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पर्वतों में सिर्फ़ पर्यटन ही नहीं, पर्यावरण और पारिस्थितिकी तंत्र का संरक्षण भी ज़रूरी है

दुनियाभर में पहाड़ बड़ी संख्या में पर्यटकों को आकर्षित करते हैं, लेकिन उन्हें सिर्फ़ पर्यावरण का ही अहम केंद्र मान लेना, उनकी तरफ़ देखने का सही तरीक़ा नहीं है।
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Image courtesy : DownToEarth

11 दिसंबर को मनाए गए अंतरराष्ट्रीय पर्वत दिवस में इस बार का मुख्य विषय सतत् पर्यटन था। 

संयुक्त राष्ट्र ने इस बार जो मुख्य विषय चुना है, वह वक़्त के हिसाब से बिल्कुल सही है। लेकिन इससे पर्वतों के बारे में व्यापक स्तर की समझ के सीमित होने का भी पता चलता है। क्या पर्वत पर्यटन के लिए हैं।

निश्चित तौर पर दुनियाभर में पर्वत बड़ी संख्या में पर्यटकों को आकर्षित करते हैं, लेकिन इन्हें सतत् पर्यटन के लिए हॉटस्पॉट (अहम केंद्र) मानना, पर्वतों के प्रति सही नज़रिया नहीं है। यह बड़े पर्यावरण तंत्र का हिस्सा हैं, जो हमारे अस्तित्व की निरंतरता के लिए जरूरी हैं। 

भारत की सबसे बड़ी पर्वत श्रंखला हिमालय इस चीज को शक के परे साबित करती है। इस पर्यावरणतंत्र पर लाखों लोगों की जिंदगी निर्भर करती है; इसलिए सिर्फ़ इनके संरक्षण पर ध्यान केंद्रित करना ही जरूरी नहीं है, यहां प्रकृति के पुराने स्वरूप की पुनर्स्थापना भी जरूरी है। 

हिमालय क्यों अहम हैं?

हिमालय भारत, नेपाल, चीन, पाकिस्तान और भूटान- पांच देशों में फैले हुए हैं। इसका विस्तार करीब 2500 किलोमीटर तक है, जो पश्चिम-उत्तरपश्चिम से आगे पूर्व-दक्षिणपूर्व की दिशा में बढ़ते हैं।

हिमलाय श्रंखला के उत्तरपश्चिम में काराकोरम और हिंदूकुश पर्वत श्रंखला है, जबकि उत्तर में तिब्बत का पठार और दक्षिण में सिंधु-गंगा का मैदान है। 

दुनिया की कुछ सबसे बड़ी नदियां, जैसे- सिंधु, गंगा और ब्रह्मापुत्र हिमालय के भीतरी हिस्सों से निकलती हैं। इस नदी तंत्र के आसपास करीब़ 60 करोड़ लोग रहते हैं, खुद हिमालय में 5 करोड़ 30 लाख लोग रहते हैं। 

हिमालय, हिंदूकुश और काराकोरम की पर्वत श्रंखला करीब 2400 किलोमीटर तक 6 देशों में फैली हुई है, इसमें 60,000 वर्ग किलोमीटर में बर्फ इकट्ठा है। अगर आर्कटिक और अंटार्किट को छोड़ दिया जाए, तो यह दुनिया में सबसे ज़्यादा पानी का भंडारण करने वाली जगह है। 

भारत की करीब़ 33 फ़ीसदी तापीय विद्युत और 52 फ़ीसदी जल विद्युत हिमालय में निकलने वाली नदियों पर निर्भर करती है। इन नदियों में बड़ी मात्रा का पानी हिमालय में स्थित हिमनदों के पिघलने से आता है, इसलिए यह भारत की ऊर्जा सुरक्षा के लिए अपरिहार्य है। 

हिमालय मानसून में भी अहम भूमिका निभाता है। तिब्बत का पठार गर्मियों में गर्म हो जाता है, जिससे कम दबाव वाला क्षेत्र पैदा होता है, जो दक्षिणपूर्व से आने वाली मानसूनी हवाओं को भारतीय उपमहाद्वीप में आमंत्रित करता है। 

यह हवाओं के रास्ते को भी प्रभावित करता है। पूर्व में हवाएं पहाड़ों के रास्ते उत्तरपूर्व की तरफ मुड़ जाती हैं और ब्रह्मापुत्र-गंगा के मैदान में पहुंचकर वर्षा करवाती हैं।

हिमालय के हिमनद ना केवल भारत की जल सुरक्षा के लिए जरूरी हैं, बल्कि यह भारत की ऊर्जा सुरक्षा के लिए भी अपरिहार्य हैं।

मौसम परिवर्तन के नतीज़े इस क्षेत्र में दिख भी रहे हैं- वर्षा की प्रक्रिया में हो रहा बदलाव और हिमनदों का पिघलना साफ़ देखा जा सकता है। जैसा बताया है कि हिमालय के हिमनद गंगा, सिंधु, ब्रह्मपुत्र, सालवीन, मेकांग, यांग्से और हुआंग जैसी 7 बड़ी नदियों को पानी उपलब्ध करवाते हैं।

अध्ययनों के मुताबिक, पश्चिमी हिमनदों के 10 फ़ीसदी पिघलने और पूर्वी हिमालयी हिमनदों में 30 फ़ीसदी के इज़ाफे के चलते इन नदियों में 3-4 फ़ीसदी अतिरिक्त पानी पाया गया है। 2000 से 2016 के बीच हिमालय में हिमनदों में अरबों टन बर्फ़ पिघल गई। 1975 से 2000 के बीच यह मात्रा दोगुनी हो गई। पर्वत अमूल्य हैं, उनका पुनर्वास करना जरूरी है। हमने सालों साल देखा है कि कैसे अतिवादी मौसमी परिघटनाओं के चलते बड़े स्तर पर पहाड़ों में भूस्खलन हुआ, यहां तक कि बाढ़ भी आई। 

दुर्भाग्य से पर्वतों को सिर्फ़ पर्यटन स्थलों की तरह देखा जा रहा है, जबकि यह नहीं समझा जा रहा है कि एक सीमा से ज़्यादा उनके दोहन से बहुत बड़ा संकट पैदा हो सकता है। सतत पर्यटन का विषय आकर्षित कर सकता है, लेकिन एक पर्यावरणतंत्र के तौर पर पर्वतों की निरंतरता को दोबारा स्थापित करना होगा। 

अब भारत, खासकर हिमालय और इसके आसपास बसे पहाड़ी कस्बों की तरफ लौटते हैं। अकसर कहा जाता है कि अंग्रेजों ने पर्वतों को सुरक्षित रखा और आजादी के बाद हम भारतीयों ने इन्हें बर्बाद कर दिया। यह बहुत गलत तर्क है। ब्रिटिश इंजीनियरिंग की आम समझ से किसी को लग सकता है कि उनकी तकनीक ने पहाड़ों को सुरक्षित रखा। लेकिन तथ्य यह है कि अंग्रेजों के भारत में आने के बहुत पहले से स्थानीय समुदाय पहाड़ों में रहते आ रहे थे, लेकिन उन्होंने कभी पहाड़ की चोटियों और इनके घाटों पर कभी घर नहीं बनाए। दरअसल अंग्रेजों ने ही अपने तेज-तर्रार इंजनीयरिंग के ज़रिए शिमला, मसूरी, डलहौजी जैसे शहर बसाए। 

अंग्रेजों ने हमें बताया कि कैसे पर्वतों को खराब करना है, लेकिन "सतत्" तरीके से। उदाहरण के लिए, साम्राज्यवादी भारत की शीत राजधानी शिमला शहरी योजनाकर्ताओं के लिए एक दिलचस्प शहर है। इस शहर के लिए शुरुआत में पानी की आपूर्ति आसपास के पानी इकट्ठा करने वाले इलाकों, जैसे श्योग जंगल से लाया गया। बाद में आबादी बढ़ने के साथ एक "लिफ्ट वाटर सिस्टम" लगाया गया। गुम्मा के ज़रिए करीब़ 2000 मीटर ऊपर से पानी को भेजा जाता था, जिसे कस्बे में वितरित किया जाता था। 

अंग्रेज इस तरह की व्यवस्था पर रह सकते थे, क्योंकि उनके साम्राज्यवादी लूट थी। लेकिन अब ऐसी व्यवस्था को बिना सब्सिडी के चलाना बेहद मुश्किल है, क्योंकि इसमें काफ़ी सारा प्रबंधन और कीमत लगती है। इसलिए यह तर्क कि अंग्रेजों ने कस्बे बनाए और उन्हें पर्यावरण के साथ सतत् बनाए रखा, वह गलत है। 

लेह कस्बे का दूसरा उदाहरण देखिए। पिछले कुछ सालों में यहां बड़ी संख्या में पर्यटक पहुंच रहे हैं। 2 लाख की आबादी वाले शिमला में हर साल 45 लाख पर्यटक पहुंचते हैं। इसी तरह 30,000 की आबादी वाले लेह में 10 गुना ज़्यादा पर्यटक पहुंचते हैं। निश्चित तौर पर यह कई लोगों के लिए आजीविका का जरिया है। लेकिन यहां के भू-उपयोग में आए परिवर्तन और रोज़गार के तरीके में आए बदलाव का भी गहन अध्ययन करने की जरूरत है। क्यों? इसकी एक सीधी वजह कि हिमनद से बहने वाले पानी और ज़मीन के बोर से पानी का इस्तेमाल करने वाले लेह कस्बे में अब यह संभव नहीं है। अब पानी पीने योग्य नहीं है, पर्यटकों के लिए सूखे शौचालयों से पानी वाले शौचालयों में आए बदलाव ने पानी को संक्रमित कर दिया है। लंबे वक्त के लिए पर्यटन के ऐसे तरीके नहीं चल सकता।  

पर्वतों, खासकर हिमालय को कम से कम नुकसान पहुंचे, इसके लिए कुछ सीखें लेने की जरूरत है। 

पहला, पर्यावरण की चिंता किए बिना अंधाधुंध तरीके से विद्युत जल परियोजनाओं का निर्माण रुकना चाहिए। ताकतवर सतलुज नदी भारत में प्रवेश करने से लेकर भाखड़ा बांध तक जाने तक पर्वतों में बहती है। इसके ऊपर कई परियोजनाएं बना दी गई हैं या निर्माणाधीन हैं। ऐसी कुछ परियोजनाएं- इसके प्रवेश के साथ ही खाब में खाब शासो, फिर जांगी थोपान-पोवाड़ी, इसके बाद शोंगथोंग कारचाम, वांगटू कारचाम, नाथपा झाकरी, रामपुर, बेहना, कोल बांध और आखिर में भाखड़ा बांध हैं। फिर सतलुज की कई सहायक और दूसरी नदियों पर भी परियोजनाओं पर काम चल रहा है। सभी पहाड़ी राज्यों में इसी तरीके से चीजें हो रही हैं। नतीज़तन पर्यावरण में बड़ा बदलाव आया है। जो नुकसान हुआ है, उसकी भरपाई नहीं की जा सकती। 

पर्वतों को कम से कम नुकसान पहुंचे, इसके लिए दूसरा तरीका भू-उपयोग परिवर्तन और पर्वतों पर स्थित शहरी कस्बों में निर्माण की प्रवृत्ति में ऊचित बदलाव लाना है। पहाड़ी कस्बों में मुश्किल ही वैधानिक मास्टर प्लान देखने को मिलता है। ज़्यादातर निर्माता ज़मीन पर लागू की जाने वाली योजनाओं को ही पहाड़ों के लिए बनाते हैं और उन्हें वहां लागू करने की कोशिश करते हैं। उदाहरण के लिए पहाड़ों में लकड़ी को बचाने के नाम पर निर्माण के लिए लगातार सीमेंट और कंक्रीट का धड़ल्ले से उपयोग देखिए। यह साबित किया हुआ तथ्य है कि पर्वतों में घरों को स्थानीय तौर पर उपलब्ध सामान, जैसे- लकड़ी, से बनाया जाना चाहिए, ताकि कार्बन उत्सर्जन कम से कम हो सके। लेकिन इसके बजाए हमें स्टील और कंक्रीट का भयावह उपयोग देखने को मिल रहा है। इससे पर्वतों की भार सहने की क्षमता पर जोर पड़ता है।

परिवहन भी एक ऐसा मुद्दा है, जिसे पर्वतों के साथ सामंजस्य मिलाकर चलाना चाहिए। इसका मतलब हुआ कि इस "चार धाम" परियोजना जैसी सड़कों, चार लेन वाले हाईवे और मौजूदा सड़कों के चौड़ीकरण के बजाए वैक्लपिक तरीके देखने चाहिए। चार लेन वाले हाईवे पर्वत के लिए ख़तरा बढ़ाते हैं, क्योंकि इसे चौड़ा करने के लिए जरूरी जगह के लिए पहाड़ को काटना पड़ता है। फिर पर्वतों में जाने वाली कारों की संख्या में भी बहुत इज़ाफा हुआ है। इससे भी कार्बन उत्सर्जन बढ़ा है। रोपवे और सुरंगों के ज़रिए आंतरिक रेलवे एक बड़ा वैक्लपिक तरीका हो सकता है, जो जीवाश्म ईंधन पर निर्भर नहीं होता। शहरी कस्बों में इस तरह की योजनाओं को ज़्यादा प्रोत्साहन देना चाहिए, जहां पैदल चलने पर जोर और सीधे ऊपर की तरफ परिवहन हो, ना कि वाहनों वाली सड़कों से जहां शहरों के भीतर हर जगह तक पहुंचा जाता हो। लेकिन इन शहरों में सड़कों पर बड़ी मात्रा में जाम देखा जाता है और बमुश्किल ही पार्किंग की जगह मिलती है।  

चौथी बात, सतत् पर्यटन के लिए ध्यान पर्यटकों के लिए ज़्यादा से ज़्यादा होमस्टे पर केंद्रित होना चाहिए, इन पर्यटक घरों को सतत् ढंग (सौर ऊर्जा, स्थानीय निर्माण सामग्री, जल संरक्षण, कचरे का स्थानीय निष्पादन आदि) से विकसित करना चाहिए। स्थानीय लोगों की क्षमताओं में इज़ाफा करना चाहिए और उन्हें प्रशिक्षित करना चाहिए। लेकिन ज़्यादातर कस्बों में पर्यटन क्षेत्र में कई बड़े कॉरपोरेट समूह आ गए हैं, जो ज़्यादा पैसे वाले लोगों को सेवाएं देने की सुविधाओं का निर्माण कर रहे हैं। 

पहाड़ों में कचरे का प्रबंधन और निष्पादन बड़ा काम है। करीब़ 6 महीने तक तापमान बहुत कम होता है, इसलिए बमुश्किल ही कचरा निष्पादन होता है। ऊपर से कचरे का एकत्रीकरण, उसे अलग-अलग करना और उसका निष्पादन इन कस्बों में बहुत बेकार स्थिति में है। पहाड़ों में कचरा फेंकने की जगह बड़ी चुभने वाली दिखती हैं। लेह में बॉम्ब गार्ड एक ऐसी जगह है, जो सबसे खराब कचरा निष्पादन स्थलों में से एक है। इसके ऊपर तुरंत ध्यान देने की जरूरत है। इसी तरह दूसरे पहाड़ी कस्बे भी इस तरह की समस्याओं से जूझ रहे हैं। रोहतांग सुरंग के खुलने के बाद, लाहौल और स्पीति तक अब साल में ज़्यादा लंबे वक़्त तक पर्यटकों की पहुंच हो गई है। जिसके चलते बड़ी संख्या में पर्यटक पहुंच रहे हैं। इसके साथ ही कचरा भी बढ़ गया है। इसका समस्या का इलाज करना होगा, नहीं तो जो साफ़ नदियां बह रही हैं, उनमें जल्द ही ठीक ना किए जा सकने वाले बदलाव आ जाएंगे। मुंबई में मीठी नदी कभी पीने के पानी का स्त्रोत हुआ करती थी। आज यह खुले नाले में बदल चुकी है।

इसलिए इस "सतत् पर्यटन" की शपथ का तबतक कोई अर्थ नहीं है, जबतक पहाड़ों को पर्यावरण तंत्र के तौर पर संरक्षित नहीं कर लिया जाता। लेखक हिमाचल प्रदेश में शिमला के पूर्व मेयर हैं। यह उनके निजी विचार हैं।

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें।

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