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भीमा कोरेगांव : पहली गिरफ़्तारी के तीन साल पूरे हुए

6 जून 2018 को पुणे पुलिस ने देश भर से पांच सामाजिक कार्यकर्ताओं को गिरफ़्तार किया था।
भीमा कोरेगांव : पहली गिरफ़्तारी के तीन साल पूरे हुए

लगभग तीन साल पहले संदिग्ध भीमा कोरेगांव हिंसा मामले में की गई सबसे पहली गिरफ्तारियों को याद करते हुए, निहालसिंह बी. राठौर, तीन-भाग श्रृंखला लिख रहे हैं और इसके पहले भाग में, वे सुरेंद्र गाडलिंग की गिरफ्तारी को ट्रैक करने की कोशिश की व्यक्तिगत भयावहता को याद करते हैं। उनकी गिरफ्तारी, अगस्त 2018 में पांच और कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी की घटनाओं का विवरण देती है, और बताती है कि कैसे इन गिरफ्तारियों को करने में पुणे पुलिस ने आपराधिक क़ानून के बुनियादी सिद्धांतों का उल्लंघन किया था।

6 जून 2018 की सुबह की भयानक याद मेरे मानस में है जो शायद कभी नहीं मिटेगी। सुबह-सुबह मुझे फोन आया कि पुलिस फिर से वकील सुरेंद्र गाडलिंग के घर पर आ गई है। जबकि इससे पहले 17 अप्रैल 2018 को मारे गए छापे की याद अभी भी मेरे मन में ताजा थी।

इन घटनाओं से आने वाले नाटकीय मोड़ से हमारे जैसे कई लोगों के जीवन में बड़ा बदलाव आने वाला था; यह हमें ऐसी वास्तविकताओं से रूबरू कराने वाला था जिसके बारे में हमने सपने में भी नहीं सोचा था।

मेरा हमेशा से मानना रहा है कि हाई-प्रोफाइल कैदी हमेशा निर्दोष होते हैं और उन्हें गलत तरीके से फंसाने के लिए पुलिस झूठा आरोप गढ़ती हैं। आज मैं सही साबित हुआ हूं, और अब मेरा मानना है कि बहुत से कैदियों को अपनी कहानी कहने और उनके प्रति अपराध करने वाले अपराधियों को पकड़ने का मौका भी नहीं मिलता है। कभी-कभी आग के बिना भी धुआँ उठता  है, और वह धुआँ ज्वालामुखी विस्फोट के साथ आता है, जो कल्पना से परे जीवन को तबाह कर के रख देता है।

भीमा कोरेगांव केस में गिरफ्तार व्यक्तियों ने कारावास के दौरान अपनों को खोया

उस भयानक सुबह के बाद गुजरे 1096 दिनों में, जो कुछ हुआ उस नुकसान का जायज़ा लेना  भी संभव नहीं है। गिरफ्तार व्यक्तियों को कारावास, मानसिक और शारीरिक नुकसान के अलावा, खुद के प्रियजनों को खोने के दर्द की कल्पना करना भी बहुत मुश्किल है वह भी बिना उन्हें देखे या दुख की घड़ी में उनका साथ दिए जो उनके पीछे दुनिया से रुख़सत हो गए। 

इनमें से कुछ ने, जैसे कि सुधा भारद्वाज ने अपने पिता को खो दिया। सुरेंद्र गाडलिंग ने अपनी मां को खो दिया, जबकि सुधीर धवले ने अपने भाई को खो दिया। सुधा को छोड़कर, अदालतों ने उन्हें उनके शोक संतप्त परिवारों को संतावाना या दुख साझा करने की इजाज़त भी नहीं दी और शोक मनाने के लिए घर जाने देना भी उचित नहीं समझा।

इसके बाद में, वर्नोन गोंजाल्विस ने जेल में रहते अपनी मां को खो दिया, और शोमा सेन ने अपनी सास को खो दिया। जबकि ये सिर्फ परिवार के सदस्य थे, लेकिन रोना विल्सन ने अपने मित्र प्रो. एस.ए.आर गिलानी को खो दिया था। सुधीर और सुरेंद्र ने अपने बचपन के दोस्त और प्रसिद्ध हस्ती वीरा सतीदार को भी खो दिया, जिनका शोमा, महेश राउत, सागर गोरखे और रमेश गायचोर के साथ एक गहरा बंधन था। उनके लिए वे परिवार के एक सदस्य से कहीं बढ़कर थे।

महेश को अपनी इकलौती प्यारी बहन की शादी की बधाई फोन पर देनी पड़ी। ये कुछ ऐसी मिसालें हैं जो आंख में खटकती हैं: ऐसे उदाहरण, कि जब उनके परिवार के सदस्य और अन्य प्रियजन सबसे कठिन या बेहतरीन दौर से गुजरे, जिसने उनके भीतर अलग होने की दर्दनाक भावनात्मक उथल-पुथल को बढ़ा दिया।

6 जून 2018 को, पुणे पुलिस ने देश भर से पांच सामाजिक कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार किया था। आने वाले दिनों में 11 और लोगों को फंसाकर सलाखों के पीछे डाला जाना था। 17 अप्रैल, 2018 को की गई छापेमारी की अगली किस्त में, बिना किसी सर्च वारंट के देश भर में कई ऐसे छापे मारे गए थे। पुणे पुलिस के अतिरिक्त पुलिस आयुक्त शिवाजी पवार ने जनवरी 2020 तक जांच की, जिसके बाद इसे राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) ने अपने कब्जे में ले लिया। एनआईए ने गवाहों के नाम पर सम्मन कर सैकड़ों लोगों को तलब किया और आपराधिक कानून की प्रक्रिया की अवेहलना की। फिर समन किए गए गवाहों में से कम से कम चार को गिरफ्तार किया गया और उन्हें आरोपी के रूप में सूचीबद्ध कर दिया।  

सुरेंद्र गाडलिंग को कैसे किया गया गिरफ्तार?

उपरोक्त सब में से, मैं एक तरह से सुरेंद्र की गिरफ्तारी का गवाह था। उन्हे गिरफ्तारी पंचनामा प्रस्तुत किए बिना या निकटतम मजिस्ट्रेट के समक्ष पेश किए बिना प्रक्रियात्मक आवश्यकताओं को पूरा नहीं किया गया जब उन्हे उनके घर से गिरफ्तार किया गया था। बंदियों के अधिकारों के लिए लड़ने वाले मानवाधिकार वकील को गिरफ्तार करते वक़्त पुलिस अफसरों के भीतर कानून का कोई भय नहीं था। 

जब मैं नागपुर के स्थानीय पुलिस स्टेशन पहुंचा, उसे वहां एक घंटे से अधिक समय हो चुका था, फिर बाद में उसे एक गुप्त स्थान पर ले जाया गया, और हमें इसके बारे में तभी पता चला जब हम उससे तीन दिन बाद मुलाक़ात की। 

एक वकील होने के नाते, वह कानून की बारीकियों से अच्छी तरह वाकिफ थे, इसलिए उम्मीद की जा रही थी कि उनके मामले में कानून का ईमानदारी से पालन किया जाएगा। और इसलिए भी कि वह स्वयं अपने कई मुवक्किलों के लिए इस तरह के कानूनी उल्लंघन के खिलाफ लड़ रहे थे, और सतर्क पुलिस इस तरह के मामलों में किसी भी चीज़ को ढीला नहीं छोड़ना पसंद करती है। 

फिर भी, उनके मामले में कानून की भावना का पालन नहीं किया गया। न तो उनकी पत्नी और न ही उनके परिवार के सदस्यों को उनकी गिरफ्तारी के बारे में बताया गया था। उन्हें उनकी गिरफ्तारी के कारणों के बारे में भी कभी नहीं बताया गया, उसे कहाँ पेश किया जाएगा, किस अपराध के तहत गिरफतार किया गया है, या गिरफ्तारी किसी वारंट के तहत या बिना वारंट के हुई है, जांच एजेंसी कौन है, कुछ नहीं बातया गया था। 

यह जानते हुए कि पुलिस अपने वरिष्ठ अफसरों के आदेश पर काम कर रही है, छोटे पदों के पुलिस अधिकारियों के साथ बहस करने का कोई फ़ायदा नहीं होगा, यानी उनके सामने पीड़ित होने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा था।

स्थानीय थाने ले जाने के बाद सुरेंद्र को बिना किसी को खबर दिए नागपुर से करीब 150 किलोमीटर दूर अमरावती शहर ले जाया गया। पुणे पुलिस ने उसके ट्रांजिट रिमांड की मांग करते हुए वहां के मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया। सुरेंद्र ने खुद तर्क दिया, और न्यायाधीश से कहा कि वे किसी भी तरह से निकटतम मजिस्ट्रेट नहीं है और उनकी हिरासत/नजरबंदी को अधिकृत नहीं कर सकते हैं। मजिस्ट्रेट ने आदेश पारित करने से इनकार कर दिया और रिमांड खारिज कर दिया।

बाद में उन्हें वापस लाया गया और देर रात की फ्लाइट से पुणे ले जाया गया। पुणे में, एक विशेष न्यायाधीश ने 7 जून, 2018 को सिर्फ रिमांड की इजाज़त देने के लिए सुबह 6 बजे अदालत लगाई। सुबह तड़के, सुरेंद्र के पेश होने के मामले में उनकी कानूनी सहायता के लिए एक वकील मौजूद था, लेकिन उन्होने इसका विरोध किया और खुद बहस करने की इच्छा व्यक्त की।  और वकील का वकालतनामा स्वीकार कर लिया गया।

सभी कमियों को दरकिनार करते हुए, विशेष न्यायाधीश ने उनकी नजरबंदी को अधिकृत कर दिया था। हमें बाद में पता चला कि एनआईए अधिनियम, 2008 के तहत न्यायाधीश को कभी भी विशेष न्यायाधीश के रूप में नामित नहीं किया गया था, फिर भी न केवल सुरेंद्र बल्कि सभी को रिमांड पर लेने के लिए शक्तियों का प्रयोग किया, जिन्हें बाद के दिनों में गिरफ्तार किया गया था।

बंबई उच्च न्यायालय की नागपुर खंडपीठ में बंदी-प्रत्यक्षीकरण याचिका दायर की गई

जबकि यह सब चल रहा था और सुरेंद्र के ठोर-ठिकाने के बारे में जनता को पता नहीं था, उनकी पत्नी ने बॉम्बे हाई कोर्ट की नागपुर बेंच के समक्ष बंदी-प्रत्यक्षीकरण याचिका दायर की।

मैंने मामले की तत्काल सुनवाई की मांग की, और अपील की, "इस अदालत के सामने वर्षों से वकालत कर रहे एक प्रमुख मानवाधिकार वकील को पुलिस ने बिना किसी अनिवार्य प्रक्रिया का पालन किए हिरासत में लिया है और हमें उसके ठोर-ठिकाने के बारे में कुछ भी पता नहीं है ..." बेंच ने पूछा, "कौन?" मैंने जवाब दिया, "एडवोकेट सुरेंद्र गाडलिंग"। पीठ ने जवाब दिया, उन्हे "गिरफ्तार किया होगा, मसला कोई जरूरी नहीं, आज इसकी सुनवाई नहीं की जाएगी"। मैंने जवाब दिया, "लेकिन माईलॉर्ड, मैं [यानी याचिकाकर्ता] अपने पति के ठोर-ठिकाने और भलाई के बारे में जानने की हक़दार हूं। प्रक्रिया का पालन किए बिना कैसे किसी को गिरफ्तार किया जा सकता है? यहाँ मेरे मौलिक अधिकारों के हनन का सवाल हैं, यह अपहरण है!” एक पल विचार-विमर्श करने के बाद, बेंच ने जवाब दिया, "ठीक है, इसकी सुनवाई कल होगी"। मैंने फिर से प्रयास किया और कहा कि, "यह एक बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका है", लेकिन पीठ ने बस इतना ही कहा, "जो कुछ भी हो, कल आना"।

इसके बाद की सुनवाई में, अदालत ने कहा कि चूंकि गिरफ्तारी पुणे पुलिस द्वारा की गई थी, इसलिए मामले की सुनवाई और उस पर निर्णय केवल उच्च न्यायालय की मुंबई पीठ ही कर सकती है। हमने निवेदन किया कि कम से कम हमें बताया जाए कि उसे कहां ले जाया गया है और उसकी पत्नी को उससे फोन पर बात करने की अनुमति दी जानी चाहिए।

पीठ ने 'पुलिस अभियोजक' की ओर देखा, जो सुरेंद्र को व्यक्तिगत रूप से भी जानते थे; उन्होंने कहा कि इस मामले में उनके पास कोई निर्देश नहीं है, और वे अदालत के आदेश के बिना कोई मदद नहीं कर सकते हैं।

अंततः, याचिका को वापस लेना पड़ा, क्योंकि पीठ ने हमें सफलतापूर्वक समझाया कि मामले को मुंबई स्थानांतरित करने में लंबा समय लगेगा, और अगर याचिका को सीधे दायर किया जाता है तो कार्यवाही तेज़ होगी।

6 जून को की गई थी अन्य गिरफ्तारियां

6 जून को पूरे देश भर से विभिन्न व्यक्तियों की गिरफ्तारियों की खबरें आने लगीं थी, जिससे के सदमे की लहर दौड़ गई। जब हम सुरेंद्र का पता लगाने का प्रयास कर रहे थे, तो हमें यह भी खबर मिली कि पुलिस की एक टीम प्रो. शोमा सेन के घर पर छापेमारी कर रही है, जो नागपुर विश्वविद्यालय में अंग्रेजी विभाग की प्रमुख थी और लंबे कार्यकाल के बाद जल्द ही सेवानिवृत्त होने वाली थी। मुंबई से सुधीर धवले को इसी तरह गिरफ्तार किया गया था, लेकिन यहां कम से कम उनकी गिरफ्तारी की सूचना उनके दोस्त को लिखित रूप में दी गई थी।

अगली सुबह ही धूल हटी और हमें पता चला कि कुल मिलाकर पांच लोगो को गिरफ्तार किया गया है। महेश राउत को भी नागपुर से गिरफ्तार किया गया जबकि दूसरे जिले में दूर स्थित उनके घर पर छापेमारी की गई थी। इस बीच, रोना विल्सन को पुणे पुलिस ने दिल्ली के मुनिरका में गिरफ्तार कर लिया था। 

महेश के अलावा किसी को भी नजदीकी मजिस्ट्रेट के सामने पेश नहीं किया गया था। किसी को भी उनकी पसंद की कानूनी सहायता लेने की अनुमति नहीं थी। दिन के समय सुरेंद्र को रिमांड पर भेजने के लिए जिस विशेष अदालत को लगाया गया था उसने शेष चार को भी पुलिस हिरासत में भेज दिया था।

पुणे पुलिस ने गिरफ्तार लोगों के चरित्र-हनन की द्वेषपूर्ण कोशिश  

जब हम इन गिरफ्तारियों के सदमे से उबरने की कोशिश कर रहे थे, तब पुणे पुलिस ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस कर सनसनीखेज खुलासे किए, जिसमें उन्होने आरोप लगाया कि ये सामाजिक कार्यकर्ता प्रधानमंत्री की हत्या की योजना बना रहे थे। 

इस शरारतपूर्ण प्रेस ब्रीफिंग का सीधा असर हुआ। इसने कई सहानुभूति रखने वाले लोगों को  डरा दिया। गिरफ्तार लोगों के बारे में आम आदमी के भीतर जो छवि थी वह धूमिल हो गई थी और बड़े पैमाने पर लोगों में उनके बारे में नकारात्मक भावनाएं पैदा होने लगीं। उन्हें कैसे पता चलता कि पुलिस उनकी भलाई करने वाले और उनकी आवाज को उठाने वाले लोगों के खिलाफ  गंदी राजनीति कर रही है!

इसके बाद, पुलिस अधिकारी परमबीर सिंह, रश्मि शुक्ला और शिवाजी पवार ने कई मीडिया ब्रीफिंग की, जिसमें उन्होंने कई दस्तावेज लहराए, जिनके बारे में दावा किया गया कि वे ईमेल के ज़रीए की गई वार्तालाप का हिस्सा थे, और बाद में बताया गया कि उन्हें इन लोगों की हार्ड डिस्क से हासिल किया गया था। हालांकि इन दस्तावेजों में किसी का भरोसा नहीं था, लेकिन जनता में इस भावना को पैदा करने के लिए इन्हे पेश किया गया ताकि मनमानी गिरफ्तारी को जायज़ ठहराया जा सके और किसी भी आक्रोश को दबाने के लिए पर्याप्त प्रभाव डाला जा सके।  इस बारे में हमें ज्यादा नहीं पता था कि इन हार्ड डिस्क की प्रतियां हासिल करने में दो साल लगेंगे और एक डिजिटल फोरेंसिक विशेषज्ञ कंपनी से उनकी जांच कराई जाएगी, जिसने पुष्टि की थी कि ये सभी दस्तावेज 'नेटवायर' नामक स्पाइवेयर का उपयोग करके गढ़े गए थे।

पुणे पुलिस द्वारा वकीलों को धमकाना

हालांकि, इन पांचों ने पुलिस हिरासत में जो वक़्त बिताया और पुणे की अदालत में हुई सुनवाई से गिरफ्तारियों के करीबी और प्रियजनों को जितना संभव हो उतनी दर्दनाक यातना देने की कोशिश की गई। गिरफ्तारी के बाद हम कोर्ट की अनुमति से महेश राउत और शोमा सेन से पुलिस हिरासत में मिलने कि इजाज़त मिली। वहां हमने पुलिस अधिकारी सुहास बावाचे को जांच अधिकारी शिवाजी पवार की कुर्सी पर बैठे देखा। हालाँकि वे पुणे पुलिस द्वारा की गई लगभग सभी कार्रवाइयों का हिस्सा थे, लेकिन उनका नाम रिकॉर्ड में कहीं नहीं था। 

उस तनावपूर्ण स्थिति में जिसमें हम महेश राउत की भलाई के बारे में जानने की कोशिश कर रहे थे, उन्होंने हमें एक धमकी सी दी: “इस मसले में हमारे नाम मत उछालो, हमें निशाना मत बनाओ वरना हमें तुम सब का भी ध्यान रखना होगा!", उसने मुझे घूरते हुए कहा।

जब वे प्रो. जी.एन. साईबाबा पर मुकदमा चल राहा था और सुरेंद्र उनका बचाव कर रहे थे, तब उन्होंने इसी तरह की धमकी सुरेंद्र को भी दी थी। उन्होंने तब भी कहा था, "उनके (प्रो साईबाबा) बाद, आपका (सुरेंद्र) नंबर है"। मैं इतना डर गया था कि मुझे जब मौका मिला, मैं थाने से भागा और सीधे अपने होटल गया और खुद को कमरे में बंद कर लिया।

रात भर बुरे सपने आते रहे। बाद में, शिवाजी पवार ने एक अन्य वकील जगदीश मेश्राम को इसी तरह की धमकी दी थी, महेश की तरफ एक सरसरी टिप्पणी करते हुए कहा कि वह सुनिश्चित करेगा कि उसके सभी दोस्तों (वकील) को उसके साथ जेल में रखा जाए।

टीवी समाचार मीडिया द्वारा अन्य कार्यकर्ताओं के प्रति मानहानि

सुधा भारद्वाज, जो इन कार्यकर्ताओं के समर्थन में जोरदार तरीके से सामने आईं थी, उन पर रिपब्लिक टीवी और अन्य चुनिंदा मीडिया चैनलों ने प्रतिशोधी हमला किया था। एक दस्तावेज, जिसे पुलिस ने गढ़ा था और जो साबित भी हो चुका है, लेकिन पुलिस ने उसे उनके द्वारा लिखित बताया था। लाइव टीवी शो में कई लोगों की बदनामी की गई। एक पत्र के कुछ हिस्से को दिखाते हुए, मुझे "नक्सल कूरियर, अधिक जोखिम उठाने वाला" बताया गया था। उन्होंने कई अन्य लोगों के नामों के साथ मेरा नाम बड़े और मोटे अक्षरों में लिखा।

उचित शोध किए बिना गढ़े गए पत्र में कुछ ऐसे नाम थे जो अस्तित्व में भी नहीं थे या ऐसे व्यक्तियों के नाम थे जो केवल परिचित थे और इंडियन एसोसिएशन ऑफ पीपुल्स लॉयर्स से कभी भी संबंधित नहीं थे। उनके नाम टीवी पर दिखाए जा रहे थे, और उन्हे माओवादियों के गुर्गे बताया जा रहा था ताकि उन्हे अंदर तक आतंकित किया जा सके। 

28 अगस्त, 2018 में पांच और कार्यकर्ता गिरफ्तार किए गए 

सुधा ने रिपब्लिक टीवी को एक नोटिस जारी किया था। इससे पहले कि वह मानहानि का  मुक़दमा कर पाती, उन्हे 28 अगस्त, 2018 को गिरफ्तार कर लिया गया था। उसी दिन, गौतम नवलखा, वरवरा राव, अरुण फरेरा, वर्नोन गोंसाल्वेस, आनंद तेलतुम्बडे और फ़ादर स्टेन स्वामी के घरों पर छापे मारे गए। आनंद और फादर स्टेन के अलावा बाकी लोगों को गिरफ्तार कर लिया गया।

हालांकि, एक बेजोड़ आदेश में, दिल्ली उच्च न्यायालय ने गौतम नवलखा को घर में नजरबंद करने का निर्देश दिया, जो आने वाले दिनों के लिए अपनी तरह की एक मिसाल बनेगा। 

रोमिला थापर ने इस मामले में हस्तक्षेप किया और एक स्वतंत्र जांच की मांग करते हुए सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया, जिसमें शीर्ष अदालभी ने सभी पांचों को घर में नजरबंद रखने का निर्देश दिया था। बाद में, न्यायालय ने याचिका को खारिज करते हुए एक विभाजित फैसला दिया, जिसमें न्यायमूर्ति डी वाई चंद्रचूड़ ने निर्णय पर असहमति जताई थी।

(निहालसिंह बी॰ राठौर नागपुर में रहने वाले एक वकील हैं। यह पहला भाग है। दो भाग और आने वाले हैं। व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं।)

इस लेख को मूल अंग्रेजी में पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें।

Bhima Koregaon: Marking Three Years Since the First Arrest

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