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बलिया पेपर लीक मामला: ज़मानत पर रिहा पत्रकारों का जगह-जगह स्वागत, लेकिन लड़ाई अभी बाक़ी है

"डबल इंजन की सरकार पत्रकारों को लाठी के जोर पर हांकने की हर कोशिश में जुटी हुई है। ताजा घटनाक्रम पर गौर किया जाए तो कानपुर में पुलिस द्वारा पत्रकारों को नंगाकर उनका वीडियो जारी करना यह बताता है कि पत्रकारिता की आजादी और पत्रकारों की सुरक्षा के सवाल पर अभी लंबी लड़ाई बाकी है।"
ballia journalist
रिहाई के बाद स्वागत करते लोग

उत्तर प्रदेश के बलिया जिले में पेपर लीक मामले में पत्रकारों ने अपने साथियों की रिहाई के लिए जिस हिम्मत और हौसले से अभूतपूर्व आंदोलन खड़ा किया उससे सिर्फ पुलिस प्रशासन ही नहीं, योगी सरकार को भी घुटने टेकने पर मजबूर होना पड़ा। "अमर उजाला" के वरिष्ठ पत्रकार अजित कुमार ओझा, दिग्विजय सिंह के अलावा राष्ट्रीय सहारा के मनोज गुप्ता की रिहाई के लिए एक तरफ पत्रकार संघर्ष कर रहे थे तो दूसरी तरफ शासन-प्रशासन तंत्र हर क़दम पर इनके आंदोलन को कुचलने का षड्यंत्र रचता रहा। बागी बलिया के पत्रकारों ने कभी पीएम को खून से खत लिखे तो कभी ताली-थाली बजाकर अफसरों के नाक में दम किया। नतीजा, पुलिस को न्याय करना पड़ा और तीनों पत्रकारों के खिलाफ लगाई गई तमाम फर्जी संगीन धाराएं हटानी पड़ी। इस दौर में बलिया के पत्रकारों का यह आंदोलन महान जीत के तौर पर याद किया जाएगा।

यूपी बोर्ड का अंग्रेजी का पेपर 30मार्च 2022 को लीक हुआ था, जिसके चलते 24 जिलों में 12वीं कक्षा की अंग्रेजी की परीक्षा रद्द करनी पड़ी थी। इस मामले में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने कड़ी कार्रवाई के आदेश दिए थे। हैरत की बात यह है कि पुलिस प्रशासन के लिए माफिया को पकड़ने से ज्यादा पत्रकारों की गिरफ्तारी ज्यादा आसान लगी। डीएम-एसपी के निर्देश पर बलिया पुलिस ने वरिष्ठ पत्रकार अजित कुमार ओझा, दिग्विजय सिंह के अलावा राष्ट्रीय सहारा के मनोज गुप्ता के माथे पर तमाम फर्जी धाराएं लाद दी और आनन-फानन में जेल भेज दिया था। इस मामले में जब योगी सरकार घिरने लगी और देश भर में किरकिरी होने लगी तो तीनों पत्रकारों के माथे पर मढ़ी गईं सभी संगीन धाराएं तो हटा ली गईं, लेकिन परीक्षा अधिनियम और 66 आईटी एक्ट अभी तक लगा हुआ है। पेपर लीक मामले की तफ्तीश चल रही है और इस प्रकरण में 50 से ज्यादा लोग गिरफ्तार हो चुके हैं, जिसमें मास्टर माइंड कहे जाने वाले निर्भय नारायण सिंह, जिला विद्यालय निरीक्षक बृजेश कुमार मिश्रा आदि शामिल हैं।

पेपर लीक मामले में गिरफ्तार वरिष्ठ पत्रकार अजीत ओझा, दिग्विजय सिंह और मनोज गुप्ता की जमानत 25 अप्रैल 2022 को ही स्वीकार हो गई थी। कानूनी औपचारिकताएं पूरी न हो पाने की वजह से तीनों पत्रकारों को एक रात और जेल में गुजारनी पड़ी। मंगलवार को बलिया से बड़ी संख्या में पत्रकार आजमगढ़ पहुंचे। इसी जिला जेल में तीनों पत्रकार बंद थे। सुबह से ही आजमगढ़ जिला कारागार के सामने पत्रकारों का हुजूम जुट गया। संयुक्त पत्रकार संघर्ष मोर्चा से जुड़े पत्रकार हाथों में माला लेकर जेल के बाहर उनके छूटने का घंटों इंतजार करते रहे। जैसे ही पत्रकारों को रिहा किया गया उनके साथियों ने उन्हें फूल मालाओं से लाद दिया और उन्हें सीने से लगा लिया। इस दौरा माहौल काफी भावभीना रहा। रिहाई के समय "अमर उजाला" के वाराणसी संस्करण के संपादक वीरेंद्र आर्य भी मौजूद थे। जेल से बाहर निकलते ही मीडियाकर्मियों ने पत्रकार एकता जिंदाबाद और पुलिस प्रशासन-मुर्दाबाद के नारे लगाने शुरू कर दिए। रिहाई के बाद तीनों पत्रकारों का आजमगढ़, मऊ के अलावा बलिया के नदौली बार्डर, रसड़ा, नगरा बाजार, गड़वार आदि स्थानों पर स्वागत किया गया।

जेल से छूटने के बाद वरिष्ठ पत्रकार अजित कुमार ओझा और दिग्विजय सिंह ने अपने साथियों का आभार व्यक्त किया। न्यूज़क्लिक से बातचीत में कहा, "चौथे खंभे पर हो रहे जुल्म-ज्यादती के खिलाफ पत्रकारों, प्रबुद्ध नागरिकों और "बलिया बंद" में सहयोग देने वाले व्यापारियों का हम तहे दिल से आभार व्यक्त करते हैं। हम बलिया की जनता को भरोसा दिलाना चाहते हैं कि उनके हितों के लिए हमारी कलम न पहले रुकी थी और न आगे रुकेगी। बेईमान अफसरों की काली कारगुजारियों का पर्दाफाश करने के लिए हम नंगा सच लिखते रहेंगे।"

पत्रकार अजित और दिग्विजय ने बलिया के डीएम-कलेक्टर को आड़े हाथ लेते हुए उनसे अपने अपमान का जवाब मांगा और कहा, "इस मामले में तीनों साथियों की प्रतिष्ठा धूमिल हुई है। हमें बेवजह 28 दिनों तक जेल में रहना पड़ा और यातनाएं सहनी पड़ी। हम अपने परिवार और बच्चों से दूर रहे। जेल में हमें किसी से मिलने तक नहीं दिया गया। बेगुनाह होते हुए हम सलाखों में कैद रहे। जनता और पत्रकार साथियों के सहयोग से ही हम बाहर निकल सके। सच परेशान हो सकता है, लेकिन पराजित नहीं। डीएम-एसपी का निलंबन हो। दोनों अफसरों के खिलाफ कार्रवाई होने तक हम चैन से नहीं बैठेंगे। 30 अप्रैल को जेल भरो आंदोलन होगा, जिसमें समूचे पूर्वांचल के पत्रकार और प्रबुद्धजन शामिल होंगे।

कैसे हुई ज़मानत?

उत्तर प्रदेश माध्यमिक शिक्षा बोर्ड के अंग्रेजी के पेपर लीक मामले में जिला न्यायाधीश अहमद अंसारी ने जर्नलिस्ट अजीत कुमार ओझा और अन्य पत्रकारों की याचिका पर सुनवाई करते हुए 25 अप्रैल को जमानत पर उन्हें रिहा करने का आदेश दिया। सिटी मजिस्ट्रेट प्रदीप कुमार की शिकायत पर पत्रकार अजीत कुमार ओझा, दिग्विजय सिंह और मनोज गुप्ता के खिलाफ बलिया और नागरा थाने में फर्जी रिपोर्ट दर्ज कराई गई थी। इस मामले में पुलिस ने 52 लोगों को गिरफ्तार किया था। इसमें बलिया जिला स्कूल निरीक्षक (डीआईओएस) ब्रजेश मिश्रा भी शामिल थे। जांच-पड़ताल की गई तो पत्रकारों के खिलाफ दर्ज सभी संगीन आरोप फर्जी पाए गए।

पत्रकारों पर पुलिसिया ज़ुल्म क्यों?

पेपर लीक मामले में बलिया प्रशासन ने जानबूझकर और योजनाबद्ध ढंग से अपना ठीकरा पत्रकारों से सिर पर फोड़ने की कोशिश की। भ्रष्ट अफसरों के समझाने पर योगी सरकार भी पत्रकारों को सबक सिखाने के मूड में थी। उन पर लादे गए फर्जी केस हटाने के लिए न सरकार तैयार थी और न ही पुलिस प्रशासन। लेकिन बलिया के पत्रकारों का संकल्प इतना मजबूत था कि वो झुकने के लिए तैयार नहीं हुए। ग्रामीण पत्रकार एसोसिएशन के प्रदेश अध्यक्ष सौरभ कुमार की पहल पर समूचे उत्तर प्रदेश के पत्रकारों ने जिला मुख्यालयों और तहसीलों पर न सिर्फ प्रदर्शन किए, बल्कि राज्यपाल व मुख्यमंत्री को संबोधित ज्ञापन भी सौंपे। बलिया बंद सफल होने के बाद सरकार और प्रशासन ने घुटने टेक दिए।

दरअसल, जनांदोलन खड़ा होने के बावजूद तीनों निर्दोष पत्रकारों कि रिहाई के मामले में योगी सरकार की इमेज चौथे खंभे के प्रति उपेक्षापूर्ण दृष्टि रखने वाली की बनती जा रही थी। सीएम योगी की छवि पर भी बट्टा लगने लगा था और भाजपा सरकार की कमजोरी परिलक्षित होने लगी थी। पेपर लीक मामले में पत्रकारों की रिहाई को लेकर छिड़ा आंदोलन शुरुआत में बलिया तक सिमटा हुआ था, लेकिन बीतते समय के साथ इसका विस्तार देशव्यापी आंदोलन के तौर पर हो गया। इस मामले में सियासी दलों के अंतर्विरोध भी धुंधले पड़ गए। नतीजा पत्रकारों का आंदोलन सशक्त होता चला गया।

बैकफुट पर कैसे आया प्रशासन?

बलिया के निर्दोष पत्रकारों की रिहाई के लिए जिले की जनता ने भी कम सहयोग नहीं दिया। 16 अप्रैल 2022 को अखबारनवीसों के साथ हजारों आम लोगों का हुजूम सड़क पर उतरा तो नौकरशाही की नींद उड़ गई। पुलिस-प्रशासन के अफसर व्यापारियों से अपने प्रतिष्ठान खोलने का अनुरोध करते रहे, लेकिन लोगों ने उनकी एक नहीं सुनी। पत्रकारों की रिहाई की मांग को लेकर जिले भर में ऐतिहासिक बंदी रही। पुलिस-प्रशासन को लेकर लोगों में इस कदर गुस्सा था कि चट्टी-चौराहों की दुकानें भी पूरी तरह बंद हैं।

बलिया के वरिष्ठ पत्रकार मकसूदन सिंह कहते हैं, "बलिया में नकल माफिया व जिला प्रशासन के गठजोड़ ने परीक्षा केंद्र निर्धारण में टॉपर देने वाले स्कूल भी काट दिए जबकि शासन की ओर से वित्तविहीन स्कूलों को सबसे कम अंक निर्धारण का प्रावधान किया गया था। इसके बावजूद सत्यापन करने के दौरान जिलाधिकारी की अध्यक्षता वाली समिति ने नकल के लिए बदनाम स्कूलों को परीक्षा केंद्र के लिए पास कर दिया। शासन की ओर से परीक्षा केंद्र निर्धारण के लिए आधारभूत सुविधाओं पर नंबर देने का प्रावधान किया गया था।"

"आधारभूत सुविधाओं पर ज्यादा अंक प्राप्त करने वाले विद्यालय को ही परीक्षा केंद्र बनाने की संस्तुति करनी थी, लेकिन जिले में जिलाधिकारी की अध्यक्षता में बनी कमेटी ने खूब धांधली की। इससे पहले लगातार दो वर्षों तक 10वीं की बोर्ड परीक्षा में टॉपर देने वाले स्कूल तिलेश्वरी देवी बालिका उच्चतर माध्यमिक विद्यालय गौरा पतोई और जीएस हायर सेकेंडरी स्कूल भीमपुरा के दावे खारिज कर दिए गए, जबकि संसाधन पूरे होने की वजह से वह हमेशा परीक्षा केंद्र बनते थे। इतना ही नहीं कई वित्तविहीन स्कूल तो पहली बार केंद्र बन गए जबकि अंकों के आधार पर पूर्व के बने केंद्र की अपेक्षा इनके नंबर अधिक नहीं हो पाते।"

क्यों नाराज है चौथा खंभा?

बलिया के तीनों पत्रकारों का आरोप है कि उन्हें फर्जी मामले फंसाने में कलेक्टर इंद्र विक्रम सिंह और पुलिस कप्तान राजकरन नय्यर की भूमिका अहम रही। ग्रामीण पत्रकार एसोसिएशन के वाराणसी के जिलाध्यक्ष सीबी तिवारी राजकुमार कहते हैं, " पेपर लीक मामले में शिक्षा माफिया और ठेके पर नकल कराने वालों के खिलाफ कार्रवाई होनी चाहिए थी, न कि पत्रकारों को जेल भेजने की। बलिया के पत्रकार अभी चुप नहीं बैठेंगे। इन्हें खदेड़कर ही दम लेंगे।"

बलिया में पुलिस प्रशासन से आर-आर की लड़ाई लड़ने के लिए संयुक्त पत्रकार संघर्ष मोर्चा का गठन किया है। आंदोलन को गतिशील बनाने को एक कोर कमेटी गठित की गई है, जिसमें ग्रापए के प्रदेश अध्यक्ष सौरभ कुमार के अलावा भारतीय राष्ट्रीय पत्रकार महासंघ के मधुसूदन सिंह और वरिष्ठ पत्रकार सुधीर कुमार ओझा, ओंकार सिंह, अखिलानंद तिवारी, हरिनारायण उर्फ रंजीत मिश्र, सौरभ संदीप सिंह, करुणा सिन्धु सिंह, अजय कुमार भारती, अनूप हेमकर, संजय पांडेय, असगर खां, मुकेश मिश्र आदि को शामिल किया गया है। वरिष्ठ पत्रकार मकसूदन सिंह कहते हैं, "पेपर लीक मामले में प्रशासन का रवैया गुंडों जैसा रहा है। बलिया बागियों की धरती है। जब भी यहां से कोई आंदोलन छेड़ा जाता है, सत्ताएं हिलने लगती हैं। संगीनों के बल पर प्रशासन अपनी नाकमियों को छुपाने की कोशिश में है। इसकी जितनी भी निंदा की जाए वह कम है। योगी सरकार को चाहिए कि पेपर लीक मामले में नकल माफिया पर नकेल कसने के साथ पत्रकारों का उत्पीड़न करने वाले कलेक्टर को तत्काल निलंबत करे।"

मकसूदन सिंह यह भी कहते हैं, "वरिष्ठ पत्रकार अजीत कुमार ओझा ने जनहित में ही जिला विद्यालय निरीक्षक और डीएम को वायरल पेपर भेजे थे। दोनों पत्रकारों का मकसद छात्रहित में नकल और नकल माफिया पर अंकुश लगवाना था। फिर भी, सरकारी आदेश को दरकिनार करते हुए तीन पत्रकारों को पकड़कर जेल में डाल दिया गया। यह स्थिति तब है जब पत्रकार अजित ने डीएम और तत्कालीन जिला विद्यालय निरीक्षक बृजेश मिश्र को कार्रवाई के लिए व्हाट्सएप संदेश पहले ही भेज दिया था। बलिया के डीएम इंद्र विक्रम सिंह ने खुद अमर उजाला संवाददाता अजित कुमार ओझा से फोन कर वायरल पेपर की मांग की थी। प्रशासन ने अंग्रेजी पेपर लीक होने की सूचना शासन को भेजी तो संस्कृत के लीक पेपर के मामले को क्यों हजम कर गए? "

प्रशासन की मदद अपराध कैसे?

आंदोलन के दौरान "अमर उजाला" ने पुलिस और प्रशासनिक अफसरों पर आड़े हाथ लेते हुए जिला प्रशासन पर कई सवाल खड़े किए। अखबार ने यहां तक लिखा, "बलिया में यूपी बोर्ड परीक्षा के पेपर आउट होना नई बात नहीं हैं। यहां तो करीब-करीब हर साल ऐसा होता है। सामूहिक नकल और परीक्षा केंद्रों के बाहर कॉपियों का लिखा जाना भी आम बात है। साल 2020 में इंटर गणित, भौतिक विज्ञान, हाईस्कूल गणित और अंग्रेजी के पेपर आउट हुए थे। वर्ष 2019 में इंटर भौतिक विज्ञान, जीव विज्ञान, गणित और हाईस्कूल संस्कृत का पेपर आउट हुआ था। यह सब नकल माफिया और शिक्षाधिकारियों की मिलीभगत से होता है। यही वजह है कि जब भी कोई इन्हें बेनकाब करने की कोशिश करता है तो प्रशासन उल्टे शिकायत करने वालों पर ही कार्रवाई और सख्ती करने लगता है। इस बार भी ऐसा ही हुआ है। प्रशासन ने अपनी गर्दन बचाने के लिए ऐसी कहानी गढ़ी कि नकल माफिया की करतूत उजागर करने वालों को ही कठघरे में खड़ा कर दिया। सवाल है, अगर पत्रकार नकल माफिया से मिले होते, तो प्रशासन को पर्चा लीक होने की सूचना क्यों देते? या प्रशासन को सूचना देना ही अपराध है?"

आंचलिक पत्रकारों की जीत

ग्रामीण पत्रकार एसोसिएशन के प्रदेश अध्यक्ष सौरभ कुमार ने "न्यूज़क्लिक" से कहा, "जिस तरह से निर्दोष पत्रकारों के माथे पर फर्जी धाराएं चस्पा की गई थीं उन्हें हटाया जाना अपने आप में सुखद है। इसके पहले पत्रकारों के जितने भी आंदोलन हुए उसमें शासन-प्रशासन ने कभी हार नहीं मानी थी। योगी सरकार से हम मांग करते हैं कि पत्रकारों के खिलाफ कोई भी केस दर्ज करने से पहले सरकार से अनुमति ली जाए। नंगा सच उजागर करने और सरकार से सवाल करने वाले पत्रकारों का गला घोंटने के लिए जिस तरह का खेल चल रह है वो शर्मनाक है। बलिया प्रशासन को अब अपनी सीमाओं का अंदाज़ा अब लग गया होगा।"

वरिष्ठ पत्रकार विनय मौर्य कहते हैं, "पुलिस प्रशासन की कारगुजारियों से बलिया की जनता अभी भी गुस्से में है। जनता निर्दोष पत्रकारों पर हर जुल्म-ज्यादती करने वालों के खिलाफ सख्त कार्रवाई चाहती है। पत्रकारों का आंदोलन अभी खत्म नहीं हुआ है, लेकिन वह जितना लंबा चलेगा, शासन-प्रशासन की छीछालेदर होती रहेगी। बेहतर होगा कि जिन अफसरों ने पुलिस पर दबाल बनाकर फर्जी मामले दर्ज कराए, उन्हें बलिया से विदा कर दिया जाना ही उचित होगा। अन्यथा योगी सरकार इमेज को काफ़ी नुक़सान पहुंचेगा।"

सुरक्षा के सवाल पर लड़ाई अभी बाक़ी

काशी पत्रकार संघ से पूर्व अध्यक्ष प्रदीप श्रीवास्तव को लगता है कि जब तक पत्रकारिता को जनसमर्थन नहीं मिलेगा तब तक न तो पत्रकारिता की दिशा ठीक होगी और न ही पत्रकारों की दशा। वह साफगोई से कहते हैं, "पत्रकारिता जगत से जुड़े हुए जो लोग भी इस भ्रम के शिकार हैं कि सत्ता के स्तुतिगान से मान-सम्मान, प्रतिष्ठा मिलेगी, उनकी यह गलतफहमी बलिया की घटना ने साफ कर दी है। दरअसल, पत्रकारिता जनता के सवालों के पैरोकारी का दूसरा नाम है। जब कभी भी जनता से पत्रकार और पत्रकारिता का रिश्ता टूटा है तब-तब संकट का दौर शुरु हुआ है।"

"बलिया की घटना में सत्ता को घुटने पर लाने के लिए एक ओर जहां पत्रकारों की दिलेरी और ईमानदारी की भूमिका रही, वहीं दूसरी तरफ उनके पक्ष में लामबंद होने वाली जनता का रोल अहम रहा। बात अभी खत्म नहीं हुई है। मूल सवाल जस का तस है। डबल इंजन की सरकार पत्रकारों को लाठी के जोर पर हांकने की हर कोशिश में जुटी हुई है। ताजा घटनाक्रम पर गौर किया जाए तो कानपुर में पुलिस द्वारा पत्रकारों को नंगाकर उनका वीडियो जारी करना यह बताता है कि पत्रकारिता की आजादी और पत्रकारों की सुरक्षा के सवाल पर अभी लंबी लड़ाई बाकी है।"

प्रदीप यह भी कहते हैं, "पत्रकारों पर मुकदमा उठाने के लिए योगी सरकार भले ही विवश हो गई, लेकिन जिन सवालों को पत्रकारों ने उठाया था उन पर अभी तक कोई कार्रवाई नहीं हुई है। मसलन, जिन अफसरों ने दबाव बनाकर फर्जी मामले दर्ज कराए वो अभी शान से घूम रहे हैं। उनसे अभी तक कोई जवाब तलब नहीं हुआ है। साथ ही सरकार की तरफ से नकल माफिया के खिलाफ कार्रवाई का कोई ठोस प्रारूप सामने देखने को नहीं मिला है। कुल मिलाकर यह घटनाक्रम पत्रकारों और पत्रकारिता के लिए एक मजबूत उम्मीद जगाता है कि मौजूदा सत्ता व व्यवस्था के खिलाफ पत्रकार एवं जनता के गठजोड़ से ही लोकतंत्र का चौथा खंभा वास्तवित अर्थों में जिंदा रह पाएगा।"

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