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यूपी पुलिस द्वारा पत्रकार कनौजिया की गिरफ्तारी ग़ैर क़ानूनी क्यों है?
यह सत्ता के घोर दुरुपयोग जैसा प्रतीत होता है क्योंकि एफआईआर में ये दोष इस गिरफ्तारी को उचित नहीं ठहराते हैं।
मनु सेबेस्टियन, लाइव लॉ
10 Jun 2019
Prashant

सत्ता के खिलाफ आवाज दबाने के लिए कानून का जबरन इस्तेमाल करने के प्रयास के रूप में जो कुछ किया जा सकता है वह है स्वतंत्र पत्रकार प्रशांत कनौजिया को उत्तर प्रदेश पुलिस द्वारा शनिवार दोपहर को उनके दिल्ली स्थित आवास से गिरफ्तार करना। कन्नोजिया की गिरफ्तारी यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के खिलाफ सोशल मीडिया पर की गई आपत्तिजनक टिप्पणी को लेकर हुई है। ज्ञात हो कि आदित्यनाथ के पास गृह विभाग की भी ज़िम्मेदारी है।

दिल्ली स्थित इंडियन इंस्टिच्यूट ऑफ मास कम्यूनिकेशन के पूर्व छात्र कन्नौजिया द इंडियन एक्सप्रेस और द वायर हिंदी में काम कर चुके हैं। उन्होंने अपने ट्विटर अकाउंट पर उत्तर प्रदेश के सीएम योगी आदित्यनाथ से रिश्ते को लेकर एक महिला का वीडियो शेयर किया जिसमें महिला उनसे शादी करने की इच्छा व्यक्त कर रही थी। इस खबर को कन्नौजिया ने गुरुवार शाम को मजाक के अंदाज में टिप्पणी करते हुए शेयर किया था। दो दिनों के भीतर यूपी पुलिस हरकत में आई और दिल्ली के वेस्ट विनोद नगर स्थित उनके आवास से  हिरासत में ले लिया। लखनऊ के हजरतगंज पुलिस स्टेशन में कनौजिया  के ख़िलाफ़ एफआईआर दर्ज किया गया था।

इस लेख के उद्देश्य के लिए आइए हम इस आधार पर आगे बढ़ें कि कनोजिया द्वारा साझा किए गए समाचार असत्य है और उनकी टिप्पणी अप्रिय है। फिर भी ये गिरफ्तारी कानून के सामने टिकने वाली नहीं है। यह सत्ता का अपमानजनक दुरुपयोग प्रतीत होता है क्योंकि प्राथमिकी में ये दोष इस गिरफ्तारी को सही नहीं ठहराते हैं।

ये एफआईआर यूपी पुलिस द्वारा भारतीय दंड संहिता की धारा 500 और सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम की धारा 66 के तहत दर्ज की गई है जिसमें आरोप लगाया गया है कि कन्नौजिया ने "मुख्यमंत्री की छवि खराब करने" के उद्देश्य से अपने ट्विटर सोशल मीडिया से योगी आदित्यनाथ के ख़िलाफ़ अपमानजनक टिप्पणी की थी।

सबसे पहले, आईपीसी की धारा 500 के तहत आपराधिक मानहानि एक गैर-संज्ञेय अपराध है जिसका अर्थ है कि पुलिस एफआईआर दर्ज करके इसका प्रत्यक्ष संज्ञान नहीं ले सकती है। मजिस्ट्रेट के सामने दायर एक निजी शिकायत पर केवल आपराधिक मानहानि की कार्रवाई की जा सकती है। सीआरपीसी की धारा 41 के अनुसार बिना वारंट के गिरफ्तारी केवल संज्ञेय अपराधों के संबंध में की जा सकती है।

दूसरा, आईटी अधिनियम की धारा 66, हालांकि एक संज्ञेय अपराध है, इस मामले में लागू नहीं है। ये प्रावधान जो "कपटपूर्ण तरीके से/ बेईमानी से कंप्यूटर सिस्टम को नुकसान पहुंचाने" से संबंधित है, इसका यहां कोई प्रासंगिकता नहीं है। क्या कनौजिया के ट्वीट ने किसी कंप्यूटर सिस्टम को नुकसान पहुंचाया है, वह भी धोखे से या बेईमानी से? यह पूछा जाने वाला एक बेतुका सवाल है लेकिन हालात ऐसा करने को मजबूर करते हैं। यह स्पष्ट है कि इस धारा को एफआईआर में मनमाने ढंग से जोड़ा गया है।

कनौजिया की गिरफ्तारी के विरोध में बढ़े गुस्से के बाद यूपी पुलिस ने एक प्रेस बयान जारी कर डैमेज कंट्रोल करने की कोशिश की है। बयान में प्रारंभिक मामले में सुधार करते हुए लिखा गया है कि कनोजिया ने सोशल मीडिया पर "अश्लील टिप्पणी" और "अफवाह" फैलाई है। शायद गिरफ्तारी को कानूनी बनाने के इरादे से बयान में दो अतिरिक्त प्रावधानों का उल्लेख किया गया है- भारतीय दंड संहिता की धारा 505 और सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम की धारा 67 जो एफआईआर में दर्ज नहीं है। फिर भी ये प्रावधान इस मामले के लिए प्रासंगिक नहीं हैं।

धारा 67 जिसे बाद में जोड़ा गया वह ऑनलाइन अश्लील सामग्री के प्रसारण से संबंधित है। स्पष्ट रूप से यह यहां भी लागू नहीं होता है क्योंकि उनके द्वारा शेयर किए गए समाचार जो मीडिया के समक्ष एक महिला द्वारा दिया गया एक प्रेस वक्तव्य जिसे कल्पना के किसी हद तक "अश्लील" नहीं कहा जा सकता है। यूपी पुलिस के बयान में यह भी कहा गया कि कनौजिया ने सख्त पूछताछ के बाद अपराध स्वीकार कर लिया।

यह पुलिस द्वारा उनके ख़िलाफ़ लोगों की राय बदलने के लिए की गई महज एक कार्यवाही है क्योंकि पुलिस हिरासत में अभियुक्त द्वारा किए गए कबूलनामे का स्पष्ट तौर पर कोई महत्व नहीं है। सीआरपीसी और एससी की नजीर के विपरीत गिरफ्तारियों को भले ही यह मान लें कि उपर्युक्त आरोप लागू होते हैं फिर भी ये गिरफ्तारी अवैध है। इनमें से कोई भी अपराध सात साल से अधिक की अवधि के लिए जेल की सजा नहीं देता है। धारा 67 आईटी अधिनियम के तहत अधिकतम पांच साल की सजा है वह भी केवल घटना के दोहराने के मामले में। इसलिए ये सभी धाराएं उन अपराधों की श्रेणी में आती हैं जहां गिरफ्तारी में छूट होनी चाहिए।

दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 41 के अनुसार उन अपराधों के लिए गिरफ्तारी जिसमें सात साल तक का कारावास है वह केवल विशेष परिस्थितियों में ही किए जा सकते हैं। धारा 41 (1) (बी) (ii), सीआरपीसी के अनुसार, ऐसे मामलों में गिरफ्तारी करने से पहले पुलिस अधिकारी को लिखित में स्पष्टीकरण देना होगा कि ये गिरफ्तारी आवश्यक है:

(क) ऐसे व्यक्ति को कोई भी अन्य अपराध करने से रोकना; या

(ख) अपराध की उचित जांच के लिए; या

(ग) ऐसे व्यक्ति को अपराध के सबूत मिटाने या किसी भी तरीके से ऐसे सबूतों के साथ छेड़छाड़ करने से रोकने के लिए; या

(घ) मामले की सच्चाई जानने वाले ऐसे किसी भी व्यक्ति से अभद्रता, धमकी या वादा करने को लेकर उक्त व्यक्ति रोकना ताकि उसे इस तरह के तथ्यों को अदालत में या पुलिस अधिकारी को ऐसे तथ्यों का खुलासा करने से रोक सके; या

(च) जब तक कि ऐसे व्यक्ति को गिरफ्तार नहीं किया जाता है, न्यायालय में उसकी उपस्थिति जब भी आवश्यक हो नहीं हो सकती है।

इस प्रावधान का अर्थ यह है कि अगर किसी व्यक्ति को ऐसे अपराध के लिए आरोपी बनाया जाता है जो सात साल से कम कारावास की सजा पाता है तो पुलिस केवल विशेष परिस्थितियों में गिरफ्तारी कर सकती है। पुलिस को पहले व्यक्ति को गिरफ्तार करने के बजाय सीआरपीसी की धारा 41 ए के तहत निर्धारित तारीखों पर जांच के लिए उपस्थित होने के लिए उसे नोटिस जारी करना चाहिए। ऐसे मामलों में गिरफ्तारी पुलिस अधिकारी द्वारा लिखित में विशेष कारणों को बताने के बाद ही की जा सकती है।

इसे अर्नेश कुमार बनाम बिहार राज्य एआईआर 2014 एससी 2756 में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा व्याख्या की गई है। इस प्रावधान को सीआरपीसी में 2009 में संशोधन करके मनमानी गिरफ्तारी के ख़िलाफ़ सुरक्षा के रूप में शामिल किया गया था। गिरफ्तारी की शक्ति पर जांच की आवश्यकता पर जोर देते हुए अर्नेश कुमार मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा:

"पुलिस अधिकारी गिरफ्तारी करते हैं क्योंकि वे मानते हैं कि उनके पास ऐसा करने की शक्ति है। चूंकि गिरफ्तारी से आजादी पर अंकुश लगता है, अपमानित करता है और हमेशा के लिए दाग लगा देता है, इसे हम अलग तरह से महसूस करते हैं। हमारा मानना है कि कोई भी गिरफ्तारी केवल इसलिए नहीं की जानी चाहिए कि अपराध गैर-ज़मानती और संज्ञानात्मक है और इसलिए, पुलिस अधिकारी ऐसा करने के लिए न्यायसंगत हैं। गिरफ्तारी करने की शक्ति का अस्तित्व एक अलग चीज है लेकिन इसके कार्यवाही का औचित्य काफी भिन्न है। गिरफ्तारी की शक्ति के अलावा पुलिस अधिकारियों को कारणों का सफाई देने में सक्षम होना चाहिए। किसी व्यक्ति के खिलाफ लगाए गए अपराध के केवल आरोप को लेकर कोई गिरफ्तारी नियमित तरीके से नहीं की जा सकती है। यह एक पुलिस अधिकारी के लिए विवेकपूर्ण और समझदारी होगी कि आरोप की असलियत जैसी कुछ जांच के बाद उचित संतुष्टि प्राप्त किए बिना कोई गिरफ्तारी नहीं की जाती।”

इस मामले में यूपी पुलिस ने किसी भी विशेष कारणों को सूचीबद्ध नहीं किया है जो उन्हें अपने अधिकार क्षेत्र के बाहर किसी जगह से कनोजिया को जल्दबाजी में गिरफ्तार करने की इजाजत देता है। उनके द्वारा जारी किए गए एक के बाद एक बयान में उस विशेष परिस्थितियों के बारे में कोई जिक्र नहीं है जो कनोजिया की गिरफ्तारी को जरूरी बना दिया। कनोजिया द्वारा दिए गए बयानों से सीएम के लिए गहरी चिंता हो सकती है। लेकिन यह कानून के अधिकार के बिना गिरफ्तारी का कोई औचित्य नहीं है।

इस तरह की घटनाओं से पता चलता है कि भारत में पत्रकारिता एक जोखिम भरा पेशा क्यों बना हुआ है जो पिछले कई वर्षों से वर्ल्ड प्रेस फ्रीडम इंडेक्स में लगातार नीचे जा रहा है। यह इस वर्ष 180 देशों की सूची में 140वें पायदान पर है।

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