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सीएए : एक और केंद्रीय अधिसूचना द्वारा संविधान का फिर से उल्लंघन

2019 के नागरिकता संशोधन अधिनियम ने इसे बदल दिया था, लेकिन इसे सर्वोच्च अदालत में चुनौती दी गई है। अभी भी इस बारे में फैसला आना बाकी है। इस बीच, कानून बनाने के अपने अधिकार का इस्तेमाल करते हुए केंद्र सरकार अप्रत्यक्ष तरीके से सीएए को लागू करने में जुटी हुई है।
Parliament

रश्मि सिंह लिखती हैं: 1955 का नागरिकता अधिनियम धर्म या क्षेत्र के आधार पर भारत की नागरिकता प्रदान नहीं करता है 2019 के नागरिकता संशोधन अधिनियम ने इसे बदल डाला है, लेकिन इसे सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी गई है और अभी भी इस बारे में फैसले का इंतजार है इसी बीच, कानून बनाने की अपनी शक्ति का इस्तेमाल करते हुए केंद्र सरकार अप्रत्यक्ष तरीके से सीएए को लागू कराने में जुटी हुई है यह संविधान विरोधी है

कूटयुक्तिपूर्ण कानून के सिद्धांत को संविधान में धोखाधड़ी के रूप में भी जाना जाता है, जो कि एक लैटिन कहावत पर आधारित है “क्वांडो एलिकिड प्रोहिबेटर एक्स डाइरेक्टो, प्रोहिबेटर एट पेर ओब्लिकम,” जिसका अर्थ है जिस चीज को आप सीधे तौर पर नहीं कर सकते, उसे आप अप्रत्यक्ष तौर पर भी नहीं कर सकते हैं सरकार द्वारा 28 मई, 2021 को जारी अधिसूचना ने इस सिद्धांत को कई लोगों के लिए दृष्टान्त के रूप में सामने ला दिया है

वैसे तो इसे एक निर्दोष कार्यकारी आदेश के रूप में बताया जा रहा है। लेकिन इस अधिसूचना ने उन लोगों को चिंता में डाल दिया है जिन्होंने धर्म-आधारित वर्गीकरण के आधार पर नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए), 2019 की खिलाफत और विरोध किया था

सीएए को लेकर क़ानूनी शिकायत  

मामले को परिपेक्ष्य में रखने के लिए बता दें कि सीएए का विरोध कर रहे लोगों की मुख्य शिकायत थी कि धारा 2, 3, 5 और 6 धर्म और क्षेत्र के आधार पर नागरिकता प्रदान करने की बात करता है दोनों ही मनमाने मानदंड हैं, जिन्हें संविधान द्वारा नागरिकता प्रदान करने की शर्तों के तौर पर मान्यता नहीं दी गई है

संक्षिप्त तौर पर, यहाँ सीएए, 2019 में किये गए प्रमुख संशोधनों का हवाला दिया जा रहा है, जो इस प्रकार से हैं: 

  1. यह अफगानिस्तान, बांग्लादेश या पाकिस्तान से किसी भी हिन्दू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी या ईसाई प्रवासी को अनुमति देता है, जो 31 दिसंबर 2014 तक या उससे पहले भारतीय नागरिकता के आवेदन के लिए भारत पहुंचे, भले ही वे वैध यात्रा दस्तावेजों के बिना ही यहाँ पहुंचे हों, या वैध यात्रा दस्तावेजों के साथ प्रवेश किया हो, लेकिन तयशुदा अवधि से अधिक समय से रह रहे हों। 
  2. यह इन तीन देशों से आये हुए प्रवासियों को उनकी आव्रजन स्थिति से संबंधित क़ानूनी कार्यवाई के खिलाफ अभयदान प्रदान करता है
  3. यह अफगानिस्तान, बांग्लादेश और पाकिस्तान से आये हुए हिन्दू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी या ईसाई शरणार्थियों के लिए भारत में निवास की पात्रता की अवधि को पूर्व के भारतीय नागरिकता के लिए आवेदन करने की समय-सीमा को “ग्यारह वर्ष से कम नहीं” से “पांच वर्ष से कम नहीं” तक कम कर देता है 

इस प्रकार से, सीएए में दो प्रकार के वर्गीकरण किये गये हैं पहला, धर्म के आधार पर वर्गीकरण कर हिन्दुओं, सिखों, बौद्धों, जैनियों, पारसियों और ईसाइयों को अवैध शरणार्थियों की सूची से बाहर रखना; और दूसरा, देश के आधार पर वर्गीकरण करना, जिसमें सिर्फ अफगानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश से प्रताड़ित धार्मिक अल्पसंख्यकों तक ही इस लाभ को सीमित रखा गया है

भारत का संविधान स्पष्ट रूप से धर्म के आधार पर भेदभाव को प्रतिबंधित करता है इसे सर्वोच्च न्यायालय ने अपने कई फैसलों के जरिये स्थापित किया है कि धर्मनिरपेक्षता संविधान की बुनियादी विशेषता है 42वें संविधान संशोधन के बाद से इस तथ्य को लेकर कोई संदेह नहीं रह गया था कि भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश है

42वें संशोधन ने प्रस्तावना में इस घोषणा को पेश किया था कि भारत धर्मनिरपेक्ष है, जिसका आशय है कि भारत सरकार सभी धर्मों के लिए एक समान, तटस्थ और वस्तुगत दृष्टिकोण को अपनायेगी और उसका किसी भी धर्म को सरोकार नहीं होगा

उच्चतम न्यायालय के ऐतिहासिक फैसलों ने धर्मनिरपेक्षता की आधारशिला रखी है केसवानंद भारती बनाम केरल राज्य वाले मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट शब्दों में फैसला सुनाया था कि राज्य “केवल धर्म के आधार पर किसी भी नागरिक के साथ भेदभाव नहीं कर सकता है

प्रत्यक्षता में अप्रत्यक्षता की नीति

अब दिनांक 28 मई 2021 की अधिसूचना से निपटने के लिए उचित होगा, जिसके जरिये केंद्र ने जिलाधिकारी या सचिव को वह शक्तियाँ हस्तांतरित की हैं जिसे वह नागरिकता अधिनियम, 1955 की धारा 5 और 6 के तहत प्रयोग करती आई है ये धाराएं भारत के एक नागरिक के तौर पर पंजीयन से संबंधित हैं और क्रमशः नागरिकीकरण के प्रमाणपत्र को उपलब्ध कराता है

नागरिकता प्रदान करने की शक्ति को किसी भी व्यक्ति पर लागू किया जा सकता है जो अफगानिस्तान, बांग्लादेश और पाकिस्तान में अल्पसंख्यक समुदाय से संबंध रखता हो, अर्थात हिन्दू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी और ईसाई से उसका ताल्लुक हो

अधिसूचना में आगे इस बात का प्रावधान है कि आवेदन की जांच और “आवेदक की पात्रता” से संतुष्ट होने के बाद, उन्हें एक प्रमाण पात्र जारी करके पंजीकरण या नागरिकीकरण द्वारा उनकी नागरिकता प्रदान कर दी जायेगी

इस अधिसूचना का लाभ निम्नलिखित स्थानों में रहने वाले संबंधित व्यक्तियों को उपलब्ध कराया जा रहा है:

 (i) गुजरात में मोरबी, राजकोट, पाटन और वड़ोदरा;

(ii)  छत्तीसगढ़ में दुर्ग और बलोदाबाज़ार;

(iii)  राजस्थान में जालोर, उदयपुर, पाली, बाड़मेर और सिरोही;

(iv)  हरियाणा में फरीदाबाद; और 

(v)   पंजाब में जालंधर

इसी प्रकार की एक अधिसूचना केंद्र सरकार द्वारा 23 अक्टूबर 2018 को जारी की गई थी, जिसमें नागरिकता अधिनियम, 1955 की धारा 5 और 6 के तहत शक्तियों को जिलाधिकारी या सचिव हस्तांतरित किया गया था, ताकि हिन्दुओं, जैनियों, सिक्खों, पारसियों, बौद्धों और ईसाइयों को नागरिकता प्रदान की जा सके, और मुस्लिम समुदाय को इससे बाहर रखा गया था

अधिसूचना के साथ तीन समस्याएं 

पहला, नागरिकता अधिनियम, 1955 धर्म या क्षेत्र-आधारित वर्गीकरण को मान्यता नहीं देता है सरकार द्वारा नागरिकता अधिनियम, 1955 के तहत अधिसूचना जारी की गई है यह एक तय कानून है कि सरकार द्वारा कानून के तहत अपनी शक्तियों का प्रयोग कर किसी भी अधिसूचना, उप-कानून, या आदेश को जारी करने के लिए आवश्यक रूप से लक्ष्य और कानून के उद्देश्य को आगे बढ़ाना होगा

एक प्रत्यायोजित कानून होने के नाते, अधिसूचना को चुनौती दी जा सकती है यदि यह संविधान या समर्थकारी अधिनियम का उल्लंघन करता है या यदि इसे बुरी मंशा के साथ बनाया गया है ये तीनों ही परिदृश्य मई की अधिसूचना पर लागू होते हैं क्योंकि नागरिकता अधिनियम, 1955 की योजना में कहीं भी धर्म या क्षेत्र-आधारित वर्गीकरण नहीं मिलता है जिसे यह अधिसूचना हासिल करना चाहता है

हालाँकि सीएए, 2019 का इरादा मूल रूप से इसे ही हासिल करने का है, यानि तीन देशों के छह विशेष धर्मों के लोगों को नागरिकता प्रदान करने का आसान शब्दों में कहें तो, जैसा कि तथाकथित तौर पर दर्शाने की कोशिश की गई है, अधिसूचना नागरिकता अधिनियम, 1955 के उद्देश्य के अनुरूप नहीं है

अधिसूचना में वर्गीकरण करने का कोई कारण नहीं है 

अधिसूचनाओं के अवलोकन से यह स्पष्ट तौर पर उजागर हो जाता है कि वे अफगानिस्तान, बांग्लादेश और पाकिस्तान के हिंदुओं, सिक्खों, बौद्धों, जैनियों, पारसियों और ईसाइयों की नागरिकता के लिए ऑनलाइन आवेदन का लाभ प्रदान करना चाहते हैं हालाँकि, मुसलमानों के स्पष्ट बहिष्करण के बारे में कोई भी वजह नहीं दिया गया है, जो कि केंद्र सरकार द्वारा कथित रूप से स्थानीय प्रशासन को शक्ति का एक हस्तांतरण मात्र किया गया है 

यहाँ इस बात को याद रखना महत्वपूर्ण है कि सरकार अपने कार्यकारी आदेशों में भी, मनमानेपूर्ण एवं अनुचित वर्गीकरण से बचने के लिए संविधान द्वारा बाध्य है 

अपरिवर्तनीय क्षति 

सीएए, 2019 की असंवैधानिकता के बारे में पहले ही काफी कुछ कहा जा चुका है इसकी वैधता को चुनौती देने वाली याचिकाएं अभी भी सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष विचाराधीन हैं उनमें प्राथमिक विवाद का बिंदु यह है कि सीएए संविधान के अनुच्छेद 14 और 21 का उल्लंघन करता है क्योंकि यह क्षेत्र और धर्म के आधार पर नागरिकता प्रदान करता है और इसमें मुस्लिम समुदाय को पूरी तरह से बहिष्कृत कर दिया गया है

अगर सरकार इस अबोध-दिखने वाली अधिसूचना के जरिये कुछ खास धर्मों के व्यक्तियों को नागरिकता देने की ओर बढ़ती है, जबकि बाकियों को इससे बाहर रखती है, तो यह एक तरह से ठीक उसी चीज को हासिल करना चाहती है जिसे सीएए के जरिये हासिल करने का इरादा था एक बार जब यह लाभ हजारों कोगों को इस प्रकार के असंवैधानिक तरीके से मिल जायेगा, तो यह अपरिवर्तनीय बन जायेगा और लंबित मामले व्यर्थ की कवायद साबित हो जायेंगे

मई अधिसूचना के नतीजों को लेकर हमें चिंतित होने की आवश्यकता है, खासकर जब सीएए, 2019 को चुनौती देने वाली याचिकाएं लंबित पड़ी हैं यह अधिसूचना स्पष्ट रूप से गैर-संवैधानिक है क्योंकि यह स्पष्टतया अनुचित एवं मनमाने ढंग से मुसलमानों को इसमें से बाहर रखकर संविधान के अनुच्छेद 14 और 21 का उल्लंघन करती है 

यह संविधान की मूल भावना के भी खिलाफ है सरकार संविधान सम्मत कार्य के लिए वचनबद्ध है जिसमें धर्म के आधार पर भेदभाव नहीं किया जा सकता वर्तमान अधिसूचना में खुल्लम-खुल्ला अनुचितता का परिणाम अनिवार्य रूप से संवैधानिकता के परीक्षण में विफल साबित होना चाहिये और जहाँ अधीनस्थ कानून संविधान का उल्लंघन करते हों, उसे निश्चित तौर पर परे हटा देना चाहिये

इस प्रकार की अधिसूचनाओं के द्वारा मनमानेपूर्ण एवं दुर्भावनापूर्ण उद्देश्य को हासिल करने का एकमात्र उद्देश्य सभी अल्पसंख्यकों को मुस्लिमों के स्पष्ट बहिष्करण की कीमत पर आश्रय प्रदान करने का है दूसरे शब्दों में कहें तो सरकार द्वारा मुहैया कराये जा रहे तथाकथित आश्रय का लाभ उठाने के लिए किसी भी अल्पसंख्यक समुदाय से संबंधित सदस्य के द्वारा पूरा किया जाने वाला मानदंड, उसका मुसलमान नहीं होना है यह तर्क ही अपने आप में बेहद विकृत एवं भेदभावपूर्ण है और यह सांप्रदायिक तनाव पैदा करने की हद तक जा सकता है

(रश्मि सिंह दिल्ली  में अधिवक्ता हैं व्यक्त किये गए विचार व्यक्तिगत हैं )

यह लेख मूल रूप से द लीफलेट में प्रकाशित हुआ था 

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