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स्मृति शेष : एक असाधारण व्यक्तित्व; द वन एण्ड ओनली रमणिका गुप्ता

हम आपको मिस करेंगे कॉमरेड, मगर आप रहेंगी हमारे बीच। देश और उसके असली अवाम के लिए जूझते लाल झंडों के रूप में, एक ज़िद्दी लड़की की निरंतरता में, अपने साहित्य की सामयिकता में और अपनी खांटी मौलिकता में। अपनी एक किताब के शीर्षक की तरह : वह जीयेंगी अभी...।
Ramnika Gupta
Image Courtesy: NDTV Khabar

अपने घर से कोई 500 किलोमीटर दूर जाकर पहाड़ियों जंगलों में पैदल घूमना, मजदूरों की झोपड़ियों में उनके साथ बैठकर उनका डर मिटाना। उन्हें जलूस और हड़ताल के लिए तैयार करना। गुंडों -सचमुच के गुंडों- से लड़ना भिड़ना। पिटना, फिर पिटना और फिर धीरे से पिटने वालों के बीच इतना हौसला पैदा कर देना कि वे उनके साथ मिलकर सामने वालों को ईंट का जवाब पत्थर से देने के लायक बन जायें। बहुत मुश्किल काम होता हैं। मुश्किल और बढ़ जाती है जब यह काम करने वाली कोई औरत होती है।
वाम आंदोलन में काम के कोई आधी सदी के अनुभवों के बाद समझ आ गया है कि सबसे मुश्किल काम होता है पहली पहली यूनियन बनाना। जिनकी यूनियन बनाई जा रही है उनके मन से दमन और बर्खास्तगी, जेल और मौत का भय मिटाना। इससे भी ज्यादा मुश्किल होता है दलित और आदिवासियों की यातनामय जिंदगी के कारणों से लड़ना- और सबसे कठिन होता है स्त्री के अधिकारों की आवाज उठाना - उसके लिए लड़ना। इसलिए कि स्त्री के मामले में दमन की चक्की के दोनों  - आर्थिक और सामाजिक-  पाट पूरी रफ़्तार के साथ चलते हैं और  विडम्बना यह है कि इन्हे गति देने वाले हाथों में "अपनों" के जाने पहचाने हाथ भी होते हैं। 
यह सब करते हुये, इसी के साथ साथ, इसी के दौरान, साहित्य- सच्ची मुच्ची का साहित्य- रचना, भारत के दलित-आदिवासी-स्त्री साहित्य का केंद्र बनकर उभरना। अपनी खुद की जिंदगी भर की कमाई, अपनी बेटियों की कमाई को झोंक कर देश के सार्थक और बदलाव के प्रति समर्पित आदिवासी-दलित और स्त्री रचित साहित्य का केंद्र खड़ा कर देना। बहुत ही विरल होता है ऐसा कॉम्बिनेशन। सिर्फ वाम में ही मिलता है और -जिन्हें बुरा लगे वे हमें गलत साबित करें- वहां भी उतना प्रचुर नहीं जितना उनके यानी हमारे इतिहास में है। 
रमणिका गुप्ता एक ऐसा ही कॉम्बिनेशन : केमिस्ट्री की भाषा में बोलें तो कंपाउंड यानी यौगिक थीं। जितनी मैदानी मोर्चे उतनी ही रूहानी -रचनात्मक- विचार के मोर्चे पर भी मुस्तैद और सन्नद्द!!  फ्रेंकली स्पीकिंग हमे भी इस पर यकीन नहीं होता खासतौर से तब -अब हमे कबूल करने में खुद पर शर्म आ रही है- जब यह काम एक स्त्री, महिला, औरत ने किया था। 
तब हम ऐसे ही थे, एक पुरुष ट्रेड यूनियनिस्ट, जब बहुत पहले -बहुत ही पहले- कोई चौथाई सदी पहले, शायद उससे भी पहले, पहली बार मध्यप्रदेश-उत्तरप्रदेश में फैली नॉर्दन कोल फील्ड की कोयला खदानों के मजदूरों के बीच सीटू की यूनियन बनाने के लिए कॉमरेड एस कुमार के साथ गये थे और कॉमरेड पी एस पांडेय ने कहा था कि मध्य प्रदेश में जब रजिस्ट्रेशन कराये तो यूनियन का नाम कोल फील्ड लेबर यूनियन ही रखियेगा। क्यों पूछने पर उन्होंने बताया कि रमणिका जी ने इसी नाम से हमारी यूनियन बनाई थी। 
उसके बाद जो कहानियां हमने रमणिका जी के संघर्षों की सुनी हम दंग रह गये। अपने अंदर के पुरुष -मनु के आदमी- की उपस्थिति पर इतना लज्जित हुये कि उसे सिंगरौली में ही दफ़न कर आये । (ऐसा हम मानते हैं। दुष्ट यदि कभी कभार दिख जाये तो दोष हमारा माना जाये।) उसके बाद जितनी भी बार एनसीएल सिंगरौली की जितनी भी खदानों में गए; रमणिका जी की कहानियां सुनने को मिलीं। वे हमसे पहले वहां जा चुकी थीं। 
उसके बाद सीटू और कोल फेडरेशन की मीटिंग्स में रमणिका जी जब भी मिलीं - उत्साह से मिलीं। सिंगरौली में कैसा चल रहा है पूछती और अच्छी खबरों पर खुश होती। 
मानी (मान्यता सरोज) ने जब अपने पिता के नाम पर जनकवि मुकुट बिहारी सरोज स्मृति सम्मान शुरू किया और दूसरा सम्मान संथाली भाषा की कवियित्री निर्मला पुतुल को दिया तब रमणिका जी मुख्य अतिथि थीं। वे अपने साथ ढेर उपयोगी किताबें भी लाई थीं। कुछ बिकीं, बाकी वे बेचने के लिए छोड़ गयीं थीं। याद नहीं कि उनकी वसूली के लिये कभी उन्होंने कोई तगादा किया हो। जब भी मिलीं तब यही पूछा कि लोगों को कैसी लगी किताबें? और भेजनी हैं क्या!!
वे एक सचमुच की जिद्दी लड़की (जैसा कि उन्होंने अपनी आत्मकथा का उप-शीर्षक दिया है) थीं। हर असमानता और कुरीति के विरुद्ध उठी आवाज और हर संघर्ष से और अधिक निखर कर इवॉल्व होता व्यक्तित्व; वे भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) में, जिसकी पहले बिहार और फिर झारखंड की राज्य समिति की वे सदस्य रहीं, इसी विकास प्रक्रिया से उभर कर विकसित होकर पहुँची थी। वे सीपीएम में आने से पहले, लोहियावादी समाजवादी थीं। मजदूर किसान महिला आन्दोलनों की गहमागहमी के बीच राजनीतिक मोर्चे पर भी अपनी नेतृत्वकारी भूमिका वे निबाहती रहीं। 1968 में वे संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के टिकट पर मांडू क्षेत्र से उपचुनाव लड़ीं। केवल 700 वोटों से चुनाव हारीं। 1979 में उन्होंने कांग्रेस की ए.आई.सी.सी. की सदस्यता से इस्तीफा दे दिया और लोकदल के टिकट पर 1979 में एम.एल.ए. चुनी गईं। विचार और व्यवहार दोनों के अनुभवों के साथ परिपक्व होते हुए  वे सीटू और सीपीएम में शामिल हुयी थीं।   
22 अप्रैल 1930 को पटियाला रियासत के सुनाम गांव में जन्मी रमणिका जी को बचपन से ही स्वतंत्रता आंदोलन के प्रति भारी लगाव था। पटियाला के संभ्रात बेदी कुल में पैदा हुईं। उनके पिता लेफ्टीनेन्ट कर्नल (डॉक्टर) प्यारेलाल बेदी थे। शिक्षा विक्टोरिया कॉलेज पटियाला में हुई। जब वे आई.ए. में पढ़ती थीं तो विक्टोरिया कॉलेज फॉर वूमेन, पटियाला में आई.एन.ए. (सुभाष चन्द्र बोस की आज़ाद हिन्द फौज) के समर्थन में उन्होंने अपने कॉलेज में हड़ताल कराने का प्रयास भी किया था। इस पर कॉलेज में उनकी बेंतों से पिटाई  भी की गई थी।
उन्होंने वेद प्रकाश गुप्ता से 1948 में अन्तर्जातीय प्रेम-विवाह, सो भी सिविल-मैरिज विधि से किया था -जिसे उस जमाने में एक बड़ी घटना कहा गया।
उनके संघर्षों के आयाम की विविधता कमाल की थी। 1967 में रमणिका जी कच्छ आंदोलन में गईं। जहां आंदोलन में उनकी इतनी पिटाई हुयी थी कि वे बेहोश तक हो गई थीं। उन्होंने गोमिया में पानी की लड़ाई लड़ी। चतरा में दलित स्त्रियों के डोले पहली रात बाबू साहबों के घर जाने की प्रथा के खिलाफ भी आवाज उठाई। 1975 में जंगलों में उगे महुए गाछों को पहलवानों के कब्जे से मुक्त करवाकर ग्रामीणों के महुआ चुनने के अधिकार को लागू करवाया।  
सिंगरौली क्षेत्र के मजदूरों और किसानों के आंदोलन का जिक्र पहले ही किया जा चुका है। 1985 में हुए इस तीखे टकराव वाले संघर्ष के सिलसिले में उन्हें लगभग एक साल तक भूमिगत भी रहना पड़ा। इन्हीं जद्दोजहद के चलते वे हृदय रोग की शिकार भी हो गईं। मगर अस्थिर दिल को उन्होंने कभी अपने दिमाग पर हावी नहीं होने दिया - वे बीमार हृदय के साथ भी धड़ल्ले के साथ 34 साल तक जीयीं और जीना कैसा होता है इसका उदाहरण प्रस्तुत करके गयीं। 
संघर्ष की हर विधा में रमणिका जी आगे थीं तो साहित्य की हर विधा में भी उन्होंने अपने ढेर सारे लेखन से जबरदस्त छाप छोड़ी। उन्होंने यह भरम भी दूर किया कि अत्यधिक लेखन गुणवत्ता को कमजोर करता है। उनके छह काव्य-संग्रह, चार कहानी-संग्रह एवं तैंतीस विभिन्न भाषाओं के साहित्य की प्रतिनिधि रचनाओं के प्रकाशन हुए। इनके अतिरिक्त ‘आदिवासी: शौर्य एवं विद्रोह’ (झारखंड), ‘आदिवासी: सृजन मिथक एवं अन्य लोककथाएँ’ (झारखंड, महाराष्ट्र, गुजरात और अंडमान-निकोबार) का संकलन-सम्पादन भी किया था। मराठी लेखक शरणकुमार लिंबाले की पुस्तक ‘दलित साहित्य का सौन्दर्यशास्त्र’ का मराठी से हिन्दी अनुवाद भी किया।। उनके उपन्यास ‘मौसी’ का अनुवाद तेलुगु में ‘पिन्नी’ नाम से और पंजाबी में ‘मासी’ नाम से हो चुका है।    
कल, 26 मार्च को  जब सीपीएम -रमणिका गुप्ता की पार्टी - की मध्यप्रदेश राज्य समिति- की मीटिंग चल रही थी तब उनके न रहने की खबर आयी तो सभी फौरी स्टुपिड सी बातों को भूल कर इस अदम्य शख्सियत की स्मृतियाँ ताज़ी हों गयीं। लगा कि जैसे आज किसी बहुत ही ख़ास अपने को दोबारा खो दिया।
बहुत ही कमाल की विरली शख़्सियत थी कॉमरेड रमणिका जी - हम आपको मिस करेंगे कॉमरेड, मगर आप रहेंगी हमारे बीच। देश और उसके असली अवाम के लिए जूझते लाल झंडों के रूप में, एक ज़िद्दी लड़की की निरंतरता में, अपने साहित्य की सामयिकता में और अपनी खांटी मौलिकता में। अपनी एक किताब के शीर्षक की तरह : वह जीयेंगी अभी...। 

 

(लेखक अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव भी हैं।)  

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