सीएए-एनआरसी प्रतिरोध : आरएसएस की झूठ की फ़ैक्ट्री ने फिर पकड़ी रफ़्तार

नागरिकता संशोधन क़ानून पर पूरे भारत के लोगों से विविध प्रकार की प्रतिक्रियाएँ मिल रही हैं। प्रदर्शनकारियों ने क़ानून के ख़िलाफ़ जो प्राथमिक मुद्दा उठाया वह यह है कि यह क़ानून मिले-जुले भारत को एक हिंदू राष्ट्र में बदलने का इरादा है। यह भी विचलित करने वाली बात है कि इस क़ानून का बचाव करते समय, सत्ता पक्ष और उनके समर्थक कांग्रेस पार्टी को दोषी ठहरा रहे हैं और तर्क दे रहे हैं कि विभाजन एक धर्म-आधारित विभाजन था।
ये दोनों ही तर्क सफ़ेद झूठ हैं। गृह मंत्री अमित शाह ने राज्यसभा में बिल को आक्रामक ढंग से पेश करते हुए कहा कि “इस देश का विभाजन अगर धर्म के आधार कांग्रेस ने न किया होता तो इस बिल की जरूरत नहीं होती।"
जवाब में, कांग्रेस पार्टी के सांसद शशि थरूर ने कहा कि शाह ने उस वक़्त ध्यान नहीं दिया था जब उनके स्कूल में इतिहास पढ़ाया जा रहा था।
इसके अलावा, शाह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के कार्यकर्ता और छात्र संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद या एबीवीपी के सदस्य रहे हैं। थरूर के आरोप के विपरीत, शाह ने वास्तव में इतिहास को आत्मसात तो किया-लेकिन वह आरएसएस गठजोड़ द्वारा सिखाया गया 'इतिहास' है, और गृह मंत्री ने इसे पूरी तरह से अपना लिया है।
यहाँ तक कि महात्मा गांधी की हत्या करने वाले नाथूराम गोडसे ने राष्ट्रपिता और कांग्रेस पार्टी के संरक्षक को विभाजन के लिए ज़िम्मेदार ठहराया था। इतिहास के इस संस्करण को अधिकांश हिंदू राष्ट्रवादी मानते है।
धर्म को राष्ट्रवाद का आधार बनाने के लिए ज़्यादातर वीडी सावरकर को ज़िम्मेदार माना गया है, जिन्होंने पाकिस्तान के संस्थापक मुहम्मद अली जिन्ना के बाद हिंदुत्व या हिन्दू धर्म शब्द का निर्माण किया। जैसे, भारतीय राज्य की नींव के रूप में धर्म का इतिहास बहुत पुराना है। हमें यह याद रखने की आवश्यकता है कि ब्रिटिश औपनिवेशिक शासक स्वतंत्रता से पहले भारत में प्रमुख ताक़त थे, और उन्होंने मुस्लिम लीग और हिंदू महासभा और आरएसएस को इसके लिए प्रोत्साहित किया था।
अंग्रेज़ों ने इन दोनों संगठनों की बदनाम नीति “फूट डालो और राज करो” को मददगार के रूप में देखा। बाद में, 1942 में जब राष्ट्रीय आंदोलन अपनी चरम सीमा पर था, तो उन्होंने उस समय के भू राजनीतिक वातावरण को अपनी गणना में शामिल किया। विश्व शक्ति की राजनीति में रूस एक प्रमुख ध्रुव के रूप में उभरा था और इसने ब्रिटिश-अमेरिकी आधिपत्य को चुनौती दे दी थी।
रूस ने दुनिया भर के उपनिवेश विरोधी आंदोलनों को भी प्रेरित किया था। कई स्वतंत्रता सेनानी समाजवादी विचारधारा और उसकी रणनीति से प्रभावित थे। ब्रिटिश की रणनीति के तहत भारत का विभाजन उसके क्षेत्रों को नियंत्रित करने के लिए एक आगे बढ़ा क़दम था। उनकी सोच थी कि वे सामाजिक और भौगोलिक विभाजन के द्वारा, देश विशाल क्षेत्रों पर अपनी पकड़ बनाए रख सकते हैं। पाकिस्तान जो अभी अलग देश बनना था वह उनकी गणनाओं में फ़िट बैठता था।
धर्म के नाम पर राष्ट्रवाद के दावों को अमलीजामा पहनाने की परंपरा भी ज़मींदारों, शासकों और राजाओं के कम होते आधिपत्य और तेज़ी से औद्योगिक हो रहे उपनिवेशों और पश्चिमी देशों के पतनशील वर्ग की प्रतिक्रिया में निहित है। संचार तकनीक तेज़ी से आगे बढ़ रहा था, जैसा कि भारत में भी आधुनिक शिक्षा बढ़ रही थी। भारत में एक धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक राष्ट्र की दिशा दिखाई दे रही थी। विभिन्न समूह एक साथ आने लगे, जैसे कि मद्रास महाजन सभा, पुणे सरायकि सभा और बॉम्बे एसोसिएशन, जो उभरते वर्गों के हितों और सामाजिक परिवर्तनों का प्रतिनिधित्व करते थे।
ये भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के राजनीतिक संगठन का गठन करने वाले समूह हैं, जो 1885 में औपचारिक रूप से अस्तित्व में आए थे। इन परिवर्तनों ने आधिपत्य कम होने वाले वर्गों (ज़मींदार, राजाओं, शासकों) को बहुत असहज बना दिया था: वे मूल धारणा में बदलाव नहीं चाहते थे, जैसे कि आधुनिक विचार जिसमें क़ानून के समक्ष सब समान। दोनों धर्मों के दोनों सामंती वर्ग, इस संभावना से ही हिल गए थे कि जन्म आधारित पदानुक्रम, जिस के आधार पर वे राज़ कर रहे थे,वह अब जल्द ही उखड़ जाएगा।
इस बिंदु पर, मुसलमानों के एक वर्ग ने कहा कि ‘इस्लाम ख़तरे में है’ जबकि हिंदू तबक़ों ने दावा किया कि हिंदू धर्म ख़तरे में है। राष्ट्रीय संगठनों के उदय के साथ, एक समानांतर प्रवृत्ति दिखाई देने लगी; दलितों ने औपचारिक शिक्षा प्राप्त करना शुरू कर दिया और महिलाओं की निम्न दर्जे सामाजिक स्थिति को चुनौती दी जाने लगी। इन सामंती की असमानता पर आधारित उनकी धार्मिक रूप से संचालित सत्ता पर हमले होने लगे।
प्रारंभ में, ज़मींदार-राजा वर्ग ने नए आंदोलनों में भाग लिया, लेकिन जल्द ही, उन्होंने अन्य अभिजात वर्गों पर जीत हासिल की, और फिर भी बाद में औसत लोगों के वर्ग पर जीत हासिल की और इसने भारत में धार्मिक राष्ट्रवाद के नाम मुसलमानों और हिंदुओं के बीच स्वतंत्रता से पहले नींव रखी।
इस प्रकार, भारतीय राष्ट्रवाद को मोटे तौर पर गांधी, बीआर अंबेडकर और भगत सिंह के विचारों से पहचाना जा सकता है, और जिन ताक़तों ने इसका विरोध किया, उनमें मुस्लिम लीग (1906 में गठित), हिंदू महासभा (1915) और आरएसएस (1925) शामिल हैं। आरएसएस ने विशेष रूप से एक पौराणिक "प्राचीन गौरवशाली अतीत" को ढाल बनाया जबकि भारतीय राष्ट्रवादी धारा ने अपने संघर्ष को समाज में मौजूद असमानताओं के ख़िलाफ़ लड़ाई को धार बनाया था।
यह सावरकर ही हैं जिसने सबसे पहले धार्मिक राष्ट्रवाद को अभिव्यक्त किया था। यह वह अभिव्यक्ति या विचार था जिसने हिंदू और मुसलमानों परस्पर विरोधियों के रूप में पेश किया, जबकि मुस्लिम लीग ने हिंदू बहुसंख्यकों को ग़ैर-हिंदुओं को समान अधिकार देने के ख़िलाफ़ माना था। हिंदू राष्ट्रवादियों ने मुसलमानों और मुस्लिम राष्ट्रवादियों के ख़िलाफ़ नफ़रत फैलाई, जिसने गहन सांप्रदायिक हिंसा को आधार दिया।
विभाजन पर, उस वक़्त की सांप्रदायिक हिंसा इतनी गंभीर थी कि जिसने कांग्रेस पार्टी को भारत के अंतिम गवर्नर-जनरल और इसके वाइसराय लुई माउंटबेटन द्वारा लाए गए प्लान को मार्च 1947 में स्वीकार करने के लिए मजबूर कर दिया, ऐसा प्लान जिसने भारत का विभाजन कर दिया था। कांग्रेस ने विभाजन को स्वीकार करते हुए एक प्रस्ताव पारित किया, और कहा कि वह सावरकर, जिन्ना, गोलवलकर, मुस्लिम लीग, हिंदू महासभा और आरएसएस के दो-राष्ट्र के सिद्धांत के विरोध में है। मौजूदा हालात के मद्देनजर कांग्रेस ने फ़ैसला किया है कि विभाजन सांप्रदायिक ज़हर की तुलना में कम बुरी बात है, जो ज़हर राष्ट्र को प्रभावित कर रहा था।
विभाजन की योजना के वास्तुकार वीपी मेनन बताते हैं कि पटेल ने दिसंबर 1946 में भारत के विभाजन को स्वीकार कर लिया था, जबकि नेहरू ने छह महीने बाद बंटवारे पर मौन सम्मति दी थी।
मौलाना आज़ाद और गांधी ने इस विचार को बिल्कुल भी स्वीकार नहीं किया था, लेकिन बढ़ते सांप्रदायिक ज्वार ने उन्हें मौन रहने पर मजबूर कर दिया था।
अमित शाह-आरएसएस की कहानी में, कांग्रेस को दोषी ठहराया जा रहा है क्योंकि यह वह पार्टी थी जिसने स्वतंत्रता आंदोलन का नेतृत्व किया था, जिस पर आरएसएस कभी दावा नहीं कर सकती है। सच्चाई यह है कि, कांग्रेस ने कभी भी धर्म के विचार को राष्ट्रवाद के आधार के रूप में स्वीकार नहीं किया।
लेखक एक सामाजिक कार्यकर्ता और टिप्पणीकार हैं। व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं।
अंग्रेजी में लिखा मूल आलेख आप नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं।
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