महिला आरक्षण को लेकर नए सिरे से मुहिम शुरू: देशभर में लगातार होंगे कार्यक्रम
12 सितम्बर, 2021 को महिला आरक्षण विधेयक को 25 साल हो गए हैं। 1996 में इसी तारीख को एचडी देवगौड़ा की सरकार ने इस विधेयक को संसद के पटल पर रखा था। यह था 81वां संविधान संशोधन विधेयक और इसके माध्यम से लोकसभा और विधान सभाओं में महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान था।
इससे पहले कि हम समझें कि यह विधेयक कैसे आया, हम इतिहास में कुछ पीछे चलें। जब राष्ट्रीय स्वतंत्रता के लिए चल रहे आन्दोलन में महिलाएं बढ़-चढ़कर हिस्सा ले रही थीं, उन्हें नहीं लगता था कि राजनीतिक क्षेत्र में पुरुषों से वे किसी भी मायने में कम या पीछे हैं। सरोजिनी नायडू को भी लगता था कि महिलाओं को आरक्षण दिया जाना या उन्हें मनोनीत कर किसी भी पद पर बैठाना एक किस्म का अपमान है। यानी औरतें इतनी काबिल हैं कि वे अपने काम के आधार पर किसी भी पद पर पहुंच सकती हैं। पर इसकी असली कसौटी तो आज़ादी के बाद उनकी निर्णायकारी संस्थाओं में हिस्सेदारी थी, जो नगण्य थी। पहली लोकसभा 1952 में बनी और उसमें केवल 24 महिला सांसद थीं। यह संख्या घटती बढ़ती रही पर कभी भी 14 प्रतिशत से अधिक नहीं हुई।
1975 में कमिटी फाॅर द स्टेटस ऑफ विमेन ने चिंता जाहिर की कि महिलाओं की संख्या निर्णयकारी संस्थाओं में बहुत कम थी। समिति की सदस्य विधान सभाओं और संसद में आरक्षण के पक्ष में तो मुखर नहीं थे, पर पंचायतों और स्थानीय निकायों में उनके आरक्षण का समर्थन कर रही थीं। एनपीपी 1988-2000 में भी चुनी हुई संस्थाओं में महिला आरक्षण को समर्थन दिया गया। बाद में राज्य सरकारें, खासकर कर्नाटक, महाराष्ट्र और केरल में 30 प्रतिशत तक आरक्षण को स्वीकार कर लिया गया। कहा जाता है कि यह कुछ दलों ने विपक्ष को परास्त करने की एक कार्यनीति के रूप में प्रयोग किया था, न कि महिलाओं का हित सोचकर।
1992 में संसद ने 73 वां और 74वां संविधान संशोधन विधेयक पारित किया। इसके बाद से पंचायतों और शहरी निकायों व पदों में महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत आरक्षण लागू हो गया। आगे आने वाले दिनों में महिला आंदोलन के दबाव के चलते 20 राज्यों में यह 50 प्रतिशत तक हो गया।
आज करीब 13 लाख महिला प्रतिनिधि पंचायतों और शहरों के स्थानीय निकायों में चुनकर आई हैं, और यह अपने आप में महिला सशक्तिकरण की दिशा में क्रांतिकारी कदम है। शुरुआत में तो लोगों ने बहस उठाई कि ये महिलाएं ‘बीवी ब्रिगेड’ बनकर रह जाएंगी, और इससे पुरुष प्राॅक्सी शासन चलाएंगे। पर यह लम्बे समय तक नहीं चला। औरतें पहली बार चुनाव में खड़ी हो रही थीं तो उन्हें परिवार और समाज के पितृसत्तात्मक मूल्यों से टकराना पड़ा। उन्हें चूल्हा-चौका छोड़कर, घूंघट त्यागकर बाहर निकलना पड़ा। पहली बार उन्हें अपने गांव, वार्ड, ब्लाक और जिले की शासन प्रणाली समझ में आई, जाति-धर्म-वर्ग और लिंग के भेद समझ में आए और घर के पुरुषों के आलावा अन्य पुरुषों से बात करने की जरूरत पड़ी। घर-घर जाकर उन्हें अन्य महिलाओं की समस्याओं को सुनना-समझना पड़ा और खुद को मजबूत बनाकर राजनीतिक व व्यक्तिगत कुत्सा-प्रचार का मुकाबला करना पड़ा।
यह सचमुच महिला चेतना में एक क्रांतिकारी परिवर्तन की शुरुआत थी। कई महिलाओं ने संघर्ष के अनुसरणीय मिसाल पेश किये। उन्होंने पीने के पानी, बिजली, नलकूप, स्कूल और पुराने स्कूलों में कक्षा निमार्ण, स्वास्थ्य केंद्रों को चाक-चौबंद करने के लिए व दहेज, घरेलू हिंसा, शराब, दहेज, बाल विवाह जैसे कुप्रथाओं के विरुद्ध प्रचार और काम भी किया। बिना धुएं वाले चूल्हे, सामुदायिक शौचालय, नलकूप, कन्या विद्यालय और सड़कों के निर्माण के लिए काम किया। कई महिला सदस्यों ने ऐसे माॅडल कायम किये कि अन्य गांवों में उसका अनुसरण किया गया। भूमि वितरण के समय महिला का नाम भी चढ़ाया गया। भ्रष्टाचारियों के विरुद्ध औरतें संघर्ष में उतरीं, तब उनपर हमले हुए और फर्जी केसों में फंसाकर उन्हें जेल भी भेजा गया। पर इन प्रतिनिधियों ने हार नहीं मानी और उनकी आकांक्षा बढ़ती रहीं। आज यही अनुभवी महिलाएं हैं जिन्हें विधान सभाओं और संसद में आने का मौका मिलना लाज़मी है।
महिला आंदोलन की मांग रही है कि औरतों को विधान सभाओं और संसद में 33 प्रतिशत आरक्षण मिले। यह कोई खैरात नहीं बल्कि महिलाओं का संवैधानिक अधिकार है। पर यह तबतक नहीं हो सकता जबतक महिला आरक्षण विधेयक पारित नहीं होता।
1996 में एचडी देवगौड़ा की सरकार ने जब महिला आरक्षण विधेयक को पेश किया, वह उसे पारित करने में सफल नहीं हुई। इसके बाद विधेयक को एक संयुक्त विशेष समिति के हवाले कर दिया गया जिसकी अध्यक्ष काॅ. गीता मुखर्जी थीं। 106 महिला संगठनों ने गीताजी को ज्ञापन भेजे और देश की प्रबुद्ध महिलाओं के वक्तव्य सुने गए। 9 दिसम्बर 1996 को विधेयक को अंतिम रूप देने के लिए रिपोर्ट प्रस्तुत की गयी। गीता मुखर्जी को बहुत महिलाओं के खून से लिखे हुए पत्र मिले थे कि जबतक महिलाओं को यह अधिकार नहीं मिलता वे चैन की सांस नहीं लेंगी। गीताजी भी इस मुद्दे को उसकी तार्किक परिणति तक ले जाने के लिए प्रतिबद्ध थीं। पर संसद में सोशल जस्टिस की अलंबरदार पार्टियों ने तय कर लिया था कि वे विधेयक को पारित होने नहीं देंगे। इसलिए राजद, जद यू, जद सेकुलर और समाजवादी पार्टी ने कोटा के भीतर कोटा के नाम पर विधेयक का विरोध किया। दुख की बात यह है कि बाद में भी आम सहमति न होने का बहाना बनाकर विधेयक को पारित नहीं किया गया।
महिला संगठनों ने किया आंदोलन
देश भर की महिलाओं में इस टालने की रणनीति पर आक्रोश था। 1997 के बजट सत्र में अखिल भारतीय महिला ऐसोसिएशन ने देश भर से 10,000 महिलाओं को दिल्ली लाकर जबर्दस्त संसद मार्च आयोजित किया। महिलाओं पर लाठियां बरसाई गईं, आंसू गैस और कैनन से पानी की बौछार छोड़ी गई। कई महिलाएं घायल हुईं और अस्पतालों में पहुंच गईं। संसद में इस दमन का विरोध भी हुआ, और तत्कालीन प्रधानमंत्री आई के गुजराल को माफी तक मांगनी पड़ी। करीब डेढ़ लाख हस्ताक्षर लोकसभा अध्यक्ष को दिये गए। मई 1997 में महिला संगठनों ने सभी राष्ट्रीय राजनीतिक दलों को पत्र दिये और मांग की कि वे विधेयक को पारित करवाएं।
1998 में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने पुनः विधेयक को संसद के पटल पर रखा पर राजद के एक सांसद ने उसकी प्रति फाड़कर चिंदी-चिंदी कर दी। एक बार फिर विधेयक को पारित होने से रोक दिया गया। शरद यादव तो यहां तक कह गए कि विधेयक से परकटी औरतें संसद में आ जाएंगी। उसी वर्ष सात महिला संगठनों ने संसद में इस महिला-विरोधी माहौल की कड़ी आलोचना करते हुए अभियान शुरू कर दिया। इसका नाम था चेतना यात्रा और यह दिल्ली ये एरनाकुलम और चेन्नई से होकर वापस दिल्ली तक था। श्रीमती मोहिनी गिरी, पूर्व अध्यक्ष, राष्ट्रीय महिला आयोग ने यात्रा को हरी झंडी दिखाई। इस यात्रा ने करीब 28 स्टेशनों पर उतरकर नारे लगाए और महिलाओं ने उनका स्वागत करते हुए सफेद साड़ियों पर हस्ताक्षर करके दिये, जो बाद में राष्ट्रपति के यहां जमा किये गए।
उसी वर्ष के अगस्त 21 को प्रमुख दलों की महिला विधायक और एमएलसी ने हैदराबाद में एक सम्मेलन करके विधेयक के लिए अपना समर्थन व्यक्त किया। महिला आंदोलन के नेतृत्व ने लगातार संयुक्त प्रतिनिधिमंडलों, धरने, प्रदर्शन, सम्मेलनों, राजनीतिक दलों और सांसदों को ज्ञापन, राज्यों में महिला जागृति के कार्यक्रम आदि से दबाव बनाए रखा। तो 1999, 2002 और 2003 में महिला आंदोलन के दबाव के चलते विधेयक को संसद में लाया गया, पर हर बार वह पारित न हो सका। हर बार सर्वसम्मति न होने का बहाना लाया जाता रहा। 2008 में मनमोहन सिंह ने विधेयक को एक बार फिर राज्य सभा में रखा। 2010 में काफी मशक्कत के बाद विधेयक राज्यसभा में पारित हुआ।
पर आज, 25 वर्ष बीतने के बाद भी हम जहां-के-तहां खड़े हैं। महिला आरक्षण विधेयक को पुनः संसद में पेश करना होगा, उसपर मतदान करवाकर उसे पारित करना होगा और 15 राज्यों का समर्थन प्राप्त करने के बाद उसे राष्ट्रपति के पास भेजा जाएगा। इसके लिए जिस राजनीतिक इच्छाशक्ति की जरूरत है, वह सरकार में नहीं है, वरना बहुमत में होने के बावजूद वह उसे पारित करने से क्यों डरती है, जबकि उसने अपने घोषणापत्र में वायदा किया था कि उसकी बहुमत वाली सरकार बनने पर उसे परित करेगी।
आज विधेयक पर बात तक नहीं की जा रही। इसलिए देश भर की महिला संगठनों ने एक व्यापक अभियान शुरू किया है कि महिला आरक्षण विधेयक को पारित करने में तनिक भी देरी न की जाए और उसे तत्काल पारित किया जाए।
रविवार, 12 सितंबर को एनएफआईडब्लू, एडवा, ऐपवा, वाईडब्लूसीए, मुस्लिम विमेन्स फोरम, डीडब्लूसी, अनहद, पहचान और एआईडीएमएएम ने दिल्ली के कॉन्स्टिट्यूशन क्लब के स्पीकर्स हाॅल में एक सभा का आयोजन किया और मांग की कि अगले संसद सत्र में विधेयक को पारित किया जाए। यह भी तय किया गया कि महिला आरक्षण के लिए यह अभियान कई चरणों में चलाया जाएगा। देश भर में कार्यक्रम होंगे, आकर्षक पोस्टर बनाए जाएंगे; अब तक 40 से अधिक पोस्टर आ चुके हैं जो ग्राफिक कलाकारों और आम महिलाओं ने बनाया है। महिला सांसदो और राजनीतिक दलों के नेताओं से मिलने की योजना है और राष्ट्रीय अभियान समिति का गठन होगा, जिसमें सभी महिला, छात्र-युवा, मानवाधिकार व सांस्कृतिक संगठन जुड़ेंगे।
12 सितंबर को महिला संगठनों ने स्पीकर्स हाल में जोरदार तरीके से अपने अभियान की शुरुआत करते हुए दृढ निश्चय किया कि वे विधेयक को जल्द-से-जल्द पारित करवाएंगी।
इस मौके पर भारतीय राष्ट्रीय महिला फेडरेशन (एनएफआईडब्लू) की राष्ट्रीय महासचिव ऐनी राजा ने अपने वक्तव्य में कहा कि पहली लोकसभा में 4.4 प्रतिशत महिलाएं थी पर 75 वर्ष बाद भी हम 14.4 प्रतिशत तक पहुंच पाए हैं। देश की आधी आबादी को लोअर हाउस से बाहर क्यों रखा गया है। उन्होंने कहा कि 2010 में विधेयक राज्यसभा में पारित हुआ। दो मिनट की दूरी पर लोकसभा है। वहां नहीं भेजा गया। इसके मायने हैं कि सरकार महिला आरक्षण के प्रति प्रतिबद्ध नहीं है। जहां तक आम सहमति की बात है तो सभी प्रमुख दलों ने अपने चुनावी घोषणापत्र में कहा है कि वे बिल को पारित करेंगे। नीतीश जी पहले विरोध में थे पर अब उसे पारित करने की बात कर रहे हैं। उनका कहना है कि बिल पारित हो जाए उसके बाद कोटा का प्रावधान लाया जा सकता है।
अनहद की शबनम हाशमी ने कहा कि पिछले 7 सालों में औरतों के अधिकारों पर जिस किस्म के हमले हुए हैं वैसे उन्होंने अपने जीवन में कभी नहीं देखे। उन्होंने कहा कि यह फासीवाद का हमला है और महिलाओं को इसका मुकाबला 2024 में करना होगा और लोकतंत्र व देश को इन फासीवादी शक्तियों से बचाना होगा। इसलिए यह जरूरी है कि संसद में उनकी आवाज़ बुलंद हो।
एआईडीएमएएम से अबीरामी जोतिस्वरन ने कहा कि आज़ादी के 75 साल बाद भी हम अपने संवैधानिक अधिकार के लिए लड़ रहे हैं और बराबरी की मांग कर रहे हैं, यह कैसी विडम्बना है।
ऐपवा की कविता कृष्णन ने कहा कि आधी आबादी के लिए कानून को 25 साल तक संसद में आने से रोका गया, यह कितनी शर्म की बात है, कैसा क्रूर मज़ाक है। उन्होंने बताया कि योगी आदित्यनाथ 2010 में तो मनुस्मृति का हवाला देते हुए राज्य सभा में खुलकर बोले कि औरतों को कभी आज़ाद नहीं छोड़ा जा सकता; उन्हें पुरुषों के अधीन रखा जाना चाहिये। उन्होंने यहां तक कहा है कि वे सभी भाजपा सांसदो को गोलबन्द करके विधेयक को पारित होने से रोकेंगे। हमें इन ताकतों को शिकस्त देनी है।
एडवा की मरियम धावले ने भी कहा कि असल बात है कि ये लोग डरते हैं कि महिलाएं संसद में आ जाएंगी तो वे जुल्म सहना बंद कर देंगी। आखिर महंगाई का मुद्दा देश का मामला बनता है तो घरेलू हिंसा क्यों नहीं? ये डरते हैं कि औरतें संसद में आ गईं तो वे घरेलू काम का मूल्य मांगेंगी। जिन सवालों पर संसद में चर्चा नहीं होती उनपर प्रश्न करेंगी।
वरिष्ठ पत्रकार भाषा सिंह ने कहा कि शहरी मध्य वर्ग के भीतर यह गलत धारणा सोचे-समझे तरीके से बैठा दी गई है कि आरक्षण बुरी चीज़ है, वह खैरात है। वह महिलाओं को कमज़ोर समझने की बात है। पर आज महिलाओं के हकों और देश के लोकतंत्र को बचाने के लिए महिलाओं को संसद में अपनी स्वतंत्र आवाज़ को बुलंद करना होगा।
इनके अलावा सभा में मुस्लिम विमेन्स फोरम से सईदा हामिद, पहचान से फरीदा खान, वाईडब्लूसीए से पूजा मंडल और डीडब्लूसी से सीमा जोशी ने अपनी बात रखते हुए कहा कि यह महिलाओं की बराबरी की लड़ाई है। लोकतंत्र को बचाने व आधी आबादी को उसमें हिस्सा दिलाने की लड़ाई है, जिसे अंत तक लड़ा जाएगा, यह संयुक्त महिला आंदोलन का वायदा है। अभियान में कई राज्यों की महिलाओं ने स्थानीय स्तर पर कार्यक्रम व प्रदर्शन किये। आगे अभियान जारी रखने के लिए लगातार नई योजनाएं ली जाएंगी।
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