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भोपाल गैस-त्रासदी पर राजकुमार केसवानी की चेतावनी बहरे कानों पर नहीं डाल पाई थी कोई असर

गैस पीड़ितों की मदद करने के कामों में अग्रणी रहे केसवानी को हमेशा याद रखा जाएगा।
भोपाल गैस-त्रासदी पर राजकुमार केसवानी की चेतावनी बहरे कानों पर नहीं डाल पाई थी कोई असर

हाल ही में दिवंगत हुए पत्रकार राजकुमार केसवानी की प्रशंसा करते हुए, इंदिरा जयसिंह ने भोपाल गैस त्रासदी की पृष्ठभूमि में, उनकी सावधानीपूर्वक रिपोर्टिंग के माध्यम से 1984 में भोपाल गैस रिसाव आपदा के बारे में उनकी अकेली चेतावनी, फिर उनका त्रासदी पीड़ितों के लिए अथक समर्थन और उनके खुद के साथ व्यक्तिगत परिचय के बारे में लिखा है।

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वरिष्ठ पत्रकार राजकुमार केसवानी, जिन्हें भोपाल गैस त्रासदी के बारे में प्रशासन को आगाह करने वाली अकेली आवाज के रूप में जाना जाता है, का 21 मई, 2021 को भोपाल में कोविड-19 के बाद उत्पन्न शारीरिक जटिलताओं के कारण निधन हो गया। उनकी उम्र 70 वर्ष की थी। उनका जन्म, शिक्षा, और उनका सारा जीवन भोपाल शहर में बीता, और उनके परिवार में उनकी पत्नी सुनीता और बेटा रौनक हैं।

कॉलेज के दिनों में स्पोर्ट्स टाइम्स में उप-संपादक के रूप में अपना करियर शुरू करने के बाद, केसवानी न्यूयॉर्क टाइम्स, एनडीटीवी, दैनिक भास्कर, द इलस्ट्रेटेड वीकली ऑफ इंडिया, संडे, इंडिया टुडे और द वीक जैसे प्रमुख मीडिया आउटलेट्स से जुड़े थे। उन्होंने क्लासिक फिल्म 'मुगल-ए-आजम' पर एक किताब भी लिखी थी।

मैं राजकुमार से 1985 की शुरुआत में भोपाल में मिली थी। भोपाल गैस रिसाव आपदा दिसंबर 1984 में घटी थी, और उस समय हम में से कई वकील पीड़ितों को कानूनी सेवाएं प्रदान करने के लिए मुहिम में शामिल हो रहे थे।

गैस प्लांट से उत्पन्न ख़तरे पर केसवानी की रिपोर्टिंग
वे एकमात्र पत्रकार थे, जिन्होंने स्थानीय समाचार पत्रों में प्रकाशित कई लेखों के माध्यम से भविष्यवाणी की थी कि यूनियन कार्बाइड इंडिया लिमिटेड के प्लांट में इस तरह की घटना हो सकती है, जो कि अमेरिकी कंपनी यूनियन कार्बाइड कॉर्पोरेशन की एक सहायक कंपनी है।

नौ महीने की जांच के बाद, केसवानी ने दुनिया की सबसे खराब औद्योगिक त्रासदी से दो साल पहले 1982 में स्थानीय हिंदी साप्ताहिक समाचार पत्र रिपोर्ट में भोपाल में यूनियन कार्बाइड संयंत्र में सुरक्षा चूक पर तीन लेख प्रकाशित किए थे: पहले लेख का शीर्षक था; बचाइए हुज़ूर इस शहर को बचाइए।

फिर, 26 सितंबर, 1984 को एक और लेख प्रकाशित हुआ था जिसका शीर्षक था, ज्वालामुखी के मुहाने बैठा भोपाल

इसके बाद एक और यानी तीसरा लेख आया, न समझोगे तो आख़िर मिट ही जाओगे।

2-3 दिसंबर को संयंत्र से घातक गैस के रिसाव से ठीक छह महीने पहले, उन्होंने एक और लेख लिखा: 'भोपाल: एक आपदा के कगार पर', जिसमें एक संभावित आपदा के बारे में स्पष्ट चेतावनी दी गई थी।

केसवानी ने नवंबर 1982 में मध्य प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह को पत्र लिखकर संयंत्र से होने वाले खतरों की चेतावनी दी थी। उन्हे पत्र का कभी जवाब नहीं मिला।

भारत में कहीं और क्लोरीन संयंत्र में हुए रिसाव का जिक्र करते हुए, जिसने कई लोगों को प्रभावित किया था, केसवानी ने अपने लेख में कहा था कि अगर भोपाल में ऐसी कोई दुर्घटना होती है, तो जो होगा उसकी गवाही देने वाला एक अकेला गवाह भी नहीं मिलेगा। उस लेख में केसवानी ने संयंत्र में सुरक्षा उपायों पर तीन अमेरिकियों द्वारा लिखी गई मई 1982 की एक रिपोर्ट का विस्तार से हवाला दिया था, जिन्हे यूनियन कार्बाइड के कॉरपोरेट मुख्यालय ने संयंत्र में समस्याओं की जांच के लिए भेजा था।

केसवानी ने उन दिनों में घटी घटनाओं की एक श्रृंखला पर भी रिपोर्ट किया था, और कहा था कि 5 अक्टूबर, 1982 को संयंत्र से हुए रिसाव ने पड़ोस की स्लम बस्तियों के हजारों निवासियों को प्रभावित किया था जो डर के मारे वहां से भाग गए थे और वे करीब आठ घंटे के बाद ही वापस लौटे थे। .

केसवानी ने अपनी रिपोर्टिंग में उल्लेख किया था कि 1975 में एम.एन. बुच, जोकि एक भारतीय नौकरशाह थे, ने भी यूनियन कार्बाइड संयंत्र को वर्तमान स्थान से दूर ले जाने के लिए कहा था क्योंकि इसके आसपास आवासीय बस्तियां तेजी से विकसित हो गई थी। यूनियन कार्बाइड का  सौभाग्य डेको कि बुच को जल्द ही उनके पद से स्थानांतरित कर दिया गया।

केसवानी की रिपोर्टिंग में इस बात पर भी प्रकाश डाला गया था कि कैसे यूनियन कार्बाइड ने अपने भारतीय अधिकारियों को सुरक्षा उपायों पर किफायत बरतने और सस्ती सामग्री का इस्तेमाल करने की सलाह देकर सुरक्षा हितों से समझौता किया था।

संयंत्र कीटनाशकों का उत्पादन करता था और इस उद्देश्य के लिए, उसने मिथाइल आइसोसाइनेट (MIC) को प्लांट में इकट्ठा किया हुआ था - जो जानकारी के हिसाब से मानव जाति के लिए सबसे घातक रसायनों में से एक है। उन्होंने लिखा कि दुर्घटना की स्थिति में फैक्ट्री बिना सुरक्षा प्रक्रियाओं के बड़ी मात्रा में एमआईसी का भंडारण कर रही थी। ठीक वैसा ही जिसकी की कल्पना की गई थी, 2 दिसंबर 1984 की दरमियानी रात को हुआ था।

यूनियन कार्बाइड ने ऐसा होने दिया

अमेरिकी निगम अपनी सहायक कंपनी पर किसी भी तरह की जिम्मेदारी को तय करने की अनुमति देने के मामले में बहुत मजबूत थी और जो कुछ हुआ उसे कवर करने के लिए अपनी शक्ति के भीतर उन्होने सब कुछ किया। वास्तव में, दीवानी और फौजदारी दोनों तरह की कार्यवाही में कानून की उचित प्रक्रिया को उलट दिया गया था।

यूनियन कार्बाइड कॉरपोरेशन के तत्कालीन अध्यक्ष वारेन एंडरसन, जो उस वक़्त भारत आए थे और उन्हे हिरासत में ले लिया गया था, को जमानत पर रिहा कर दिया गया, और उसके तुरंत बाद वे देश छोड़कर भाग गए, फिर कभी वापस नहीं लौटे। भारत सरकार ने 2000 के दशक में अमेरिका से उनके प्रत्यर्पण के लिए कई अनुरोध किए, लेकिन सरकार उन्हे देश में लाने में पूरी तरह से विफल रही।

इस सब के चलते, राजकुमार ने हर कदम पर आपदा पीड़ितों की समस्याओं पर ध्यान आकर्षित किया, आपदा की रात वे हमीदिया अस्पताल में थे, और जो हो रहा था, उसके बारे में प्रत्यक्ष ज्ञान।जानकारी हासिल कर रहे थे। 

आखिरकार, जैसा कि हम सभी जानते हैं, भारत यूनियन ने भारत के सर्वोच्च न्यायालय में मामले को 45 करोड़ डॉलर की मामूली राशि में तय कर लिया था, और हर किस्म की आपराधिक कार्यवाही को समाप्त करने पर सहमति व्यक्त कर दी थी।

यह केवल तत्कालीन अटॉर्नी जनरल, स्वर्गीय सोली सोराबजी की सतर्कता ही थी, जो वे कार्बाइड के खिलाफ आपराधिक कार्यवाही को बहाल करने में कामयाब रहे। उसके बाद से, यूनियन कार्बाइड को डॉव केमिकल्स ने खरीद लिया था, और जबकि आपराधिक कार्यवाही अभी भी जारी है।

भोपाल आपदा दावा प्रक्रिया क़ानून को चुनौती देना

ये राजकुमार ही थे जिन्होंने भोपाल गैस रिसाव आपदा (दावों का प्रसंस्करण) अधिनियम, 1985 के प्रावधानों को चुनौती देने के लिए मुझसे संपर्क किया था।

यह अधिनियम भारतीय यूनियन को सभी दिवंगत पीड़ितों के दावों को और संयुक्त राज्य अमेरिका और भारत में भी उनकी ओर से मुकदमा चलाने का अधिकार देता था। जबकि भारतीय यूनियन को पीड़ितों का प्रतिनिधित्व करने की अनुमति देना अपने आप में कोई दोष नहीं था, लेकिन राजकुमार ने कहा कि पीड़ितों की सुनवाई का अधिकार और किसी भी संभावित समाधान पर उनकी सहमति का बहिष्कार नहीं किया जा सकता है।

वे पहले अकेले व्यक्ति थे जिन्होंने इस आधार पर अधिनियम को चुनौती देते हुए भारत के सर्वोच्च न्यायालय में याचिका दायर की थी। याचिका के लंबित रहने के दौरान, भारतीय यूनियन ने वास्तव में पीड़ितों के सभी दावों को बिना उनसे परामर्श किए ही निपटा दिया था। यह तब था जब राजकुमार ने मेरे सहित अपने वकीलों के माध्यम से भारत के सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया था और इस बात पर जोर दिया था कि जब तक संवैधानिक वैधता का फैसला नहीं हो जाता, तब तक समझौते को ऐसे समय तक रोक कर रखा जाए।

चरण लाल साहू बनाम भारतीय यूनियन (AIR 1990 SC 1480) के मामले में पांच-न्यायाधीशों की संविधान पीठ के एक फैसले में, सुप्रीम कोर्ट ने अधिनियम की वैधता को बरकरार रखा, लेकिन निर्देश दिया कि पीड़ितों को अंतरिम राहत दिए बिना दावों का केस भारतीय यूनियन नहीं ले सकती है। इस फैसले के बाद, पीड़ितों की भागीदारी के संबंध में समझौते की वैधता पर सवाल उठाया गया था। जैसा कि पहले उल्लेख किया गया है, नागरिक समझौता स्वीकार कर लिया गया था, लेकिन आपराधिक कार्यवाही बहाल कर दी गई थी।

राजकुमार न केवल एक उत्कृष्ट पत्रकार थे, बल्कि एक ऐसे कार्यकर्ता भी थे, जिन्होंने जीवन भर भोपाल गैस त्रासदी पीड़ितों के लिए न्याय के लिए अपनी प्रतिबद्धता का पालन किया और उनके लिए बिना किसी लाभ के काम किया।

उन्हें प्रतिष्ठित बी.डी. गोयनका पुरस्कार 1985 में मिला (जिसने उन्हे 35 वर्ष की आयु में इतना बड़ा पुरस्कार जीतना वाला सबसे कम उम्र का पत्रकार बना दिया था), फिर उन्हे पत्रकारिता में उत्कृष्टता और रिपोर्टिंग के लिए 2008 में माधव राव सप्रे पुरस्कार मिला और 2010 में उत्कृष्ट पर्यावरण रिपोर्टिंग के लिए प्रेम भाटिया पत्रकारिता पुरस्कार मिला था।

आपदा के बारे में 2014 में बनी 'भोपाल: ए प्रेयर फॉर रेन' नामक दिलचस्प फिल्म रिलीज़ हुई थी, जिसमें त्रासदी की भयावहता का दस्तावेजीकरण करने वाले पत्रकार मोटवानी का चरित्र केसवानी से प्रेरित है। हालांकि केसवानी ने खुद इस फिल्म को मंजूरी नहीं दी थी क्योंकि वह फिल्म की मूल स्क्रिप्ट से सहमत नहीं थे, जिसमें उन्हें नाम से संदर्भित किया गया था, अंततः चरित्र के नाम और स्क्रिप्ट के कुछ प्रासंगिक पहलुओं में बदलाव किए गए थे।

खतरे की घंटी बजने के बावजूद किसी ने केसवानी की रिपोर्टिंग पर ध्यान नहीं दिया। उन्होंने बी.डी. गोयनका पुरस्कार को स्वीकार करते हुए इस बारे में खेद व्यक्त किया था, और अपनी  स्वीकृति भाषण में कहा कि वे इस तरह की शानदार पत्रकारिता की विफलता के लिए पुरस्कार प्राप्त करने वाले पहले व्यक्ति हो सकते हैं, और यदि वे अपने काम में सफल हो जाते तो किसी का भी ध्यान इस पर नहीं जाता। 

राजकुमार केसवानी को उनके कई पत्रकार मित्रों के बीच इस वीरता से भरे प्रयासों के लिए याद किया जाएगा, और भोपाल गैस त्रासदी पीड़ितों द्वारा भी उन्हे काफी याद किया जाएगा।

(इंदिरा जयसिंह भारत के सर्वोच्च न्यायालय में एक वरिष्ठ अधिवक्ता हैं। वे द लीफलेट की सह-संस्थापक भी हैं। व्यक्त किए गए विचार व्यक्तिगत हैं।)

इस लेख का मूल संस्करण द लीफ़लेट में प्रकाशित हो चुका है।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

Rajkumar Keswani’s Warning About a Gas Tragedy in Bhopal Fell on Deaf Ears

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