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सूरत: आधे से ज़्यादा निर्माण मज़दूर हैं बेघर

सूरत, गुजरात में रह रहे प्रवासी निर्माण मज़दूरों की रहने और काम करने की स्थिति पर प्रयास सेंटर फ़ॉर लेबर रिसर्च एंड एक्शन ने एक अध्ययन किया।
सूरत: आधे से ज़्यादा निर्माण मज़दूर हैं बेघर
Image Courtesy: The Peninsula Qatar

गुजरात के सूरत शहर में निर्माण के लिए दैनिक मज़दूरी श्रम बाज़ार में काम करने वाले आधे से अधिक श्रमिक अपने परिवारों के साथ खुले आसमान के नीचे रहने के लिए मजबूर हैं क्योंकि वे किराये के आवास का बोझ नहीं उठा सकते हैं, प्रयास श्रम अनुसंधान और एक्शन केंद्र (पीसीएलआरए) के एक अध्ययन में यह तथ्य पाया गया हैं, जो असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों के बीच काम करता है।
रिपोर्ट गुजरात के जाने-माने वाणिज्यिक हब में से एक सूरत शहर पर आधारित है जहाँ प्रवासी निर्माण श्रमिकों के रहने और काम करने की स्थिति पर दिसंबर 2018 में सर्वेक्षण किया गया था।

मल्लीबेन जिनकी उम्र 35 साल है और कड़िया मजूर (निर्माण मज़दूर) हैं, पिछले 15 सालों से सूरत में काम करने आ रही हैं। वह पति विनोदभाई के साथ पिछले डेढ़ दशक से सूरत में निर्माण उद्योग में काम कर रही हैं।

उनके साथ हुई बातचीत में, उन्होंने बताया कि सूरत जैसे शहर में रहना उनके अस्तित्व की एक निरंतर चलने वाली लड़ाई है। गुजरात के दाहोद जिले के रेडियातिबुरा से निकलकर, यहाँ काम करते हुए मल्लीबेन ने वर्षों से देखा है कि शहर का क्षितिज कैसे बदल गया है। उसने शायद हाल ही में बनी इन कई इमारतों, हाउसिंग सोसाइटियों और अन्य निर्माण और बुनियादी ढांचा परियोजनाओं में काम किया है। और जब शहर आगे बढ़ा, बड़ा हुआ, और समृद्ध हुआ, तो वह और उसके पति उसी माजुरा गेट की पगडंडी पर रहने लगे, जहाँ वे 2003 में पहली बार आए थे।

एक मौसमी प्रवासी के रूप में वह युवा और नवविवाहित दुल्हन के रूप में यहाँ आई थी, अपने पति के साथ घर से दूर एक शहर में अपने परिवार के पालन पोषण के लिए। आज, मल्लीबेन थक गई हैं, वह अपने बड़े हो चुके बच्चों के साथ ख़ुद की देखभाल करने के लिए और बच्चों की पढ़ाई के लिए वापस गाँव चली गई हैं। वह बताती हैं कि जब शहर बड़ा हुआ और बदला, तब भी कुछ चीज़ें वैसी ही रहीं जैसी कि वे पहले थीं।

उदाहरण के लिए, वह अभी भी नगरपालिका अधिकारियों के हाथों नियमित तौर पर उत्पीड़न का सामना करती हैं। वे देर रात तक इस व्यस्त चौराहे के माजुरा गेट से गुज़रने वाले लॉरी चालकों द्वारा चोरी के निरंतर ख़तरे में रहती हैं; इन लॉरी चालकों ने अक्सर उन्हें और अन्य प्रवासी श्रमिकों को फ़ुटपाथ पर सोते हुए कई बार लूटा है। चोरी के डर से उन्होंने (और अन्य लोगों ने भी) अपने पहचान के दस्तावेज़ों को पीछे छोड़ आने के लिए मजबूर कर दिया है। दस्तावेज़ न होने पर पुलिस उनका जमकर उत्पीड़न करती है।
हालांकि वह एक दशक से भी अधिक समय से गाँव से सूरत आ रही हैं, फिर भी प्रशासन के लिए वह एक बाहरी व्यक्ति हैं - एक मौसमी प्रवासी, निर्माण श्रमिक जो गुजरात के आदिवासी क्षेत्रों से आता है।

मल्लीबेन और उनके पति 120 मिलियन लोगों का वह हिस्सा हैं, जिनका अनुमान है कि वे गुजरात जैसे अपेक्षाकृत समृद्ध पश्चिमी राज्यों के ग्रामीण क्षेत्रों से शहरी श्रम बाज़ारों, उद्योगों और खेतों में काम करने आते  हैं।

चिन्मय तुम्बे ने अपनी पुस्तक "इंडिया मूविंग: ए हिस्ट्री ऑफ माइग्रेशन" (2018) में, ऐतिहासिक रूप से प्रवासन के लिए किए गए विभिन्न मार्गों का पता लगाया, और संकेत दिया कि सूरत के 70 प्रतिशत कार्यबल में अंतर-राज्य प्रवासी भी शामिल हैं। सूरत में आने वाला यह कार्यबल कपड़ा और निर्माण और बुनियादी ढाँचे के उभरते क्षेत्रों में समा जाता है। श्रमिक पूर्व-नियत साइटों पर या परिजनों के माध्यम से काम करने के लिए ठेकेदारों के माध्यम से पहुँचते हैं, जो उन्हें काम की खोज करने में मदद करते हैं।

समृद्ध शहर जैसे सूरत में इस तैरती आबादी की सामाजिक-आर्थिक वास्तविकता की समझ को गहरा करने के लिए, पीसीएलआरए ने रोज़ा लक्सम्बर्ग स्टैंगसंग द्वारा प्रायोजित “वे अपने घरों को छोड़ हमारा घर बनाते हैं” के शीर्षक के तहत अध्ययन किया।
यह अध्ययन सूरत में रह रहे प्रवासी निर्माण श्रमिकों की कामकाजी और रहन-सहन की स्थितियों का मानचित्रण करता है। इस अध्ययन में लगभग 6,300 श्रमिकों, उनके परिवारों, उन स्थितियों के बारे में जानकारी दी गई है, जिनमें वे काम करते हैं, या निवास करते हैं, और विभिन्न सार्वजनिक सेवाओं और एंटाइटेलमेंट का उपयोग करते हैं, जो शहर के आर्थिक विकास में योगदान करते हैं। इंदिरा हिरवे द्वारा किए गए एक अध्ययन में खुद की श्रमिकों की आकांक्षाओं के बारे में एक समझ बनाने के साथ-साथ प्रवासन के कारणों की एक ज़मीनी समझ, श्रम क़ानूनों के प्रभाव और प्रवास और विकास के बीच महत्वपूर्ण संबंधों को समझने के लिए विस्तारित किया गया है। जैसा कि रिपोर्ट का शीर्षक पाठक को बताता है, रिपोर्ट विशेष रूप से श्रमिकों की विकट जीवन स्थितियों पर उनकी कठोर कार्य स्थितियों पर भी ज़ोर देती है।
इस अध्ययन ने सूरत में 30 श्रमिक बस्तियों में रह रहे 1,869 परिवारों के काम करने और उन श्रमिकों के रहने की सुविधाओं की स्थिति का दस्तावेज़ीकरण किया।

अध्ययन से पता चलता है कि मैप की गई 30 बस्तियों  में 1,869 परिवारों में से 50 प्रतिशत ने शहर में प्रवासियों के रूप में काम करते हुए पाँच साल या उससे अधिक समय बिताया है, इनमें से बहुत कम लोग ऐसे हैं जो किसी भी तरह के किराए के आवास का ख़र्च उठाने में सक्षम हैं।

इनमें से छप्पन प्रतिशत श्रमिकों ने फ़्लाइओवर, पुलों, खुले भूखंडों और मैदानों या झुग्गियों (जैसे कि इस तरह के रिक्त स्थान जहाँ कोई बुनियादी सुविधा नहीं है, उनकी अस्थिर प्रकृति के कारण) के रूप में फ़ुटपाथों जैसे खुले क्षेत्रों में रहने की सूचना दी है।
इसे ध्यान में रखते हुए कि सूरत में काम करने वाले श्रमिक परिवार के लिए अक्सर प्रवासी होने के नाते ऐसा आवास ढूंढना मुश्किल हो जाता है जो उनके परिवार के लिए उपयुक्त हो। मल्लीबेन की तरह, कई श्रमिकों को सूरत में एक शहर में किराए के आवास पर खर्च करने के बजाय पर्याप्त धन बचाने में सक्षम होने के लिए फुटपाथों पर रहने के लिए मजबूर होना पड़ता है।

निवास की कमी का मतलब यह भी है कि श्रमिकों द्वारा लम्बे समय तक काम करने और शहर के निर्माण में काफ़ी समय ख़र्च करने के बावजूद कोई पहचान का दस्तावेज़ नहीं है। हमारे पहले प्रतिवादी की तरह, कई श्रमिकों को अपने पहचान दस्तावेज़ों के स्रोत गांव में होने की वजह से वापस जाने के लिए मजबूर किया जाता है ताकि ऐसे दस्तावेज़ों के नुक़सान या चोरी की आशंका को रोका जा सके।
यह अध्य़यन व्यवस्थित रूप से बताता है कि प्रवासी श्रमिकों को उस लाभ के दायरे से बाहर रखा गया है जो कि अधिवास को प्रमाणित करने वाले दस्तावेज़ों के प्रमाण के साथ जुड़ा हुआ है।

श्रमिकों की भेद्यता उस वक़्त बढ़ती नज़र आती है जब उन्हें उनकी मज़दूरी का भुगतान न करने को एक बड़ी घटना के रूप में दर्ज किया जाता है। नाका  (चौरहा) में मैप किए गए 3,415 श्रमिकों में से 73 प्रतिशत ने बताया कि उन्हें कम से कम एक ऐसी घटना का सामना करना पड़ा जहाँ उन्हें उनके वेतन से वंचित कर दिया गया था। मज़दूरी की हानि, पैसा घर वापस भेजने की आवश्यकता, चिकित्सा ख़र्च से लेकर सामाजिक विवाह, मृत्यु, जन्म संस्कार, और कृषि गतिविधियों में निवेश (भूमि रखने वालों के लिए) जैसे विभिन्न खर्चों को उठाना - यह सब उन्हें इतनी कम आय के साथ पिछे छोड़ देता है जिस आय का उपयोग वे आवास किराए पर लेने के लिए नहीं कर सकते हैं।

अध्ययन में बताया गया है कि अपेक्षाकृत बेहतर आर्थिक अवसरों की तलाश में कितने प्रवासी कामगार अपने युवावस्था में शहर की ओर पलायन करते हैं। अध्ययन में मैप किए गए लगभग 60 प्रतिशत श्रमिकों की आयु 19 से 30 वर्ष के बीच थी।
मल्लीबेन और विनोदभाई श्रमिकों के झुंड में वे दो नाम हैं जो हर मौसम में शहरों में काम करने के लिए अपने घरों को आर्थिक रूप से सुरक्षित करने के लिए पहुँचते हैं। श्रमिक, जैस कि अध्ययन दस्तावेज़ बताता है, उत्तर पूर्व गुजरात के नज़दीकी क्षेत्र से काफ़ी संख्या में आते हैं, जो तीन राज्यों - गुजरात, राजस्थान और मध्य प्रदेश में फैले हुए हैं।

वे या तो ठेकेदारों के माध्यम से आते हैं जो उन्हें सीधे निर्माण परियोजना स्थलों पर ले जाते हैं या वे अपने परिजनों के माध्यम से आते हैं जो उन्हें काम ढूँढने के लिए विभिन्न मज़दूर चौराहों या नाकों में काम ढूँढने में  मदद करते हैं।

काम पाने वाले इन विभिन्न स्थानों को समझने के लिए, जिनका उपयोग मज़दूर ख़ुद के लिए काम पाने के लिए करते हैं, अध्ययन में 15 श्रमिक स्टैंडों में 3,415 श्रमिकों की मैपिंग की गई है (और 30 श्रमिक बस्तियों में रहने वाले 1,869 परिवार, जैसा कि पहले उल्लेख किया गया है) का उपयोग किया गया है। इसके अतिरिक्त, अध्ययन में निजी और सार्वजनिक निर्माण स्थलों पर 200 श्रमिकों और उनके परिवारों की विस्तारित मैपिंग भी की गई है।

काम करने वाले श्रमिकों के अलग-अलग स्थानों पर शोध टीम को प्रवासियों के निर्माण कार्यबल की कुछ विशेषताओं को पुष्टि करने में और त्रिकोणित करने में मदद मिली। यह अध्य़यन कार्यबल से जुड़ी कई तरह की विशेषताओं को सामने लाया जैसे कि नाकों पर काम करने वाले 3,415 श्रमिकों में से लगभग 70 प्रतिशत श्रमिक आदिवासी थे, इसी संख्या के नज़दीक पाए जाने वाले ओबीसी (3,415 श्रमिकों का 16 प्रतिशत) के रूप में थे।

कुल 3,415 उत्तरदाताओं में से 69 प्रतिशत अकुशल श्रमिक थे, जबकि 30 प्रतिशत कारीगर कुशल श्रमिक के रूप में काम करते थे। वास्तव में, इनमें से अधिकांश श्रमिक जो औपचारिक शिक्षा प्रणाली (अनपढ़ के रूप में रिपोर्ट किए गए 3,415 श्रमिकों में से 45 प्रतिशत) के बाहर थे, और जो क्षेत्र में अकुशल श्रमिकों के रूप में काम करते है।

अध्ययन में महिलाओं की संख्या कम प्रतिनिधित्व 

पूरे मैपिंग के अभ्यास में महिलाओं की भागेदारी कम है। इस संबंध में किए गए एक अवलोकन से पता चलता है, कि बावजूद इसके कि महिला श्रमिक की मौजूदगी काफ़ी है जो - नाकों, बस्तियों और निर्माण स्थलों पर - मुख्य रूप से अकुशल कार्य जैसे कि सर पर बोझा ढोना आदि का काम करती है, वे महिलाएँ ज़्यादातर सर्वेक्षण के सवालों के जवाब देने से बचती हैं।

रिपोर्ट के नमूने में महिलाओं के कम प्रतिनिधित्व के मुद्दे को रेखांकित किया गया है। मिसाल के तौर पर नाका पर मानचित्रन किए गए कुल 3,415 श्रमिकों में से केवल 10 प्रतिशत ही महिलाएँ थीं, जबकि 200 नमूने में केवल सात महिलाएँ उत्तरदाता थीं।

रिपोर्ट के लेखक ने विस्तार से बताया कि महिला श्रमिकों के साथ समूह चर्चा कैसे आयोजित की गई ताकि उनके परिप्रेक्ष्य को भी अध्ययन में शामिल किया जा सके। उससे जो उभर कर आया वह एक अजीब प्रतिक्रिया थी, जिसमें महिलाओं ने महसूस किया कि पुरुषों द्वारा की गई प्रतिक्रियाओं में उनकी चिंताएँ भी मौजूद हैं और इसलिए उन्हें अपनी चिंताओं को अलग से साझा करने की आवश्यकता महसूस नहीं हुई।
महिलाओं के कम प्रतिनिधित्व की यह प्रवृत्ति तब तेज़ी से सामने आती है जब महिलाएँ कंस्ट्रक्शन और अन्य बिल्डिंग वर्कर्स वेलफ़ेयर बोर्ड (बीओसीडबल्यू, इसके बाद सिर्फ़ बोर्ड के रूप में संदर्भित) के लिए ख़ुद पंजीकृत करने से बचती हैं। उन्होंने समझाया कि यदि परिवार का एक सदस्य पहले से ही बोर्ड के साथ पंजीकृत है, तो एक ही परिवार की महिलाओं को पंजीकरण करने की क्या आवश्यकता थी?

निर्माण क्षेत्र देश का एकमात्र ऐसा क्षेत्र है जिसमें अपने पंजीकृत सदस्यों के कल्याण की देखभाल के लिए एक बोर्ड स्थापित किया गया है। एक रिपोर्ट में कहा गया है कि जबकि पंजीकृत श्रमिकों की संख्या कम है (कुल श्रमिकों का 98 प्रतिशत अपंजीकृत रहता है), इसमें पंजीकृत महिला श्रमिकों की संख्या और भी कम थी।

लिए गए 3,415 श्रमिकों के कुल नमूनों में से, केवल तीन महिलाओं को बोर्ड के साथ पंजीकृत पाया गया और इसलिए, वे निर्माण श्रमिकों के रूप में उन्हें होने वाले लाभों के हक़दार थे।

बेशक, बोर्ड की सदस्यता के बाहर श्रमिकों की बड़ी संख्या इस बात पर भी ज़ोर देती है कि वे बोर्ड में उनके लिए सूचीबद्ध योजनाओं और लाभों की पहुँच से बाहर हें।

कोई यह पूछ सकता है कि सभी निर्माण परियोजनाओं से उपकर एकत्र करने वाले बोर्ड के साथ ख़ुद को पंजीकृत करने के लिए श्रमिकों को कौन सी चीज़ रोकती है।

उत्तरदाताओं के मुताबिक़ इसके लिए व्यापक काग़ज़ी कार्यवाही और लंबा समय लेने वाली प्रक्रिया जैसे दो कारक शामिल हैं जो श्रमिकों को बोर्ड के साथ ख़ुद को पंजीकृत करने से रोकते हैं।
रिपोर्ट में सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि हर दिन निर्माण और बुनियादी ढाँचे में काम करने वाले प्रवासी कामगारों के सामने बड़ी विडंबना है।

यह क्षेत्र संरचनात्मक रूप से उन विभिन्न कानूनी प्रावधानों को लागू करने के लिए नाकाम है जो प्रवासी श्रमिकों पर लागू होते हैं, और न ही संबंधित हितधारकों के लिए काम करने के लिए कोई राजनीतिक इच्छाशक्ति नज़र आती है जो श्रमिकों के रहने और काम करने की स्थिति में सुधार के लिए काम कर सके।

अधिवास दस्तावेज़ों के अभाव में वे शहर के भीतर प्रख्यात वोट बैंक का हिस्सा नहीं हैं जोकि प्रशासन के लिए एक चेतावनी है। राज्य, ग़ैर-राज्य, निजी कारकों से उन श्रमिकों को बहुत दूर कर दिया जाता है जो निर्माण क्षेत्र जैसे उभरते क्षेत्रों की नींव रखते हैं, और नतीजतन श्रमिकों की दुर्दशा इन क्षेत्रों के विभिन्न हितधारकों के लिए अदृश्य बनी रहती है।

जैसा कि रिपोर्ट का शीर्षक सही रूप में दर्शाता है, ये श्रमिक सूरत जैसे शहरों में हमारे घर बनाने के लिए अपना घर छोड़ देते हैं, लेकिन वे ख़ुद बिना किसी घर के ही रहते हैं।

(लेखक प्रयास सेन्टर फ़ॉर लेबर रिसर्च एंड एक्शन में रीसर्च एंड डॉक्यूमेंटेशन के लिए समन्वयक के रूप में काम करते हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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