भारतीय गुप्तचर एजेंसियों पर लिखी गई फिर एक नई किताब, लेकिन नहीं मिलती कोई नई जानकारी
'द अल्टीमेट गोल' (हार्पर कोलिंस, 2020) के लेखक विक्रम सूद अब इस बात का "खुलासा करने वाले हैं कि कैसे राष्ट्र अवधारणाओं का निर्माण" करते हैं, इसके ज़रिए वे भारत को अपने लिए एक नई और ताकतवर अवधारणा के निर्माण में मदद करेंगे। भारतीय पोस्टल सेवा में रहे सूद भारत की विदेशी गुप्तचर संस्था "रिसर्च एंड एनालिसिस विंग (रॉ)' के प्रमुख रहे हैं। वह कहते हैं कि उनकी किताब किसी देश के लिए घरेलू और विदेशी अवधारणाओं को निर्मित करने, उन्हें बनाए रखने और उनका नियंत्रण करने में मदद करेगी। उनका दावा है कि गुप्तचर संस्थाएं "इन अवधारणाओं को बनाए रखने में अहम भूमिका निभाती हैं और यह राज्य प्रशासन का एक बेहद अहम अंग होती हैं।"
जबकि वास्तविकता यह है कि सशक्त राज्य अपने मनमुताबिक़ सशक्त सार्वजनिक अवधारणा बनाने में कामयाब रहते हैं। इसका विपरीत कभी देखने को नहीं होता। अमेरिका और चीन इसका बड़ा उदाहरण हैं।
लेखक के विचारों से लगता है कि भारत अब तक ताकतवर अवधारणा बनाने में नाकामयाब रहा है और रॉ जैसी एजेंसी, जिसे 1968 में स्थापित किया गया था, उसने अब तक जरूरी स्तर की मजबूत अवधारणा बनाकर भारत को सशक्त बनाने में मदद नहीं की। कोई भी यह एहसास कर सकता है कि 1950 में बनाए गए भारतीय संविधान ने भारत के बारे में एक सशक्त धारणा बनाने में योगदान दिया था। लेकिन हमारे इस बुनियादी दस्तावेज़ का विक्रम सूद की किताब में कहीं उल्लेख तक नहीं है।
ऊपर से आत्मनिर्भर भारत को बनाने की दिशा में लेखक सिर्फ एक ही भारतीय नेता, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, को ही जिक्र करने लायक मानते हैं, जो 2014 में सत्ता में आए हैं। यहां माना जा रहा है कि सिर्फ़ नरेंद्र मोदी ही भारत के लिए सशक्त अवधारणा का निर्माण कर रहे हैं! विक्रम सूद ने यहां पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी का तक जिक्र नहीं किया। जबकि रॉ के एक और पूर्व प्रमुख ए एस दुलत वाजपेयी की प्रशंसा करते हैं।
लेखक ने यहां यह नहीं बताया कि अपनी स्थापना के बाद से ही रॉ का कोई कानूनी ढांचा नहीं है, न ही इसके कर्तव्यों का कोई चार्टर है। यह स्थिति अमेरिका की केंद्रीय गुप्तचर एजेंसियों से बिल्कुल उलट है। यहां विक्रम सूद इन्हीं अमेरिकी गुप्तचर एजेंसियों की आलोचना करते हैं और जो उनका मुख्य निशाना भी समझ आती हैं। पहले 8 अध्याय में किताब CIA समेत कुछ अमेरिकी एजेंसियों की बात करती हैं, जो कथित तौर पर भ्रामक 'अवधारणाएं' बनाती हैं और जिसके ज़रिए बाकी दुनिया अमेरिका के वैश्विक प्रभुत्व को बढ़ाने पर मजबूर होती है।
लेखक का कहना है कि यह किताब तथ्यों का लेखजोखा है, न कि यह किसी वैश्विक व्यवस्था या अवधारणा की आलोचना करने का काम करती है। लेखक कहते हैं कि कोई भी अवधारणा वक़्त के साथ फलती-फूलती है और इसे एजेंसियों के ज़रिए बनाए रखा जाता है। किताब के ज़रिए आर्थिक तौर पर विकसित पश्चिम के प्रभुत्व और कम विकसित देशों की "हीनता" को स्थापित करने की कोशिश की गई है। अतीत में वरीयता युद्ध में विजेता को ही मिलती रही है, जबकि अवधारणाओं को मौजूदा दौर में अपनी कार्रवाइयों को सही ठहराने और प्रधानता कायम रखने के लिए किया जाता है।
पहले 8 अध्याय बताते हैं कि एक अवधारणा को कौन सी चीजें परिभाषित करती हैं। यह अध्याय ताकतवर अमेरिकी संस्थानों द्वारा वैश्विक घटनाओं को प्रभावित करने के ईर्द-गिर्द घूमते हैं। किताब सैन्य-औद्योगिक कॉमप्लेक्स की भूमिका के बारे में भी बताती हैं। अध्याय 9 और अध्याय 10 (पेज संख्या 180-234) रूस और चीन द्वारा 'काउंटरनैरेटिव' बनाए जाने की कोशिशों को बताते हैं।
लेखक तीखे तरीके से चीन की उसकी कथित दृढ़ता के लिए आलोचना करता है। वह कहीं भी इसका ज़िक्र नहीं करते हैं कि चीन का यह रवैय्या अमेरिका की कठोर नीतियों में प्रतिक्रिया में है, इन नीतियों में चीन के खिलाफ़ अमेरिका का दुर्दांत व्यापारिक युद्ध भी शामिल है।
चीन, भारत की तरह विकासशील देश हैं, हालांकि वहां हमारी तरह लोकतंत्र नहीं है, लेकिन चीन ने कई अहम लक्ष्य हासिल किए हैं, जिनमें गरीबी उन्मूलन भी एक है। चीन का आर्थिक विकास भी बेहद प्रभावित करने वाला है। अब यह देश अमेरिका के बाद दूसरा सबसे ताकतवर देश है। चीन के 'बेल्ट एंड रोड इनीशिएटिव (BRI)' की अवधारणा का लेखक ने करीब़ से परीक्षण किया है।
2016 में सिर्फ़ भारत ने ही चीन के BRI उद्घाटन का बॉयकॉट किया था। जबकि अमेरिका और जापान जैसे विकसित देशों ने आयोजन में हिस्सा लिया था। अमेरिका भारत जैसे देशों को चीन का मुकाबला करने के लिए सैन्य मदद देता है, लेकिन BRI से विकास के लिए जिन चीजों की पूर्ति में मदद मिलेगी, उसके मुकाबले अमेरिकी मदद बहुत पीछे रह जाती है। BRI फोरम में हिस्सा लेने से भारत को आर्थिक और कूटनीतिक लाभ मिलता और अनौपचारिक तौर पर अपनी सीमा समस्या पर बात करने का मौका मिलता।
स्तंभकार सुधींद्र कुलकर्णी (पहले बीजेपी में थे) ही केवल अकेले शख़्स थे, जो BRI के उद्घाटन में पहुंचे थे। उन्होंने खुलकर कहा कि प्रधानमंत्री मोदी ने यहां खुद का ही नुकसान किया है।
इसके बाद किताब उन कॉरपोरेट सपनों की बात करती है, जिन्हें जबरदस्ती बनाकर बेचा जा रहा है। लेखक यहां भारत के करीबी पड़ोसी पाकिस्तान की अवधारणा के बारे में पूरी तरह चुप्पी रखते हैं।
आखिरकार अध्याय 12 में "इंडिया स्टोरी" भारत पर लेखक की अवधारणा की व्याख्या करती है। सूद ने यहां भारतीय इतिहास पर अंग्रेजों का विचार खारिज किया है और वह "दुनिया में स्वतंत्र भारत" पर पहुंच जाते हैं। लेखक कहते हैं कि नई अवधारणाओं को बनाने, जो अपनी पिछली अवधारणाओं से काफ़ी अलग हैं, इसका खेल बस अभी शुरू हुआ है। यहां सूद 2014 के बाद मोदी की सत्ता के दौर की बात कर रहे हैं। हैरान करने वाली बात यह है कि वे नेहरू से लेकर वाजपेयी के दौर पर पूरी तरह चुप हैं। वे भारतीय संविधान के 1947 से लेकर 2014 के बीच के भारत पर पड़ने वाले प्रभाव को भी नज़रंदाज कर देते हैं।
सूद का मानना है कि भारत को अपना 'काउंटरनैरेटिव' गढ़ना चाहिए, जो यहां के इतिहास, जिसमें सिंधु घाटी सभ्यता से लेकर मौजूदा दौर तक शामिल हों, उसी के आधार पर गढ़ा जाना चाहिए। जो लोग मौजूदा भारतीय स्थितियों की आलोचना करते हैं, वे पश्चिम और खुद के हितों से प्रेरित होते हैं। यहां लेखक कुछ गहराई में जाता है।
जब रॉ अस्तित्व में आया था, तब रामेश्वर नाथ काव इसके अध्यक्ष थे। उस वक़्त संस्थान ने कुछ बाहरी सुरक्षा चुनौतियों की अच्छी व्याख्या की और उनके खिलाफ़ बखूबी ढंग से कदम उठाए। इसमें बांग्लादेश का निर्माण और उसमें भारत का योगदान शामिल है। 1984 में पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी (जो रॉ के पीछे की प्रेरणा थीं) और 2002 में RN काव की मौत ने एजेंसी को बहुत प्रभावित किया। अब रॉ को अपने अतीत की पेशेवर स्वतंत्रता, निष्पक्षता, जिम्मेदारी और सम्मान को बनाए रखना है।
इंटेलीजेंस ब्यूरो और रॉ को कभी कानूनी ढांचा प्रदान नहीं किया गया, न ही इनके कर्तव्यों की कोई सूची बनाई गई। 1979 में LP सिंह कमेटी ने IB के पुनर्गठन की कोशिश की थी। कमेटी ने एक कानूनी मसौदा और कर्तव्यों की एक सूची तैयार की। लेकिन जब इंदिरा गांधी 1980 में सत्ता में वापस आईं, तो सुधार की यह प्रेरणा खत्म हो गई। हर किसी को लेखक से यह अपेक्षा थी कि वे रॉ में बेहद जरूरी बदलावों के बारे में कुछ लिखेंगे। लेकिन यहां लेखक का उद्देश्य ही अलग दिखाई दे रहा है।
लेखक नई दिल्ली में केंद्रीय गृहमंत्रालय में रिसर्च एंड पॉलिसी डिवीज़न के निदेशक रह चुके हैं। यह उनके निजी विचार हैं।
इस लेख को मूल अंग्रेजी में पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें।
अपने टेलीग्राम ऐप पर जनवादी नज़रिये से ताज़ा ख़बरें, समसामयिक मामलों की चर्चा और विश्लेषण, प्रतिरोध, आंदोलन और अन्य विश्लेषणात्मक वीडियो प्राप्त करें। न्यूज़क्लिक के टेलीग्राम चैनल की सदस्यता लें और हमारी वेबसाइट पर प्रकाशित हर न्यूज़ स्टोरी का रीयल-टाइम अपडेट प्राप्त करें।