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यह अपने बुजुर्गों के साथ खड़े होने का समय है

भारत जैसे देश में बुजुर्गों की आबादी साल 2016 में तकरीबन 11.6 करोड़ थी और साल 2026 में यह 17.9 करोड़ तक पहुँचने का अनुमान है। यहाँ बुढ़ापे में गुजारे के लिए पेंशन सम्बन्धी योजनाओं की सख्त जरूरत है।
दिल्ली में पेंशन परिषद का प्रदर्शन

उम्र हमारी जिजीविषा का साथ नहीं देती। एक ख़ास उम्र के बाद हमें सहारे की जरूरत होती है। हम चाहें जितना कह लें कि हम अकेले ही सबकुछ संभाल लेंगे लेकिन हमारी जैविक मजबूरियां हमारे अकेलेपन को सहन करने लायक नहीं होती। दुनिया के केंद्र में बाजार की बसावट ने अकेलापन पैदा किया है। परिवार से अलग होकर लोग अकेले जीने के लिए मजबूर हुए हैं। कुछ लोगों के पास जिन्दगी है तो बहुत सारे लोग मरने की हालात में जिन्दगी गुजराने के लिए मजबूर हुए हैं। इन सबकी परिणिति यह हुई कि जूझना ही जिन्दगी बन गया है। लेकिन यह जूझना एक उम्र के बाद साथ छोड़ देता है। हम बूढ़े हो जाते हैं। हमारे लिए सहारा जरूरी हो जाता है। यह चिंता हमारे आज का सामाजिक यथार्थ है। जिसकी उपज हमारे सरकारों द्वारा अपनाये गए विकास के मॉडल से हुई है। इसलिए जीवन भर समाज को योगदान देने के बाद बुढ़ापे के गुजारे के लिए यह जरूरी हो जाता है कि सरकार सहारा बने।

भारत जैसे देश में बुजुर्गों की आबादी साल 2016 में तकरीबन 11.6 करोड़ थी और साल 2026 में यह 17.9 करोड़ तक पहुँचने का अनुमान है। यहाँ बुढ़ापे में गुजारे के लिए पेंशन सम्बन्धी योजनाओं की सख्त जरूरत है।

हाल ही में पेंशन परिषद ने साल 2018 के पेंशन की स्थिति पर रिपोर्ट प्रस्तुत की और 30 सितंबर को दिल्ली में संसद मार्ग पर एक बड़ा प्रदर्शन भी किया, जिसमें देश के कई हिस्सों से बड़ी संख्या में बुजुर्ग शामिल हुए। न्यूज़क्लिक से बात करते हुए कई लोगों ने कहा कि "हम अपने अधिकार माँग रहे हैं, राज्य से भीख नहीं माँग रहे।" यही जज़्बा वहाँ मौजूद सभी बुज़ुर्गों ने दिखाया। 

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पेंशन परिषद की रिपोर्ट के मुताबिक केंद्र सरकार सहित कई राज्यों और संगठित क्षेत्र से उपलब्ध आंकड़ें बताते हैं कि भारत में तकरीबन 2 करोड़ 20 लाख लोगों को पेंशन मिल रही है। बहुत सारे राज्यों में केंद्र सरकार की तरफ से केवल उन्हीं लोगों को पेंशन दी जाती है जो गरीबी रेखा से नीचे निवास करते हैं। इन सब को जोड़ देने के बाद भी तकरीबन 5 करोड़ 80 लाख लोगों को पेंशन नहीं मिलती है। यानी वृद्धों की तकरीबन आधी आबादी पेंशन से महरूम रह जाती जाती है।

अब सवाल उठता है, वह वृद्ध जो संगठित क्षेत्र के हिस्से नहीं है, उन्हें पेंशन के तौर पर कितनी राशि मिलती है। इंदिरा गांधी राष्ट्रीय वृद्धावस्था पेंशन योजना के अंतर्गत केंद्र सरकार वृद्धों को पेंशन के तहत 200 रुपये पेंशन का मामूली अंशदान करती है जो 80 साल या उससे अधिक उम्र के बुजुर्ग के लिए 500 रुपये महीना है। यह राशि बताती है कि सरकारें वृद्धों के साथ कितना क्रूर मजाक कर रही हैं। एक बार जरा सोचकर देखिये कि एक 80 साल का बूढ़ा आदमी जो यूपी-बिहार में किसी सुदूर गाँव में रहता है, उसे पेंशन के लिए 50 किलोमीटर दूर अपने ब्लॉक पर जाना होता है, उसे पेंशन लेने के लिए कितना परेशान होना पड़ता होगा और 200 रुपये में उसके पास कितना बचता होगा। साल 2007 के बाद इस राशि पर अभी तक कोई विचार नहीं किया गया है। उस समय 200 रुपये में जितना सामान मिलता था उतना  ही सामान खरीदने के लिए आज तकरीबन 400 रुपये चुकाना पड़ते हैं। सरकारों ने इस बात तक पर ध्यान नहीं दिया है। महंगाई और जरूरत का हिसाब किताब तो छोड़ ही दीजिए। केंद्र सरकार द्वारा दिए गए पेंशन की इस राशि में राज्य सरकार कुछ और पैसा जोड़कर वृद्धों को पेंशन देती है। केंद्र और राज्य द्वारा मिली पेंशन राशि को जोड़ने के बाद भी ऐसा नहीं हो सकता कि किसी राज्य के वृद्ध को 2000 रुपये से अधिक पेंशन मिल जाए।

अगर उम्र के बेसहारा पड़ाव की परेशानी इतनी दयनीय है तो इस परेशानी का हल क्या होना चाहिए। ‘सभी को पेंशन मिले’ जैसे विषय पर काम कर रही पेंशन परिषद नामक संस्था का कहना है कि बुढ़ापा जीवन का अनिवार्य हिस्सा है। इससे कोई नहीं बच सकता। जीवन भर समाज को श्रम से योगदान करने के बाद अपने बुढ़ापे में श्रम योगदान से दूर रह जाने वालों को उपेक्षित नहीं छोड़ा जा सकता है। जिन औरतों ने घर के बाहर और अंदर काम किया है बुढ़ापे में उनकी भी उपेक्षा नहीं होनी चाहिए। इन सबकी समाज और अर्थव्यवस्था को गढ़ने में भूमिका होती है। पेंशन सबका अधिकार है जिससे बुढ़ापे की उम्र को मदद मिले। यह केवल कर्मचारी होने के बाद ही मिला हुआ अधिकार नहीं है बल्कि नागरिक होने के तौर भी दिया जाने वाला अधिकार है। न्यूनतम मजदूरी का आधा तकरीबन 3000 रुपये तो पेंशन के तौर पर सभी को मिलना ही चाहिए।

लोग पूछते हैं कि इतने पैसा का खर्चा सरकार कहां से उठाएगी? हाल- फिलहाल सरकार पेंशन के तौर पर जीडीपी का तकरीबन 0.4 फीसदी खर्च करती है। जीडीपी में वृद्धों के लिए की गयी यह हिस्सेदारी नेपाल और बोलीविया जैसे विकासशील देशों से भी कम है। इसके विपरीत देखा जाए तो पांच फीसदी सरकारी नौकरों पर पेंशन के तौर पर तकरीबन 2 लाख करोड़ खर्च किया जाता है, जो कुल जीडीपी का तकरीबन 2 फीसदी होता है। अगर सभी सरकारी नौकरों को मिलने वाली पेंशन राशि सभी में बाँट दी जाए तो सभी वृद्ध लोगों को आराम से 3000 रुपये पेंशन के तौर पर मिल सकते हैं। इसके अलावा अन्य तरीके भी हो सकते हैं।

चुनावी गणित के लिहाज से भारत के वृद्धों की कुल वोटरों में तकरीबन 15 फीसदी की हिस्सेदारी है, लेकिन यह हिस्सेदारी एकजुट होकर वोट दे, ऐसा हो पाना मुमकिन नहीं। एक लोक कल्याणकारी राज्य के तौर भारत सरकार की यह जिम्मेदारी बनती है कि वह वृद्धों की उपेक्षित होते जीवन पर ध्यान दे। जिन्हें पेंशन मिल रही है और जिन्हें पेंशन नहीं मिल रही है उन सभी के लिए सोचे कि उन्हें पेंशन के तौर पर इतनी आय मिले जिससे उनका बुढ़ापा परेशानी के बगैर गुजर सके। लेकिन अब तो सरकार सरकारी कर्मचारियों की ही पेंशन खत्म कर रही है तो असंगठित क्षेत्र के मज़दूरों के बारे में सरकार सोचेगी, ये अभी दूर की कौड़ी है।

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