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नागरिकता के नियम का अपवाद

संविधान बनने के समय अधिकार और पहचान के रूप में नागरिकता के जो तीन-आयामी विचार अंकुरित हुए थे, संविधान के तैयार होने के बाद उनमें  महत्वपूर्ण बदलाव आए हैं।
नागरिकता के नियम का अपवाद

उस संवैधानिक क्षण में जब अधिकार और पहचान के रूप में अंकुरित नागरिकता के तीन-आयामी विचार, जिनमें संविधान का मसौदा तैयार होने के बाद से महत्वपूर्ण बादलाव आए हैं। हम नागरिकता के इस मुद्दे गणतंत्र दिवस के अवसर पर संविधान सभा में नागरिकता संबंधी बहसों के साथ-साथ ऐतिहासिक और भौतिक स्थितियों को देखने के साथ नागरिकों के रोजमर्रा के जीवन पर नज़र डाल रहे है जिन्होने चर्चा, विरोध के माध्यम से राज्य के साथ कानूनी रूप से जुड़े। 

नागरिकता के इस समकालीन जीवन की गहन विशेषता नागरिकता को बेदखल करने की प्रथा है। आधिकारिक मनमानी और विदेशियों पर बने न्यायाधिकरणों (एफ़टी) ने असंख्य लोगों को नागरिकता के धुंधलके में धकेल दिया है। अदालतों ने भी इसमें योगदान दिया है। उन्होंने कानून के निज़ाम को बनाए रखने का वादा जरूर किया हो सकता है। लेकिन, उन्होंने सबसे कमजोर और वंचित तबकों लोगों के जीवन में हर किस्म के असर को सूखा दिया है, एम॰ मोहसीन आलम भट, एसोसिएट प्रोफेसर, जिंदल ग्लोबल लॉ स्कूल उपरोक्त मसले पर लिख रहे हैं। लीफ़लेट में प्रकाशित इस दूसरे लेख को जो द स्पेशल सीरीज़ ऑन सिटिजनशिप का हिस्सा है को झूमा सेन ने संपादित किया है।

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नागरिकता शायद भारत में कानूनी गतिविधि का सबसे बड़ा क्षेत्र है। यह न केवल उन लोगों के लिए भी सबसे अधिक असर डालने वाला मुद्दा है, जो खुद के भारतीय होने को मानते हैं, बल्कि हमारे संवैधानिक लोकतंत्र के लिए भी असरदार मुद्दा है, जो नागरिकता को नीति के मुख्य  संवैधानिक तत्व के रूप में मानता है।

चुनौती के पैमाने पर ध्यान दें। असम के विदेशी ट्रिब्यूनल (एफ़टी) ने 117,000 से अधिक व्यक्तियों को विदेशी घोषित कर दिया है। 80,000 से अधिक मामले लंबित पड़े हैं। सीमा पुलिस ने असंख्य व्यक्तियों को एफटी के दायरे में लाने के लिए संदर्भित किया है और वह इस मूहीम को जारी रख रही है। भारत के निर्वाचन आयोग (ईसीआई) ने कम से कम 313,046 व्यक्तियों को वर्गीकृत किया और 113,000 से अधिक व्यक्तियों को संदिग्ध या "डी" मतदाताओं के रूप में वर्गीकृत किया है, जिनके नाम मतदाता सूची में होने के बावजूद वे चुनाव में भाग नहीं ले सकते हैं। उम्मीद है कि एफटी इन "डी" मामलों पर निर्णय ले लेगी। करीब 19 लाख से अधिक लोगों को राज्य के नागरिकों के राष्ट्रीय रजिस्टर (एनआरसी) से बाहर कर दिया गया है- वे एफटी में अपील दायर कर सकते है, लेकिन इसमें हारने पर वे राज्य के नागरिक नहीं रह पाएंगे।

इन हालात में भारत की न्यायपालिका को इसमें हस्तक्षेप करने के लिए प्रेरित होना चाहिए था। इस समय न्यायालयों को कानूनी दिशानिर्देशों और मानकों को स्पष्ट रूप से निर्धारित करने की सख्त जरूरत है जो कि इसमें शामिल प्रश्नों के संवैधानिक महत्व के संज्ञान को ले सके। लेकिन वे ऐसा करने में पूरी तरह नाकाम रहे हैं। वे नौकरशाही की भेदभाव वाली प्रथाओं को भूल गए है- जो अक्सर अव्यवस्थित और अस्पष्ट होती हैं जिसमें कानून के निज़ाम की अक्सर अनुपस्थिति होती है। 

क़ानून का निज़ाम, अपवाद का निज़ाम 

नागरिकता के मुद्दे पर, भारत की अपीलीय न्यायपालिका दोहरी आवाज़ में बोलती है। यह कानून के निज़ाम के खास संवैधानिक मूल्यों को सार्वजनिक रूप से बताती है। और उसी समय बिना किसी विराम या विडंबना के वह अपवाद के रूप में नागरिकता प्रदान करती है।

इस असहज विरोधाभास की सबसे बेहतर अभिव्यक्ति सर्बानंद सोनोवाल I का 2005 का निर्णय है। यह निर्णय अवैध रूप से रह रहे प्रवासियों (ट्रिब्यूनल द्वारा निर्धारण) (IMDT) अधिनियम, 1983 को राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर हटा देता है। न्यायमूर्ति माथुर ने तर्क दिया कि भारत   अप्रवासियों और इस्लामी कट्टरपंथियों के आक्रमण का सामना करता रहा है। उनके अनुसार, सिफारिशी विदेशी अधिनियम ही एकमात्र तरीका था जिससे विदेशियों की पहचान की जा सकती थी, ताकि इस अंतर्राष्ट्रीयको  आक्रमण रोका जा सके। 

नागरिकता के प्रति इस तरह का न्यायिक दृष्टिकोण में क़ानूनी सिज़ोफ्रेनिया की तरह असर करता है। सर्बानंद सोनोवाल पर निर्णय के बाद में जो कुछ हुआ है, वह एक सुई जेनिस जैसी स्थिति है- जिसमें उचित प्रक्रिया के सामान्य संवैधानिक मानकों को धता बता दिया गया और उस पर राष्ट्रीय सुरक्षा की असाधारणता का काला बादल छा गया। 

याचिकाकर्ताओं ने कोर्ट के सामने गुहार लगाई कि नागरिकों को निशाना बनाने और उनके उत्पीड़न के खिलाफ सुरक्षा उपायों को शामिल करना सबसे बड़ी जरूरत है। जवाब में, न्यायमूर्ति माथुर ने एक उल्लेखनीय दावा किया। संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत न्याय, निष्पक्षता और तर्कशीलता के सिद्धांत को किसी भी आपराधिक मुकदमे में लागू किया जा सकता है। फिर न्यायाधीश ने कहा, लेकिन इस सिद्धांत को "किसी विदेशी की पहचान और उसके निर्वासन के मामले में लागू नहीं किया जा सकता है।" ऐसा इसलिए क्योंकि वे आगे कहते हैं कि नागरिकता का निर्धारण किसी व्यक्ति के जीवन या उसकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर कोई असर नहीं डालता है! और जैसे ही उन्होंने यह सब कहा, उन्होंने बेतुके तर्क के साथ पैरा खत्म किया वह भी बिना किसी तर्क के कि विदेशी निज़ाम किसी भी समय "न्यायसंगत, उचित और तर्कशील" था। 

असम में विदेशी ट्रिब्यूनल शामिल होते लोग। स्रोत: इकोनॉमिक टाइम्स

ग़ैर-आवेदन की रणनीति 

देश की अपीलीय न्यायपालिका ने असाधारणता की रणनीति को कैसे लागू किया है, इसका सबसे बड़ा उदाहरण नागरिकता से बेदखली करने की नौकरशाही की प्रथाओं पर उनके खुद के घोषित कानूनी मानदंडों को लागू करने से लगातार इनकार करना है।

1997 और 1998 में सर्कुलर की एक बड़ी श्रृंखला में, ईसीआई ने 313,046 व्यक्तियों को "डी" मतदाता यानि संदिग्ध और विवादित नागरिक के रूप में चिह्नित किया था। परिणामस्वरूप हजारों लोगों ने अपना मतदान करने का अधिकार खो दिया। इस कार्रवाई के पीछे की मंशा पता चलने के तुरंत बाद, कई याचिकाकर्ताओं ने चुनाव आयोग के फैसले को चुनौती देते हुए गौहाटी उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया।

जैसा कि उम्मीद थी, उच्च न्यायालय ने एच.आर.ए. चौधरी मामले में कहा कि ईसीआई में किसी व्यक्ति को भारतीय नागरिक न होने के कारण मतदान से वंचित करने की पूर्ण शक्ति है।  लेकिन ऐसा करते वक़्त इस बात को सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि इसका निर्णय "मनमाना, दुर्भावनापूर्ण या पक्षपातपूर्ण" न हो। न्यायालय ने इस मामले के मद्देनजर कई प्रक्रियात्मक सुरक्षा उपायों का प्रस्ताव किया। जिसमें ईसीआई द्वारा उस व्यक्ति की सुनवाई का उचित अवसर देना चाहिए। आयोग निर्णय लेते वक़्त सभी सबूतों को ध्यान में रखे। उन्हें सभी पारित निर्णयों में किसी व्यक्ति को मतदान करने से रोकने के लिए उचित कारण या सबूत दर्ज करने होंगे। न्यायालय के मुताबिक उपरोक्त तय मानक, "कानून के निज़ाम के अनुरूप" हैं। 

इन सराहनीय कानूनी प्रस्तावों का न्यायिक भाग्य कुछ और नहीं बल्कि एक डरावना मज़ाक लगता है। 

इस फैसले के बाद, कई याचिकाकर्ताओं ने उच्च न्यायालय में फिर से गुहार लगाई कि वास्तव में जिन प्रक्रियाओं को आपने अनिवार्य बनाया था, उनमें से किसी भी प्रक्रिया को लागू नहीं किया गया है। ईसीआई ने "डी" मतदाता को तय करते वक़्त न तो कोई पूछताछ की न ही सुनवाई की और कोई कारण या जानकारी भी नहीं दी। आरटीआई के जवाबों से पता चलता है कि ईसीआई के पास लोगों को ‘डी’ मतदाता चिन्हित करने का कोई खास आधार दर्ज़ नहीं था।

फरवरी 2019 में इस तरह की एक याचिका पर निर्णय लेते हुए, उच्च न्यायालय की एकल-न्यायाधीश की पीठ ने जिसकी बाद में एक खंडपीठ ने भी पुष्टि की थी- इस मुद्दे को पूरी तरह से जोड़ दिया। पीठ ने याचिकाकर्ता "डी" मतदाता को चिह्नित करने के ईसीआई अधिकारियों से आधार के बारे में जानकारी देने के लिए कहने के बजाय, उसने पुलिस को आदेश दिया कि इस मामले को एफटी को भेज दिया जाए। 

अब यह एक आदर्श सिद्धान्त बन गया है। जनवरी 2021 के एक हालिया मामले को लें।  याचिकाकर्ता ने आरोप लगाया कि ईसीआई ने उसके मतदान के अधिकार को छीनने से पहले किसी भी तरह की जांच नहीं की है। "कोई व्यक्ति ’डी' मतदाता है या नहीं, "पीठ के मुताबिक," उसे तथ्य के आधार पर तय किया जाना चाहिए और ऐसा तय करने का सबसे उपयुक्त मंच संबंधित एफटी प्राधिकरण है। "उच्च न्यायालय ने कहा कि अनुच्छेद 226 के मुताबोक उसमें इस तथ्यात्मक सवाल को तय करने की क्षमता नहीं है और पुलिस से मामले को एफटी के सामने पेश करने का आदेश दे दिया। लेकिन याचिकाकर्ता का मामला खुद के स्टेटस के बारे में नहीं था! मसला ये था कि क्या ईसीआई ने उचित प्रक्रिया का पालन किया था। इसे केवल "तथ्यात्मक" मसला बनाने के मामले में, अदालत राज्य मशीनरी के कार्यों पर कानून के शासन को लागू करने के अपने संवैधानिक दायित्व को पूरा करने में पूरी तरह से विफल रही है।

"डी" मतदाता के रूप में चिह्नित व्यक्ति अब एक अजीब सी पहेली में फंस गए हैं। जब भी वे न्यायिक मानकों को लागू करने के लिए अदालतों की तरफ रुख करते हैं, उनके मामलों को एफटी के सामने भेज दिया जाता है जो लोगों को मनमाने ढंग से विदेशी घोषित करने के लिए  कुख्यात हो गए हैं। एचआरए चौधरी मामले ने कानून का राज घोषित किया। गैर-अनुप्रयोग की रणनीति अपवाद के क्षेत्र को बनाए रखती है।

उत्पीड़न पर ध्यान न देना 

इस न्यायिक रणनीति को कानूनी विवादों में पाया जा सकता है। उदाहरण के लिए, एफटी प्रक्रिया में लक्षित व्यक्तियों को डराने वाली प्रक्रिया का इस्तेमाल करना।

सर्बानंद सोनोवाल I मसले के बाद, बड़ी गंभीर चिंता ये थी कि विदेशियों की पहचान करने की आड़ में वास्तविक नागरिकों को परेशान किया जा सकता है। यूपीए की अगुवाई वाली केंद्र सरकार ने ट्रिब्यूनल के आदेश 1964 में संशोधन किया था, इससे पहले कि एफटी किसी के संदिग्ध या विदेशी होने का नोटिस जारी करे उसे गहरी जानकारी इकट्ठा करने को कहा गया था। सुप्रीम कोर्ट ने सर्बानंद सोनोवाल II में इसे खारिज कर दिया था। 

जस्टिस एस बी सिन्हा

लेकिन न्यायमूर्ति सिन्हा सुरक्षा उपायों की जरूरत के प्रति संवेदनशील दिखाई दिए। न्यायाधीश के मुताबिक, "एक व्यक्ति जो खुद के नागरिक होने का दावा करता है, वह इसे साबित करने के लिए सभी किस्म के सुरक्षा उपायों का हकदार हैं जिसमें नागरिक होने के प्रावधान और प्रक्रियात्मक दोनों तथ्य हैं जो दर्शाते है कि वह एक नागरिक है।" नागरिकता निर्धारण की प्रक्रियाओं में निष्पक्षता के सिद्धांतों को लागू करते वक़्त, न्यायमूर्ति सिन्हा ने कहा कि नोटिस जारी करने से पहले, एफटी को नोटिस का "मुख्य आधार तय करने की जरूरत है।" "प्राथमिक ज़िम्मेदारी कोर्ट के मुताबिक "राज्य की होगी।"

इसके कुछ साल बाद, गौहाटी उच्च न्यायालय ने इन मानकों की पुष्टि की। कार्यवाही के दौरान, याचिकाकर्ताओं ने जोर देकर कहा कि सीमा पुलिस- जोकि मामलों को संदर्भित करने वाली प्राथमिक संस्था है- लगातार निष्पक्ष और उचित जांच में विफल रही है। उन्होंने तर्क दिया कि एफटीएस ने यंत्रवत् रूप से नोटिस जारी किए, जिससे उत्तरदाताओं को भारी कठिनाई हुई, गरीब होने के बावजूद, वकीलों के चक्कर लगाने और खुद का बचाने के लिए लंबी दूरी तय करनी पड़ी। 

इन घोषणाओं के बाद से इस "प्राथमिक ज़िम्मेदारी" या दायित्व का क्या भाग्य रहा है? भारी तादाद में मिले सबूतों से पता चलता है कि पुलिस की पुंछताछ के लिए एफटी ने जो भी मोतीस जारे किए उनमें दिमाग का इस्तेमाल नहीं किया गया हैं। पुलिस पूछताछ अक्सर अनुपस्थित, विरोधाभासी, और यहां तक कि कभी-कभी बनाई हुई होती है। न्यायिक मिसाल के बावजूद, न तो एफटी और न ही गौहाटी उच्च न्यायालय ने इस तरह की पूछताछ और संदर्भ की समीक्षा की है।

उच्च न्यायालय व्यावहारिक रूप से इन बाधाओं को चुनौती देने वाले किसी भी तर्क को नहीं मानता है। इसने अनुच्छेद 226 के तहत अपनी जांच को इस हद तक सीमित कर दिया है कि वह कभी भी रिकॉर्ड नहीं मँगवाता है न ही प्रक्रिया का मूल्यांकन करता है। किसी के लिए भी यह एक आश्चर्य की बात है कि कैसे- खुद पर थोपे इस प्रावधान की आड़ में-अदालत कभी भी अपने स्वयं के मानकों को लागू करने में सफल नहीं हो सकती है। इन मानकों को कभी भी अच्छी तरह से लागू नहीं किया गया है।

छल की रणनीति 

भारत की अपीलीय अदालतों ने उन कानूनी सवालों के जवाब न देने के तरीके भी खोजे हैं जिनका लाखों लोगों की नागरिकता पर भारी असर पड़ रहा है। सर्वोच्च न्यायालय के निर्णयों का रिकॉर्ड एक उल्लेखनीय विशेषता को दर्शाता है। अपवाद को छोड़ दें तो इसने नागरिकता निर्धारण, दस्तावेजों और प्रक्रिया से संबंधित मौलिक कानूनी विवादों से जुड़े सबूतों पर स्पष्ट निर्णय नहीं दिए है। 

ऐसा नहीं है कि कोई ऐसे मामलों कमी है। न्यायालय के समक्ष बहुत संख्या में याचिकाएं मौजूद है। लेकिन इस सब के जवाब में, अदालत ने कानूनी रूप से उनका समाधान नहीं करने और न उयांकी समीक्षा करने के लिए उच्च न्यायालय में भेजने की रणनीति अपनाई है।

यह कोई अलग बात नहीं है कि कैसे सर्वोच्च न्यायालय ने वर्षों से इंतजार कर रहे प्रमुख संवैधानिक प्रश्नों को कैसे छोड़ा है। सर्वोच्च न्यायालय ने नागरिकता अधिनियम, 1955 की धारा 3 के तहत जन्मसिद्ध नागरिकता के सवाल को असम में बैक-बर्नर पर डाल दिया है। 2003 में नागरिकता अधिनियम में संशोधन की संवैधानिकता, जिसने भारत में पैदा हुए बच्चों से नागरिकता वापस ले ली थी अभी तक उस पर कोई निर्णय नहीं हुआ है। इसलिए नागरिकता संशोधन अधिनियम, 2019 की संवैधानिकता का निर्धारण का मुद्दा भी कहीं आस-पास नज़र नहीं आता है।

नागरिकता के इस समकालीन जीवन की गहन विशेषता नागरिकता के प्रसार की कपटी प्रथा है। आधिकारिक मनमानी और एफटी की फितरत ने असंख्य लोगों को नागरिकता के धूसर क्षेत्र में धकेल दिया है। अदालतों ने इसमें योगदान दिया है। उन्होंने कानून के शासन के वादे की घोषणा की हो सकती है। लेकिन उन्होंने इसे सबसे कमजोर लोगों के जीवन में किसी भी प्रभावशीलता के लिए सूखा दिया है।

नागरिकता के इस समकालीन जीवन की गहन विशेषता नागरिकता को बेदखल करने की प्रथा है। आधिकारिक मनमानी और विदेशियों पर बने न्यायाधिकरणों ने असंख्य लोगों को नागरिकता के धुंधलके में धकेल दिया है। अदालतों ने भी इसमें योगदान दिया है। उन्होंने कानून के निज़ाम को बनाए रखने का वादा जरूर किया हो सकता है। लेकिन, इसने सबसे कमजोर और वंचित तबकों के लोगों के जीवन में हर किस्म के असर को सूखा दिया है। 

यह लेख मूल रूप से The Leaflet में छपा था।

एम. मोहसीन आलम भट, जिंदल ग्लोबल लॉ स्कूल में एसोसिएट प्रोफ़ेसर हैं। वे परिचय के सह-संस्थापक हैं जो असम में नागरिकता निर्धारण के लिए समर्पित एक सहयोगी क़ानूनी सहायता परियोजना है। विचार व्यक्तिगत हैं।)

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करे

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