भाजपा ने अपने साम्प्रदायिक एजेंडे के लिए भी किया महिलाओं का इस्तेमाल
पिछले कुछ वर्षों में भाजपा सरकार महिलाओं के हित, सुरक्षा और असल मायने में उनकी आज़ादी के लिए कानून बनाने के लिए आतुर रही है। हाल ही कर्नाटक में चल रहे हिजाब प्रसंग पर कर्नाटक के एक मंत्री वी. सुनील कुमार ने कहा कि भाजपा के लोग उडुपी और और मंगलौर को तालिबान बनते नहीं देख सकते। जिसका यह साफ मतलब है कि वे एक खास समुदाय की महिलाओं के अधिकार और अस्मिता की आज़ादी की बात कर रहे है। जब हिजाब का मुद्दा आग पकड़ रहा था तभी उत्तर प्रदेश चुनाव के रैली के दौरान भाजपा के स्टार प्रचारक और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सहारनपुर जिले में “द मुस्लिम वुमन (प्रोटेक्शन ऑफ राइट ऑन मैरेज) ऐक्ट, 2019” की बात करते हुए कहा कि उन्होनें मुस्लिम महिलाओं को तीन तलाक से आज़ादी दिला दी है और साथ ही यह कानून उन्हें सुरक्षित महसूस करवा रहा है। इसके साथ उन्होंने यह दावा भी किया कि मुस्लिम औरतें उनके लिए ज़रूर वोट करेंगी। मुस्लिम महिलायें किसे वोट करती है और किसे नहीं यह तो बाद का सवाल है, लेकिन क्या वाकई भाजपा मुस्लिम महिलाओं के हित में सोच रही है? क्या सच में भाजपा सरकार के लिए मुस्लिम महिलाओं की अस्मिता का सवाल इतना महत्वपूर्ण है?
वर्ष 2019 में भाजपा की सरकार दुबारा केंद्र में आने के बाद से मुस्लिम महिलाओं को आज़ादी देने और उनकी अस्मिता को बचाने की पहल को बहुत बढ़ा-चढ़ाकर राष्ट्रीय स्तर का विषय बनाया गया है। फिर चाहे वह वर्ष 2019 का तीन तलाक कानून हो या फिर फिलहाल में उनको हिजाब और बुर्के से मुक्ति दिलाने की कोशिशें। लेकिन राजनीतिक और सामाजिक स्तर पर इस अस्मिता को एक संगठित तरीके से लगातार से ठेस पहुंचाने की कोशिशें होती रहती हैं। वर्ष 2019 में जब पूरे देश में CAA कानून का विरोध हो रहा था और मुस्लिम महिलाएँ सड़कों पर नागरिकता पर उठे सवालों का प्रतिरोध कर रही थी, तब बीजेपी के कई नेताओं ने उन्हें “रेप” की धमकी दी और शाहीन बाग में बैठी महिलाओं को 500 रुपये प्रतिदिन पर बिकाऊ काम करने वाली भी कहा। सरकार की मंशा हमेशा ऐसी परिस्थितियों में संदेहपूर्ण रही है। सरकार को यदि वाकई मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों के बारे में इतनी ही चिंता होती तो हिजाब प्रकरण पर सरकार की तरफ से ठोस कार्यवाई की जानी चाहिए थी लेकिन भगवा शॉल में लिपटे छात्रों का प्रायोजित का समूह बुर्का/हिजाब पहने महिलाओं को आसानी से परेशान करता रहा और उन पर कोई जांच या कार्यवाही नहीं की गई।
इसी वर्ष की शुरुआत में जब हम नया साल मना रहे थे तब कुछ मुस्लिम महिलाओं को “सुल्ली डील्स” नामक फोन एप पर नीलम किया जा रहा था, उनकी बोली लगाई जा रही थी। तब भी इस घटना को रोकने और इस पर संज्ञान में लेकर कार्यवाई करने वाली संस्थान लाचार नजर आईं थी। बाद में जन दबाव में आकर कुछ ठोस कदम उठाए गए। इससे पहले भी 2021 में ईद के दौरान “बुल्ली बाई” नाम से एप बनाकर मुस्लिम महिलाओं के ‘बेचने’, ‘नीलाम’ करने की कोशिश की गई थी। मुस्लिम महिलाओं के अस्मिता को लेकर लगातार सवाल उठाने वाली यह सरकार 2020 में “जनसंख्या कोड बिल” लेकर आई और उसके अहमियत को समझाने के लिए मुस्लिम महिलाओं और उनकी संस्कृति का सहारा लिया। सिंगरौली के विधायक राम लालू वैषया ने उत्तर प्रदेश में कहा कि “हिंदुओं की नसबंदी करवा कर दूसरों को आज़ाद नहीं छोड़ा जा सकता।” इसी विषय पर 2019 में बलिया जिले के विधायक ने कहा था कि मुस्लिम आदमी “50 औरतें रखते हैं और 150 बच्चे पैदा करते हैं जो कि पशुओं की प्रवृत्ति है।”
यह टिप्पणी या बाकी की सभी टिप्पणियों का एक विशेष पैटर्न है, जिसमें मुस्लिम महिलाओं के शरीर को केंद्र में रख कर सांप्रदायिक विचार फैलाने की कोशिश की जाती है और साथ ही उसी शरीर का इस्तेमाल कर कानून के जरिए “महिला अधिकार” की बात करते हुए खुद को उन्हें मुक्त करने वाले ‘मसीहा का ताज’ अपने सिर पर लेना होता है। अगर हम महिला कानून की बात करें तो यह राज्य-सत्ता अपने हिन्दुत्ववादी एजेंडा के तहत महिला को देखने के दो खांचे बनाता है। एक जो “आदर्शवादी” है, जो उसके हिन्दुत्ववादी सिद्धांत और एजेंडा में फिट बैठती है और दूसरी जो “अन्य” है। और क्योंकि इस राष्ट्र का चरित्र “पितृसत्तात्मक” और “हिंदुवादी” है, इसलिए वह लगातार “अन्य” के श्रेणी में विभाजित महिला पर अपना वर्चस्व स्थापित कर उसे दूसरी ओर लाने की कोशिश करता है, जो हिन्दू राष्ट्र की कल्पना में फिट बैठता है। इस प्रक्रिया में वह नए कानून इस दावे के साथ बनाता है कि वह “अन्य” श्रेणी की महिला को उनके रूढ़िवादी प्रथाओं से मुक्त कर रहा, उन्हें किसी से बचा रहा है लेकिन असल में यह राज्य-सत्ता का पौरुष स्थापित करने का एक तरीका होता है। जिससे वह बता सकता है कि वह सर्वश्रेष्ठ है, और सबकुछ उसी के हाथों में है। तथा “अन्य” श्रेणी वाली स्त्री कई और बंधनों के साथ नए कानूनों में बंधती जाती है क्योंकि किसी भी प्रक्रिया में उसका कोई हाथ नहीं होता। उसकी एजेंसी को खत्म कर दिया जाता है। “तीन तलाक” का मुद्दा हो या “हिजाब” का, मुस्लिम महिलाओं को हमेशा यही कहा गया कि उन्हें सुरक्षित किया जा रहा है। जबकि वही राज्य-सत्ता और उसी सरकार के लोग उसे ज़लील करने के लिए उसके शरीर, उसके संस्कृति और अपने ताकतों का प्रयोग करते रहे हैं। ऐसे में कौन किसका हितैषी है या कौन अपना एजेंडा साध रहा है हमें इसे समझना होगा। यहाँ गौर करने की एक और बात है कि जिसके बारे में नारीवादी विचारधारा बेहद जोर देती है कि हर जाति, वर्ग, या धर्म से आने वाली महिलाओं के प्रश्न अलग है, उनके अनुभव अलग हैं, उनका इतिहास और भौतिक परिदृश्य अलग है। ऐसे में महिलाओं के प्रश्न या कानून के मुद्दे को एक ही दृष्टि से देखना गलत होगा। लेकिन यह सरकार बार-बार धर्म-निरपेक्षता को मुद्दा बना कर मुस्लिम महिलाओं के प्रश्न को हिन्दू महिलाओं के तुलना में खड़ा कर देती है।
हालांकि, इन सभी विषयों को अगर साथ देखें तो एक प्रश्न पर हमेशा पर्दा रहता है कि क्या जिसे यह हिंदुवादी राष्ट्र या राज्य “आदर्शवादी” या “मुक्त” स्त्री कह कर मुस्लिम महिलाओं को आज़ाद होने की दलीलें दे रहा है, क्या वो वाकई में मुक्त है? क्या उसके कोई सवाल नहीं? हिंदुवादी राष्ट्र उस स्त्री को कैसे देखता है? वह उसका इस्तेमाल कैसे करता है? सबसे पहले इस “आदर्शवादी” महिला के श्रेणी को परिभाषित करना मुश्किल है क्योंकि यह एक काल्पनिक अवधारणा है। लेकिन अगर हम इस हिन्दुत्ववादी सरकार द्वारा बनाए गए “मुक्त” महिला के सवाल को उठाए तो पाएंगे कि वो भी इस सरकार द्वारा त्रस्त है। बात कि जाए अगर “मैरिटल रेप” की जिसके खिलाफ कार्यवाही के लिए कई सालों से महिलाओं का जोर रहा तो पाएंगे कि कैसे इस राज्य ने उसकी बातों को नज़रअंदाज़ किया है। हाल में स्मृति ईरानी ने राज्य सभा के एक सत्र में कहा कि “हर शादी को बर्बर शादी करार देना गलत है और हर आदमी को बलात्कारी कहना गलत है।” बेशक हर आदमी को बलात्कारी कहना गलत हो सकता है लेकिन इस पूरे बहस में महिलाओं के अनुभवों को किस तर्ज पर नकार कर उन्हें शांत कर दिया जा रहा है? क्या इस मांग में महिला मुक्ति का प्रश्न नहीं है? इसी तरह अगर हम “लव जिहाद” की बात करें, जिसे उत्तर प्रदेश के हालिया विधान सभा चुनाव में एक घोषणा पत्र में जगह दी गई है तो देखेंगे की कैसे एक हिन्दू महिला की प्यार करने की आजादी और उनकी आवाज़ का दम घोंट कर उसे “बचाने” की कोशिश की जा रही है? इसी “रक्षक” चरित्र के साथ बीजेपी कानून को हथियार बना कर “एंटी कन्वर्शन लॉ” ले आया। इस कानून से एक खास कौम की महिलाओं पर पकड़ बना कर उसे “अन्य” के खेमे में ना जाने की ज़ोरदार कोशिश करता है। हिन्दुत्ववादी राष्ट्र यहाँ भी महिलाओं के शरीर को “ताकत” स्थापित करने का हथियार बनाता है। इतना ही नहीं आए दिन नेता और मंत्री कभी महिलाओं के कपड़ों पर तो कभी उनकी जाति पर टिप्पणी देते रहते हैं, जिससे यह साबित होता है कि उनके विचार नारी मुक्ति कानून या महिला के हित में सोचने का तो नहीं है बल्कि इन कानूनों को हथियार बना कर हिन्दुत्व के एजेंडे को आगे बढ़ाने का है।
इस राज्य की पितृसत्तामक और हिन्दुत्ववादी विचारधारा यह स्पष्ट करती है कि वह महिलाओं के हित में नहीं बल्कि उनके विरोध में है। क्योंकि यह सरकार जिस नारी मुक्ति के विषय पर बात करती है, उसका विचार मनुवादी विचारधारा से आता है। हमें यह समझना होगा कि कैसे यह सरकार एक कौम की महिला को दूसरे के समक्ष खड़ा कर रही है और सांप्रदायिक भावना को हवा दे रही है। ऐसे समय में हिजाब प्रकरण पर नारीवादियों को इस “हिंदुवादी” ताकत के खिलाफ एक ठोस कदम उठाने की जरूरत है क्योंकि फिर चाहे हिजाब हो या लव जिहाद यह हमें उस राष्ट्र की ओर बढ़ाएगा, जहाँ पितृसत्तात्मक राज्य का वर्चस्व रहेगा और औरतों का इस्तेमाल अपना पौरुष और ताकत दिखाने के लिए होता रहेगा। और साथ ही भाजपा ऐसे ही ऐतिहासिक गलतियों को सुधारने का दावा कर स्त्री मुक्ति के आड़ में सांप्रदायिकता के बीज बोती रहेगी।
(सोनम कुमारी छात्र-एक्टिविस्ट हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)
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