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रूस और यूक्रेन: हर मोर्चे पर डटीं महिलाएं युद्ध के विरोध में

युद्ध हर देश के लिए बुरा है। इस लेख में हम यह जानने की कोशिश करेंगे कि इस युद्ध की वजह से यूक्रेन और रूस की महिलाओं को क्या कुछ झेलना पड़ रहा है और युद्ध लम्बा खिंचा तो उनपर और उनके बच्चों पर क्या प्रभाव पड़ेगा।
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एक बहुत ही मार्मिक फोटो 3 मार्च को सोशल मीडिया पर वायरल हुई-शिशुओं को घुमाने वाली खाली बग्गियां या ‘बेबी प्रैम’ पोलैंड के प्रिज़ेमिस्ल स्टेशन पर एक कतार में खड़ी थीं। इन्हें पोलैंड की माताओं और महिला संगठनों ने यह सोचकर वहां छोड़ दिया था कि यह स्टेशन सरहद से 8 किलोमीटर दूर है और वहां से चलकर आई सैकड़ों थकी हुई महिला शरणार्थियों की लम्बी कतारें पोलैंड आने का इन्तेज़ार कर रही हैं, जिनके पास नन्हे बच्चे होंगे। उन्हें मदद मिल जाएगी।

इस तस्वीर को युद्ध फोटोग्रफर फ्रान्सेस्को मालाटोवा ने खींचा था। उनका कहना था कि एक पोलिश मां ने कहा कि उन्हें यूक्रेन की किसी मां के लिए शिशु बग्गी और अपने बच्चे के कपड़े दान करने पर खुशी का अनुभव हो रहा था।

मालाटोवा कहते हैं कि इस स्पप्निल दृष्य ने उन्हें भावविभोर कर दिया था- एक तरफ भारी सन्नाटे के बीच इन्तज़ार कर रहीं बग्गियां और दूसरी ओर बस 2 किलोमीटर की दूरी पर एकल महिलाओं और बच्चों की सर्पीली कतारें।

यूक्रेन में हर जगह दो विरोधाभासी दृश्य सामने आ रहे हैं। एक ओर सरेंडर किये हुए रूसी सैनिक को महिलाएं अपना फोन देकर मां से उसकी बात कराती हैं, तो दूसरी ओर दसियों हज़ार महिलाएं अपने बच्चों और घर के बुजुर्गों को पोलैंड की सरहद तक पहुंचाकर देश वापस लौट रही हैं, हथियार उठा रही हैं, ताकि वे बढ़ते रूसी सैनिकों का मुकाबला कर सकें। वे हथियार उठाकर लड़ रही हैं या ज़रूरत पड़ने पर मोर्चा सम्भालने के लिए प्रशिक्षण ले रही हैं।

आखिर कैसे इतनी बहादुर बनीं यूक्रेन की औरतें? 2014 में 'रेवोल्यूशन ऑफ डिग्निटी’ के समय से रूस के साथ युद्ध चल ही रहा था। उस समय औरतों को सेना में बराबरी का दर्जा नहीं दिया गया था। उन्हें सहायकों की भूमिका में रखा जाता और कभी भी सेना में वो पोस्ट व सुविधाएं नहीं दी जाती थीं जो पुरुषों को मिलतीं। काफी संघर्ष करने के बाद और जब सरकार को लगने लगा कि महिलाएं पुरुषों के बराबर जिम्मेदारी निभा रही हैं और उनके बग़ल में लड़ सकती हैं, उन्हें 2018 में बराबरी का दर्जा मिला। इसने इन औरतों के मनोबल को बढ़ाया और वर्तमान समय में वे सेना का 15-17 प्रतिशत हिस्सा हैं। पर समाज शास्त्रियों का कहना है कि यूक्रेन की औरतें ऐतिहासिक रूप से स्वावलंबी और बहादुर रही हैं। वे खेतों को जोततीं और मवेशी पालकर अपना खर्च चलातीं। ये देखा गया कि समाज में एक विधवा या एकल महिला अपनी मेहनत के बल पर उतने ही शान से रहतीं जैसे कोई मर्द! आप कह सकते हैं कि नारीवाद के बीज उनके भीतर बचपन से ही पड़ गए थे। मस्लन, एक 49-वर्षीय महिला, तान्या कोबज़ार बताती हैं कि उनकी दादी ने द्वितीय विश्व युद्ध में सैनिक का काम किया था और अपने घर में उनकी तस्वीर को देखकर लगा मानों वह कह रही हों, ‘‘जाओ, देश के लिए लड़ो।’’ ऐसे ही कई महिलाओं ने प्रथम व द्वितीय विश्व युद्ध में काम किया था आज तान्या सेना में भर्ती हो गई हैं।

एक समय यूक्रेन यूएसएसआर का ही हिस्सा था पर 2014 से यूक्रेन और रूस में क्रीमिया और डोनबास की स्थिति (जो यूक्रेन के हिस्से माने जाते थे) को लेकर युद्ध छिड़ा हुआ है। अमेरिका भले ही प्रत्यक्ष रूप से सामने नहीं है, वह अपनी विस्तारवादी नीति के तहत नेटो में यूक्रेन की सदस्यता के मुद्दे को लेकर राजनीति कर रहा है। हम इस विषय में विस्तार से बात नहीं करेंगे पर क्योंकि युद्ध हर देश के लिए बुरा है, हम यह जरूर जानने की कोशिश करेंगे कि इस युद्ध छिड़ने पर यूक्रेन और रूस की महिलाओं को क्या कुछ झेलना पड़ रहा है और युद्ध लम्बा खिंचा तो उनपर और उनके बच्चों पर क्या प्रभाव पड़ेगा।

युद्ध से सबसे अधिक तबाह होती हैं महिलाएं

हम जानते हैं कि यूक्रेन एक छोटा देश है जिसकी जनसंख्या भारत से 33 गुना कम है। पर इस छोटे से देश की महिलाएं देशभक्ति और अदम्य साहस व सहनशक्ति का जो परिचय दे रही हैं, वह बेमिसाल है। युद्ध शुरू होने के साथ ही सरकार ने आदेश दिया कि 18-60 बरस के पुरुषों को यूक्रेन में ही रहना होगा और देश की रक्षा करनी होगी। तब महिलाओं के लिए एक ही उपाय बच जाता है-यदि वे काबिल हों तो युद्ध के दौरान अपने लोगों की मदद करें। पर शुरू में लगा था कि युद्ध अधिक नहीं खिंचेगा। तब कई औरतें हमले के केंद्र में अपने घर छोड़कर ऐसे इलाकों की ओर बढ़ीं जो रूसी सैनिकों के टार्गेट में नहीं थे, या फिर देश छोड़कर यूरोप के दूसरे देशों में शरणार्थी बनकर तबतक रहने की बात सोच रही थीं जबतक युद्ध थम नहीं जाता। क्योंकि सबसे बड़ी समस्या है बच्चों, बूढ़ों और बीमारों की। उन्हें आक्रमण के बीच कीव में नहीं रखा जा सकता। पर जैसे जैसे आक्रमण तेज़ हुए, औरतें पुरुष सैनिकों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर लड़ने का मन बनाने लगीं।

दूसरी ओर ऐसी महिलाएं हैं जो अपने घरों से जाना नहीं चाहतीं। एक 85 वर्षीय महिला का कहना है कि उसका कोई नहीं है। 60 बरस से वह एक ही घर में रहीं और वह उसे छोड़कर जाना नहीं चाहतीं। वह दर-दर भटकने के बजाए अपने घर में ही मरना बेहतर समझती हैं। एक अन्य 84 वर्ष की महिला बताती हैं कि 26 सालों तक वह खदानों में रोशनी देने का काम करती रहीं। उनके परिवार के कई पुरुष खदानों में काम करते हुए मरे। पिछले 8 सालों से बारूद के धमाके सुन-सुनकर आदत पड़ चुकी है। पर घर में हीटिंग सिस्टम काम नहीं करता तो हाथ-पैर बर्फ जैसे हो जाते हैं। स्वेटलाना नाम की एक महिला बताती है कि उसका सूटकेस जरूरी सामान के साथ हरदम तैयार रहता है। कभी भी अचानक घर छोड़ना पड़ सकता है। वह ड्रोन, मिसाइल और बमों के धमाके सुनती रहती हैं।

कोई भी युद्ध हो, महिलाएं सबसे अधिक झेलती हैं। उन्हें हर समय यह डर सताता है कि वे बेघर हो जाएंगी तो पूरी तरह असुरक्षित हो जाएंगी। यही नहीं, उन्हें अपने बच्चों की सुरक्षा का प्रबंध भी करना होता है, खासकर नन्हे शिशुओं और बेटियों का। युद्ध के समय यौन हिंसा बढ़ती है-वह घर से लेकर बाहर तक औरतों के मनोबल को तोड़ती है।

युद्ध के समय, जब औरतें बड़ी तादाद में बेरोज़गार और असुरक्षित हो जाती हैं और अक्सर बेघर बिना मर्दों के भटकती हैं, देह व्यापार में भी इज़ाफा होता है। गरीबी और बच्चों की जिम्मेदारी के कारण कई औरतें मजबूर होकर सेक्स व्यापार में फंस जाती हैं।

यूक्रेन की महिलाएं इस भयावह भविष्य की कल्पना करके चिंतित हैं। एक 19-वर्षीय किशोरी ऐन्ना की मां ने टीवी पर खुलकर कहा कि उसे रूसी सैनिकों को देखकर डर लगता है। वह अपनी बेटी ऐनी को अपनी मित्र के पास कैलिफाॅर्निया भेजना चाहती है, जो उसकी ‘गाॅडमदर’ हैं और कहती हैं कि ऐनी की मां ने कहा है,‘‘यदि मैं नहीं बच पाती, कम-से-कम ऐनी आपके पास सुरक्षित रहेगी।’’ उसे वह अपने साथ नहीं रख सकती पर उसे युद्ध के दौर में अपने बुजुर्ग माता-पिता की देखभाल के लिए रुकना पड़ा है क्योंकि लगातार बम और मिसाइलों की आवाज़ें आती हैं और खतरा है।

ऐनी अपनी टूटी-फूटी अंग्रेज़ी में बताती है कि पोलैंड के सरहद पर देह व्यापारी ‘‘अजीब नज़रों से देखते हैं, और माहौल खतरों से भरा है’’। फिर भी वह अकेले यात्रा करने के लिए तैयार है और अपनों से बहुत दूर जाकर रहने की हिम्मत जुटा रही है। ऐसी अनेकों युवतियां और बच्चे हैं जो नहीं जानते कि वे दोबारा अपने माता-पिता को देख सकेंगे या नहीं।

जो महिलाएं देश से भाग रही हैं-अपने पतियों, बेटों और पिताओं को देश में छोड़कर वे दूसरे इलाकों या देशों की ओर 26-28 घंटे बच्चों सहित यात्रा कर रही हैं। कौन हैं ये औरतें और क्यों सब कुछ छोड़कर उन्हें देश से भागना पड़ा? बताया जाता है कि रूस ने जबसे यूक्रेन पर हमला किया है, तबसे करीब 35 लाख लोग देश छोड़कर जा चुके हैं, जिसमें अधिकतर औरतें और बच्चे हैं।

युद्ध 2014 से ही जारी है पर औरतें मुकाबले के लिए तैयार

इस युद्ध की शुरुआत 2014 से हीे हो चुकी थी, जब रूस-समर्थित मिलिटैंट्स पूर्वी और दक्षिणी यूक्रेन के अलग-अलग इलाकों में हमला कर रहे थे और यूक्रेन के नगरिकों को इनसे लड़ना पड़ रहा था। यद्यपि यूक्रेन की सेना प्रमुख रूप से पुरुषों से भरी हुई है, 32,000 औरतें भी सेना में काम करती हैं, भले ही सब काॅम्बैट रोल में नहीं रहतीं। सैनिकों को चिकित्सा सेवा प्रदान करना, पेट्रोलिंग करना, नए भरती किये गए सैनिकों को ट्रेनिंग देना, सैनिक साज़ो-सामान के रखरखाव व घायलों की देख-रेख करना-ये सारे काम महिला सैनिक बेहतर करती हैं।

जो औरतें काॅम्बैट मेडिक्ज़ हैं उन्हें चिकित्सा के अलावा सैनिक प्रशिक्षण भी लेना होता है, क्योंकि किसी भी समय हमले का सामना करना पड़ सकता है। आज उनके काम काफी अधिक बढ़ गए हैं, पर वे जिम्मेदारियों से न घबरा रही हैं न उनसे मुंह चुरा रही हैं। अब कई महिलाएं जो किसी अन्य पेशे में थीं, बन्दुकें और सैनिक अस्त्र-शस्त्र चलाना सीख रही हैं।

सर्जेन्ट डारिया फिलिपीवा आर्मी काॅम्बैट मेडिक है। 33 वर्ष की डारिया बांह में काॅम्बैट गन लटकाकर रखती है। वह कहती है, ‘‘मैं रण कौशल, ज्ञान और अस्त्र-शस्त्र से पूरी तरह लैस हूं और मैंने काॅम्बैट ट्रेनिंग भी ली है। यदि मैं मर गई तो महज अपने लिये नहीं मरूंगी।’’ इसी प्रकार एक 29-वर्षीय मेकअप आर्टिस्ट कहती है, ‘‘लड़कों के साथ मैंने भी बंदूक चलाने का प्रशिक्षण लिया। मैं मशीनगन खोलकर असेंबल कर सकती हूं और 4 किस्म के बंदूक चलाना जानती हूं। मुझे देश की रक्षा करनी है।’’

एक 55 वर्षीय मेडिक बताती है कि लोगों ने एक पुल गिरा दिया है ताकि रूसी सैनिक अंदर न आ सकें। पर जब लोगों को पार करना पड़ता है, वह उन्हें पानी में डूबे पुल पर चलकर या नदी पार करके जाने में मदद करती हैं। विक्टोरिया क्रामारेन्कों भी मेडिक है। अर्पिन पर जब हमला हुआ विक्टोरिया ने रस्सी की सीढ़ियां बनाकर लोगों को निकलने में सहायता की।

मीडिया में यूक्रेन की महिलाओं के बारे में ऐसी असंख्स कहानियां सामने आ रही हैं जिसमें वे चेकपोस्टों पर पेट्रोलिंग कर रही हैं, बमबारी के इलाकों से नागरिकों को सुरक्षित बाहर निकाल रही हैं, फ्रंटलाइन पर आपात्कालीन मेडिकल सेवा प्रदान कर रही हैं और हमलों के बीच कई-कई चक्कर लोगों को सरहद तक पहुंचाने का काम कर रही हैं। वे नया इतिहास रच रही हैं।

भविष्य की ज़रूरतें

एक 70 वर्षीय महिला अपने पति की बहनों, अपनी बेटी और उसके एक साल के नाती को लेकर मोलदोव के रिसेप्शन सेंटर पर पड़ी हैं क्योंकि उनका घर बम्बारी से ध्वस्त हो चुका है। वह बताती हैं कि एक-एक केंद्र में 100 के करीब लोग रहते हैं और धीरे-धीरे ज़रूरत का सामान खत्म हो रहा है। इसलिए बेटी और नन्दों को नौकरी की ज़रूरत है। पर महिलाएं निर्णायक संस्थाओं में कहीं नहीं हैं, तो उनकी ज़रूरत और बेहतरी के मसलों पर बात कैसे होगी? ‘‘जब युद्ध के दौर में महिलाएं महत्वपूर्ण कार्यों में लगी हैं और अपना पूरा योगदान दे रही हैं तो वे ‘नेगोशियेटिंग टेबल’ पर क्यों नहीं हैं?’’वह पूछती हैं।

विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार यूक्रेन की स्वास्थ्य सेवा का प्रमुख हिस्सा महिलाएं हैं, यानी देश की स्वास्थ्य कार्यशक्ति का करीब 83 प्रतिशत हिस्सा महिलाएं निर्मित करती हैं। उनपर सबसे बड़ा खतरा है कि वे इस संकट के समय काम छोड़कर कहीं जा नहीं सकतीं। वे अपनी जान जोखिम में डालकर ड्यूटी का निर्वाह कर रही हैं। उनकी रक्षा और ज़रूरत की वस्तुओं के प्रबंध पर सरकार को प्राथमिकता देनी होगी।

यूएनएफपीए ने बताया है कि अगले तीन महीनों में करीब 80,000 औरतें मां बनेंगी। उन्हें जच्चगी के समय मदद की जरूरत होगी और उनके नवजात शिशुओं की जरूरतों का प्रबंध भी करना होगा। पर जब युद्ध जारी होता है, तब रोज़मर्रे के चिकित्सीय प्रबंध मार खाते हैं, क्योंकि प्राथमिकता घायल सैनिकों का इलाज और उनकी देखरेख बन जाती है। माताओं और बच्चों के लिये स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च भी घट जाता है। और सबसे बड़ी समस्या होती है बाॅम्बिंग के समय उन्हें सुरक्षित रखना। कई जगह तो अस्पतालों के बेसमेंट में महिलाएं जन्म दे रही हैं, ताकि वे हमलों से सुरक्षित रहें। पड़ोसी देशों में स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध हैं पर शरणार्थियों की भीड़ की वजह से काफी दबाव बना हुआ है। शरणार्थियों को एटीएम से लेकर दवा की दुकानों पर काफी काफी समय तक कतारों में खड़ा होना पड़ता है। पर स्वयंसेवी खतरे मोल लेकर भी बुज़ुर्गों और बच्चों की मदद करने के लिए लगे रहते हैं।

मस्लन, एक एनजीओ कार्यकर्ता ने जब एक औरत से पूछा कि उसे खाने या दवा की जरूरत है तो वह फूट-फूटकर रोने लगी और कुछ बोल ही नहीं सकी। इसलिए मानसिक स्वास्थ्य पर विशेष ध्यान देना होगा। युद्ध के दौर में जो कुछ देखा-सुना जाता है और अपनों से जिस तरह बिछड़ना होता है, कभी-कभी तो हमेशा के लिये भी, वह किसी के भी मन को उद्वेलित कर देगा। बूढ़े, अकेली औरतें और बच्चे सबसे अधिक प्रभावित होते हैं। और यह अवसाद सालों-साल चलता है। बच्चे माता-पिता से दूर हो जाते हैं, कई बार एक या दोनों अभिभावकों को खो देते हैं; खुद घायल होते हैं या अपनों को खून से लथपथ हालत में देखते हैं। वे रोते हैं पर समझ नहीं पाते कि क्या हो रहा है और क्यों हो रहा है। इसलिए उन्हें ट्राॅमा होता है, जो जीवन भर उनके साथ रह सकता है। शान्ति प्रयासों और पुनर्वास के साथ-साथ इस समस्या का समाधान भी अत्यंत महत्वपूर्ण है। देश के लोगों का मानसिक स्वास्थ्य ठीक होगा तभी वे वापस सामान्य जीवन की ओर बढ़ सकेंगे। वरना देश को इसका खामियाजा भुगतना पड़ेगा। लगातार यह मांग चिकित्सकों और सामाजिक संगठनों की ओर से उठ रही है कि मानसिक चिकित्सा व्यवस्था का विस्तार करना होगा। और इसमें महिला चिकित्सकों की अहम भूमिका होगी।

एकता और सामुदायिक सोच में ताक़त है

जर्मनी, यूके और अन्य यूरोपीय देशों में काम कर रही यूक्रेनी महिलाएं अपने देश वापस आने की तैयारी कर रही हैं क्योंकि उन्हें लग रहा है कि उन्हें देश के इस संकट की में मदद करनी चाहिये। यूक्रेन सरकार द्वारा नियंत्रित क्षेत्रों में 71 प्रतिशत घरों की मुखिया महिलाएं हैं। 60 वर्ष से अधिक आयु के मुखियाओं में 88 प्रतिशत महिलाएं हैं। वे सैनिकों और ठंड झेल रहे गरीबों के लिए जैकेट सिल रही हैं, गरम कपड़े बुन रही हैं। समुदाय आपस में अब एकताबद्ध हो रहे हैं तो एक-दूसरे की बेहतर मदद कर पा रहे हैं। वे आपस में रोज़ संपर्क करते हैं और स्थिति का पता करते हैं। जरूरत पड़ने पर स्वयंसेवी संगठनों से संपर्क करते हैं। स्वयंसेवी संगठन टूटे व क्षतिग्रस्त घरों का पुनर्निमाण करवा रहे हैं।

रेड क्राॅस लगातार फंसे हुए लोगों की मदद कर रहा है, खासकर जहां बिजली, गैस और पानी की सप्लाई कट गई है और अकेले या बीमार लोग रहते हैं। यूएन और विश्व भर के तमाम देशों को दवाएं, ऑक्सिजन, जीवन रक्षक औषधियां, बच्चों के लिए दूध, और सप्लिमेंट्स भेजकर यूक्रेन की मदद भी करनी होगी। पर सबसे महत्वपूर्ण है रूस पर विश्व भर से दबाव बना है कि वह रिहायशी क्षेत्रों, अस्पतालों और स्कूलों पर हमले बन्द करे और बिना शर्त सेना वापसी की घोषणा कर कूटनीतिक रास्तों से समस्या-समाधान की ओर बढ़े।

जब से युद्ध आरंभ हुआ रूस के 33 शहरों में लाखों रूसी नागरिक और महिलाएं सड़कों पर आकर या अन्य तरीकों से शान्ति के लिए गुहार लगा रहे हैं। उन्हें मालूम है कि युद्ध की वजह से उन्हें महंगाई और प्रतिबन्ध झेलने पड़ेंगे। उनके घरों के मर्द युद्ध में मारे जाएंगे और यूक्रेन में रहने वाले उनके रिश्तेदारों को ठीक उन्हीं स्थितियों का सामना करना होगा जो यूक्रेन के नागरिकों को करना पड़ रहा है।

मार्च के पहले सप्ताह में 2 महिलाएं और उनके नाबालिग बच्चे जब रूस स्थित यूक्रेनी एम्बसी में जाकर मृतकों की याद में फूल रख रहे थे, उन्हें पुलिस ने हिरासत में ले लिया था, जबकि 14 वर्ष से कम उम्र के बच्चों को गिरफ्तार नहीं किया जा सकता। पुलिस ने यहां तक कहा कि ऐसी औरतों से उनके बच्चों की कस्टडी छीन ली जा सकती है। बच्चों की माताओं पर बेबुनियाद आरोप लगाए गए हैं। एक अन्य रूसी महिला ने सोशल मीडिया पर इस घटना का चित्र शेयर करके लिखा ‘‘जो कुछ हो रहा है वह मेरे दिमाग को पच ही नहीं रहा। बच्चों की अभिव्यक्ति को लेकर अभिभावक डरे हुए हैं।’’

एक 77-वर्षीय महिला कलाकार येलेना ओसिपोवा को सेन्ट पीटर्सबर्ग में युद्ध-विरोधी मार्च करते हुए गिरफ्तार किया गया था। पर सबसे अधिक चर्चा है रूसी चैनेल वन की पत्रकार मारिना ओव्स्यानिकोवा की जिन्होंने टीवी पर लाइव आकर युद्ध का विरोध किया। इसके लिए उनपर रूस की अदालत ने 30,000 रूब्लस जुर्माना लगाया है और उन्हें हिरासत में ले लिया है। पर मारिना पीछे नहीं हटीं। लगातार खबरें आ रही हैं कि प्रतिबन्ध के कारण रूबल यूएस डाॅलर के मुकाबले गिर रहा है। ऐसी स्थिति में रूसी नागरिकों को रूस से बाहर पैसा ट्रान्सफर करने पर रोक लग गई है और ब्याज दर दूने कर दिये गए हैं। सभी जानते हैं कि यु़द्ध से किसी का भला नहीं होता।

(लेखिका एक सामाजिक कार्यकर्ता हैं। विचार व्यक्तगित हैं।)

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