एक अध्ययन : आख़िर क्यों करते हैं किसान आत्महत्या?
आज के जमाने में खेती-किसानी का जितना अधिक जुड़ाव रोजी-रोटी से नहीं है उससे अधिक जुड़ाव खुदकुशी से है। कोई भी अपनी जिंदगी जीने के लिए खेती-किसानी का चुनाव नहीं करना चाहता। जमाने की व्यवस्थाओं ने किसानी को इस हद तक बर्बाद कर दिया है कि जिनके पास बहुत कम जमीन है, वे मरते हुए जिंदगी जीने के लिए मजबूर होते हैं। और जो मर जाते हैं,उनसे जुड़े आंकड़े पढ़कर जमाना कुछ वक्त ग़मगीन होता है और फिर उसे भूल जाता है। सरकारों से लेकर समाज तक को वह पीड़ा महसूस नहीं होती,जो किसी किसान परिवार में कमाई के एकमात्र स्रोत यानी किसान के मर जाने पर उभरती हैं। इन पीड़ा को व्याख्यायित करने वाली नेशनल ह्यूमन राइट्स से मान्यता प्राप्त Agrarian Crisis and Farmer Suicide के नाम से एक रिपोर्ट आयी है।
इस रिपोर्ट का अध्ययन खेती-किसानी की वजह से आत्महत्या कर चुके 200 लोगों के परिवारों से किये गए सवाल जवाब पर आधारित है। यह 200 लोगों के परिवार महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, कर्नाटक और तेलंगाना से जुड़े हैं, जहां पर किसानी की वजह से सबसे अधिक आत्महत्या होती है। यह अध्ययन नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ़ रूरल डेवलपमेंट और पंचायती राज द्वारा करवाया गया है।
इस रिपोर्ट के तहत तकरीबन 27 फीसदी परिवार साहूकारों से कर्ज़ लेकर जीवन जीने के लिए मजबूर हुए हैं। तकरीबन 21 फीसदी परिवारों ने बैंकों से क़र्ज़ लिया है। तकरीबन 13 फीसदी परिवारों ने दूध और अण्डों जैसी जरूरी खाद्य पदर्थों का सेवन करना बंद कर दिया है। तकरीबन 8 फीसदी परिवारों ने अपनी स्थायी सम्पतियाँ बेच दी और तकरीबन 6 फीसदी परिवार बंधुआ मजदूरी के लिए मजबूर हो गए हैं। यह रिपोर्ट बताती है कि मध्य प्रदेश के रेवा जिले में साहूकारों का कर्ज़ चुकाने के लिए किसान परिवार के बच्चे बंधुआ मजदूरी के लिए मजबूर हुए हैं। जिन्हें दिन भर काम कारने के बाद आटे या चावल की चार से पांच थैलियां दी जाती हैं।
मौजूदा भाजपा सरकार ने साल 2022 तक किसानों की आमदनी दो गुनी करने की बात हर मंच पर कही है। भले ही उनके पास इस तरफ बढ़ते दिखने के कोई प्रामाणिक आंकड़े न हों। ऐसे में हकीकत यह है कि घर के मुखिया के खुदकुशी करने के बाद इन परिवारों की साल 2016 -17 में मासिक आमदनी केवल 3553 रुपये रही। जो सबसे छोटे जमीन जोतदारों की मासिक आय 4561 रुपये से भी कम है।
इन परिवारों में से तकरीबन 92 परिवारों का किसान बीमा योजना में बीमा नहीं है। बाढ़ और सूखे के समय फसल बर्बाद और कीमत न मिलने पर और कीटनाशकों से फसल बर्बाद हो जाने पर पिछले तीन सालों में इन्होंने कई तरह की आर्थिक मार झेली है। कुल कर्ज़ में किसानी से जुड़े खर्चे को पूरा करने के लिए इनमें से 32 फीसदी कर्ज़ की हिस्सेदारी है। खाने से जुड़े खर्च के लिए 18 फीसदी, सामाजिक और धार्मिक उद्देश्यों को पूरा करने के लिए 15 फीसदी और घर बनाने और शादी-ब्याह के खर्च के लिए 13 फीसदी क़र्ज़ की हिस्सेदारी है। इन परिवारों से जुड़े लोगों में तकरीबन 70 फीसदी लोग 20 से 50 साल के आयु-वर्ग में आते हैं। 59 फीसदी अशिक्षित हैं।
इस सर्वे से एक बात और निकलकर सामने आयी है कि परिवार के किसी सदस्य की फसल कटने के बाद आत्महत्याएं की घटनाएं सबसे अधिक हैं। तकरीबन 47 फीसदी लोगों की आत्महत्या के पहले की स्थिति यह बताती है कि उन्हें फसल कटाई के बाद कर्जा चुकाने के लिए मजबूर किया गया था। यह आंकड़ें उन नेताओं की बोलती बंद करते हैं जो किसानों की खुदकुशी की बेतुकी वजह बतातें हैं। किसी परिवार के किसी सदस्य की आत्महत्या के बाद मध्य प्रदेश राज्य में ऐसे परिवार में से किसी भी परिवार को सरकार की तरफ से कोई मदद नहीं मिली।
इनमें सबसे अधिक आत्महत्याएं उन किसानों ने की, जिनके पास डेढ़ एकड़ से लेकर तीन एकड़ तक की ज़मीन थी। यानी जिनके पास खेती के लिए बहुत कम ज़मीन थी। तेलंगाना में तो इसलिए भी किसानों ने आत्महत्या की उनके पास कर्ज़ लेने का साधन नहीं था।
कुल मिलाकर यह पूरी स्थिति बताती है कि किसान या तो आत्महत्या करने के लिए मजबूर हो रहा है या ऐसी जिंदगी जी रहा है,जिससे जूझते हुए उसे हर रोज मरना पड़ता है।
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