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रक्षा उत्पादः ग़लतियों से सीख लेने की आवश्यकता

रफ़ाल सौदे की जाँच को दफ़न कर दिया जाए इससे पहले नई सरकार को ज़्यादा ख़र्च बढ़ाने के बजाय मौजूदा संसाधनों का इस्तेमाल बेहतर करके इन जेट विमानों के उत्पादन के लिए एचएएल को उपयोग में लाना चाहिए।
रक्षा उत्पादः ग़लतियों से सीख लेने की आवश्यकता

भारतीय जनता पार्टी की अगुवाई वाली राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की प्रचंड जीत वाले ये चुनाव नतीजे रफ़ाल घोटाले को संभवतः दबा देंगे। सुप्रीम कोर्ट द्वारा अपने पिछले फ़ैसले की समीक्षा करने या स्वतंत्र जांच की अनुमति देने की संभावना धूमिल दिख रही है। इसलिए अब जबकि ये घोटाला दबाया जा सकता है ऐसे में नई सरकार इससे होने वाले नुक़सान को कम करने के लिए बहुत कुछ कर सकती है।


नए रफ़ाल सौदे की सबसे बड़ी समस्याओं में से एक यह था कि रक्षा क्षेत्र की नवरत्न कंपनी हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड (एचएएल) किस तरह नज़रअंदाज़ कर दिया गया और रफ़ाल सौदे में किसी प्रकार की भूमिका से पूरी तरह से दूर रखा गया। ऐसा तब हुआ जब एचएएल फ़्रांसीसी कंपनी डसॉल्ट के साथ 70:30 कार्य की हिस्सेदारी समझौते के साथ ट्रांसफ़र ऑफ़ टेक्नोलॉजी के तहत लड़ाकू जेट का उत्पादन शुरू करना चाहता था।

एक ख़राब व्यवसाय के रिकॉर्ड वाली नई कंपनी के लिए प्रत्यक्ष ख़रीद और ऑफ़सेट सौदे को सही ठहराने को लेकर रक्षा क्षेत्र की इस नवरत्न कम्पनी पर सार्वजनिक रूप से ग़लत बयानबाज़ी तथा निंदा का अंबार लग गया। यह अचानक हुए विस्फ़ोट को एक क्षण की तरह था जहाँ हर कोई एचएएल को नीचा दिखाने में लगे रहे। फिर भी भारतीय वायु सेना (आईएएफ़) के वही वरिष्ठ अधिकारी जिन्होंने एचएएल की निंदा की थी वे पिछले साल गगनशक्ति अभ्यास में भारतीय वायुसेना के बेड़े की सेवा और रखरखाव के लिए उत्कृष्ट लॉजिस्टिक बैक-अप प्रदान करने को लेकर सार्वजनिक क्षेत्र की इस रक्षा कंपनी की प्रशंसा कर रहे हैं।

निंदा के बावजूद बाज़ार पर निर्भरता और पिछले वर्षों में अपने वित्तीय भंडार में कमी के बावजूद एचएएल की 2018-19 के लिए ऑडिट की गई रिपोर्ट से पता चलता है कि कंपनी ने 2017-18 की इसी अवधि की तुलना में अपने कारोबार में लगभग 8% की वृद्धि की है। इस प्रकार इसका कारोबार 18,284 करोड़ रुपये से बढ़कर 19,705 करोड़ रुपये हो गया। कर की अदायगी के बाद इसका लाभ 1,987 करोड़ रुपये की तुलना में 2282 करोड़ रुपये हो गया। 31 मार्च 2019 तक बुक की गई ऑर्डर में 58,000 करोड़ रुपये दर्शाते हैं और पिछले 12 सुखोई 30 एमकेआई के लिए 5,000 करोड़ रुपये तथा दो अन्य प्रकार के हेलीकॉप्टरों (कामोव के लिए रूस के साथ एक संयुक्त उद्यम और एक अन्य स्वदेशी लाइट कॉम्बैट हेलीकाप्टर) के लिए 10,000 करोड़ रुपये शामिल हैं। जबकि एचएएल का हेलीकॉप्टर डिवीजन बेहतर कार्य कर रहा है, इसके विमान डिवीजन में केवल तेजस है जहाँ 83 तेजस विकसित करने के लिए 50,000 करोड़ रुपये का ख़र्च है। इस हेलीकॉप्टर की कुछ लोग निंदा करने वाले हैं लेकिन इसकी प्रशंसा होती है जो इसकी स्वदेशीता की ओर इशारा करते हैं और इस तरह उच्च प्रौद्योगिकी विकसित करने और/या अपनाने की एचएएल की क्षमता की व्यख्या करते हैं।

अब रफ़ाल की डिलीवरी सितंबर से शुरू हो जाएगी पर अगला मुद्दा 114 लड़ाकू जेट विमानों के लिए रिक्वेस्ट फॉर प्रोपोज़ल का है जो पिछले साल शुरू किया गया था। यहाँ यह सुनिश्चित करके कि कम से कम अब एचएएल को इसमें शामिल किया जाए। नई सरकार के लिए अप्रैल 2015 के अपने ग़लत निर्णय के लिए संशोधन करना अभी भी संभव है। इस ऑर्डर से अधिक महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि देश का दुर्लभ संसाधन एचएएल को 'नवरत्न' बनाने में जुट गए। ख़राब कार्य नीति आदि जैसी अन्य सभी समस्याएँ जो एचएएल को परेशान कर रही हैं ऐसे में मामला यह है कि इस देश ने इस पर हज़ारों करोड़ रुपये ख़र्च किए हैं। उसने लड़ाकू जेट के विभिन्न समूह को संभालने अर्थात उत्पादन से लेकर सर्विसिंग और रखरखाव तक आठ दशकों से अधिक की क्षमता हासिल कर ली है फिर भी कंपनी की पूरी क्षमता का उपयोग होना बाक़ी है।

यह तर्क दिया जा सकता है कि निजी क्षेत्र के नेतृत्व वाले सैन्य उत्पादन से मंत्रमुग्ध होने के बजाय सरकार को रक्षा सार्वजनिक क्षेत्र की इकाइयों में सुधार करना चाहिए। जब संसाधन दुर्लभ हैं और पहले से ही डीपीएसयू में बहुत बड़ा निवेश किया गया है तो निजीकरण के माध्यम से धीरे-धीरे उन्हें बर्बाद करने की तुलना में उनको बेहतर प्रदर्शन करने के लिए मजबूर करने की बात कुछ समझ में भी आती है।

न्यूज़क्लिक के रक्षा विश्लेषक डी रघुनंदन ने तर्क दिया कि अब जब भारत ने रफ़ाल की प्रत्यक्ष ख़रीद का विकल्प चुना है तो यह बेहतर हो सकता है कि भारत रफ़ाल फ़ाइटर जेट्स का उत्पादन एचएएल से कराए, उसके पास डसॉल्ट एविएशन के साथ काम करने का 50 साल का लंबा अनुभव है और मार्च 2015 तक 70:30 अनुपात से कार्य साझा करने की सहमति बनी थी।

इस तर्क को पुरज़ोर तरीक़े से बताने का कारण यह है कि मोदी सरकार ने दिखाया कि वह 25 फ़रवरी 2019 को रूस के साथ ऑर्डिनेंस फ़ैक्ट्री बोर्ड के कोरवा (अमेठी) प्लांट में 750,000 7.62X39 मिमी एके 203 असॉल्ट राइफ़लों के निर्माण के लिए समझौते पर हस्ताक्षरित अंतर-सरकारी समझौते को बदलने में सक्षम है। असाल्ट राइफ़ल का इतिहास लंबा और प्रबल है। सुजन आर. चिनॉय तथा लक्ष्मण बेहरा ने एक लेख में बताया कि शुरू होने के 32 महीनों के भीतर पूरा उत्पादन 100% स्वदेशी हो जाएगा।

अतीत में जो हुआ उसे देखकर इसकी सराहना की जा सकती है।

वर्ष 2009 की बात है जब रक्षा अधिग्रहण परिषद ने ऑर्डिनैंस फ़ैक्ट्री बोर्ड (ओएफ़बी) द्वारा उत्पादन के लिए "बाइ एंड मेक इन इंडिया" श्रेणी के तहत 1,87,825 राइफ़लों की ख़रीद के लिए सैद्धांतिक मंज़ूरी दी थी। नवंबर 2011 में 5.56X45 मिमी और 7.62X39 मिमी गोली फ़ायर करने में सक्षम ड्यूअल कैलिबर राइफ़ल के लिए एक रिक्वेस्ट फॉर प्रोपोज़ल (आरएफ़पी) जारी किया गया था। लेकिन कड़े तकनीकी निर्देशों ने विक्रेताओं को इससे अलग कर दिया। जून 2015 में ये आरएफ़पी को वापस ले लिया गया था। राइफ़ल फ़ैक्ट्री ईशापुर द्वारा नया इंसास आईसी 5.56X45 मिमी का उत्पादन किया गया था और इसने विश्वसनीयता परीक्षण सहित आवश्यक तकनीकी और परिचालन मापदंडों को पूरा किया।

अगस्त 2016 में सेना ने एक नए परिचालन सिद्धांत के तहत इस विनिर्देशों को 7.76X51 मिमी में बदल दिया। इंसास आईसी को कठिन परिस्थिति में छोड़ दिया गया और ओएफ़बी को 7.62X51 मिमी असॉल्ट राइफ़ल विकसित करने के लिए कहा गया। मई 2017 तक ये प्रोटोटाइप तैयार हो गया था लेकिन सेना ने असंतोष ज़ाहिर किया। ओएफ़बी द्वारा उत्पादन विफ़ल हो गया। इसके बजाय फ़रवरी 2019 में फ़ास्ट ट्रैक प्रोक्योरमेंट के माध्यम से अमेरिकी कंपनी से 72,400 सिग सउर राइफ़लें 700 करोड़ रुपये में ख़रीदने का फ़ैसला किया गया और कुछ दिनों बाद आईजीए ने ओएफ़बी की कोरवा इकाई से एके 203 का उत्पादन करने के लिए एक संयुक्त उद्यम के लिए रूस के साथ हस्ताक्षर किया।

उपरोक्त घटनाक्रम से जो स्पष्ट है वह ये कि पूरी तरह से डीपीएसयू या ओएफ़बी का यह दोष नहीं है कि मामला गड़बड़ हो जाता है। हालांकि उसे घटिया कार्य या ख़राब कार्य संस्कृति के लिए हटाया जाना चाहिए लेकिन उसे इस बात पर ज़ोर देने की ज़रूरत है कि वे नीतिगत फ़ैसलों और विशिष्टताओं में बदलाव के शिकार हैं। समान रूप से सशस्त्र बल उसके संबंध में विश्वास की कमी को प्रदर्शित करते हैं। अजय शुक्ला अपनी जगह पर सही हैं जब उन्होंने बताया कि कल्याणी समूह और टाटा के साथ साझेदारी में रक्षा अनुसंधान और विकास संगठन द्वारा एडवांस्ड टाउड आर्टिलरी सिस्टम को किस तरह विकसित किया गया है जो आयातित आर्टिलरी गन पर हमारी निर्भरता को कम करेगा।

हालांकि सार्वजनिक और निजी क्षेत्र के बीच प्रतिस्पर्धा शुरू करने का समर्थन करने के लिए अर्थात आठ डीपीएसयू के लिए एक निजी क्षेत्र के प्रतियोगी और निजी प्रतियोगिता में ओएफ़बी को उजागर करना एक उचित प्रस्ताव दिखाई दे सकता है लेकिन ऐसा नहीं है। यह देखते हुए कि हम संसाधनों को लेकर उत्साहित नहीं हैं तो इस तरह का दृष्टिकोण अधिक महंगा और बेकार होगा। भारत के लिए अमेरिका एक अच्छा उदाहरण नहीं है क्योंकि ये दोनों देश बिल्कुल ही अलग हैं जो हमारे अभी भी विवादित सकल घरेलू उत्पाद के पैमाने की बात नहीं करता है जो कि अमेरिका से बहुत ख़राब है। मुख्य रूप से ये कि पूर्व रक्षा मंत्री स्वर्गीय मनोहर पर्रिकर ने सार्वजनिक रूप से कहा था कि इस बात की कोई गारंटी नहीं थी कि प्रस्ताव के लिए लाभप्रद आदेश हमेशा होंगे। इसलिए जब सार्वजनिक क्षेत्र की इस इकाई की क्षमता व्यर्थ हो सकती है तो निजी कंपनी जो अपने निवेश पर आकर्षक लाभ का सपना देखती है वह मुश्किल से बचने के लिए सरकारी अनुदान की मांग करेंगे।

जिस तरह सरकार ने ओएफ़बी द्वारा मेड इन इंडिया को आगे बढ़ाते हुए इस स्थिति को फिर से प्राप्त किया वैसे ही ज़्यादा ख़र्च बढ़ाने की तुलना में मौजूदा संसाधनों के इस्तेमाल को बढ़ाने के लिए एचएएल और अन्य सार्वजनिक क्षेत्र की रक्षा इकाइयों के लिए कुछ ऐसा ही किया जाना चाहिए। ज़्यादा ख़र्च के लिए सार्वजनिक धन की आवश्यकता होगी।

इसलिए अगर राष्ट्रीय सुरक्षा एक महत्वपूर्ण मामला है तो कोई भी उम्मीद कर सकता है कि नई सरकार बुद्धिमानी से काम करेगी क्योंकि जो भी रास्ता अपनाया गया है उसका सरकारी ख़ज़ाने पर असर पड़ेगा और आने वाली पीढ़ियों पर असर डालेगा।

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