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साकेरगुडा नरसंहार के 9 साल पूरे होने के मौक़े पर पहुंचे हज़ारों प्रदर्शनकारी, बस्तर में आदिवासी की होती हत्यायाओं को बताया एक निरंतर चलने वाला वाक़या

साल 2012 के 27-28 जून के बीच पड़ने वाली उस रात को सरकेगुड़ा गांव में सुरक्षा बलों ने तीन बच्चों सहित 17 लोगों को मार डाला था,उस बर्बर घटना की याद में इस साल आदिवासी एक साथ जमा हुए।
Thousands of tribals
पुलिस उत्पीड़न की अपनी-अपनी कहानियों के साथ इकट्ठा हुए बस्तर के अलग-अलग हिस्सों से आये हज़ारों आदिवासी ।

बीजापुर: दिवंगत दिनेश की पत्नी जानकी ने बताया, “उस रात मारे गये 17 लोगों में से एक मेरे पति दिनेश भी थे। जिस समय उन्होंने उनकी हत्या कर दी थी,उस समय वह वहां स्थानीय त्योहार 'बीज पंडम' मनाने के लिए गये थे। मेरे चार बच्चे हैं और अब तो घर के बाहर और अंदर का सारा काम मैं ही संभालती हूं। मुझे अपने बच्चों को ज़िंदा रखना है, उन्हें पढ़ाना है और इस लायक़ बनाना है कि वे ख़ुशी से जी सकें।”

न्यायिक आयोग की तरफ़ से 28 जून, 2012 को सुरक्षा बलों को 17 आदिवासियों की हत्या का दोषी ठहराये जाने के बाद पहली बार बीजापुर के साकेरगुडा में 5,000 से ज़्यादा आदिवासी इकट्ठे हुए। नक्सलवाद का मुक़ाबला करने के नाम पर पुलिस की ताक़त के ग़लत इस्तेमाल का शिकार होने वाले लोगों की ऐसी हृदय विदारक कहानियों से बस्तर भरा पड़ा है।

सरकेगुडा पहुंचने और जनसभा में भाग लेने के लिए एक सप्ताह से अधिक समय तक चलते कई लोग । चट्टान और दुर्गम स्थान के बीच फंसे छत्तीसगढ़ के आदिवासी।

जानकी ने अपनी आंखों से आंसू पोंछते हुए बताया, "बिल्कुल, मेरे भीतर ग़ुस्सा है, मुझे उनकी याद आती है, हमारे बच्चे उन्हें याद करते हैं और मैं इन बच्चों को उनके पिता वापस नहीं दिला सकती। कुछ साल पहले तक मेरी सबसे छोटी बेटी अपने पिता के बारे में पूछती थी। मुझे लगता है कि अब वह समझती है कि वह गुज़र चुके हैं। उसके पास ऐसा कोई नहीं,जो उसके पिता को वापस ला सके, क्योंकि पुलिस ने उसके पिता को मार डाला है। सरकार ने हमारी ज़िंदगी तबाह कर दी है। हमारे हाथ में  सचमुच कुछ भी नहीं है। हमें लगता है कि यह उसकी क़िस्मत थी और हम अपनी ज़िंदगी जीने की कोशिश कर रहे हैं। ”

दो साल बाद 2014 में हुई एक अन्य घटना में कोपे मंडावी के बेटे सुनील मंडावी की कथित तौर पर उस समय गोली मारकर हत्या कर दी गयी थी, जब वह अपने खेत से जानवरों को भगाने के लिए निकला था।

सुनील मंडावी की मां कोपे मंडावी ने बताया, “जिस समय हमारे खेत से कुछ शोर-गुल की आवाज़ आने लगी थी,उस समय मेरा बेटा सुनील मंडावी खा रहा था। वह खाना छोड़कर खेत की तरफ़ इस डर से भागा कि कहीं मवेशी हमारी फ़सल बर्बाद न कर दें। मगर,वह कभी वापस नहीं लौट पाया, वैसे भी वह भागा नहीं था। उसे रास्ते से ही उठा लिया गया था और सुरक्षा बलों ने उसे मार डाला था।

कोपे मांडवी ने कहा, "मुझे नहीं पता कि उसने क्या ग़लत किया था। वह एकदम आम इंसान था और वह कभी तेवर दिखाया हो,ऐसा मुझे याद नहीं है। पुलिस ने कहा था कि वह एक नक्सली था, लेकिन मैं तो उसकी मां हूं, मैं अपने बेटे को जानती हूं, और वह नक्सली बिल्कुल नहीं था।

कोपे की ज़िंदगी सहज नहीं रह गयी है और उन्होंने 2014 के बाद से उनके हर दिन अपने बेटे के खोने के ग़म में गुज़रता है। उनका छोटा बेटा गणेश 2015 से जेल में है और वह अकेले रहती हैं, दो जून के खाने का इंतज़ाम करने के लिए पूरे दिन मेहनत करती हैं। कोपे जैसे कई लोगों ने 29 जून को सरकेगुडा पहुंचने के लिए कई दिनों तक का पैदल सफ़र तय किया है और अपने उन साथी आदिवासियों को याद किया, जो पिछले 15 वर्षों में सुरक्षा बलों की गोलियों से मारे गये हैं।

बड़ी संख्या में आदिवासी 27 जून को बस्तर के अलग-अलग हिस्सों से सरकेगुड़ा में जमा होने लगे थे। मौक़ा था सरकेगुड़ा हत्याकांड की बरसी का, लेकिन पूरे बस्तर से आये लोग अपने साथ पुलिस की बर्बरता के अपने-अपने अनुभव के साथ आये थे।

न्यायिक आयोग की रिपोर्ट में सरकेगुडा के 17 लोगों की हत्या के लिए सुरक्षा बलों के दोषी पाये जाने के बाद तमाम चुनौतियों का सामना करके पहली जनसभा में भाग लेने पहुंचे सरकेगुडा के आदिवासी

साल 2012 के 27-28 जून के बीच पड़ने वाली उस रात को सरकेगुड़ा गांव में सुरक्षा बलों ने तीन बच्चों सहित 17 लोगों को मार दिया था,उस बर्बर घटना की याद में इस साल भी आदिवासी एक साथ जमा हुए। 

उस घटना के सात साल बाद न्यायिक आयोग ने अपनी रिपोर्ट में पुलिस के उन दावों का खंडन किया,जिसमें कहा गया था कि 'मारे गये लोग माओवादी थे और मुठभेड़ में मार गिराये गये थे।'

मध्य प्रदेश हाई कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश न्यायमूर्ति वी.के. अग्रवाल की अध्यक्षता वाले एक सदस्यीय आयोग ने अपनी रिपोर्ट अक्टूबर 2019 में सरकार को सौंपी थी और दिसंबर 2019 में छत्तीसगढ़ विधानसभा में इसे पेश किया गया था। उस रिपोर्ट में "जांच-पड़ताल में किये गये स्पष्ट हेरफेर" का उल्लेख किया गया है। हालांकि, तक़रीबन 18 महीने बीत चुके हैं और दोषियों को इंसाफ़ की ज़द में लाये जाने को लेकर सरकार की तरफ़ से की जाने वाली कार्रवाई का अब भी इंतज़ार है।

बस्तर रेंज के पुलिस महानिरीक्षक पी.सुंदरराज ने कहा, "सरकार क़ानूनी प्रक्रियाओं से निपट रही है और हम पूरी दक्षता के साथ काम कर रहे हैं। सरकेगुडा मामले में सरकार की तरफ़ से सभी विवरणों को अंतिम रूप जैसे ही दे दिया जायेगा,उसके बाद उचित कार्रवाई की जायेगी।"

आईजीपी ने कहा, "इन विरोधों की लामबंदी माओवादियों की तरफ़ से की जा रही है और हमारे पास अपने दावों के समर्थन में मज़बूत सबूत हैं। हम यहां बस्तर के लोगों की सेवा करने के लिए हैं और हम छत्तीसगढ़ से माओवादी समस्या को ख़त्म करने के लिए अपनी पूरी ताक़त से काम कर रहे हैं।

सरकेगुडा में एक नौजवान प्रदर्शनकारी ने सवाल करते हुए पूछा, "हमें सिर्फ़ वादे मिले हैं, ज़मीन पर कुछ भी नहीं हुआ है। ये चौड़ी सड़कें किसके लिए बनायी जा रही हैं ? पुलिस ने किसके आदेश पर प्रदर्शनकारियों पर गोलियां चलायी थीं ? वे हमारी सुनने को तैयार क्यों नहीं हैं ?"

10वीं कक्षा में पढ़ने वाले एक अन्य प्रदर्शनकारी ने कहा, "वे बस्तर का विकास करना चाहते हैं, लेकिन वे हमसे यह भी नहीं पूछते कि हम किस तरह का विकास चाहते हैं। यह अनुचित और ग़लत है। लोकतंत्र में इस तरह नहीं होना चाहिए।"

कार्रवाई में हो रही इस देरी को लेकर आदिवासियों में बहुत ग़ुस्सा और नाराज़गी है और इसीलिए उन्होंने इसे याद करने के लिए एक जनसभा आयोजित करने का फ़ैसला किया है। इस रिपोर्ट के सार्वजनिक होने के बाद पहली बार बस्तर के अलग-अलग इलाक़ों से हज़ारों आदिवासी यहां इकट्ठे हुए और उन्होंने मारे गये लोगों को श्रद्धांजलि दी।

मूल निवासी बचाओ मंच के सदस्य। सरकार की बर्बरता के ख़िलाफ़ आदिवासी संघर्ष का मार्ग प्रशस्त करते हुए सिल्गर विरोध से पैदा हुआ नौजवान संगठन।

नौजवान आदिवासी प्रदर्शनकारियों और सिल्गर प्रोटेस्ट से पैदा हुए मूलनिवासी बचाओ मंच के रूप में जाने जाते उनके इस संगठन ने एक आम सभा को आयोजित करने और उन लोगों को याद करने और उस पर चर्चा करने के सिलसिले में आपस में मिले हैं,जिनकी वामपंथी अतिवाद का मुक़ाबला करने की आड़ में बस्तर में सुरक्षा बलों ने हत्या कर दी थी।

सुरक्षा बलों की तरफ़ से किये गये आदिवासियों के उस उत्पीड़न और अत्याचार को याद करने और उस पर बात करने के लिए रघु मिदियामी, उन्गा मोचाकी, सोनी पुनेम के साथ-साथ कई अन्य लोगों ने एक जनसभा का आयोजन किया। उस बैठक का आयोजन बस्तर के नौजवान और पढ़े-लिखे नौजवान आदिवासियों की अगुवाई में किया गया।

मंच तैयार था, लोग उठ खड़े हुए थे और काफ़ी चहल-पहल थी। एक दूसरे को पहचानने वाले चेहरे, 'जोहार' (छत्तीसगढ़ के आदिवासियों के बीच अभिवादन के लिए इस्तेमाल किया जाने वाला एक शब्द) के पीछे के दर्द और दुख को समझने वाली आंखें मंच के चारों तरफ़ जमा हो गयीं और नौजवान नेताओं ने पुलिस की तमाम अत्याचारों और बर्बरता से मिले ज़ख़्म को लेकर बातें कीं। अपनी बातों को सामने रखने के लिए नारे लगाते हुए और विभिन्न आदिवासी कलाओं का इस्तेमाल करते हुए इस युवा समूह ने बस्तर के आदिवासियों के विरोध के दायरे में आ रहे स्पष्ट बदलाव की बात की।

न्यूज़क्लिक से बात करते हुए एक युवा आदिवासी प्रदर्शनकारी उन्गा मोचाकी उस समय ग़ुस्से और उदासी से  भर गये,जब उन्होंने बस्तर के अलग-अलग हिस्सों में पुलिस द्वारा कथित रूप से मारे गये लोगों के परिवारों की तरफ़ देखा। उन्गा ने कहा, "हमारे पास सबकुछ पर्याप्त है। हम पढ़े-लिखे हैं और हमने जान लिया है कि हमारे पास ऐसे अधिकार हैं, जो हमसे कोई छीन नहीं सकता। यह लड़ाई अभी शुरू हुई है, हम तब तक लड़ेंगे, जब तक पुलिस के ज़ुल्म के शिकार एक-एक परिवार को इंसाफ़ नहीं मिल जाता।

बस्तर में बरसों से माओवादियों की आड़ में पुलिस द्वारा मारे गये लोगों के परिजन।

उन्होंने कहा, "सरकार को लगता है कि वे निर्दोष आदिवासियों की हत्या करते रहेंगे और कोई भी सवाल पूछने की हिम्मत नहीं कर पायेगा। अब ऐसा नहीं चलेगा, स्थिति बदल गयी है। मेरे जैसे कई लोग हैं, जो स्कूल जा रहे हैं, कॉलेज जा रहे हैं और हम सब यहां सरकेगुडा में अपने लोगों, नुमाइंदों और सभी लोगों को यह बताने के लिए आये हैं कि हम लड़ सकते हैं और हम पूरी ताक़त के साथ मुक़ाबला कर सकते हैं, क्योंकि हमारे संविधान ने हमें जीने का  अधिकार दिया है।"

सालों से आदिवासियों के ख़िलाफ़ चल रहे पुलिस उत्पीड़न पर चर्चा करने के लिए आयोजित इस आम सभा में कांग्रेस नेता अरविंद नेताम सहित विभिन्न सामाजिक कार्यकर्ताओं और राजनेताओं ने भी भाग लिया।

सरकेगुडा में मीडिया से बात करते हुए कांग्रेस नेता अरविंद नेताम ने कहा, “सरकारें ऐसे ही काम करती रही हैं। माओवादियों का मुक़ाबला करने की रणनीति में कोई बदलाव नहीं हुआ है और वे सशस्त्र समाधान पर टिके हुए हैं।”

उन्होंने कहा,“आदिवासियों के उन इतिहास, स्मारकों और संस्कृतियों को ध्वस्त करने का चलन है, जो हमारे लिए अहमियत रखते हैं। वे एक तरफ़ वादा करते हैं और फिर मुकड़ जाते हैं और ठीक इसके विपरीत काम करते हैं। वे हमारी संस्कृति, हमारे समाज को नहीं जानते और वे हमारा और हमारी मान्यताओं का अनादर करते रहते हैं। यह तो ग़लत है।”

पिछले साल देश में कोविड-19 लॉकडाउन के लागू होने के बाद जिन नौजवान लड़कों और लड़कियों के पास अपने गांव लौटने के अलावा कोई चारा नहीं बचा था, उन्होंने पिछले दो सालों में पुलिस के उत्पीड़न को प्रत्यक्ष रूप से देखा है।

इस विरोध सभा में शामिल आठवीं कक्षा के एक छात्र ने कहा, “मेरे दोस्त, मेरे भाई, यहां तक कि मेरी मां को भी पिछले साल सुरक्षा बलों ने पीटा था। वे(पुलिस) कहते हैं कि हम माओवादियों की मदद करते हैं और माओवादी हमें मदद करते हैं। हम आदिवासी आम जीवन जीना चाहते हैं,लेकिन हमारे लिए यह गुंज़ाइश भी नहीं बची है।”

उन्होंने आगे कहा, "पहले मैं छोटा था, मेरे माता-पिता ने भी मुझे इन सब चीजों से दूर रखा था, लेकिन पिछले एक साल में मैंने इसे अपनी आंखों से देखा है। इसलिए, मैं और मेरे दोस्त सिलगर के विरोध प्रदर्शन में मौजूद थे और इसलिए हम यहां सरकेगुडा में भी मौजूद हैं। अब कोई मारपीट और हत्या नहीं होगी। हम पढ़े-लिखे हैं, हम जानते हैं कि कोई हमें नुक़सान नहीं पहुंचा सकता। इसकी इजाज़त नहीं है। हम लड़ेंगे, क्योंकि हमने स्कूलों में सीखा है कि हमें शांति से लड़ने का अधिकार हासिल है और हम ऐसा ही करेंगे।"

प्रदर्शनकारियों ने सुरक्षा शिविरों को हटाने, कथित सिलगर गोलीबारी की जांच, सरकेगुड़ा हत्याकांड के दोषियों पर कार्रवाई और जेलों में ग़लत तरीक़े से बंद आदिवासियों की रिहाई सहित 12 मांगें रखीं। इन नौजवान प्रदर्शनकारियों ने यह मांग भी रखी कि पूरे बस्तर के गांवों में स्कूल, अस्पताल और कॉलेजों को चालू किया जाये ताकि अन्य लोगों को भी शिक्षा और नौकरी मिल सके।

छत्तीसगढ़ बचाओ आंदोलन नामक एक दबाव समूह के संयोजक आलोक शुक्ला ने कहा, “सरकार आदिवासियों के अधिकारों को कुचलने और उनके संसाधनों को छीनने की कोशिश कर रही है। पिछले 20 सालों में इस तरह का अविश्वास और शक चरम पर पहुंच गये हैं। लोग ख़ुश नहीं हैं। अगर सरकार कह रही है कि यह आदिवासियों के लिए है, तो उसके हिसाब से कार्रवाई करने की भी ज़रूरत है। सरकेगुडा रिपोर्ट पर जल्द से जल्द कार्रवाई होनी चाहिए, भारत के संविधान में दर्ज आदिवासियों के हक़-ओ-हुक़ूक़ की हिफ़ाजत की जानी चाहिए, अगर ऐसा नहीं होता है, तो यह अशांति और बढ़ेगी और आदिवासियों का जीवन तबाह हो जायेगा।”

द क्विंट से बात करते हुए वकील और अधिकार कार्यकर्ता बेला भाटिया ने कहा, “बस्तर के लोग,ख़ासकर नौजवान अब इन हत्याओं पर बेहद नाराज़ हैं। माओवादियों के नाम पर आदिवासियों को मनमर्ज़ी से सरेआम गोली मार दी जा रही है। सरकेगुडा न्यायिक आयोग की रिपोर्ट पर कोई कार्रवाई नहीं हुई है। सुरक्षा बलों ने सिल्गर में शांतिपूर्ण प्रदर्शनकारियों पर भी गोलीबारी की थी और चार लोगों को मार डाला था। क़रीब पंद्रह दिन पहले एक नौजवान लड़की की शादी होने वाली थी,उन्हें आधी रात को उनके घर से उठा लिया गया और मार डाला गया। बाद में पुलिस ने उन्हें माओवादी घोषित कर दिया। ऐसे में लगता है कि इस बर्बरता का कोई अंत नहीं है। यही वजह है कि नौजवान, पढ़े-लिखे युवा इसस व्यवस्था से नाराज़ हैं।

उन्होंने कहा, "ऐसे हज़ारों लोग हैं, जो अपने मारे गये लोगों को याद करने के लिए दूर-दूर से यहां आये हैं। बस्तर ने बहुत ख़ून-ख़राबा देखा है और इसे अब ख़त्म होना चाहिए। सरकारों को चाहिए कि वह माओवादियों के साथ शांति वार्ता शुरू करे और आदिवासी परिवारों को तबाह करना बंद करे।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

‘Tribal Killings a Recurring Phenomenon in Bastar,’ Say Protestors Marking 9 Years of Sakerguda Massacre

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