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सबरीमाला विरोध : ये बाबरी मस्जिद पर संभावित फैसले का पूर्वाभ्यास है!

आप अंदाज़ा लगाइए कि अगर देश के सर्वोच्च न्यायालय के फैसलों का इसी तरह खुलेआम विरोध शुरू हो जाएगा तो संविधान का क्या होगा, देश कहां जाएगा?
सांकेतिक तस्वीर

आप चाहते हैं कि मुसलमान और अन्य अल्पसंख्यक आपके ज़ुबानी फरमान भी मानें कि वे क्या खाएं, क्या पहनें, कैसे रहें, कैसे न रहें, और आप...? आप सुप्रीम कोर्ट का फैसला भी नहीं मानेंगे! उसका खुलेआम विरोध करेंगे।

और सिर्फ विरोध ही नहीं करेंगे बल्कि मरने-मारने पर उतारु होंगे, हिंसा करेंगे...और फिर भी खुद को देशभक्त कहेंगे और दूसरे संविधान का पालन करके भी देशद्रोही कहलाएंगे।

ये नयी रीत चली है। दीपावली पर पटाखें न जलाने और जलीकट्टू पर दिए गए आदेशों की धज्जियां उड़ाने के बाद अब सबरीमाला पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले का खुलेआम उल्लंघन किया जा रहा है। क्या ये बाबरी मस्जिद पर आने वाले संभावित फैसले का पूर्वाभ्यास है? विरोध का रिहर्सल है? जैसे सन् 92 में और उससे पहले कारसेवा, रामज्योति और रथयात्रा के नाम पर बाबरी मस्जिद गिराने का रिहर्सल किया गया था। माहौल बनाया गया था। उस समय भी बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व अटल-आडवाणी और यूपी में बीजेपी की कल्याण सरकार ने बाबरी मस्जिद की सुरक्षा के सुप्रीम कोर्ट के आदेश को ताक पर रख दिया था।

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दरअसल राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) और भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) और इनसे जुड़े संगठनों को लगता है कि राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद में अगर फैसला आस्था पर न होकर ज़मीनी हकीकत और सुबूतों के आधार पर हुआ तो वो उनके खिलाफ जाएगा।

सुप्रीम कोर्ट ने कहा भी है कि अयोध्या मामले को आस्था के आधार पर नहीं बल्कि एक विवादित जमीन के मालिकाना हक के मामले की तरह देखा जाएगा।

अगर ऐसा हुआ तो फैसला निश्चित ही बाबरी के पक्षकारों के पक्ष में जा सकता है। तब? तब कैसे उसका विरोध किया जाएगा? क्योंकि बरसों से जब भी मामला फंस रहा है तो यही कहा जा रहा है कि सुप्रीम कोर्ट का जो फैसला होगा वो सभी पक्ष मानेंगे।

राष्ट्रीय पार्टी होने और सरकार के तौर पर बीजेपी की ऐसा कहना मजबूरी भी है। हालांकि सरकार और पार्टी में कई मुंह से अलग-अलग बयान देकर विरोध की पूरी गुंजाइश रखी जाती है। संसद में कानून बनाने तक की बात कही जाती है, लेकिन फिलहाल सभी को सुप्रीम कोर्ट के फैसले का इंतज़ार है। और ये सच है कि अगर फैसला राम मंदिर के पक्ष में आया तो यही आरएसएस और बीजेपी और इनके समर्थक ‘कुतबमीनार पर चढ़कर’ कहेंगे कि अब तो विरोध की कोई गुंजाइश ही नहीं बचती।   

लेकिन अगर बाज़ी पलट गई तो जिसका इन्हें बहुत डर है तो इसी तरह आस्था के नाम पर कोर्ट के फैसलों को चुनौती दी जाएगी, जिसके विरोध की ज़मीन अभी से तैयार की जा रही है।

पिछले साल दीपावली पर दिल्ली-एनसीआर में पटाखों पर बैन का इसी आस्था के नाम पर विरोध किया गया। हालांकि कोर्ट ने प्रदूषण को देखते हुए सबके हित में ही इसके आदेश दिए थे। लेकिन आरएसएस और बीजेपी से जुड़े लोगों ने इसे पटाखों पर बैन की जगह दिवाली पर बैन की तरह पेश किया। इसे ऐसे बताया गया जैसे कोर्ट हिन्दुओं के ही खिलाफ हो। और फिर शक्तिप्रदर्शन करते हुए दिल्ली में दिवाली की रात खूब पटाखे बजे। हालांकि ये सुखद रहा कि तब एक बड़ा वर्ग इनके उकसावे में नहीं आया और अन्य सालों की अपेक्षा बहुत लोगों ने पटाखें नहीं जलाए।

इसी तरह तमिलनाडु का जलीकट्टू। आस्था के नाम पर इसका भी विरोध किया गया। तमिलनाडु के ग्रामीण इलाकों में पोंगल त्योहार पर ये खेल होता है जिसमें बैलों से इंसानों की लड़ाई कराई जाती है। इसमें हर साल कई लोगों की जान भी चली जाती है और इसे बैलों के प्रति क्रूरता के तौर पर भी देखा जाता है। तमिलनाडु की स्थानीय राजनीति के चलते वहां तो इसका विरोध हुआ ही, उसके बाहर खासकर उत्तर भारत में आरएसएस-बीजेपी से जुड़े लोगों ने इसे बकरीद और अन्य के  उदाहरण देकर हिन्दुओं के खिलाफ बताया और मुसलमानों के विरुद्ध एक माहौल तैयार किया गया। यानी गौरक्षा की बात करने वालों ने आस्था के नाम पर बैलों के प्रति क्रूरता और मानवीय जान की भी परवाह नहीं की।

आरएसएस-बीजेपी की पूरी नीति-रणनीति ही आस्था के नाम पर खेल खेलने की या खिलवाड़ की है। इसी उकसावे का परिणाम है कि छोटे-छोटे कट्टरवादी गुट भी अपने खिलाफ गए कोर्ट के फैसलों को खुलेआम हिंसा का सहारा लेकर चुनौती देते रहते हैं।  हालात ये हैं कि एक फिल्म (पद्मावत) के लिए भी सुप्रीम कोर्ट के आदेश की अवहेलना कर दी जाती है।

अब धर्म और आस्था का इस तरह प्रयोग किया जा रहा है कि जनता की ज़रूरी और बुनियादी मांगों को भी दरकिनार किया जा रहा है। भ्रष्टाचार और अपनी राजनीतिक, प्रशासनिक विफलता छुपाने के लिए भी इसी का इस्तेमाल किया जा रहा है। ये समूह हर तर्क, हर सिद्धांत को धर्म और आस्था की आड़ में खारिज करता है।

यानी सत्ता पाने और सत्ता बनाए रखने के लिए हर तरह से धर्म और आस्था का इस्तेमाल किया जा रहा है।

यहां तक की बराबरी और इंसाफ के सवालों को भी धर्म और जातिवाद की आड़ में खारिज कर देता है। इसी के चलते बीजेपी की ओर से कभी प्रत्यक्ष तो कभी परोक्ष रूप से समलैंगिकता को अपराध बनाने वाली धारा-377 को हटाने का विरोध किया गया। इसी तरह एडल्टरी को अपराध के दायरे से बाहर करते हुए आईपीसी की धारा 497 को असंवैधानिक करने के सुप्रीम कोर्ट के आदेश का विरोध किया गया। मोदी सरकार में काफी पढ़े-लिखे और आधुनिक कहे जाने वाले वित्त मंत्री अरुण जेटली तक ने इन फैसलों से असहमति व्यक्त की।

सब जानते हैं कि राममंदिर आंदोलन की बदौलत ही बीजेपी ने इतनी बढ़त बनाई और इसी धर्म की राजनीति के चलते वो आज पूर्ण बहुमत की सरकार में है। देश के कुल 29 राज्यों में 19 राज्यों में आज बीजेपी और उसके गठबंधन की सरकारें हैं, लेकिन जिन राज्यों में उसकी सरकार नहीं है वहां वो केंद्र या अन्य राज्यों में काम के उदाहरणों की बजाय धर्म के मुद्दों को पर ही चुनाव लड़ना चाहती है। उदाहरण के लिए पश्चिम बंगाल, जहां लगभग 34 वर्षों तक वाम मोर्चे का शासन रहा और अब 2011 के बाद से ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस का शासन है, वहां अपनी घुसपैठ के लिए इसी तरह का सांप्रदायिक माहौल बनाया जा रहा है। पिछले कुछ सालों में वहां कई दंगें हुए हैं।

पश्चिम बंगाल में असम की तरह बांग्लादेशी घुसपैठ के मुद्दे के अलावा दुर्गापूजा के बरअक्स रामनवमी का विमर्श भी खड़ा किया गया है। जिस राज्य का प्रमुख त्योहार बरसों से दुर्गापूजा ही था वहां पिछले कुछ सालों में रामनवमी के जुलूस बड़े पैमाने पर निकाले जाने लगे हैं जिसमें काफी हिंसा भी हुई है। इसके अलावा दुर्गा विसर्जन में भी झगड़े के बहाने तलाशे जा रहे हैं। पिछले साल मुहर्रम और दुर्गा विसर्जन एक ही दिन पड़ने पर काफी हंगामा खड़ा किया गया।

इसी तरह केरल, जहां मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीएम) के नेतृत्व में लेफ्ट डेमोक्रेटिक फ्रंट (एलडीएफ) की सरकार है, वहां भी जब तमाम कोशिशों के बाद बीजेपी के पांव नहीं जम सके तो अब उसने यही धर्म, आस्था और भावनाओं का खेल खेलना शुरू कर दिया। सबरीमाला इसी का उदाहरण है। भगवान अयप्पा, उनका ब्रह्मचर्य अपनी जगह लेकिन उनके नाम पर आरएसएस-बीजेपी और उनसे जुड़े संगठन भावनाएं भड़काने का वही पुराना खेल, खेल रहे हैं और फैसले के खिलाफ कई विरोध प्रदर्शन भी कर चुके हैं।

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आप जानते हैं कि भगवान अयप्पा शिव और विष्णु (मोहनी) के पुत्र माने जाते हैं और केरल की सबरीमाला पहाड़ी पर उनका मंदिर है। यहां रजस्वला स्त्री यानी वो महिला जिसे मासिक धर्म होता हो वो पूजा के लिए नहीं जा सकती। अब तक नियम या परंपरा थी कि 10 से 50 वर्ष की महिलाओं को यहां प्रवेश की अनुमति नहीं थी। सुप्रीम कोर्ट ने इसे लैंगिक भेदभाव, गैरबराबरी मानते हुए खारिज कर दिया।

28 सितंबर को 4-1 के बहुमत से दिए अपने आदेश में सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट रूप से कहा कि सबरीमाला मंदिर किसी संप्रदाय का मंदिर नहीं है। अयप्पा मंदिर हिंदुओं का है, यह कोई अलग इकाई नहीं है।

कोर्ट ने कहा कि "शारीरिक या जैविक आधार पर महिलाओं के अधिकारों का हनन नहीं किया जा सकता। सभी भक्त बराबर हैं और लिंग के आधार पर कोई भेदभाव नहीं हो सकता।"

इससे पहले अन्य मंदिर जैसे महाराष्ट्र के शनि शिंगणापुर में  भी इसी तरह महिलाओं के प्रवेश पर रोक थी। महाराष्ट्र के ही हाजी अली दरगाह में भी मज़ार तक महिलाएं नहीं जा सकती थीं, लेकिन कोर्ट ने इस सबको नहीं माना और परंपरा के नाम पर चल रहे इस भेदभाव को खत्म किया। उनको लेकर भी इसी तरह का विरोध किया गया था लेकिन अब सबरीमाला को लेकर तो विरोध काफी बढ़ गया है। क्योंकि बाबरी मस्जिद पर फैसला और 2019 के आम चुनाव दोनों नज़दीक है। और बीजेपी इसे अपने काम से ज़्यादा धर्म, आस्था और भावनाओं के आधार पर ज़्यादा लड़ना चाहती है।      

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आप अंदाज़ा लगाइए कि अगर देश के सर्वोच्च न्यायालय के फैसलों का इसी तरह खुलेआम विरोध शुरू हो जाएगा तो संविधान का क्या होगा, देश कहां जाएगा? लेकिन असल बात तो ये है कि कट्टरवादी ताकतों की मंशा ही संविधान बदलने की है और देश को एक अंधराष्ट्र बनाने की है, इसलिए सबरीमाला तो अभी झांकी है, बाबरी मामले में विरोध बाकी है।

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