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भारत में क्यों कोविड का टीका मुफ़्त होना चाहिए? 

टीके की कीमतों पर से नियंत्रण हटाने और टीका वितरण को उदार बनाने की दिशा में भारत सरकार द्वारा किए गए नीतिगत बदलाव के कारण एक बड़ी बहस छिड़ गई है।
भारत में क्यों कोविड का टीका मुफ़्त होना चाहिए? 
छवि सौजन्य: द क्विंट 

टीके की कीमतों पर से नियंत्रण हटाने और वैक्सीन वितरण को उदार बनाने की दिशा में भारत सरकार द्वारा किए गए नीतिगत बदलाव के कारण एक बड़ी बहस छिड़ गई है। इस मामले में  सरकार और वैक्सीन उत्पादकों का तर्क यह है कि टीके की कीमतों पर से नियंत्रण हटाने से  टीकों की आपूर्ति बढ़ जाएगी। उनके अनुसार, नए ईज़ाद हो रहे टीकों का भारत में प्रवेश इस बात पर निर्भर करता है कि टीके के ऊंचे दामों से आर्थिक प्रोत्साहन मिलेगा तो सप्लाई अधिक होगी। यह भी तर्क दिया जा रहा है कि नई नीति से टीके वितरण में निजी भागीदारी बड़े स्तर पर सुनिश्चित की जा सकेगी, और इससे भारत में टीकाकरण की दर को तेज हो जाएगी। ये दोनों तर्क गलत हैं और किसी भी मजबूत सबूत पर आधारित नहीं हैं।

ऐसा करने के कई कारण मौजूद हैं, लेकिन मैं फिर भी केवल सात प्रमुख कारणों पर ही रोशनी डालूंगा।

सबसे पहला, कि टीके वैश्विक सार्वजनिक धरोहर हैं। एक "शुद्ध" सार्वजनिक धरोहर का मतलब आमतौर पर अर्थशास्त्र में उसे गैर-प्रतिद्वंद्वी और गैर-बहिष्कृत उत्पाद के रूप में परिभाषित किया गया है। हालाँकि, यहाँ इसका यह अर्थ नहीं है जिसमें इस शब्द का उपयोग टीकों का वर्णन करने के लिए किया गया है। इस शब्द का इस्तेमाल एक अलग अर्थ में किया जाता है, इसका मतलब है कि टीके सार्वभौमिक रूप से, सभी के लिए और हर जगह उपलब्ध होने चाहिए, और सस्ते होने के साथ-साथ सुरक्षित, प्रभावी और आसानी से लगने वाले होने चाहिए।

यदि टीके ऊपर बताए गए तौर-तरीकों से उपलब्ध कराए जाते हैं - यानी, सार्वभौमिक रूप से, सस्ते, सुरक्षित, प्रभावी और लगाने में आसान - उन्हें उपलब्ध कराने का सबसे कुशल और न्यायसंगत तरीका होगा कि टीके को नि:शुल्क कर दिया जाए। 

टीकाकरण को विश्व के पैमाने पर एक प्रबुद्ध कल्याणकारी राष्ट्र की जिम्मेदारी के रूप में स्वीकार किया गया है। यही कारण है कि संयुक्त राज्य अमेरिका, यूनाइटेड किंगडम, जर्मनी, फ्रांस और चीन सहित कई देशों ने अपनी आबादी का मुफ्त टीकाकरण करने का फैसला किया है। भारत, दुर्भाग्य से, इस वैश्विक प्रवृत्ति के मामले में एक अपवाद बना हुआ है।

दूसरा, विशेषकर भारत के मामले में, मुफ्त टीकाकरण भी राष्ट्र का एक संवैधानिक दायित्व है। स्वास्थ्य का अधिकार प्रत्येक नागरिक का संवैधानिक अधिकार है और जीवन के अधिकार के की उप-धारा के तहत हर नागरिक को मुफ़्त टीकों का अधिकार है। इस प्रकार, नि:शुल्क टीकाकरण के बारे में प्रत्येक भारतीय नागरिक को मिलने वाले मौलिक अधिकार का तर्क दिया जा सकता है, यह एक ऐसा विचार है जिसे भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने कई बार दर्ज़ किया है और माना है।

तीसरा, टीके इसलिए भी मुफ़्त होने चाहिए क्योंकि अधिकांश टीकों के विकास के पीछे किए गए अनुसंधान और विकास के प्रयास मुख्य रूप से सरकारों द्वारा वित्त पोषित होते हैं। यह तर्क अतीत में विकसित अधिकांश टीकों के अलावा 2020-21 में कोविड के टीकों के मामले भी सही है। 

ऑक्सफोर्ड-एस्ट्राज़ेनेका वैक्सीन का मामला लें, इस पर 97 प्रतिशत से अधिक शोध सार्वजनिक संस्थानों ने करदाता के पैसे के इस्तेमाल से किया है। इसमें यूनाइटेड किंगडम के सरकारी विभागों, यूनाइटेड किंगडम और संयुक्त राज्य अमेरिका में वैज्ञानिक संस्थानों, यूरोपीयन कमीशन और विभिन्न धर्मार्थ संस्थाओं ने पैसा लगाया है। 

यही वजह थी कि नवंबर 2020 में एक स्पष्ट वादा किया गया कि ऑक्सफोर्ड-एस्ट्राजेनेका वैक्सीन "विकासशील देशों के साथ निम्न और मध्यम-आय वाले देशों में" गैर-लाभकारी आधार पर उपलब्ध कराई जाएगी। 

कोविशिल्ड के मामले को लें, जो ऑक्सफोर्ड-एस्ट्राजेनेका वैक्सीन का भारतीय नाम है उसके बारे में आदार पूनावाला, सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया (एसआईआई) ने 6 अप्रैल 2021 को कहा था कि कंपनी वास्तव में 150 रुपये प्रति डोज के हिसाब से भी सामान्य लाभ कमा रही है। हालांकि, उन्होंने कहा कि एसआईआई प्रति खुराक सुपर-मुनाफा कमाना चाहती है, जो पूरी तरह से गैर-लाभकारी आधार के प्रावधान के वादे का उलंघन है। अब, सुपर मुनाफे के लालच में कीमतें 150 प्रति  खुराक से 400-600 प्रति खुराक रखी गई हैं, जो हमारे जैसे देश के लिए बहुत महंगी हैं। 

इसी तरह, फ़ाइज़र के टीके का मामला लें जिसमें इसका सहयोगी बायोएनटेक (BioNTech) है और इसे जर्मन सरकार से € 375 मिलियन यूरो अनुदान और यूरोपीयन यूनियन से से € 100 मिलियन यूरो का डैब्ट फंड दिया गया है। फिर भारतीय वैक्सीन, कोवाक्सिन पर नज़र डालें तो, सार्स-कोवी-2 (SARS-CoV-2) स्ट्रेन को नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ वायरोलॉजी, पुणे ने अलग किया था या उसकी ख़ोज की थी, जो भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (ICMR) के तहत काम करता है। 

भारत बायोटेक को केवल वैक्सीन के विकास और निर्माण का लाइसेंस दिया गया था।अपनी तरफ से निजी टीका उत्पादक हमेशा टीके के विकास में सार्वजनिक वित्तपोषण या सरकारी खजाने से दी गई आर्थिक साहयता को छिपाने की कोशिश करते हैं। उनका तर्क होता है कि यह एक निजी प्रोत्साहन है ताकि नए टीकों का विकास किया जा सके।

 इस तरह के अभियान के जरिए वे एक सार्वजनिक या आम समझ बनाने की कोशिश करते हैं जो अंतत टीकों के मूल्य को बढ़ाने की तरफ ले जाती है। जबकि हक़ीक़त होती यह है कि जनता टैक्स के जरिए पहले से ही टीकों का भुगतान कर चुकी होती है। तो फिर टीकों के लिए जनता से दो बार वसूली करना अपने आप में अनैतिक है। 

चौथा, सार्वभौमिक टीकाकरण के मामले में महत्वपूर्ण टीकाकरण की झिझक है, जो टीके उपलब्ध होने पर भी टीके की स्वीकृति या अस्वीकृति में देरी को संदर्भित करता है। जबकि शालीनता, सुविधा और आत्मविश्वास लोगों के बीच टीके की झिझक पैदा करने में एक जटिल भूमिका निभाते हैं, भारत जैसे गरीब देशों में यह एक अतिरिक्त बाधा का काम करता है: इस तरह की झिझक को दूर करने के लिए टीके को सस्ती कीमत पर उपलब्ध कराना होगा। यदि टीके के दाम अधिक रखे जाते है जिसे आबादी का बड़ा वर्ग अदा नहीं कर सकता हैं, तो ऐसी व्यवस्था टीकाकरण में देरी कर सकती हैं या उन्हे टीका मिल भी नहीं सकता हैं।
भारत के मामले में मान लें कि आबादी को प्रति खुराक 400 रुपये या दो खुराक के लिए 800 रुपये का भुगतान करना होगा। यानि चार वयस्कों वाले परिवार को दो खुराक के लिए 3200 रुपये का भुगतान करना होगा। 

आधिकारिक सर्वेक्षणों के अनुसार, 2012-13 में भारत में एक कृषि से जुड़े घर की औसत मासिक आय 6426 रुपये थी। इस राशि को अगर एक बेंचमार्क के रूप में मान लेते हैं तो टीके का भुगतान करने के लिए घर को अपनी मासिक आय का लगभग 50 प्रतिशत हिस्सा देना होगा। यदि हम प्रति दिन 50 रुपये प्रति व्यक्ति की आय के हिसाब से भारत की अनुमानित गरीबी रेखा को देखते हैं, तो चार कामकाजी वयस्कों की घर की औसत मासिक आय 6000 रुपये होती है। चार वयस्कों के टीकाकरण के लिए हर घर को अपनी मासिक आय का 53 प्रतिशत देना होगा। ऐसे लाखों परिवार टीकाकरण के दायरे से बाहर हो जाएगे, जो टीकाकरण नीति को बेअसर बना देगी और अंततः पूरे समाज के कल्याण को खतरे में डाल सकती हैं। एक झटके में टीके की झिझक को खत्म करना उसकी कीमत को कम करना होगा ताकि आम जनता कीमत चुका पाए। 

पाँचवा, भले ही टीकों को सभी के लिए मुफ्त कर दिया जाए, लेकिन केंद्र सरकार ने जोर देकर कहा है कि राज्य सरकारों को टीकों की कीमत के रूप में 400 रुपये प्रति खुराक पर खरीदना होगा और राज्य के बजट से लागतों को पूरा करना होगा। चलिए, हम 2020 में भारत की जनसंख्या को 138 करोड़ मान लेते लेते हैं। आइए हम यह भी मान लेते हैं कि लगभग 30 प्रतिशत आबादी 18 वर्ष से कम उम्र की है, और इसलिए उन्हे टीकाकरण की जरूरत नहीं है। इस प्रकार, भारत को लगभग 96.6 करोड़ लोगों का टीकाकरण करना होगा। प्रति व्यक्ति दो खुराक की दर के हिसाब से  भारत को लगभग 193.2 करोड़ खुराक चाहिए। आइए हम यह भी मान लेते हैं कि केंद्र सरकार वैसे भी 30 करोड़ लोगों का मुफ्त में टीकाकरण करेगी, जैसा कि उसने वादा किया है। इस प्रकार, लक्ष्य से 60 करोड़ की कटौती करते हुए, जो बाकी बचता है वह 133.2 करोड़ खुराक बनती है। इस प्रकार 400 रुपए प्रति खुराक के हिसाब से राज्य सरकारों पर कुल लागत 53,280 करोड़ रुपये आती है।

अलग-अलग राज्य सरकारों के मामले में टीका उत्पादकों से टीके खरीदने के लिए उन्हें जो कुल राशि खर्च करनी होगी, वह निश्चित रूप से उनके सामर्थ से बाहर की बात है। राज्य सरकारें पहले से ही महामारी का सामना करते हुए महत्वपूर्ण अतिरिक्त खर्चों का बोझ झेल रही हैं। वे अतिरिक्त उधारी और गिरते राजस्व और प्रतिबंधों का भी सामना कर रहे है। यदि वे उधार भी लेते हैं, तो केंद्र सरकार की उधारी के मुक़ाबले उन्हे ब्याज दर अधिक देनी पड़ती है। दूसरी ओर, केंद्र सरकार के मामले में 53,280 करोड़ रुपये किसी भी वित्तीय वर्ष में एक नगण्य राशि है, जो जीडीपी का सिर्फ 0.26 प्रतिशत बैठती है। इसलिए जरूरत इस बात की है कि केंद्र सरकार पूरी भारतीय आबादी के टिकाकरण पर उक्त राशि को सीधे खर्च करे। 

छठा, भारत जैसे देश में मुफ्त टीकाकरण करना सरल भी है और आसान भी है। वास्तव में, टीके तक आसान पहुँच वैक्सीन नीति का महत्वपूर्ण वैश्विक विचार है। एक ही उत्पाद की अलग-अलग कीमतें कई प्रशासनिक परतों को जन्म देती हैं – जिसमें केंद्र के टीकाकरण केंद्र, राज्य के टीकाकरण केंद्र, निजी अस्पताल, निजी कंपनियां जिनके पास निजी प्रदाताओं से मिली विशेष व्यवस्था है – जो न केवल प्रशासन की जटिलता पैदा करती है बल्कि इसके लिए पर्याप्त  भ्रष्टाचार को भी प्रोत्साहित करेगी। उदाहरण के लिए, किसी को इस बात पर आश्चर्यचकित नहीं होना चाहिए अगर राज्यों के टीकाकरण केंद्रों में टीके 400 रुपये प्रति खुराक हैं, वहां का स्टाफ  निजी अस्पतालों को उन्ही खुराकों को 600 रुपये प्रति खुराक पर टेबल के नीचे से बेच सकते हैं। इस तरह के सौदे सार्वजनिक केंद्रों में टीकों की कमी को पैदा तो करेंगे ही साथ ही समाज के गरीब वर्गों के खिलाफ भारी भेदभाव को भी जन्म देंगे।  

सार्वभौमिक और नि:शुल्क टीकाकरण की नीति भ्रष्टाचार के इस तरह के प्रोत्साहन को बेअसर कर देगी। और टीका सेवाओं को सरल और प्रशासन के लिए आसान बना देगी। इस प्रकार, वे पारदर्शिता की गारंटी बनते हैं और लोगों की स्वतंत्रता का विस्तार करने में मदद करते हैं।

सातवां, सबसे बेहतर होगा कि टीके के बाजार को खंडित न किया जाए। भारत की नई नीति के तहत केंद्र सरकार ने आरक्षित वैक्सीन उत्पादन का 50 प्रतिशत अपने पास रखा है और बाकी राज्यों और निजी अस्पतालों को सौंप दिया है, जिसे वे क्रमशः 400 रुपए प्रति खुराक और 600 रुपए प्रति खुराक के हिसाब से खरीदेंगे। 

टीके के उत्पादन में कमी 2021 के अंत तक जारी रहने की संभावना है, इसलिए टीकों का नियंत्रित वितरण जरूरी है। इसके लिए कौनसी कसौटी तय कि जाएगी कि किस राज्य या कौन सा राज्य पहले टीका हासिल करेगा और कितना? यह कौन तय करेगा कि राज्यों को कितनी और निजी अस्पतालों को कितनी मात्रा दी जाएगी? क्या निजी अस्पताल जो 600 रुपये प्रति खुराक का भुगतान करेंगे, वैक्सीन उत्पादकों उनके पक्ष में नहीं होंगे जबकि राज्य सरकारें तो केवल 400 प्रति खुराक का भुगतान करेंगी?

 वास्तव में, आदार पूनावाला ने खुद 21 अप्रैल 2021 को सीएनबीसी-टीवी18 (CNBC-TV18) को दिए एक साक्षात्कार में कहा था कि:"मुझे नहीं पता कि टीके की कीमत के बारे में हर राज्य शिकायत क्यों कर रहा या इतना हल्ला क्यों मचा रहा है, क्योंकि टीका खरीदना उनका विकल्प है और न कि उनकी मजबूरी... वास्तव में, राज्यों को कुछ भी खरीदने की ज़रूरत नहीं है अगर वे नहीं चाहते हैं न खरीदें... क्योंकि हर राज्य की देखभाल के लिए पर्याप्त निजी अस्पताल मौजूद हैं ... और किसी भी राज्य को वास्तव में खुद का पैसा खर्च करने की जरूरत नहीं है।" 

संक्षेप में कहा जाए तो, पूनावाला खुले तौर पर 600 रुपए प्रति खुराक में अधिक टीके और 400 रुपए प्रति खुराक में कम टीके बेचने की इच्छा व्यक्त कर रहे थे। उन्होंने सबसे पहले केंद्र सरकार द्वारा 150 रुपए प्रति खुराक टीके बेचने के लिए मजबूर किए जाने पर निराशा व्यक्त की क्योंकि वे चाहते थे कि टीके का मूल्य 1000 रुपए प्रति खुराक तय किया जाए। उन्होंने सीएनबीसी-टीवी18 (CNBC-TV18) को दिए इंटरव्यू में इस बात का भी खुलासा किया कि वे शुरू से ही चाहते थे कि राज्य सरकारों के लिए भी कीमत 600 रुपये प्रति खुराक तय की जाए, लेकिन कुछ खास चर्चाओं के बाद इसे 400 रुपये प्रति खुराक देने पर सहमति बनी। ये सभी घोषित इरादे इस आशंका की पुष्टि करते हैं कि आगे चलकर निजी अस्पतालों के मुक़ाबले राज्यों के साथ भेदभाव किया जा सकता है।

एक बेहतरीन सार्वजनिक नीति के ज़रीए इस तरह के खराब डिजाइन के नुकसानों से बचना चाहिए था और नागरिकों और हितधारकों में टीकों के समान वितरण का लक्ष्य बनाना चाहिए था। नि:शुल्क टीकाकरण जिसे एक ही चैनल यानि केंद्र सरकार से राज्यों को वितरित किया जाना चाहिए था जो सामाजिक रूप से वांछनीय मानदंडों के आधार पर तय होता और जनहित में वही सबसे बेहतर और कामयाब नीति होती। 

(आर॰ रामकुमार टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज, मुंबई में प्रोफेसर हैं) 

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें।

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