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क्यों झारखंड का आदिवासी समाज राम मंदिर का विरोध कर रहा है ?

राम जंगल गए ठीक है, वे आदिवासी भाई-बहनों के साथ रहे ठीक है, लेकिन इससे यह कैसे स्थापित हो जाता है कि हम आदिवासी अपना धर्म बदल लिए हैं ? कई युवा आदिवासियों के पोस्टों में आदिवासियों को वानर शब्द से परिभाषित करने की भी व्यापक निंदा करते हुए कहा जा रहा है कि हम आदिकाल से ही आदिवासी थे और आज भी आदिवासी हैं, हम वानर नहीं हैं।  
झारखंड
फोटो साभार : सोशल मीडिया

राम मंदिर निर्माण में झारखण्ड के आदिवासियों के पारंपरिक अराध्य स्थल ‘सरना' से मिटटी ले जाने और उसका विरोध कर रहे आदिवासी संगठनों का विरोध प्रकरण अब प्रदेश के राजनीतिक पटल पर भी स्वरुप लेना अपना शुरू कर दिया है।  

3 अगस्त को राजधानी रांची स्थित मोरहाबादी में प्रदेश आदिवासी समाज के विभिन्न धार्मिक एवं सामाजिक संगठनों के प्रतिनिधियों की हुई बैठक ने 2 अगस्त को भाजपा नेता व राज्य के पूर्व प्रथम मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी द्वारा आदिवासियों के सरना के सनातन से जुड़े होने तथा आदिवासियों का राम से गहरा नाता बताये जाने के बयान का एकस्वर से ज़ोरदार विरोध किया है।  

बैठक को संबोधित करते हुए वरिष्ठ शिक्षाविद और आदिवासी अधिकारों के सामाजिक नेता डॉक्टर करमा उराँव ने स्पष्ट तौर पर कहा है कि – आज आदिवासी जब अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहें हैं और विहिप के साथ धर्मयुद्ध में हैं . ऐसे में बाबूलाल मरांडी , जिनका अभी तक तो हमलोग काफी सम्मान करते रहें हैं , पर उन्होंने स्वीकार किया है कि वे विहिप के संगठन मंत्री रहें हैं,ऐसे में हम उनसे और क्या उम्मीद कर सकते हैं ? आदिवासियों और सरना को सनातनी घोषित कर दिखला दिया है कि वे किस तरह से आरएसएस की ही भाषा बोल रहें हैं।  

वैसे आदिवासी संगठनों की ओर से करमा उरावं जी का विरोध कथन उस समय आया है जब सरना की मिटटी मंदिर निर्माण हेतु ले जाने के विरोध प्रकरण में पूर्व भाजपा विधायिका व पार्टी की प्रदेश महिला मोर्चे की नेता व राजधानी की मेयर समेत कई अन्य भाजपा आदिवासी नेताओं के खिलाफ सामाजिक बहिष्कार की घोषणा की जा चुकी है . साथ ही उनके खिलाफ मुकदमे भी किये गए हैं।              

आदिवासी समाज के बढ़ते चौतरफा विरोध से हो रही सुरक्षात्मक स्थिति को आक्रामक बनाने के लिए ही प्रदेश भाजपा ने सीधे अपने नेता प्रतिपक्ष बाबूलाल मरांडी जी को मैदान में उतारा है। जिनकी ओर से मीडिया में प्रमुखता से साक्षात्कार छपवाकर कहलवाया जा रहा है कि आज आदिवासी समाज भी मानता है कि राम से उसके गहरे सम्बन्ध हैं, तो समाज में ग़लतफ़हमी फैलाकर राजनीती करने की कोशिश की जा रही है। कोरोना काल के ठीक होते ही मैं खुद अयोध्या जाउंगा। बाबरी मस्जिद ध्वंस के समय भी मैं वहाँ झारखण्ड के आदिवासियों की टीम लेकर गया था और वहाँ के आंदोलनों में शामिल हुआ था।  

दूसरी ओरपार्टी से जुड़े कतिपय भाजपा आदिवासी पाहनों के अयोध्या जाने सम्बन्धी उनके बयानों का ऐसा व्यापक प्रचार कराया जा रहा है मानो व्यापक आदिवासी समाज मंदिर निर्माण का प्रबल हिमायती है।  साथ ही यह भी स्थापित कराया जा रहा है कि सरना की मिटटी मंदिर निर्माण हेतु ले जाना , दरअसल आदिवासियों का ही सम्मान है।              

बाबूलाल मरांडी जी के अलावे पूर्व मुख्यमंत्री रघुवर दास और कई वरिष्ठ भाजपा सासदों,नेताओं के साथ साथ कई स्थानीय भाजपा आदिवासी नेताओं के श्रीमुख से यह तर्क भी खूब प्रसारित कराया जा रहा है कि सरना आदिकाल से ही सनातन से जुड़ा रहा है। जिसका प्रमाण यह है कि जब रामचन्द्र जी वनवास गए थे तो वनवासियों ( वानरों ) के सहयोग से ही उन्होंने रावण ( असुर ) को परस्त किया था।   इसलिए कोई कितना भी प्रयत्न कर ले देश के वनबंधुओं को राम से अलग नहीं किया जा सकता।

प्रतिउत्तर में आदिवासी समाज के बहुसंख्य बुद्धिजीवी और सामाजिक कार्यकर्त्ताओं ने भी सोशल मीडिया में लगातार मोर्चा खोल रखा है।  जिनमें बाबूलाल मरांडी व रघुवर दास समेत भाजपा के तमाम आदिवासी प्रवक्ताओं को आदिवासी अस्मिता व परम्परा का विरोधी करार दिया जा रहा है। उन सबों से यह भी पूछा जा रहा है कि राम जंगल गए ठीक है, वे आदिवासी भाई-बहनों के साथ रहे ठीक है, लेकिन इससे यह कैसे स्थापित हो जाता है कि हम आदिवासी अपना धर्म बदल लिए हैं ? कई युवा आदिवासियों के पोस्टों में आदिवासियों को वानर शब्द से परिभाषित करने की भी व्यापक निंदा करते हुए कहा जा रहा है कि हम आदिकाल से ही आदिवासी थे और आज भी आदिवासी हैं , हम वानर नहीं हैं।  

असुर आदिवासी सामाजिक कार्यकर्त्ता व लेखिका सुषमा असुर ने इससे पहले भी कई मौकों पर दुर्गा पूजा के नाम पर असुरों की ह्त्या उत्सव के नस्ली उत्पीड़न बंद करने की मांग लगातार उठाती रहीं हैं। वे रावण पूजन के लिए भी अपील करती रहीं हैं।  

सनद हो कि झारखण्ड के दिसोम गुरु कहलाने वाले वरिष्ठ आदिवासी नेता व झारखण्ड प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री रहे तथा वर्तमान में राज्यसभा सांसद शिबू सोरेन जी आज तक रावण- दहन उत्सव को आदिवासी विरोधी करार देकर कभी शामिल नहीं होते हैं।  

आदिवासी भाषा की वरिष्ठ शोधकर्त्ता इंदिरा बिरुवा का साफ़ कहना है कि संयुक्त राष्ट्र संघ से लेकर भारत के सविधान तक में यही मान्यता स्थापित है कि आदिवासियों की अपना स्वतंत्र अस्मिता परम्परा रही है।  ऐसे में इन्हें सनातनी धार्मिक धारा का अंग बताया जाना संयुक्त राष्ट्र संघ व संविधान का उल्लंघन के साथ साथ सरासर अपराध है। जो यकीनन इनके बचे खुचे अस्तित्व को ही नष्ट करने के लिए सुनियोजित षड्यंत्र रचा जा रहा है।  जिसे आज का आदिवासी समाज कत्तई बर्दास्त नहीं करेगा।                                                

प्रदेश के कोल्हान ( हो आदिवासी क्षेत्र ) और मुंडा व उराँव बाहुल्य इलाकों के अलावे कई इलाकों में लगातार विरोध कार्यक्रमों की सूचनाएं आ रहीं हैं। 2 अगस्त को बोकारो में आदिवासी संगठनों ने विरोध कार्यक्रम करते हुए ऐलान किया कि वे किसी भी हालत में अपने जाहेर थान और सरना की मिटटी नहीं ले जाने देंगे।  

दूसरी ओर उक्त प्रकरण को लेकर आदिवासी अधिकारों के लिए सतत सक्रिय रहनेवाले वाल्टर कंडूलना जी का आरोप है कि भाजपा बाबूलाल जी के नेतृत्व में अपने आदिवासी नेताओं के जरिये सरन- सनातन का बहस उठवाकर आदिवासियों का ध्यान भटका रही है।  क्योंकि जब मोदी शासन ने कोयला व अन्य सार्वजनिक क्षेत्र के खनिज-खनन को निजी कंपनियों के हाथों सौंपने की घोषणा की तो इसके विरोध में झारखण्ड सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर फैसले को चुनौती दे रखी है। जिस पर बाबूलाल जी ने ही तीखी प्रतिक्रिया के साथ चेतावनी दी थी कि झारखण्ड सरकार निजी कंपनियों के कोयला खनन में  अड़ंगा न डाले।  

साबित करता है कि आदिवासियों के बचे खुचे जंगल-ज़मीन व खनिज को जबरन हथियाने और उसके संभावित आदिवासी विरोध को ही भटकाने के लिए अभी का सरना-सनातन विवाद प्रपंच जोर-शोर से वायरल किया जा रहा है।      

कई झारखंडी जानकारों का भी मानना है कि वाल्टर कन्डूलना जी की आशंका बेबुनियाद नहीं है।  क्योंकि देखा तो यही जा रहा है मोदी शासन लोगों की धार्मिक भावनाओं की कमजोरियों के दोहन- हथियार से ही सबकुछ का ताबड़तोड़ निजीकरण करने में लगी हुई है . 

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