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‘’देश में 76 फीसदी जज सवर्ण हैं’’... ख़तरे में है संविधान का महत्वपूर्ण अंग ‘’न्यायपालिका’’?

यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि संविधान के सबसे महत्वपूर्ण अंग न्यायपालिका में उस समाज की भूमिका सबसे कम है, जिसकी संख्या देश में सबसे ज़्यादा है।
supreme court
फ़ोटो : PTI

कानून मंत्री अर्जुन मेघवाल ने संसद में एक रिपोर्ट पेश की, जिसमें बताया कि कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में नियुक्त जजों में करीब 76 फीसदी सवर्ण जाति से आते हैं।

हमारा संविधान देश के हर नागरिक के लिए एक नज़र रखता है। ऐसे में संविधान के संभी अंगों की ज़िम्मेदारी होती है कि उसके कार्यों का पैमाना बग़ैर जाति, धर्म, रंग, प्रांत या उसकी श्रेणी को देखकर तय किया जाए। इसी तरह एक महत्वपूर्ण अंग है, न्यायपालिका जहां स्थापित कानून की प्रतिमा की आंखों में पट्टी बंधी होती है। इसका मतलब ये है कि कानून हर किसी को बग़ैर देखे और जाने उसके साथ न्याय करने की ज़िम्मेदारी तय करता है।

लेकिन देश की सियासत ने जाति और धर्म को आधार बनाकर ख़ुद के हाथ इतने लंबे कर लिए हैं, कि वो बार-बार कानून के आंखों की पट्टी उतारने की कोशिश करते हैं। इस कोशिश की एक बानगी हमें देशभर के हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के सिस्टम में दिखाई पड़ता है। जहां न्याय करने वाले 76 प्रतिशत से ज़्यादा न्यायाधीश उस जाति से आते हैं, जिन्हें हम सामान्य या सवर्ण कहते हैं।

अब सवाल ये उठते है कि जिस देश में आधी से ज़्यादा जनसंख्या पिछड़ा, अतिपिछड़ा और आदिवासी समाज की हो, उसकी भागीदारी न्याय के सबसे बड़े संस्थान में इतनी कम क्यों है?  सवाल ये भी है कि जिस पिछड़ा समाज को तथाकथित तौर पर एक सवर्ण के नल में पानी पीने, घोड़ी चढ़ने या अच्छा खाना खाने की वजह से सज़ा दी जाती हो, उसके लिए न्यायिक प्रक्रिया कैसे सौ फीसदी शुद्ध हो सकती है?

ख़ैर.. इन दिनों चल रहे संसद सत्र के दूसरे दिन सांसद असद्दुदीन ओवैसी ने सवाल पूछा था- क्या यह तथ्य सही है कि पिछले पांच सालों में हाई कोर्ट में नियुक्त जजों में से 79 प्रतिशत जज अपरकास्ट से आते हैं?’ इसके जवाब में केंद्रीय कानून मंत्री अर्जुन मेघवाल ने 17 जुलाई को एक रिपोर्ट पेश की। जिसके बारे में उन्होंने बताया कि इस रिपोर्ट में 2018 से जुलाई 2023 तक आंकड़ें है। जिसके मुताबिक हाईकोर्ट में नियुक्त जजों में से करीब 76 फीसदी जज अपर कास्ट हैं, जबकि दलित और आदिवासी बमुश्किल 5 प्रतिशत हैं। उन्होंने बताया कि मौजूदा वक्त में कुल नियुक्त जजों की संख्या 604 है, जिसमें से 458 सवर्ण हैं। यानी ये आंकड़ा कुल मिलाकर 75.58 प्रतिशत बैठता है।

मेघवाल ने ये भी बताया कि 18 यानी 2.98 जज एससी वर्ग के हैं और 9 यानी 1.49 प्रतिशत जज एसटी समाज से हैं। इसके अलावा 72 यानी 11.92 ओबीसी वर्ग के हैं। इसके अलावा अल्पसंख्यक समुदाय के जजों की संख्या 34 यानी 5.56 प्रतिशत है। इसमें 13 के बारे में जानकारी नहीं मिल सकी है।

इसी तरह एक रिपोर्ट बताती है कि मुंबई के वकीलों के एक संगठन ने अपने अध्ययन के आधार पर 2015 में बताया था, कि उच्च न्यायालय में 50 प्रतिशत ऐसे जज हैं जिनका पारिवारिक संबंधी इन पदों पर विराजमान रह चुका है। सर्वोच्च न्यायालय में ऐसे लोगों की संख्या 33 प्रतिशत थी।

यानी ये कहना ग़लत नहीं होगा कि भारत की न्याय व्यवस्था संविधान की बुनियाद से थोड़ा खिसक चुकी है, ये बहुत जटिल और सवर्णों के पक्ष में झुक गई है, ऐसा अर्जुन मेघवाल की रिपोर्ट से साफ हो जाता है।

मेघवान ने ही संसद में कहा कि सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों की नियुक्ति भारत के संविधान के अनुच्छेद 124, 217 और 224 के तहत की जाती है, जो किसी भी जाति या वर्ग के लिए आरक्षण प्रदान नहीं करते हैं।

हालांकि, उन्होंने ये भी कहा कि सरकार उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीशों से एससी, एसटी, ओबीसी, अल्पसंख्यकोंऔर महिलाओं के उपयुक्त उम्मीदवारों पर विचार करके सामाजिक विविधता सुनिश्चित करने का अनुरोध कर रही है।

अब क्योंकि जजों की नियुक्ति में किसी तरह का आरक्षण नहीं दिया जाता है, तो इसके परिणाम हमारे सामने हैं। ऐसे में न्याय पूरी तरह से पारदर्शी हो रहा है, इस बात का उत्तर मिल पाना थोड़ा मुश्किल हो जाता है। हालांकि पिछले कुछ सालों में कई बार कॉलेजियम सिस्टम को लेकर सरकार और सुप्रीम कोर्ट आमने सामने आ चुके हैं।

दरअसल सुप्रीम कोर्ट चाहता है कि जजों के चयन में केंद्र सरकार का कोई रोल ना हो, उनका चयन कॉलेजियम सिस्टम के जरिए किया जाए, वहीं दूसरी तरफ सरकार भी इस जुगत में है कि संविधान का हवाला और शक्तियों का इस्तेमाल कर कोलेजियम की सिफारिशों को ज्यादा से ज्यादा समय तक रोका जा सके। ऐसे में कॉलेजियम सिस्टम को समझना बहुत ज़रूरी है।

जजों की नियुक्ति के लिए कॉलेजियम सिस्टम को साल 1993 में लागू किया गया था, सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस के साथ 4 वरिष्ठ जज इस कॉलेजियम सिस्टम का हिस्सा होते हैं, आसान भाषा में समझें तो कोलेजियम सिस्टम केंद्र सरकार से जजों की नियुक्ति और उनके ट्रांसफर की सिफारिश करता है। हालांकि इस सिस्टम के जरिए जजों की नियुक्ति का जिक्र न हमारे संविधान में है, न ही इसका कोई कानून संसद ने कभी पास किया है। कॉलेजियम सिस्टम में केंद्र सरकार की केवल इतनी भूमिका होती है कि अगर किसी वकील का नाम हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट में जज बनाने के लिए बढ़ाया जा रहा है, तो सरकार इंटेलिजेंस ब्यूरो से उनके बारे में जानकारी ले सकती है, केंद्र सरकार कोलेजियम की ओर से आए इन नामों पर अपनी आपत्ति जता सकती है और स्पष्टीकरण भी मांग सकता है।

कॉलेजियम सिस्टम पिछले दिनों खूब चर्चा में रहा था, जब सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के आग्रह पर दो जज अनिरुद्ध बोस और ए एस बोपन्ना के नाम वापस कर दिए थे।

नवंबर 2022 में शुरु हुई कॉलेजियम पर बहस के दौरान तत्कालीन कानून मंत्री किरेन रिजिजू ने जजों की नियुक्ति को पूरी तरह से असंवैधानिक बताया था।

ख़ैर... इस मसले पर सुप्रीम कोर्ट के तमाम वकीलों की साझा यही राय रहती है कि सुप्रीम कोर्ट के काम में सियासी दखल बहुत ठीक नहीं है, ये न्याय की प्रक्रिया को प्रभावित करता है, हालांकि वकीलों का मानना ये भी है कि जजों की नियुक्ति जजों के ज़रिये करना भी ठीक नहीं है।

यानी ये कहा जा सकता है कि इस प्रणाली में अपनी-अपनी शंका को दूर करने के लिए दोनों पक्षों को बैठकर इसका हल निकाल लेना भी बहुत ज़रूरी है।

यहां इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि सियासी हस्तक्षेप का मुख्य कारण होता है किसी भी संवैधानिक अंग में जातिवाद फैलाना। क्योंकि हिंदुस्तान की संपूर्ण सियासत जाति और धर्म पर आधारित है।

हालांकि यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि संविधान के सबसे महत्वपूर्ण अंग न्यायपालिका में उस समाज की भूमिका सबसे कम है, जिसकी संख्या देश में सबसे ज़्यादा है। ऐसे में न्याय पूरी तरह से पारदर्शी होगा, ये कह पाना ज़रा मुश्किल लगता है।

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