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क्या जीएसटी की वजह से केंद्र और राज्यों के बीच चल रही लड़ाई से आप वाक़िफ़ हैं?

भारत में कोरोना लॉकडाउन के दौरान वस्तु एवं सेवा कर यानी जीएसटी से राज्यों को मिलने वाले राजस्व में भारी कमी आई थी। पिछले कई महीनों से इसकी भरपाई के लिए केंद्र और राज्य सरकारों के बीच तकरार चल रही है।
GST
Image Courtesy: The Hindu

अर्थव्यवस्था की खबरें तकनीकी धागे में बुनी हुई होती है इसलिए बहुत सारे लोग इससे उलझने से कतराते हैं। लेकिन इसमें भी जीएसटी की खबर न जाने कैसे धागे में उलझी हुई होती है कि जो भी इससे उघारने जाता है उसी में उलझ जाता है। इसलिए हिंदी की दुनिया में अर्थव्यवस्था से जुड़े पाठक कम है तो जीएसटी की खबरों से जुड़े पाठक सबसे कम हैं।

पिछले महीने भर से जीएसटी की वजह से राज्यों को अपने राजस्व में होने वाले नुकसान की भरपाई केंद्र सरकार किस तरह से करेगी, इस पर खींचतान चल रही थी। अब जाकर जीएसटी की वजह से राज्य और केंद्र के बीच की खींचतान कुछ शांत हुई है। अब यह खींचतान क्या थी? इसे समझने के लिए कुछ कदम पीछे चलते हैं। पहले यह समझते हैं कि जीएसटी के अंतर्गत केंद्र द्वारा राज्यों को होने वाले नुकसान की भरपाई का मतलब क्या है?

GST यानी गुड्स एंड सर्विस टैक्स। हिंदी में कहें तो वस्तु या सामान और सेवा कर। मतलब समझे तो यह कि पहले के सारे अप्रत्यक्ष कर साल 2017 में हुए 101वें संविधान संशोधन के बाद सामान और सेवा कर में बदल चुके हैं। सामान और सेवाओं के कीमत पर लगने वाले कर गुड्स एंड सर्विस टैक्स कहे जाते हैं।

वही कर जिसे किसान से लेकर कॉर्पोरेट का मालिक सब देते हैं। वही कर जो नमक की एक थैली से लेकर एलसीडी की बड़ी टीवी सब पर लगता है। वही कर जिसका भुगतान भारत के सीमा के भीतर रहने वाला हर एक नागरिक करता है। वही कर जिसकी वजह से मध्यवर्ग का यह कहना बिल्कुल बेमानी लगता है कि मध्यवर्ग के टैक्स के पैसे से सरकार चलती है। यानी हिंदुस्तान के भूगोल में रहने वाले किसी भी शख्स द्वारा कोई सामान या सेवा खरीदने पर दिया गया टैक्स गुड्स एंड सर्विस टैक्स के अंतर्गत आता है।

गुड्स एंड सर्विस टैक्स के पहले कई सारी अप्रत्यक्ष करों की दर हुआ करती थी। इन सभी करों को एक कर गुड्स एंड सर्विस टैक्स में बदल दिया गया। लेकिन सभी वस्तुओं पर एक समान कर लगाना बिल्कुल नीति सम्मत नहीं था। इसलिए गुड्स एंड सर्विस टैक्स में 4 स्लैब बनाए गए। या सभी तरह के सामान और सेवाओं को 4 कैटेगरी में बांटकर उनके लिए कर की चार दरें तय कर दी गई। जैसे कि चाय चीनी साबुन पर 12 से 18 फ़ीसदी की दर पर  टैक्स लिया जाता है। लेकिन ऐसो आराम की वस्तुएं जैसेकि एयर कंडीशन, कार पर 28 फ़ीसदी की दर से टैक्स लिया जाता है।

जब यह कानून बना तब केवल सरकार ही अपना पीठ नहीं थपथपा रही थी। बल्कि कई अर्थशास्त्र के जानकार भी इसे बहुत ही शानदार कदम बता रहे थे। सरकार का दावा था कि टैक्स स्ट्रक्चर में जीएसटी की वजह से बहुत बड़ा बदलाव आएगा।

कई टैक्स देने की जगह पर एक ही टैक्स देना होगा। कई तरह के झमेले खत्म होंगे। टैक्स भरने की प्रक्रिया आसान होगी। इस वजह से टैक्स देने वाले लोगों की संख्या में बढ़ोतरी होगी। सरकार का राजस्व बढ़ेगा। लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ।

तकरीबन 2 साल के बाद की स्थिति यह है कि जीएसटी में सैकड़ों बदलाव किए जा चुके हैं, टैक्स स्लैब का कई बार उलटफेर हो चुका है, जिस जीएसटी नेटवर्क के सहारे ऑनलाइन जीएसटी भरा जाता है उसमें कई तरह की कमियां देखी गई हैं।

कहने का मतलब यह है कि एक कारोबारी के लिए जीएसटी के साथ सामंजस्य बिठा पाना पहले से भी ज्यादा मुश्किल हुआ है। इन सबके साथ पिछले साल से चली आ रही भारत की अर्थव्यवस्था की मंदी और कोविड-19 की महामारी जोड़ दिया जाए तो जीएसटी की हालिया हालात यह है कि इसकी हवा निकल चुकी है।

जीएसटी कानून के तहत टैक्स का बंटवारा सेंट्रल सीजीएसटी और स्टेट सीजीएसटी के तहत सेंटर और स्टेट के बीच बराबर बराबर होता है। जैसे अगर मध्य प्रदेश में किसी कार खरीदा गया तो इस पर लगने वाले 28% जीएसटी का बंटवारा सेंटर और स्टेट के बीच 14 फ़ीसदी के हिसाब से हो जाएगा। लेकिन टैक्स वसूलने की सारी शक्तियां केंद्र सरकार के पास होती हैं।

जब टैक्स वसूलने की संरचना में इतना बड़ा बदलाव पूरे देश भर में किया गया तो राज्यों की नाराजगी थी कि उनके हाथ से स्थानीय टैक्स भी चला जाएगा और उनके राजस्व में अचानक से बहुत बड़ी कमी आएगी। इस नाराजगी को दूर करने के लिए केंद्र सरकार ने जीएसटी कानून में एक प्रावधान बनाया कि अगले 5 साल तक यानी 2022 तक केंद्र सरकार, राज्यों को होने वाले राजस्व के नुकसान का भर पाया करेगी।

इस नुकसान को साल 2015-16 के आधार वर्ष को मानकर हर साल 14 फ़ीसदी इजाफे के तौर पर मापा जाएगा। अगर इतनी राशि राज्य सरकार के राजस्व खजाने में नहीं पहुंचती है तो केंद्र राज्यों को होने वाले कमी का भरपाया करेगा। आसान शब्दों में ऐसे समझिए कि अगर 2015 - 16 के वित्त वर्ष में बिहार की कमाई ₹100 हुई है तो जीएसटी आने के बाद यह माना जाएगा कि राज्य के राजस्व वित्त वर्ष 2017-18 में 114 रुपए आने चाहिए।

अगर ₹114 के बदले राज्य के राजस्व को केवल ₹98 मिले तो ₹16 की क्षतिपूर्ति याने नुकसान को केंद्र सरकार राज्य को देगी। इस नुकसान के लिए भरपाई के लिए जीएसटी कानून के तहत एक कंपनसेशन फंड बनाया जाना तय हुआ था। इस कंपनसेशन फंड में dimerit goods and services जैसे कि सिगरेट या कोई हानिकारक वस्तु और सेवा पर सेस लगाकर पैसा डालना तय हुआ था।

पैसा डाल रहा था लेकिन साल 2020-21 के वित्त वर्ष में राज्यों के राजस्व में कुल तीन लाख करोड़ रुपए का नुकसान हुआ। जबकि कंपनसेशन फंड में केवल 65000 करोड़ रुपए की राशि मिली। इसकी वजह से केंद्र सरकार पर यह जिम्मेदारी आ गई कि वह किस तरीके से राज्य के तकरीबन 2 लाख 35 हजार करोड़ रुपए के नुकसान की भरपाई करें।

राज्यों के हुए इस नुकसान की भरपाई करने की जिम्मेदारी केंद्र की थी। केंद्र ने कहा कि 97000 करोड़ का नुकसान तो जीएसटी की वजह से हुआ है बाकी 1 लाख 37 हजार करोड़ का नुकसान महामारी की वजह से हुआ है। यह act of God की कैटेगरी में आता है। सरकार की जिम्मेदारी नहीं बनती है कि वह इसका भुगतान करें। रही बात 97 हजार करोड़ के नुकसान की भरपाई की तो राज्य इस नुकसान को बाजार से कर्ज लेकर पूरा कर सकते हैं।

वित्त मंत्रालय उनके द्वारा कर्ज लेने में मदद करेगा। केंद्र द्वारा अपनी जिम्मेदारी से इस तरीके से मुंह मोड़ लेना राज्यों को बिल्कुल पसंद नहीं आया। जिन राज्यों में भाजपा की सरकार नहीं है उन्होंने कोर्ट में जाने की धमकी दी कि केंद्र अपनी जिम्मेदारी से इस तरीके से नहीं भाग सकता है। केरल, तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल, पंजाब जैसे राज्यों ने केंद्र सरकार की चालाकी का जमकर विरोध किया।

तब जाकर 15 अक्टूबर को वित्त मंत्रालय ने यह सुझाव जारी किया कि जीएसटी लागू होने की वजह से तकरीबन 1 लाख 1 हजार करोड़ रुपए का नुकसान हुआ है। इस नुकसान की भरपाई के लिए केंद्र सरकार बाजार से उधार लेगी और राज्य को देगी।

लेकिन तब सवाल यह कि क्या इससे केंद्र का राजकोषीय घाटा बढ़ेगा? जिस से बचने के लिए केंद्र राज्य सरकार को पैसे नहीं दे रही थी। तो जवाब यह है कि सरकार ने इसका भी पेंच निकाल लिया। एकाउंटिंग हेरफेर कर दी।

सरकार जो पैसा राज्य सरकार को देगी वह राज्य सरकार अपने खाते में कैपिटल रिसिप्ट की तरह दिखाएगी। बाकी ब्याज का भुगतान अगले साल के कंपनसेशन फंड से किया जाएगा। इस तरह से ना केंद्र का राजकोषीय घाटा बढ़ता दिखेगा और ना ही राज्य का कर्ज बढ़ता दिखेगा।

अर्थशास्त्री भानुमूर्ति ने कहा कि केंद्र सरकार ने अच्छा रास्ता निकाल लिया नहीं तो बहुत सारे राज्य केंद्र की गैर जिम्मेदारी पर सुप्रीम कोर्ट का रास्ता अख्तियार करने वाले थे। केंद्र द्वारा निकाला गया ठीक रास्ता है इससे ना तो केंद्र का राजकोषीय घाटा बढ़ता दिखेगा और ना ही कमजोर राज्य को बाजार से उधारी लेकर खुद को और अधिक कमजोर करने का मौका मिलेगा।

अब तक के जीएसटी के सफ़र से कुछ बातें साफ हो रही हैं। सबसे पहली बात यह कि जो लोग कह रहे थे कि जीएसटी भारतीय कर संरचना में सुधार के लिहाज से उठाया गया क्रांतिकारी कदम है। उनके उम्मीदों को 2 साल के जीएसटी के सफ़र से करारा झटका लगा है। ना ही जीएसटी के नियम इतने आसान हैं कि एक औसत करदाता जीएसटी की तरफ आकर्षित होकर कर भुगतान में दिलचस्पी ले और ना ही जीएसटी से राजस्व में भारी इजाफा हुआ है।

इन सबके साथ मंदी और महामारी ने तो जीएसटी की कमर ही तोड़ दी है। कई सारे राज्य जीएसटी में अपना भरोसा होने लगे हैं। अभी तक जीएसटी की वजह से 1 महीने में तकरीबन डेढ़ लाख करोड़ की कर उगाही की संभावना किसी भी महीने में पूरी नहीं हुई है।

पेट्रोल-डीजल या रियल एस्टेट इसके दायरे में लाने का एजेंडा फिलहाल खत्म हो गया है। सरकारों की कमाई नहीं बढ़नी है इसलिए 15वें वित्त आयोग के अध्यक्ष एनके सिंह ने यह कहा है कि तहत टैक्स पर टैक्स यानी सेस (उपकर) को 2024 तक जा सकता है।

यानी जिस कंपनसेशन फंड को नियम के तहत 2022 में खत्म हो जाना चाहिए था उसके 2022 तक खत्म हो जाने के आसार बिल्कुल नहीं दिखाई दे रहे हैं। सरकार खुद कह रही है कि यह नियम 2024 तक रहेगा। यह फैसला इस बात का संकेत है कि सरकार को मंदी जल्दी जाती नहीं दिख रही है। टैक्स बढ़ाने की नौबत भी आने वाली है।

मलेशिया में 2015 में जीएसटी लागू किया गया था। सिंगल टैक्स वाला जीएसटी था। मलेशिया देश भी भारत के मुकाबले बहुत छोटा देश है। लेकिन मंदी की वजह से साल 2018 में मलेशिया ने जीएसटी को वापस ले लिया। एक खराब अर्थव्यवस्था किसी भी तरह के टैक्स सुधार की संभावना को खत्म कर देती है।

जीएसटी तो बहुत बड़ा टैक्स सुधार है। टैक्स का पूरा ढांचा बदल दिया गया है। अफ्रीका महादेश से भी बड़े देश भारत में जीएसटी लागू किया जा रहा है। मंदी और महामारी भारतीय अर्थव्यवस्था को बद से बदतर बना रहे हैं। ऐसे में एक वैकल्पिक टैक्स सुधार के तहत जीएसटी अपनी साख खोते जा रहा है। राज्य और केंद्र के रिश्ते भी जीएसटी की वजह से बहुत अधिक खराबी के दौर में बढ़ते जा रहे हैं। अब देखने वाली बात यही होगी कि जीएसटी बिना रफ्तार वाली भारत की अर्थव्यवस्था में जान फूंक पाएगा?

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