Skip to main content
xआप एक स्वतंत्र और सवाल पूछने वाले मीडिया के हक़दार हैं। हमें आप जैसे पाठक चाहिए। स्वतंत्र और बेबाक मीडिया का समर्थन करें।

बनारस: फूल उत्पादक किसानों के सामने संकट की स्थिति!

बनारस के हज़ारों फूल उत्पादक इन दिनों मुश्किल का सामना कर रहे हैं। असमय बारिश के चलते फूलों में बड़े पैमाने पर कीड़े लग गए हैं। एक तरफ़ खेतों में कीटों का हमला है तो दूसरी ओर बाज़ार में मंदी की समस्या।
flower

"फूलों की कोई क़ीमत नहीं है। नवरात्र फीका रहा और दिवाली आई तो वह भी सूनी रही। फूलों की माला की कीमत लगी तो एक रुपया भी नहीं मिला। फूल देखने में भले ही सुंदर लगते हों, लेकिन हमारे लिए तो खेत में खिला हुआ फूल किसी कांटे से कम नहीं।" सुबह-सुबह अपने कुंद के फूल के खेत में काम करते हुए वंदना पांडेय ज़रा खीझ कर बोलीं।

वंदना महज़ 18 साल की एक मामूली परिवार की लड़की है जो अपने पिता के निधन के बाद फूलों की खेती से अपने परिवार का भरण-पोषण कर रही है। बनारस के पंचकोसी रोड के नजदीक एक वीरान सी बस्ती में रहने वाली वंदना 12वीं की छात्रा है। बीमारी के चलते उसके पिता का इंतकाल हुआ तो परिवार की आजीविका चलाने की जिम्मेदारी इसी लड़की के ऊपर आ गई। दो छोटी बहन और एक भाई की पढ़ाई के अलावा घर का खर्च चलाना मुश्किल हो गया तो वंदना ने फूलों की खेती में अपना भविष्य तलाशा। उसने किसी तरह से पैसे का इंतजाम किया और दीनपुर गांव में 11 हज़ार रुपये में लीज पर ज़मीन ली। इस ज़मीन में कुंद के फूल पहले से ही लगे थे।

 वंदना

वंदना ने कुंद के फूल की खेती का गुर खुद से सीखा। खेत में उतरी तो दवा और खाद छिड़कने का हुनर आ गया। पिछले एक साल से वह हर सुबह अपनी साइकिल से कुंद फूलों के बगीचे में पहुंच जाती है। तीन-चार घंटे वह खेतों में फूलों की तोड़ाई, दवा का छिड़काव, सिंचाई में जुटी रहती है। घर लौटने के बाद वह पढ़ने चली जाती है। वंदना की मां माला बनाती है और पड़ोसियों के जरिये इंग्लिशिया लाइन की मंडी में भेजती है।

दीनापुर गांव में कुंद के बगीचे में फूल तोड़ रही वंदना से मुलाकात हुई तो उसने मायूसी से कहा, "हमें उम्मीद थी कि दिवाली में अच्छा मुनाफा होगा, लेकिन हमारा त्योहार अच्छा नहीं गुज़रा। बाजार पूरी तरह ठंडा रहा। दिवाली सीजन में हज़ार-दो हज़ार रुपये की कमाई भी नहीं हो सकी। फूलों की खेती करने वालों के लिए यह साल बहुत बुरा गुज़र रहा है। पिछले साल अच्छी कमाई हुई थी। अक्टूबर में हुई पिछाड़ की बारिश के चलते ज़्यादातर फूल काले पड़ गए। कुंद के पेड़ों में रोग लग गया। फूलों को बचाने के लिए कई बार दवाएं छिड़कनी पड़ी। अभी स्थिति ऐसे ही चल रही है। इस बार तो ज़मीन के लीज का पैसा निकाल पाना मुहाल हो गया है।"

फूलों से मिली सिर्फ मायूसी!

वंदना पांडेय कहती हैं, कुंद की माला आमतौर पर 150 रुपये सैकड़ा बिकती है। दिसंबर महीने में शादी-विवाह का सीजन शुरू तो जयमाल बनाने के लिए कुंद की डिमांड बढ़ जाया करती है, तब शायद हमारे फूलों की डिमांड बढ़ेगी। फिलहाल हम मुश्किल दौर से गुज़र रहे हैं, लेकिन हार नहीं मानेंगे।" फूलों की खेती का आइडिया कैसे आया? यह पूछने पर वंदना कहती है, "पिता की मौत के बाद हमारे पास कोई काम नहीं था। हमने अपनी मां को फूलों की खेती करने की सलाह दी तो वह अवाक रह गईं। उन्होंने कहा कि तुम लड़की हो। अकेले खेतों में काम कैसे करोगी। हमने जिद की और मां को भरोसा दिलाया कि फूलों की खेती से ही हमारा भविष्य संवर सकता है। अब मैं जितना कमाती हूं, उससे घर का खर्च चल जाता है। मैं और मेरे भाई-बहन भी पढ़ लेते हैं।"

बनारस का दीनापुर ऐसा गांव है जहां अधसंख्य लोग फूलों की खेती करते हैं। कोई कुंद, गुलाब, बेला उगाता है तो कोई गेंदा और गुड़हल। दीनापुर के चंद्रदेव से मुलाकात हुई तो वो बेहद मायूस नजर आए। बोले, "हम बेला, गुड़हल और कुंद की खेती करते हैं। बाजार काफी नरम रहा। गेंदे की बड़ी माला चार-पांच रुपये के दाम पर बेचकर लौटना पड़ा। बहुत से किसानों को आखिरी दिन गेंदा के फूलों की माला फेंकनी पड़ गई। हमने अपने खेतों में हजारा गेंदा लगाया था, लेकिन लोहवा-नछत्र में पूरी फसल बर्बाद हो गई। हमें उखाड़कर फेंकना पड़ा। समझ में यह नहीं आ रहा है कि परती ज़मीन में अब किस चीज की खेती करें?"

 चंद्रदेव

दरअसल, दीनापुर के बागबानों का सबसे बड़ा दर्द है एसटीपी। बनारस शहर से निकलने वाले मल-जल का शोधन यहीं होता है। एसटीपी बनने के बाद बागबानों की ज़्यादातर जमीनें चली गईं। रकबा कम होने की वजह से लोग फूलों की खेती करने लगे। अब यही आजीविका का सहरा है। इस बार असमय बारिश के चलते गेंदा और गुलदावदी की खेती रसातल में मिल गई। बागबान लालजी मौर्य कहते हैं, "समझ में नहीं आ रहा है कि क्या बेचें और क्या खाएं। फूलों की खेती से यहां हर किसान खुशहाल था। दीनापुर के बागबान पहले हर रोज करीब डेढ़ लाख की कमाई किया करते थे। जब से सरकार ने किसानों की उपेक्षा करनी शुरू की है तब से हमारे हौसले भी टूटते जा रहे हैं। पहले नवरात्र में नुकसान उठाना पड़ा और दिवाली आई तो वह भी सन्नाटे में गुज़र गई। दोनों पर्वों पर पहले गुलाब, गेंदा, गुड़हल, गुलदावदी, कुंद, जूही, बेला जैसे फूलों की डिमांड बहुत ज़्यादा होती थी। असमय बारिश ने अबकी कुंद की खेती को भारी नुकसान पहुंचाया है।"  

सर्वाधिक खपत बनारस में

बनारस मंदिरों का शहर है, इसलिए भी फूलों की खपत दूसरे शहरों के मुकाबले यहां बहुत ज़्यादा है। फूलों की खेती करने वालों में मुख्य रूप से मौर्य, पटेल, माली, राजभर आदि समुदाय के लोग हैं। बेहद पिछड़े समुदाय से आने वाली समाज की 75 फ़ीसदी आबादी फूल व सब्जियों की खेती और पशुपालन से जुड़ी है। सैकड़ों गांवों के किसान कहीं गुलाब, बेला, चमेली तो कहीं ग्लेडुलस, रजनीगंधा और जरबेरा की खेती करते हैं। फूलों से लकदक खेत देखकर हर कोई मोहित हो जाता है। सीजन चाहे जो भी हो, बनारस में सर्वाधिक डिमांड गेंदा और गुलाब की है। मदार, दौना और तुलसी की माला की खपत ज़्यादा है। बनारस में फूलों के उत्पादन और बिक्री से प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से जुड़े लोगों की तादाद पांच लाख से अधिक है। असमय बारिश से फूलों की खेती करने वाले किसानों की सांस फूल रही है लेकिन उद्यन महकमें का दावा है कि नुकसान सिर्फ पांच-छह फीसदी ही हुआ है।

बनारस के हज़ारों किसानों की आजीविका फूलों पर टिकी है। चाहे आप चिरईगांव जाएं या फिर धन्नीपुर, गोपालपुर और दीनापुर। इन गांवों की पगडंडियां शुरू होने से पहले ही फूलों की खुशबू आपका स्वागत करेंगी। दूर-दूर तक फूल ही फूल। आबो-हवा में बिखरती फूलों की खुशबू, मादकता से भर देती है। कहीं गुड़हल, कुंद, बेला के फूल तो कहीं गुलाब और हजारा गेंदा की क्यारियां फूलों की घाटी सरीखी नजर आती हैं। दीनापुर और धन्नीपुर बनारस से ऐसे गांव हैं जिसे लोग ‘रोज विलेज’ के नाम से भी जानते हैं। ये दोनों ऐसे अनूठे गांव हैं जहां धान-गेहूं की खेती सिर्फ नाम के लिए होती है। अधिसंख्य बागबान फूल ही उगाते हैं। पीक सीजन में इन गांवों से हर रोज लाखों का फूल बनारस की फूल मंडियों के होते हुए मंदिरों तक पहुंचता है। सिर्फ पूर्वांचल ही नहीं, बिहार से लगायत कोलकाता तक के फूल कारोबारी यहीं से रंग-बिरंगे फूल ले जाते हैं।

बनारस में हजारा गेंदे की सर्वाधिक खेती लखीमपुर, सरहरी, मिल्कीपुर, काशीपुर, भद्रकला, कैथी, इंद्रपुर, लोहता, भट्ठी में होती है। चिरईगांव प्रखंड के धन्नीपुर, गोपालपुर, दीनापुर, चिरईगांव, कोची, रमना, गुलरीतर, पचरांव के फूल सिर्फ पूर्वांचल ही नहीं बल्कि बिहार, कोलकाता से लगायत नेपाल की राजधानी काठमांडू तक में अपनी खुशबू फैला रहे हैं। समूचा दीनापुर फूलों का बाग सरीखा दिखता है। ये गांव कभी पीले-नारंगी गेंदे से पटे रहते हैं तो कभी सफेद बेले, कुंद, गुड़हल और टेंगरी से। देसी गुलाब की खुशबू की तो बात ही अलग है। खेतों के किनारे बड़ी-बड़ी झाड़ियों में सुर्ख लाल गुड़हल के फूल हर किसी को दीवाना बना देते हैं।

पुष्प उत्पादक किसान विकास मौर्य, सुनील, राजेश, रामपति राजभर कहते हैं, "हाड़तोड़ मेहनत का दूसरा नाम है फूलों की खेती। पौधे लगाना, पानी देना और ताजीवन उसकी देख-रेख करना आसान काम नहीं है। फूल आने पर उन्हें तोड़ना, उनकी माला बनाना और फिर उसे मंडियों में ले जाकर बेचना हर किसी के बस में नहीं है।"

बनारस का चिरईगांव सिर्फ बागों के लिए ही नहीं, फूलों की खेती के लिए भी प्रसिद्ध है। करीब दस हज़ार की आबादी वाले इस गांव में बड़ी संख्या में लोगों की आजीविका फूलों पर टिकी है। मानसून और मौसम की बेरुखी ने इस गांव के बागबानों को बुरी तरह तोड़ दिया है। गेंदा और देसी-विदेशी गुलाब की खेती करने वाले बागबान इस बार काफी परेशान हैं।

असमय बारिश से भारी नुकसान

जिला उद्यान अधिकारी सुभाष कुमार कहते हैं कि 565.75 हेक्टेयर कृषि भूमि में फूलों की खेती होती है। कुमार ने कहा, "सभी फूलों में गेंदा सबसे अधिक खेती की जाने वाली फसल है। फूल की उत्पादकता लगभग 12,500 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर है। बनारस शहर से सटे काशी विद्यापीठ, हरहुआ, अराजीलाइन और चिरईगांव ब्लाक क्षेत्र के कई गांव फूलों की खेती के लिए प्रसिद्ध हैं। एक हेक्टेयर फूलों की खेती से करीब पांच से दस किसानों के परिवार जुड़े हैं। जब बागबानों का पूरा परिवार फूलों की खेती में जुटता है तभी इनकी आजीविका चल पाती है।"

बनारस के हज़ारों फूल उत्पादक इन दिनों मुश्किलों का सामना कर रहे हैं। गेंदा, टेंगरी, बेला और कुंद के बाग वीरान पड़े हैं। असमय बारिश के चलते फूलों में बड़े पैमाने पर कीड़े लग गए हैं। एक तरफ गेंदे के मुरझाए फूलों के खेतों में कीटों का हमला है तो दूसरी ओर बाजार में बागबानों को मंदी का सामना करना पड़ा। उन्हें उम्मीद थी कि अबकी दिवाली में अच्छी कमाई होगी, लेकिन अक्टूबर महीने में कई दिनों तक हुई बारिश के चलते हजारा गेंदा के फूलों के रंग फीके और दौना व तुलसी की पत्तियां काली पड़ गई, जिससे फूलों की खेती करने वाले बागबानों के सारे सपने टूट गए।

कोची गांव की 55 वर्षीया मुन्नी देवी और इनके पति पांचू ने अपनी पूरी उम्र फूलों की खेती में गुज़ार दी। पछाड़ की बारिश और कीटों के हमले के चलते इनकी मुश्किलें बढ़ गईं। करीब डेढ़ बीघा गेंदे की फसल सूख कर बर्बाद हो गई। फूलों के खेतों में काम कर रहीं मुन्नी देवी कहती हैं, "फूलों की खेती से परिवार चला पाना मुश्किल है। गेंदे की कुछ ही फसल बच पाई है, उसी से जिंदगी कट रही है।" पास खड़े इनके पुत्र बबलू कुमार कहते हैं, "चुनाव आता था, तो हम लोगों को बस यही फ़ायदा होता था कि फूलों की डिमांड बढ़ जाती थी। इस बार दिवाली फीकी रही। पिछले साल दिवाली में गेंदे की माला 50-55 रुपये में बिकी थी और इस बार तो आठ-दस रुपये मिल पाना मुश्किल हो गया। हमारे लिए दिवाली बेरंग रही। दशहरा-दिवाली का सीजन निकल गया। समझ में यह नहीं आ रहा है कि अब हम अपने फूलों का क्या करेंगे?"

टूट रही बागबानों की आस!

कोची गांव के सुनील राजभर की आंखों का सूनापन बता रहा था कि फूलों की खेती ने उनकी जिंदगी में खुशहाली का रंग नहीं भरा। वह कहते हैं, "कोची, रमना, पचरांव समेत आसपास के कई गांवों में हजारा गेंदे की खेती होती है, लेकिन असमय बारिश ने बागबानी चौपट कर दी। एक बीघा गेंदा लगाने पर खर्च 15 से  20 हज़ार रुपये आता है। इस बार लागत निकल पाने की उम्मीद नजर नहीं आ रही है।"

 सुनील राजभर

धन्नीपुर के बागबान मोतीलाल मौर्य ने अपने उन खेतों को दिखाया जिसमें उन्होंने गेंदे की खेती कर रखी है। खेतों में गेंदे के पौधे तो लहलहा रहे हैं, लेकिन फूलों की कलियां मुरझा सी गई हैं,क्योंकि अंदर कीड़े घुस गए हैं। वह कहते हैं, "फूलों की खेती के लिए जून, जुलाई और अगस्त महीने की बारिश काफी मुफीद मानी जाती है। जब बारिश की जरूरत थी, तब हुई नहीं। अक्टूबर में हुई बारिश का गेंदे के फूलों की खेती पर बहुत बुरा असर पड़ा है। हजारा गेंदे की जो माला पहले 10 हज़ार रुपये प्रति सैकड़ा बिक जाया करती थी उन्हें अबकी चार-पांच सौ रुपये में बेचना मुहाल हो गया। खेती का खर्च निकाल पाना मुश्किल हो गया है। बागबानों की असल कमाई का वक्त दशहरा और दिवाली ही होती है। अबकी फूलों की खेती चौपट होने से लगता दोनों त्योहार यूं ही बीत गए।"

इन्हीं के पास बैठे धन्नीपुर के रामनारायण मधुकर कहते हैं, "पहले दिवाली के वक्त जाफरी गेंदे की डिमांड बहुत ज़्यादा रहती थी। अबकी हाल ठीक नहीं रहा। भारी घाटा उठाना पड़ा। इस बार बनारस की बांसफाटक मंडी में हजारा और जाफरी गेंदे का दाम बढ़ा ही नहीं।"

गेंदे की खेती करने वाले बागबान धर्मेंद्र कहते हैं, "पिछले साल 1500 रुपये प्रति सैकड़ा बिकने वाली गेंदे की माला इस बार 300-400 में बिकी। सुबह फूलों को तोड़ने से लेकर निराई, गुड़ाई, सिंचाई और बाद में माला बनाने में पूरा परिवार जुटता है तब दो वक्त की रोटी नसीब हो पाती है। नीलगाय का प्रकोप पहले से था और अब छुट्टा पशुओं के चलते फूलों की खेती आसान नहीं रह गई है। दिन-रात पहरेदारी करनी पड़ती है। इस काम में कोई फ़ायदा नहीं है, लेकिन हम सबकी मुश्किल ये है कि हमने कोई दूसरा काम नहीं सीखा। देखिए मरना हो, जीना हो, नेता बने, अफ़सर बने, जीवन का कोई भी फ़ंक्शन हो, सबके लिए फूल चाहिए। लेकिन वो फूल पैदा कैसे होता है, कौन उसे पैदा करता है, इससे किसी को मतलब नहीं। चुनाव आता है, लेकिन कोई नेता तभी हमसे मिलने आता है जब उसे वोट चाहिए। इसी से समझ लीजिए हमारी क़ीमत क्या है?"

क़र्ज़ में डूबे किसान

चिरईगांव इलाके की बागबान बबिता देवी कहती हैं, "हमारे पति बीमार हुए तो उन्हें इलाज के लिए सरकारी अस्पताल में ले गए, लेकिन वह नहीं बच सके। पति की मौत के बाद मेरे ऊपर मुश्किलों का पहाड़ टूट पड़ा। चार बच्चों की परवरिश करने के लिए फूल की खेती शुरू की।" फ़िलहाल वह खेत पट्टे पर लेकर खेती कर रही हैं। वह बताती हैं, " मुश्किल वक्त में यही काम करने का मन बनाया। फूलों की खेती शुरू की तो आषाढ़ में वो पानी में डूब गए। एक रुपया भी कमाई नहीं हुई, उल्टे कर्ज़दार हो गए। लगता है कि यह काम भी हमसे छूट जाएगा।"

फूलपुर के बागबान शिवपूजन चौहान, गुलाब चौहान, काजू, विजय चौहान, विजय मौर्य और गोपालपुर के बबलू प्रसाद मौर्य, अजय प्रसाद मौर्य, विद्यानंद मौर्य और राजेश मौर्य की मुश्किलें एक जैसी ही हैं। गेंदा और गुलाब के फूलों की खेती करने वाले धन्नीपुर के किसान बाबूलाल मौर्य कहते हैं, "किसी भी दूसरी फसल की तुलना में फूलों की खेती में खाद और दवा ज़्यादा पड़ती है। आदमी को उतनी दवा नहीं मिलती होगी, जितनी फूलों को डालते हैं। इस फसल को हर हफ़्ते दवा चाहिए। तीन माह के अंदर फसल तैयार होने के बाद 52 फूलों की एक 'लड़ी' तैयार की जाती है। ये 'लड़ी' फूल किसान ख़ुद ट्रेन, बस या दूसरी सवारी से बनारस की मंडी में ले जाकर बेचते हैं। यह बहुत कच्चा बिज़नेस है। हमको बहुत कम समय में फूल व्यापारी को बेचना है। इसलिए हम लोग ख़ुद 10-20 रुपये का फ़ायदा लेकर इसे बेच देते है। सस्ते में नहीं बेचेंगें, तो फूल बेकार हो जाएंगे और फिर ऐसे ही फेंक देने के अलावा कोई विकल्प नहीं। बागबान भला मानसून से क्या शिकायत करेंगे? हम सभी की शिकायत तो जनप्रतिनिधियों और नौकरशाहों से है। कोई सुनता ही नहीं। कहां और किसकी शिकायत करें?"

आवारा पशुओं से दिक्कत ज़्यादा

धन्नीपुर के शिव मुरारी राजभर, राजेंद्र मौर्य, राम सागर मौर्य, चंद्रेश मौर्य, ईश्वरचंद मौर्य, राम बदन मौर्य विनोद राजभर बनारस में फूलों के प्रसिद्ध उत्पादक हैं। वह कहते हैं, "बागबानों को छुट्टा पशुओं से ज़्यादा दिक्कत है। जहां देखिए, इनका जखेड़ा घूमते मिल जाएगा। कीट-पतंगों से ज़्यादा फूलों की खेती छुट्टा पशुओं के चलते चौपट हो रही है। कोरोनाकाल से पहले हम अपने खेतों से 80-85 हज़ार रुपये कमा लेते थे और मगर अब खर्च निकाल पाना मुश्किल हो गया है।"

राजातालाब, करीब 20 किलोमीटर दूर फूलों की खेती करने वाले रमेश कुमार वाराणसी के इंग्लिशिया लाइन फूल मंडी के पास अपनी एक छोटी सी दुकान लगाते हैं। वह कहते हैं "अबकी मौसम ने फूलों की खेती करने वालों का साथ नहीं दिया। रही-सही कसर महंगाई ने पूरी कर दी। थोड़े बहुत जो फूल उगे भी, उससे आमदनी नहीं के बराबर हुई। जो फूल 30 रुपये प्रति माला के हिसाब से बेचे जाते थे, वे अबकी बार पांच से आठ रुपये में बिके।"

गोपालपुर, फूलपुर, पचरांव, महासी से लगायत दीनापुर के हज़ारों किसान रोजाना लाखों के फूल बनारस की मंडियों में पहुंचाते हैं। जिन बागबानों ने रिस्क लेकर फूल लगाए भी, उन्हें कड़ी मेहनत के बावजूद घाटा उठाना पड़ रहा है। इंद्रपुर के बागबान राजेंद्र कुमार मौर्य को लगता है कि फूलों की खेती की वजह से ही उनकी जमीनें बची हैं।

बनारस में नहीं स्थायी फूलमंडी

बनारस में कोई सरकारी और स्थायी फूल मंडी नहीं है। यहां विश्वनाथ मंदिर के पास बांसफाटक और इंग्लिशिया लाइन में ज़्यादातर किसान फुटपाथ के किनारे व्यापारियों को फूल बेचते हैं। दोनों स्थानों से फूल और माला पूरे पूर्वांचल और बिहार में भेजी जाती है। फुटपाथ पर लगने वाली इस मंडी में न तो कोई शौचालय, न शेड और न ही पीने के पानी की व्यवस्था है। दावा है पूर्वांचल की मंडियों में पहले हर रोज 50 लाख के फूल बिक जाया करते थे और अब फूलों की आवक घटने से कारोबार सिमटकर एक तिहाई रह गया है। वाराणसी में फूलों की मांग स्थानीय किसानों के लिए बहुत अधिक है। फूलों को न केवल पड़ोसी जिलों से बल्कि बिहार और मध्य प्रदेश जैसे विभिन्न राज्यों से भी वाराणसी पहुंचाया जाता है।

बनारस के पूर्व उप निदेशक उद्यान, अनिल सिंह कहते हैं, "यूपी का पूर्वांचल इलाका फूलों की खेती के एक बड़े हब के रूप में विकसित हो रहा है। खासतौर पर बनारस में हज़ारों किसानों की आजीविका फूलों पर टिकी है। राष्ट्रीय परिप्रेक्ष में देखें तो महाराष्ट्र, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश, हरियाणा, तमिलनाडु, राजस्थान और पश्चिम बंगाल फूलों की खेती के प्रमुख केंद्र के रूप में उभरे हैं। जरूरत है कि सरकार फूलों की खेती को बढ़ावा दे। किसानों को थोड़ा भी प्रोत्साहन मिले तो बनारस में फूलों की खेती बरदान साबित हो सकती है। जब तक बनारस के फूल विदेश में निर्यात नहीं होंगे, तब तक बागवानों की माली हालत में सुधार हो पाना आसान नहीं है।"

(लेखक बनारस स्थित वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

अपने टेलीग्राम ऐप पर जनवादी नज़रिये से ताज़ा ख़बरें, समसामयिक मामलों की चर्चा और विश्लेषण, प्रतिरोध, आंदोलन और अन्य विश्लेषणात्मक वीडियो प्राप्त करें। न्यूज़क्लिक के टेलीग्राम चैनल की सदस्यता लें और हमारी वेबसाइट पर प्रकाशित हर न्यूज़ स्टोरी का रीयल-टाइम अपडेट प्राप्त करें।

टेलीग्राम पर न्यूज़क्लिक को सब्सक्राइब करें

Latest