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लगातार गर्म होते ग्रह में, हथियारों पर पैसा ख़र्च किया जा रहा है: 18वाँ न्यूज़लेटर  (2022)

हथियारों के लिए ख़र्च किए जाने वाले पैसे की कोई सीमा नहीं है, लेकिन दुनिया के सामने उपस्थित जलवायु आपदा को टालने के लिए ख़ैरात भी नहीं है।
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प्यारे दोस्तों,

 

ट्राईकॉन्टिनेंटल: सामाजिक शोध संस्थान की ओर से अभिवादन।

 

पिछले महीने दो ज़रूरी रिपोर्टें आई थीं। पर उन दोनों पर जिस तरह से ध्यान दिया जाना चाहिए था नहीं दिया गया। 4 अप्रैल को, इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज के वर्किंग ग्रुप तीन की रिपोर्ट जारी हुई। इस पर संयुक्त राष्ट्र के महासचिव एंटोनियो गुटेरेस ने प्रतिक्रिया देते हुए कहा कि यह 'टूटे हुए जलवायु वादों की एक याचिका है। यह शर्मसार कर देने वाली फ़ाइल है, जिसमें खोखले वादों की सूची दी गई है, जो हमें जीवन के लिए अनुपयुक्त दुनिया के रास्ते पर ले जा रहे हैं'। सीओपी26 में, विकसित देशों ने जलवायु परिवर्तन के अनुकूल ढलने में विकासशील देशों की सहायता के लिए अनुकूलन कोष के लिए केवल 100 बिलियन डॉलर का ख़र्च करने का वादा किया था। इस बीच, 25 अप्रैल को, स्टॉकहोम इंटरनेशनल पीस रिसर्च इंस्टीट्यूट (सिपरी) ने अपनी वार्षिक रिपोर्ट जारी की। इसके हिसाब से 2021 में दुनिया का कुल सैन्य ख़र्च 2 ट्रिलियन डॉलर से भी ऊपर रहा। सेना पर सबसे ज़्यादा ख़र्च करने वाले पाँच देश -संयुक्त राज्य अमेरिका, चीन, भारत, यूनाइटेड किंगडम और रूस- अकेले इसमें से 62 प्रतिशत हिस्सा ख़र्च करते हैं। और अकेला संयुक्त राज्य अमेरिका, हथियारों पर होने वाले इस कुल ख़र्च में से 40 प्रतिशत  ख़र्च करता है।

 

हथियारों के लिए ख़र्च किए जाने वाले पैसे की कोई सीमा नहीं है, लेकिन दुनिया के सामने उपस्थित जलवायु आपदा को टालने के लिए ख़ैरात भी नहीं है।

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<शाहिदुल आलम/ड्रिक/मेजोरिटी वर्ल्ड (बांग्लादेश), औसत बांग्लादेशी की इच्छाशक्ति उल्लेखनीय है। जैसे ही यह महिला काम पर जाने के लिए कमलापुर में बाढ़ के पानी से गुज़री, वहाँ एक फ़ोटोग्राफ़िक स्टूडियो 'ड्रीमलैंड फ़ोटोग्राफ़र्स' था, जो खुला हुआ था, 1988> 

 

'आपदा' शब्द कोई अतिशयोक्ति नहीं है। संयुक्त राष्ट्र के महासचिव गुटेरेस ने चेतावनी दी है कि 'हम जलवायु आपदा के रास्ते पर तेज़ी से आगे बढ़ रहे हैं ... समय आ गया है कि हमारे ग्रह को जलाना बंद किया जाए'। वर्किंग ग्रुप तीन की रिपोर्ट में दिए गए तथ्य भी यही उजागर करते हैं। वैज्ञानिक रिकॉर्डों में पुख़्ता रूप से यह स्थापित हो चुका है कि हमारे पर्यावरण और हमारी जलवायु की तबाही की ऐतिहासिक ज़िम्मेदारी संयुक्त राज्य अमेरिका और उसके सहयोगी देशों पर है, जो दुनिया के सबसे शक्तिशाली देश हैं। हालाँकि अतीत में प्रकृति के ख़िलाफ़ किए गए निर्मम युद्ध के लिए पूँजीवाद और औपनिवेशिक ताक़तों को ज़िम्मेदार ठहराने के बारे में कम बहस होती है।

 

लेकिन यह ज़िम्मेदारी केवल अतीत ही नहीं, हमारे वर्तमान दौर तक आती है। 1 अप्रैल को, द लैंसेट प्लैनेटरी हेल्थ में एक नया अध्ययन प्रकाशित हुआ था, जिसमें दिखाया गया कि 1970 से लेकर 2017 के दौरान 'विश्व स्तर पर अतिरिक्त सामग्री उपयोग (ग्लोबल एक्सेस मटीरीयल यूज़) में 74 प्रतिशत के लिए उच्च आय वाले देश, मुख्य रूप से संयुक्त राज्य अमेरिका (27 प्रतिशत) और यूरोपीय संघ के 28 उच्च आय वाले देश ज़िम्मेदार हैं'। उत्तरी अटलांटिक देशों में अतिरिक्त सामग्री उपयोग में अजैविक संसाधनों (जैसे जीवाश्म ईंधन, धातु और ग़ैर-धातु खनिजों) का इस्तेमाल अधिक होता है। चीन वैश्विक अतिरिक्त सामग्री उपयोग में 15 प्रतिशत के लिए ज़िम्मेदार है और दक्षिणी गोलार्ध के बाक़ी देश केवल 8 प्रतिशत के लिए। इन निम्न-आय वाले देशों में अतिरिक्त उपयोग बड़े पैमाने पर जैविक संसाधनों (जैसे बायोमास) के इस्तेमाल पर टिका है। अजैविक और जैविक संसाधनों के बीच का अंतर दिखाता है कि दक्षिणी गोलार्ध के देशों में अतिरिक्त संसाधन/सामग्री उपयोग बड़े पैमाने पर नवीकरणीय (रीन्यूएबल) स्रोतों पर निर्भर है, जबकि उत्तरी अटलांटिक देशों में यह ग़ैर-नवीकरणीय (नॉन-रीन्यूएबल) स्रोत हैं।

 

इस तरह के अध्ययन की ख़बर अख़बारों के पहले पन्नों पर आनी चाहिए थी, ख़ासकर दक्षिणी गोलार्ध के देशों में। और इसके निष्कर्षों पर टेलीविज़न चैनलों पर व्यापक बहस होनी चाहिए थी। लेकिन इस पर बमुश्किल ध्यान दिया गया। यह अध्ययन निर्णायक रूप से साबित करता है कि उत्तरी अटलांटिक उच्च आय वाले देश ग्रह को नष्ट कर रहे हैं। उन देशों को अपने तरीक़े बदलने की ज़रूरत है। उन्हें दोशों को चाहिए कि जो देश इस समस्या को पैदा नहीं कर रहे हैं लेकिन इसके प्रभाव से पीड़ित हो रहे हैं, उनकी सहायता के लिए विभिन्न प्रकार के ऐडैप्टेशन और मिटिगेशन फ़ंड देने की ज़िम्मेदारी उठानी चाहिए।

 

आँकड़ा प्रस्तुत करने के बाद, इस पेपर के लेखकों ने लिखा है कि 'वैश्विक पारिस्थितिक संकट के लिए उच्च आय वाले देश ही सबसे ज़्यादा ज़िम्मेदार हैं, और इसलिए यह देश बाक़ी दुनिया के पारिस्थितिक क़र्ज़दार हैं। इन देशों को इस गहराते संकट से दुनिया को बचाने के लिए अपने संसाधन उपयोग में बड़ी कटौतियाँ करने का बीड़ा उठाने की आवश्यकता है, जिसके लिए उन्हें संभावित रूप से परिवर्तनकारी विकासोत्तर (पोस्ट-ग्रोथ) और अविकास (डीग्रोथ) उपाय लागू करने की ज़रूरत होगी’। ये रोचक विचार हैं: 'संसाधन उपयोग में भारी कटौती' तथा 'विकासोत्तर और अविकास उपाय'।
























 

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<साइमन गेंडे (पापुआ न्यू गिनी), अमेरिकी सेना ने ओसामा बिन लादेन को एक घर में छुपा पाया और उसे मार डाला, 2013>

 

संयुक्त राज्य अमेरिका के नेतृत्व में, उत्तरी अटलांटिक देश हथियारों पर सामाजिक धन का सबसे बड़ा हिस्सा ख़र्च करने वाले देश हैं। ब्राउन यूनिवर्सिटी के एक अध्ययन के अनुसार पेंटागन -अमेरिका का सशस्त्र बल- 'तेल का सबसे बड़ा उपभोक्ता है', 'और इसके परिणामस्वरूप, [यह] दुनिया के शीर्ष ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जकों में से एक है'। 1997 में संयुक्त राज्य अमेरिका और उसके सहयोगियों को क्योटो प्रोटोकॉल पर हस्ताक्षर करने को राज़ी करने के लिए, संयुक्त राष्ट्र के सदस्य देशों को सेना की गतिविधियों से होने वाले ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को उत्सर्जन की राष्ट्रीय रिपोर्टिंग से बाहर करना पड़ा था।

 

दो धन राशि के आँकड़ों की तुलना कर इन बेहूदा मामलों को स्पष्ट रूप से समझा जा सकता है। 2019 में, संयुक्त राष्ट्र ने गणना में पाया कि सतत विकास लक्ष्यों (एसडीजी) को प्राप्त करने के लिए वार्षिक फ़ंडिंग में 2.5 ट्रिलियन डॉलर का गैप है (यानी जितना फ़ंड चाहिए उससे 2.5 ट्रिलियन डॉलर कम फ़ंड उपलब्ध है)। सेना में विश्व स्तर पर सालाना ख़र्च होने वाले 2 ट्रिलियन डॉलर यदि सतत विकास लक्ष्य पूरा करने में लगा दिए जाएँ तो मानव गरिमा पर भुखमरी, अशिक्षा, आवासहीनता, चिकित्सा देखभाल की कमी जैसी समस्याओं से निपटने की दिशा में एक लंबा रास्ता तय किया जा सकता है। यहाँ यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि ‘सिपरी’ के 2 ट्रिलियन डॉलर के आँकड़े में हथियार प्रणालियों के लिए निजी हथियार निर्माताओं को दी जाने वाली सामाजिक संपत्ति की आजीवन बर्बादी (लाइफ़टाइम वेस्टेज ऑफ़ सोशल वेल्थ) शामिल नहीं है। उदाहरण के लिए, लॉकहीड मार्टिन एफ़-35 हथियार प्रणाली की लागत लगभग 2 ट्रिलियन डॉलर के आस पास अनुमानित है।

 

2021 में, दुनिया ने युद्ध पर 2 ट्रिलियन डॉलर से भी अधिक ख़र्च किया। लेकिन स्वच्छ ऊर्जा और ऊर्जा दक्षता में केवल 750 बिलियन डॉलर का निवेश किया। 2021 में ऊर्जा के बुनियादी ढाँचे में कुल निवेश 1.9 ट्रिलियन डॉलर का रहा, लेकिन इस निवेश का बड़ा हिस्सा जीवाश्म ईंधन (तेल, प्राकृतिक गैस और कोयला) में लगा था। यानी, जीवाश्म ईंधन में निवेश जारी है और हथियारों में निवेश बढ़ रहा है, जबकि साफ़ ऊर्जा के नये रूपों में परिवर्तन करने की दिशा में जो निवेश होना चाहिए वह बेहद अपर्याप्त रहा है।



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<एलाइन अमारू (ताहिती), पोमारे परिवार, 1991>

 

28 अप्रैल को, अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने अमेरिकी कांग्रेस से यूक्रेन में हथियार भेजने के लिए 33 बिलियन डॉलर प्रदान करने के लिए कहा। एक तरफ़ ये फ़ंड मुहैया करवाए जा रहे हैं और दूसरी ओर अमेरिकी रक्षा सचिव लॉयड ऑस्टिन बयान दे रहे हैं कि अमेरिका यूक्रेन से रूसी सेना को हटाने की कोशिश नहीं कर रहा है, बल्कि '[वह] रूस को कमज़ोर होते देखना' चाहता है। ऑस्टिन की टिप्पणी से हमें आश्चर्यचकित नहीं होना चाहिए। यह 2018 के बाद चीन और रूस को 'बराबर के प्रतिद्वंद्वी' बनने से रोकने के लिए अमेरिका द्वारा अपनाई गई नीति को ही दर्शाता है। मानवाधिकार चिंता का विषय नहीं हैं; बल्कि अमेरिकी आधिपत्य के लिए किसी भी चुनौती को बढ़ने से रोकना असल मक़सद है। यही कारण है कि सामाजिक धन मानवता के सामने खड़ी समस्याओं को दूर करने के लिए इस्तेमाल होने के बजाए हथियारों पर बर्बाद किया जाता है।




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<ऑपरेशन क्रॉसरोड्ज़ के तहत हुआ शॉट बेकर परमाणु परीक्षण, बिकनी एटोल (मार्शल द्वीप), 1946>

 

सोलोमन द्वीप समूह और चीन, दो पड़ोसियों के बीच हुए समझौते पर संयुक्त राज्य अमेरिका ने जिस तरह से प्रतिक्रिया व्यक्त की है, उस पर विचार करें। सोलोमन द्वीप के प्रधान मंत्री मनस्सेह सोगावरे ने कहा कि यह डील व्यापार और मानवीय सहयोग को बढ़ावा देने के लिए है, न कि प्रशांत महासागर के सैन्यीकरण के लिए। प्रधान मंत्री सोगावरे के संबोधन के ही दिन एक उच्च-स्तरीय अमेरिकी प्रतिनिधिमंडल देश की राजधानी होनियारा पहुँचा। उन्होंने प्रधान मंत्री सोगावरे से कहा कि यदि चीन किसी भी प्रकार की 'सैन्य स्थापना' करता है, तो संयुक्त राज्य अमेरिका को 'बड़ी चिंता होगी और [वह] उसके अनुसार ही प्रतिक्रिया करेगा'। ये स्पष्ट रूप से धमकी है। इसके कुछ दिनों बाद, चीनी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता वांग वेनबिन ने कहा कि, 'दक्षिण प्रशांत सागर के द्वीप देश स्वतंत्र और संप्रभु राज्य हैं, न कि अमेरिका या ऑस्ट्रेलिया का पिछवाड़ा (बैकयार्ड्ज़)। दक्षिण प्रशांत क्षेत्र में मुनरो सिद्धांत को पुनर्जीवित करने के उनके प्रयास को कोई समर्थन नहीं मिलेगा'।

 

सोलोमन द्वीप समूह के पास ऑस्ट्रेलियाई-ब्रिटिश उपनिवेशवाद के इतिहास और परमाणु बम परीक्षणों की भयावह स्मृति है। 'ब्लैकबर्डिंग' प्रथा के नाम पर 19वीं शताब्दी में क्वींसलैंड, ऑस्ट्रेलिया के गन्ना खेतों में काम करने के लिए हज़ारों सोलोमन द्वीपवासियों का अपहरण किया जाता था। 1927 में इस प्रथा के ख़िलाफ़ मलाइता में क्वायो विद्रोह हुआ। सोलोमन द्वीप समूह सैन्यीकरण के ख़िलाफ़ कड़ा संघर्ष करते रहे हैं। 2016 में उन्होंने परमाणु हथियारों पर प्रतिबंध लगाने के लिए मतदान किया था। वे नहीं चाहते कि वो अमेरिका या ऑस्ट्रेलिया के 'पिछवाड़ा (बैकयार्ड)' बनें। सोलोमन द्वीप के लेखक सेलेस्टीन कुलगोई की कविता 'पीस साइन्स' (1974) में इसे स्पष्ट रूप से समझा जा सकता है:



 

एक मशरूम अंकुरित होता है

एक शुष्क प्रशांत प्रवाल द्वीप से

[और] बिखर जाता है आकाश में

अपने ओज का एक अवशेष छोड़कर

जिसके साथ एक भ्रामक

शांति और सुरक्षा के लिए

आदमी चिपक जाता है।

 

प्यार को ख़ुशी मिलने के बाद

तीसरे दिन

भोर की शांति में 

खाली मज़ार पर लगा

लकड़ी से बना तिरस्कार का क्रॉस

तब्दील हो गया

प्रेम सेवा

शांति के प्रतीक में।

 

दोपहर की गरमी की लोरी में

संयुक्त राष्ट्र का झंडा लहराता है

[पर] दिखाई नहीं देता

राष्ट्रीय बैनरों के बीच 

छिपा हुआ

जिनके नीचे

बैठे हैं ग़ुस्सैल आदमी

शांति संधियों पर 

हस्ताक्षर करने को।

 

स्नेह-सहित,

 

विजय।

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