक्षी नेता के तौर पर उभर सकते थे।  पर नीतीश का ये कदम  उनके राजनैतिक इतिहास से अलग नहीं है।  वो पहले  भी  कई बार NDA  सरकारों  में  मंत्री  रह चुके हैं और कई बार सेकुलरिज्म के नाम पर पाला भी  बदलते  रहें हैं।  इस कदम से ये साफ़ साबित हो जाता है की पिछड़ों और धर्मनिरपेक्षता के नाम पर की गई नितीश की राजनीति कोरी लफ़्फ़ाज़ी थी , और ये भी की जेपी और लोहिया का समाजवादी आंदोलन, आज जातिओं के जोड़ तोड़ की राजनीति बनता जा रहा है। 

पूंजीवाद के संकट का ये दौर जब फासीवाद उभार पर है , एक मज़बूत विपक्ष की मांग करता है , जो सही मायनों में जनता के सवालों को उठाने का काम करे।  नितीश के इस कदम के बाद विपक्ष में जो वैक्यूम बन गया है, उसे  वामपंथी और समाजवादी  दल बखूबी से भर सकते हैं , और इस मायने में ये एक बहुत सुनहरा मौका साबित हो सकता है।  मज़दूरों और किसानों के बिगड़ते आर्थिक हालत और फासीवादियों के बढ़ते कदमों को न सिर्फ रोकना ज़रूरी है बल्कि एक मज़बूत विकल्प देने की भी ज़रुरत है , जो जन आंदोलनों द्वारा ही किया जा सकता है। ये समझते हुए हमें ये भी ध्यान रखना होगा की समाजवाद के नाम पर मौकापरस्ती से सावधान रहा जाये और सहयोगियों को ध्यान से चुना जाये।

 

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