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सवाल 5 ट्रिलियन अर्थव्यवस्था का नहीं आम आदमी की ज़िंदगी का है!

सवाल यह है कि 5 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर से लाभ किसको होगा? तो बात साफ है कि जो पहले से भारत की एक फीसदी का हिस्सा है। और जिनको सरकार की बजाय निजीकरण जैसे माहौल से सबसे अधिक लाभ होता है।
UNION BUDGET 2019

भारत में पहली बार ऐसा बजट भाषण हुआ, जिसमें सरकारी योजनाओं पर किसी भी तरह के बजट आवंटन की बात नहीं की गयी। मतलब मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल के पहले बजट का फोकस पैसे के हिसाब-किताब की बजाय केवल रूपरेखा पर अधिक रहा। इस बजट की रूपरेखा का मुख्य केंद्र है कि सरकार अगले पांच साल में भारत की अर्थव्यवस्था को 5 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर तक पहुँचाना चाहती है। जब भारत जैसे घनघोर असमानता वाले देश में बजट का मुख्य केंद्र ही यह हो तो यह सोचा जा सकता है कि जनकल्याण की बजाय ज्यादा फोकस इस तरफ होगा कि अर्थव्यस्था में पैसा कैसे भरा जाए। यह बात अभी की नहीं है, प्रधानमंत्री पहले भी इस पर चर्चा कर चुके हैं।  
इंटरनेशनल मॉनिटरी फंड जैसी संस्थाओं से इस लक्ष्य को समर्थन भी मिलता है। इन संस्थाओं की अपनी राजनीति है। जिस पर फिर कभी बात की जाएगी। इस संस्था का प्रोजेक्शन है कि साल 2024 तक भारत 4.7 अमेरिकी डॉलर की अर्थ व्यवस्था बन जाएगा। दुर्भाग्यवश यह पूरी तरह गलत दिशा में रखा गया लक्ष्य है। 

एक औसत हिन्दुस्तानी भले ही मोदीजी के भाषण के आकर्षण में 5 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर वाली अर्थव्यवस्था बनने का सपना देखते हुए थोड़ी देर के लिए खुश हो जाए। लेकिन उसके लिए तो असली सवाल यही होगा की रियल रुपये के मूल्य में प्रति व्यक्ति आमदनी कितनी है। उसकी परचेजिंग पॉवर यानी किसी चीज़ को खरीदने की क्षमता कितनी है। 

अब यह सवाल है कि 5 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर से लाभ किसको होगा? तो बात साफ है कि जो पहले से भारत की एक फीसदी का हिस्सा है। और जिनको सरकार की बजाय निजीकरण जैसे माहौल से सबसे अधिक लाभ होता है। इसलिए तो इस बजट में आने वाले अगले पांच साल में 100 लाख करोड़ रुपये का इंफ्रास्ट्रक्चर (बुनियादी ढांचा) पर खर्च करने की बात की गई है। जिसमे से अधिकांश पैसा प्राइवेट सेक्टर से आएगा। उदाहरण के तौर पर इसी बजट में अगले 12 सालों तक रेलवे में निजी क्षेत्रों से 50लाख करोड़ का इन्वेस्ट लाने की बात कही गई है। अगले साल सरकारी यूनिटों को बेचकर यानी डिसइन्वेस्टेंट से तकरीबन 1.5लाख करोड़ वसूलने की बात। ऐसी बहुत सारी बाते, इसी बजट में मौजूद हैं जो यह बताती हैं कि सरकार निजीकरण की तरफ जमकर बढ़ सकती है। इसलिए इस बजट भाषण में जितनी बार स्टार्टअप का नाम लिया गया होगा उतना किसानों का नहीं। 

हमारी अर्थव्यवस्था अभी तकरीबन 3 ट्रिलियन (2.7 ट्रिलियन) अमेरिकी डॉलर तक पहुंच चुकी है। इतनी बड़ी अर्थव्यवस्था के बाद भी क्या बरोजगारी से निजात मिल रही है?  क्या अभी भी भारत के 20 फीसदी से ज्यादा लोग महीने दस हजार महीने से ज्यादा की कमाई कर पाते हैं? क्या अभी भी भारत की आबादी का एक बहुत बड़ा हिस्सा गरिमापूर्ण जिंदगी जी पाता है। यह सोचने वाली बात है कि करीब 1 अरब 30 करोड़ की जनसंख्या वाले देश भारत में अभी भी एक करोड़ से ज्यादा आय दिखाकर टैक्स देने वाले लोगों की संख्या केवल 82 हजार है। तो ऐसे में 5 ट्रिलियन की अर्थव्यवस्था वाला लक्ष्य किसके लिए रखा गया है। भारत की अर्थव्यवस्था 5 ट्रिलयन से बढ़कर 10 ट्रिलियन भी हो जाए तो भारत की बहुत बड़ी आबादी की जिंदगी में सुधार कैसे होगा? क्या ऐसे कि अमीरों से टैक्स लेकर सरकार गरीबों पर खर्च करेगी। अगर यही सोच है तो यह नाकाफी है। जैसे कि 2 से 5 करोड़ कर योग्य आय वाले लोगों पर 3 फीसदी और 5  करोड़ से ज्यादा कर योग्य आय वाले लोगों पर 7 फीसदी की दर से सरचार्ज किया जाएगा। इस राशि से 5 ट्रिलियन अर्थव्यस्था समावेशी विकास की तरफ बढ़ेगी। यह असम्भव लगता है।

 अब कुछ दूसरे मुद्दों की तरफ भी इसी संदर्भ से देखने की कोशिश करते हैं। भारत की तकरीबन आधी से अधिक आबादी कृषि पर निर्भर है। लेकिन इसके बारे में बजट  भाषण में बस इतना जिक्र हुआ कि किसानों के लिए 10 हजार नए फार्मर प्रोडूसर ऑर्गनाइजेशन खोले जाएंगे। लेकिन चीन का उदाहरण बताता है कि एफपीओ जैसी बातें तभी सफल होती है जब कृषि क्षेत्र में लगने वाले लोगों का प्रशिक्षण अच्छा हो। खेती-किसानी से जुड़ा मसला भी एक विषय के तौर पढ़ाया और सिखाया जाए। अगर ऐसा होगा तभी फार्मर प्रोड्यूसर ऑर्गेनाईजेशन के सहारे कृषि उपजों का अच्छा मूल्य मिल पाएगा। या किसान बाजार से ठीक तरह से मोल-भाव  कर पाएंगे। लेकिन भारत में कृषि कामगारों के प्रशिक्षण की तरफ कोई ध्यान  नहीं दिया जाता है।  

किसानों को उम्मीद थी कि पीएम किसान योजना की राशि 6000 रुपये से बढ़नी चाहिए। कम से कम इस योजना का लाभ बटाई और ठेके पर खेती करने वाले भूमिहीन किसानों को भी मिलना चाहिए था। किसान आंदोलन की मांग थी कि इसका पैसा महिला के अकाउंट में जाना चाहिए। लेकिन वित्त मंत्री ने इसका जिक्र भी नहीं किया और बजट में इसके लिए फरवरी में आवंटित 75000करोड रुपये की राशि दोहरा भर दी। यह बहुत हैरानी की बात है क्योंकि इस बीच सरकार ने इस योजना के लाभार्थी किसानों की संख्या बढ़ा दी है और स्वयं प्रधानमंत्री ने बजट के बाद कहा कि इसमें 87000 करोड़ रुपये का खर्च होगा।

बजट से पहले गुरुवार को जारी हुए आर्थिक सर्वेक्षण में यह स्वीकार किया है कि देश की 71% फसल को किसान एमएसपी से नीचे दर पर बेचने को मजबूर हैं। बुधवार को सरकार ने खरीफ की फसल में नाम मात्र एमएसपी की बढ़ोतरी की है। हर किसान को कम से कम इतनी उम्मीद थी कि उसे एमएसपी रेट तो मिल जाए। इसके लिए सरकार को पीएम आशा के तहत बजट में कम से कम50000 करोड़ रुपये का प्रावधान करना जरूरी था। वित्त मंत्री ने ऐसा कुछ नहीं किया।

अब तक इस साल देश में बड़े सूखे की आशंका है। मानसून में 25% का घाटा है और फसल की बुवाई में 15% की कमी रही है। ऐसे में यह अपेक्षा थी कि सरकार सूखे की परिस्थिति से निपटने के लिए राष्ट्रीय आपदा कोष में वृद्धि करेगी। सूखे के मुआवजे की 4700 रुपये प्रति एकड़ की राशि को बढ़ाकर कम से कम 10000 रुपये प्रति एकड़ करेगी। प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना में सुधार किए जाने के उम्मीद थी ताकि हर किसान को नुकसान होने पर क्लेम मिल सके। अफसोस कि इतने बड़े सवाल पर भी वित्त मंत्री ने चुप्पी साध ली।

पिछले कुछ महीनों में देश में आवारा पशुओं द्वारा खेती किसानी के नुकसान की खबरें चारों तरफ से आ रही है। इसलिए किसान चाहते थे कि आवारा पशु के प्रकोप से मुकाबला करने के लिए किसान को विशेष अनुदान मिले; इन पशुओं के लिए विशेष सरकारी व्यवस्था की जाए। वित्त मंत्री ने इन सवालों पर भी कुछ नहीं कहा।

इसके बदले वित्त मंत्री ने E-Nam एवं परंपरागत कृषि विकास योजना जीरो बजट खेती और मत्स्य पालन इत्यादि जैसी पुरानी योजनाओं का नाम दोहरा दिया लेकिन यह नहीं बताया कि इन सभी योजनाओं में भी सरकार ने बजट का आवंटन बढ़ाने की बजाय घटा क्यूँ दिया।
मोदी जी किसानों की आय दोगुनी कर देंगे। या वैसी किसी भी तरह बातें जिनका जिक्र पिछले पांच साल से किसानों को लेकर होता आ रहा था, उन पर किसी पर बात नहीं हुई। यानी यह बात साफ है कि किसान के लिए बात तभी, जब चुनाव नजदीक हो। और उस सरकार के दौर में तो बिल्कुल भी नहीं , जिसे पता हो कि किसान भी उसे वोट अपने मुद्दे पर नहीं बल्कि राष्ट्र जैसे  भावुक मुद्दों पर दे रहा है।  

वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने बजट भाषण में रोज़गार सृजन के लिए किसी योजना का ज़िक्र तक नहीं किया। युवाओं के लिए राष्ट्रीय शिक्षा नीति का ज़िक्र भी किया तो नीति के मुख्य आयामों को छुआ तक नहीं। जैसे कि पाँच साल में शिक्षा बजट दुगुना करना या शिक्षा के अधिकार को 3 से 18 वर्ष के सभी छात्रों तक विस्तार करना। 

कोई भी ठोस प्रस्ताव देने की बजाय सरकार के पास सिर्फ इतना कहने को था कि विदेशी छात्रों को "स्टडी इन इंडिया" के तहत भारत बुलाएंगे, भारतीयों छात्रों को आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस, बिग डेटा, रोबोटिक्स जैसे विषयों की ट्रेनिंग देंगे ताकि वो विदेश जा सके और देश में स्टार्टअप की मदद से एक नया टीवी प्रोग्राम चलाएंगे।

टैक्स के मसले पर एक अजीब से पहल हुई। जिसके तहत करदाता और कर अधिकारी के बीच बिना नाम उजागर किये केवल डिजिटल जरिये सम्बन्ध रखने की और बढ़ने की कोशिश की बात की गयी। यह पहल सही है या गलत यह तो आने कल  बताएगा। लेकिन अगर माल्या, अडानी, नीरव मोदी जैसे  लोगों का नाम उजागर नहीं होगा तो कार्रवाई करने पर दबाव कैसे बनेगा? ऐसी पहलों से ऐसा लगता है कि हमने मान लिया है कि आदमी नैतिक हो ही नहीं सकता। इसलिए अधिक से अधिक काम मशीनों के हवाले कर दिया जाए। चुनावी बांड और अब कर लेने के ऐसे उपाय, इनसे तो ऐसा लगता है कि चुपचाप तरीके से लूट की व्यवस्था बनाई जा रही है। 

 बैंकिंग में बैंकों की  पूंजी सुधार के लिए 70 हजार करोड़ रुपये सरकारी फंड देने की बात कही गयी है। जबकि बेसिक नॉर्म के तहत2 से 2.5 करोड़ फंड की जरूरत है। बैंकों से लॉन्ग टर्म फाइनेंसिंग की बात की जा रही है जो कि दस से बारह साल तक हो सकता है। जबकि चार-पांच साल से अधिक का कर्जा आज के वित्तीय माहौल में बैंकों के लिए बहुत अधिक जोखिमपूर्ण माना जाता है। 

 
बजट पेश करते हुए निर्मला सीतारमण ने एक कहानी सुनाई कि हाथी को अगर खेत के बाहर खाना मिल जाता है तो खेत की बर्बादी नहीं होगी। लेकिन अगर हाथी खेत के अंदर है तो हाथी के द्वारा खेत की बर्बादी भी बहुत अधिक होगी और उसे खाना भी कम मिलेगा।लेकिन भारत में प्रस्तुत होने वाले बजटों का भी यह हाल होता है कि अर्थव्यवस्था में मौजूद हाथी जैसी परेशानियों को कंट्रोल करने की कोशिश नहीं की जाती बल्कि अर्थव्यवस्था में और बड़े हाथी छोड़ दिए जाते हैं। भारत जैसी अर्थव्यवस्था के लिए इस बजट में5 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर पहुँचने का शिगूफ़ा भी एक ऐसा ही हाथी है, जिसे पाने की कोशिश में अर्थव्यवस्था के खेत से बहुतों को एक ठीक ठाक जिंदगी नसीब नहीं होगी।

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