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उच्च जीडीपी विकास और निम्न खाद्यान्न उत्पादन वृद्धि का आर्थिक विरोधाभास

एक विशेष वर्ग की स्थिति बिगड़ती जा रही है जिससे लोगों की वास्तविक क्रय शक्ति में कमी आ रही है विशेषकर किसानों की क्रय शक्ति में।
GDP
प्रतीकात्मक चित्र | प्गोतो साभार: Telegraph

आंकड़े बताते हैं कि भारत में नवउदारवादी आर्थिक नीति के युग में पहले की सरकारी नियंत्रण वाली अर्थव्यवस्था की अवधि की तुलना में सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की वृद्धि दर बहुत अधिक थी जो वास्तव में पूर्ववर्ती दर से लगभग दोगुनी थी। वे यह भी बताते हैं कि पूर्ववर्ती अवधि की तुलना में नवउदार अवधि में कृषि विकास दर विशेष रूप से खाद्यान्न की विकास दर विशिष्ट रूप से कम रही है।

प्रति व्यक्ति शब्दावली में ये अंतर भी काफ़ी अधिक है। नवउदारवाद काल में प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि पहले की तुलना में दोगुनी से अधिक है जबकि नवउदार युग में प्रति व्यक्ति खाद्यान्न उत्पादन में वृद्धि लगभग शून्य रही है जबकि पहले की अवधि में यह प्रति वर्ष 0.5 और एक प्रतिशत के बीच था (यह लिए जाने वाले समय अंतराल पर निर्भर करता है)।

खाद्यान्न तथा ग़ैर-खाद्यान्न क्षेत्रों के बीच बढ़ते असंतुलन का मतलब पहले की तुलना में नवउदार युग में खाद्यान्नों की बढ़ती मांग होनी चाहिए जो या तो तेज़ी से खाद्य मूल्य मुद्रास्फ़ीति या बड़े पैमाने पर खाद्य आयात हो सकते हैं। हालांकि जो हम पाते हैं वह बिल्कुल विपरीत है। बड़ी मात्रा में खाद्यान्न आयात से परे भारत खाद्यान्नों का नियमित और बड़ा निर्यातक बन गया है; और जबकि पहले की अवधि में अधिक या कम सतत तथा महत्वपूर्ण खाद्य मूल्य मुद्रास्फ़ीति की विशेषता थी ऐसे में नवउदार काल में खाद्यान्नों के लिए औसत मुद्रास्फ़ीति दरें मौजूद रहीं। और एक चौथाई सदी से अधिक के इस पूरे नवउदार काल के दौरान थोड़े बहुत अवसरों को छोड़कर सरकार का खाद्यान्न भंडार हमेशा सामान्य स्तर से ज़्यादा रहा है।

यह कैसे संभव है? खाद्यान्न और ग़ैर-खाद्यान्न क्षेत्रों के बीच बढ़ता असंतुलन तीव्र अतिरिक्त मांग की स्थिति पैदा करने के बजाय पूर्ववर्ती में प्रति व्यक्ति वृद्धि में गिरावट और उत्तरवर्ती में वृद्धि के साथ कैसे हो सकता है जो वास्तव में अतिरिक्त आपूर्ति की स्थिति का कारण बन सकता है जो कि पूर्णतः इसके विपरीत है? इस मामले को अलग तरह से देखें तो अर्थशास्त्री जिसे खाद्यान्न के लिए मांग की आय-लोच कहते हैं अर्थात जब प्रति व्यक्ति वास्तविक आय में 1 प्रतिशत की वृद्धि होती है तो खाद्यान्नों की प्रति व्यक्ति मांग में एक प्रतिशत परिवर्तन सामान्य रूप से सकारात्मक होता है तो हमें नवउदार काल में खाद्यान्न की भारी कमी होनी चाहिए थी; तो फिर ऐसा कैसे लगता है कि हमारे पास निर्यात के लिए और स्टॉक के रूप में रखने के लिए पर्याप्त खाद्यान्न है? यही विरोधाभास है।

इस विरोधाभास को यह कहकर समझाना कि आय असमानता में वृद्धि हुई है जो पर्याप्त नहीं है। सच यह है कि मांग की आय-लोच आय वितरण पर निर्भर करती है और जब यह वितरण अधिक असमान हो जाता है तो खाद्यान्न की मांग की आय-लोच गिर जाती है क्योंकि एक रुपया हाशिए पर मौजूद ग़रीबों से अमीरों को हस्तांतरित हो गया जो खाद्यान्न की मांग को कम कर देता है, हालांकि औसतन ये अमीर प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से ग़रीबों की तुलना में प्रति व्यक्ति अधिक खाद्यान्न उपभोग करते हैं। लेकिन आय वितरण की बिगड़ती स्थिति को बताना केवल एक स्पष्टीकरण के रूप में प्रस्तुत नहीं करेगा क्योंकि हम खाद्यान्न के लिए मांग की आय-लोच के केवल कम होने को लेकर बात नहीं कर रहे हैं बल्कि हम इसके नकारात्मक होने की बात कर रहे हैं। और यह केवल तभी संभव है जब लोगों के विशेष वर्ग की स्थिति का पूर्ण रूप से विकृति हो।

हालांकि ऐसा हुआ होगा क्योंकि इस विरोधाभास की कोई अन्य व्याख्या नहीं है लेकिन बस इसे इंगित करना भी पर्याप्त नहीं है। हमें पूछना चाहिए कि यह कैसे हुआ? उदाहरण के लिए लोगों के एक ख़ास वर्ग की स्थिति में पूरी तरह विकृति हो सकती है यदि उनकी बुनियादी आय के सापेक्ष क़ीमतों में वृद्धि होती है अर्थात जिसे एक अंग्रेज़ अर्थशास्त्री जॉन मेनार्ड केन्स ने "लाभ मुद्रास्फ़ीति" कहा था। लेकिन हमने देखा है कि नवउदार काल के दौरान खाद्य मूल्य मुद्रास्फ़ीति में कोई विशेष वृद्धि नहीं हुई है। तो ज़ाहिर है कि यह काम करने वाले लोगों की क्रय शक्ति के सापेक्ष खाद्य मूल्य में वृद्धि के माध्यम से नहीं था बल्कि खाद्य मूल्य के सापेक्ष इस क्रय शक्ति के कम होने के माध्यम से (जो स्वयं किसी प्रकार भी तेज़ी से नहीं बढ़ा है) है जो कि उनकी स्थिति में यह पूर्ण विकृति हुई है।

लेकिन यह कहना भी पर्याप्त नहीं है। खाद्य मूल्य (जो स्वयतः तेज़ी से नहीं बढ़ा है) की सापेक्ष क्रय शक्ति में कमी कैसे हुई? एक स्पष्ट जवाब खाद्यान्न, उत्पादन वृद्धि सहित कृषि में मंदी है। जब यह उत्पादन कम होता है तो किसानों और कृषि श्रमिकों के हाथों में क्रय शक्ति कम होती है। इसलिए यदि कम उत्पादन है तो उत्पादकों की कम मांग होगी। लेकिन यह अकेले एक पर्याप्त स्पष्टीकरण नहीं है।

यदि एक इकाई तक खाद्यान्न उत्पादन में कमी होती है तो निश्चित रूप से उत्पादकों अर्थात किसानों और मज़दूरों द्वारा खाद्यान्न की मांग अन्य वस्तुओं के लिए उनके अल्प मांग के ज़रिए प्रत्यक्ष (चूंकि वे कम खाद्यान्न का उपभोग करते हैं) और अप्रत्यक्ष रूप में घट जाती है जिसके उत्पादक बदले में कम खाद्यान्न की मांग करने के लिए मजबूर हो जाते हैं।

लेकिन खाद्यान्न उत्पादन में एक इकाई की गिरावट वास्तविक रूप से नहीं हो सकती है अर्थात वास्तव में किसी कार्यशील अर्थव्यवस्था में इस प्रकार से एक इकाई से अधिक खाद्यान्न की मांग कम हो जाती है; यदि ऐसा होता तो ये विपरीत वस्तु भी सत्य होती, और खाद्यान्न उत्पादन में एक इकाई वृद्धि से खाद्यान्न की मांग में एक इकाई से अधिक की वृद्धि होगी जिससे अर्थव्यवस्था में अनियंत्रित मुद्रास्फ़ीति पैदा होगी। इस प्रकार यह खाद्यान्न उत्पादन में कमी से अतिरिक्त मांग पैदा हो सकती है (क्योंकि अपने आप ही यह एक इकाई से कम की मांग उत्पन्न करेगा)। यदि उत्पादन 100 से 99 यानी एक इकाई तक कम हो जाता है तो मांग भी एक इकाई से थोड़ी कम हो जानी चाहिए अर्थात 99.5 जिसमें 0.5 की अतिरिक्त मांग होगी।

इसलिए नवउदार युग में खाद्यान्नों की अधिक आपूर्ति के स्पष्टीकरण के रूप में प्रति व्यक्ति खाद्यान्न विकास दर में गिरावट की ओर सिर्फ़ इशारा करना समाधान नहीं करेगा। कुछ और भी स्पष्ट रूप से शामिल है। और इसे समझना कि यह क्या है तो हमें अंतर निकालना होगा। कृषि पर निर्भर लोगों के हाथों में वास्तविक क्रय शक्ति (और हम वर्तमान संदर्भ में इस जनसंख्या पर ध्यान केंद्रित कर रहे हैं) दो कारकों पर निर्भर करता है पहला इसके उत्पादन का आउटपुट और दूसरा इसके उत्पादन के आउटपुट की प्रति इकाई वास्तविक क्रय शक्ति।

ये दोनों स्पष्ट रूप से दो अलग चीज़ें हैं। यहाँ तक कि अगर समान चीज़ों का उत्पादन किया जाता है तो वास्तविक क्रय शक्ति या वास्तविक आय उत्पादकों के हाथों में अलग-अलग हो सकती है जो कि उनके द्वारा भुगतान की जाने वाली लागत क़ीमतों, उनके द्वारा प्राप्त आउटपुट क़ीमतों और उनके द्वारा ख़रीदी जाने वाली वस्तुओं की क़ीमतों पर हो सकती है।

नवउदार युग में भारत में जो कुछ भी हुआ है वह ये कि कृषकों (किसानों और खेतिहर मज़दूरों) के हाथों की वास्तविक आय छीन ली गई है। ये कृषि (विशेषकर खाद्यान्न) उत्पादन वृद्धि में गिरावट के चलते हुआ है और उत्पादन के प्रति व्यक्ति वास्तविक आय में भी कमी हुई है क्योंकि लागत ख़र्च में वृद्धि हुई है। इनके द्वारा उपयोग की जाने वाली आवश्यक सेवाओं(विशेष रूप से शिक्षा तथा स्वास्थ्य सेवा) के ख़र्च में वृद्धि हुई है।

किसानों और खेतिहर मज़दूरों की क्रियाशीलता के ख़र्च में यह वृद्धि दुरूह हो जाती है अगर हम केवल कृषि और विनिर्माण के बीच व्यापार के तथाकथित मामले को देखें। व्यापार आंदोलनों के ऐसे नियम शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा जैसी आवश्यक सेवाओं की प्रभावी क़ीमतों में बदलाव को आकर्षित नहीं करते हैं। ऐसे क्षेत्र जिनके निजीकरण के चलते क़ीमतें आसमान छू रही हैं।

हमने ऊपर देखा कि यदि उत्पादन की प्रति यूनिट वास्तविक क्रय शक्ति अपरिवर्तित रहती है तो खाद्यान्न उत्पादन (या उसकी वृद्धि दर में) में कमी अकेले खाद्यान्नों की अतिरिक्त आपूर्ति की स्थिति के विरोधाभासी उत्थान की व्याख्या नहीं कर सकती है। लेकिन अगर खाद्यान्न विकास दर में कमी के साथ उत्पादकों के लिए प्रति यूनिट वास्तविक क्रय शक्ति में कमी होती है तो खाद्यान्नों की अधिक आपूर्ति की स्थिति पैदा हो सकती है जो ग़ैर-खाद्यान्न क्षेत्र (जो प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से अपने उत्पादन की प्रति यूनिट खाद्यान्न की कम मांग उत्पन्न करता है) की तीव्र वृद्धि नकारात्मक नहीं हो सकती है।

और विशेष स्थिति में परवर्ती क्षेत्र में तकनीकी प्रगति समय के साथ होती है जो श्रम उत्पादकता की वृद्धि दर को बढ़ाती है और इसलिए रोज़गार को कम करता है और उत्पादन की प्रति इकाई खाद्य की मांग खाद्यान्न बाज़ार में अतिरिक्त आपूर्ति और अधिक स्पष्ट हो जाएगी।

जब कोई इस मामले को बारीक़ी से देखता है तो यह स्पष्ट हो जाता है कि खाद्यान्नों की प्रति व्यक्ति विकास दर का कम होना भी उत्पादन की प्रति इकाई उत्पादकों की वास्तविक क्रय शक्ति में कमी का परिणाम है। यह इनपुट क़ीमतों में वृद्धि, ख़रीद क़ीमतों पर सख़्ती और क्रियाशीलता की लागत में वृद्धि के माध्यम से हुआ है। इन सभी ने सरल पुरुत्पादन को उनके बड़े वर्गों के लिए भी कठिन बना दिया है।

इस प्रकार किसान का ये संकट आपूर्ति (इसके उत्पादन के प्रति व्यक्ति विकास दर में कमी के माध्यम से) तथा मांग (उत्पादन वृद्धि दर में इसकी कमी और उत्पादन में प्रति व्यक्ति वास्तविक क्रय शक्ति में कमी के माध्यम से) दोनों को प्रभावित करता है। आपूर्ति की तुलना में मांग का प्रभाव अधिक सशक्त है, यही कारण है कि पहले की तुलना में नवउदार युग में जीडीपी वृद्धि दर अधिक होने के बावजूद हम खाद्यान्नों की अधिक आपूर्ति जैसी स्थिति पाते हैं और खाद्यान्न विकास दर कम होती है। दूसरे शब्दों में नवउदारवादी पूंजीवाद के अधीन नीतियों के वर्ग उन्मुखीकरण के कारण अतिरिक्त आपूर्ति उत्पन्न होती है।

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