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पेसा के 25 साल: उल्लंघन एवं कमज़ोर करने के प्रयास

इस अधिनियम का मकसद शक्तियों का विकेंद्रीकरण करना और आदिवासी समाज का सशक्तीकरण करना था। पर इसके अस्तित्व में आने के आज 25 वर्ष पूरे होने के बावजूद ये अधिनियम स्पष्ट अक्षमता, संपूर्ण उल्लंघन एवं ढांचागत खामियों को झेल रहा है।
पीईएसए के 25 साल: उल्लंघन एवं कमज़ोर करने के प्रयास

प्रोविजन ऑफ पंचायत (एक्सटेंशन टू शिड्यूल्ड एरियाज) एक्ट-पीईएसए यानी पंचायत उपबंध (अनुसूचित क्षेत्रों तक विस्तार) अधिनियम (पेसा) का लक्ष्य सत्ता की शक्तियों का विकेंद्रीकरण करना एवं आदिवासी समुदायों का सशक्तीकरण करना था लेकिन इस कानून को लागू हुए 25 वर्ष पूरे हो गए हैं फिर भी यह आज स्पष्ट अक्षमता, संपूर्ण उल्लंघन एवं ढांचागत खामियों का सामना कर रहा है। 1992 में संविधान में 73वें एवं 74वें संशोधन के जरिए देश के ग्रामीण तथा शहरी हिस्सों में त्रिस्तरीय पंचायती राज व्यवस्था कायम की गई थी; लेकिन इसके दायरे से आदिवासी बहुल क्षेत्रों को बाहर रखा गया है। ये क्षेत्र संविधान की पांचवीं अनुसूची में दर्ज हैं।

पेसा को 1996 में लागू किया गया था। इसे संविधान की पांचवीं अनुसूची में दर्ज आदिवासी बहुल क्षेत्रों के लिए स्थानीय स्व-शासन के मकसद से लाया गया था, जिसे जिलों के प्रशासन के साथ तालमेल से काम करना था। पीईएसए को देश के 10 राज्यों; झारखंड, छत्तीसगढ़, ओडिशा, आंध्र प्रदेश, गुजरात, हिमाचल प्रदेश, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, राजस्थान और तेलंगाना में अमल में लाया गया।

इस अधिनियम का मकसद अनुसूचित क्षेत्रों एवं आदिवासी समुदायों तक शासन का विस्तार करना था। पीईएसए को तब इन समुदायों के समर्थन में सबसे ताकतवर अधिनियम माना गया था-जो भारत की संपूर्ण आबादी के लगभग 9 फीसदी हैं। परंतु इस अधिनियम की मूल भावना में परिवर्तन से यह अब “दंतविहिन” हो गया है। पारंपरिक संसाधनों, न्यून वन उत्पादनों, थोड़े खदानों, न्यून जलनिकायों, लाभान्वितों के चयन, परियोजनाओं की स्वीकृति और स्थानीय संस्थानों पर नियंत्रण के संदर्भ में ग्रामसभा के स्व-शासन के पहलुओं के उल्लंघन जारी हैं।

राज्यों में जबकि ग्राम सभाओं के गठन को आवश्यक बनाया गया है, उसकी शक्ति एवं उसके कामकाज को विधानसभाओं की मर्जी के हवाले कर दिया गया है। परिणामस्वरूप, विभिन्न राज्यों ने स्थानीय निकायों की शक्तियां एवं कामकाज की भिन्न-भिन्न प्रणाली विकसित किए हैं।

हालांकि देश के लगभग 40 फीसदी राज्यों ने पीईएसए के संदर्भ में आवश्यक नियमों को नहीं बनाया है, उनका यह रवैया इस अधिनियम को कमजोर करने की उनकी मंशा को जाहिर करता है। देश के चार राज्यों- छत्तीसगढ़, झारखंड, मध्य प्रदेश और ओडिशा ने तो इस अधिनियम के क्रियान्वयन के लिए अभी तक इसके नियम भी नहीं बनाए हैं।

अभिजीत मोहंती इस अधिनियम को एक “मिथ” बताते हुए कहते हैं, “वर्तमान में जो स्थिति है, उसमें कोई भी ग्राम सभा विभिन्न स्तरों पर राजस्व अधिकारियों से पूछे बिना किसी कामकाज की कोई उम्मीद नहीं कर सकती है। अधिकतर मामलों में वांछित अनुमति देने में खूब हीलाहवाली की जाती है। इतना ही नहीं पूरी तरीके से इनकार भी कर दिया जाता है। इलाके की आम परिसंपत्ति का कोई हिस्सा किसी गांव, समुदाय, समूहों, या लोगों के स्वामित्व और नियंत्रण में नहीं है। यह रवैया पीईएसए अधिनियम का सीधा-सीधा उल्लंघन है।”

गुजरात में स्टैच्यू ऑफ यूनिटी की स्थापना के लिए भू-अर्जन से लेकर 121 गांवों के खाली कराए जाने में भी पीईएसए की सीधे तौर पर अवहेलना की गई थी। इसका दूसरा उदाहरण पथलगढ़ी आंदोलन को अपराध मानना है, जहां आदिवासियों ने अपने गांवों के हिस्से में आने वाले क्षेत्र का पत्थरों से सीमांकन कर दिया था। स्वायत्तता एवं जनजातीय संस्कृति की देखरेख के लिए पीईएसए कानून अभी तक अस्पष्ट ही बना हुआ है। पीईएसए के प्रावधानों के उल्लंघन को वनवासियों के अधिकारों, अधिकतर आदिवासी लोगों की और पर्यावरणीय चिंताओं की अवहेलना के रूप में रेखांकित किया गया है, जो विकास परियोजना को सक्षम बनाने के लिए तय प्रक्रिया का उल्लंघन करता है।

पीईएसए अधिनियम के बारे में न्यूजक्लिक से बात करते हुए प्राकृतिक संसाधनजनित विवादों और शासन के मसले के जानकार सी.आर. बिजॉय ने कहा: “एक भी राज्य ने पीईएसए के मुताबिक पंचायती राज कानून में फिलहाल कोई संशोधन नहीं किया है। राज्य के संशोधन में कानून की मूल भावना का पूरी तरह अनुपालन नहीं हुआ है; राज्यों ने केंद्रीय प्रावधानों का पालन नहीं किया है। पीईएसए ग्राम सभाओं की शक्तियों को परिभाषित करता है और ग्राम सभाओं के ऊपर की संरचनाएं इसकी शक्तियों का अतिक्रमण नहीं कर सकती हैं। हालांकि, ग्राम सभाओं के पास शक्तियां नहीं हैं; उनकी सभी शक्तियां निर्वाचित सदस्यों में निहित हैं, पदानुक्रम से विभाजित हैं। एक कानून किसी एक को सर्वोच्च अधिकार दे देता है तो दूसरा कानून किसी अन्य को शक्तिसम्पन्न कर देता है; इसलिए, प्रदत्त ढ़ांचे में पीईएसए काम नहीं कर सकता है।”

बिजॉय ने कहा,“ग्राम सभाओं के ऊपर बनाई संरचनाओं को छठी अनुसूची में वर्णित पद्धतियों पर बनाया जाना चाहिए। उस अनुसूचित क्षेत्रों में जो किया जाना चाहिए था, वह यह कि एक ऐसे ढ़ांचे का निर्माण किया जाना चाहिए था, जिसमें राज्यों की शक्तियां इस तरह से आवंटित की जातीं कि ग्राम सभाओं को उल्लंघन नहीं किया जाता, बल्कि उसका सशक्तीकरण किया जाता।”

इस कानून के उल्लंघन एवं इसको कमजोर बनाए जाने ने विकास की एक पद्धति को रेखांकित किया है, जो ग्राम सभाओं से सुदृढ़ीकरण के प्रति केंद्र एवं राज्य की प्रतिबद्धताओं में कमी को जाहिर करता है। उसको मजबूत करने की बजाय कॉरपोरेट की घुसपैठ कराने और जनजातीय क्षेत्रों के प्राकृतिक भंडारणों पर दखल करने पर जोर दिया गया है, जिससे ग्राम सभा की सहमति को दरकिनार करना आसान हो गया है।

मोदी सरकार के कई बड़े निर्णयों में से एक पर्यावरण प्रभाव आकलन नीति का पिछले साल जारी किया गया मसौदा 2006 के नियमों को काफी कमजोर करता है, इसे सरकार एवं निजी क्षेत्र के व्यावसायियों के लिए पर्यावरण समीक्षा के दायरे में आए बिना ही उनकी परियोजनाओं के क्रियान्वयन को सुगम बना देता है। वनवासियों को बेदखल करने में सरकार की दिलचस्पी, साथ ही वन संरक्षण कानून (1980) के तहत वनों के मामले में राज्यों की शक्तियों को हाल ही में कम किए जाने से आदिवासी समुदायों एवं प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण के लिए बनाए गए प्रावधान कमजोर हुए हैं। इसके अलावा, जैसा कि भारत कोयला क्षेत्र का निजीकरण कर रहा है और खनिज क्षेत्र में सुधार ला रहा है, ऐसे में पर्यावरणवादियों की सबसे बड़ी चिंता पीईएसए कानूनों के उल्लंघनों तथा उसके प्रावधानों को कमतर किए जाने के विरोध में संघर्ष को लेकर है।

इंडिजेनस सेंटर फॉर लैंड एंड रिसोर्स एंड गवर्नांस के कोऑर्डिनेटर बिनीत मुंडु ने न्यूज क्लिक से कहा “सबसे बड़ी चुनौती तो पीईएसए की मूल भावना को ही कमजोर करने को लेकर है। इस कानून के नियम की रचना एक रेडिकल स्कीम थी किंतु वह अलग-अलग कारणों से परवान नहीं चढ़ सकी। इसके परिणामस्वरूप संघर्ष में बढ़ोतरी हो रही है। पारंपरिक ग्राम सभाएं और राज्य द्वारा स्थापित पंचायतें एक दूसरे से संघर्ष की स्थिति में हैं। इस संघर्ष को और विसंगतियों को दूर किए जाने की आवश्यकता है।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें।

25 Years of PESA: Violations and Attempts at Dilution

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