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जनहित के लिहाज़ से नागरिकता

सेंटर फ़ॉर इक्विटी स्टडीज़ और थ्री एसेज़ कलेक्टिव की तरफ़ से संयुक्त रूप से तैयार इंडिया एक्सक्लुज़न रिपोर्ट 2019-2020 भारत में सामाजिक-आर्थिक बहिष्करण के अलग-अलग पहलुओं पर गहन अध्ययन करती है।
जनहित के लिहाज़ से नागरिकता
फ़ोटो: साभार: संदीप यादव,इंडियन एक्सक्लुज़न रिपोर्ट 2019-20

सेंटर फ़ॉर इक्विटी स्टडीज़(CES) और थ्री एसेज़ कलेक्टिव की तरफ़ से संयुक्त रूप से तैयार इंडिया एक्सक्लुज़न रिपोर्ट 2019-2020 भारत में सामाजिक-आर्थिक रूप से अलग-थलग किये जाने के अलग-अलग पहलुओं पर गहन अध्ययन करती है। इस रिपोर्ट के अलग-अलग अध्याय अलग-अलगग विद्वानों,शोधकर्ताओं और पशेवरों ने लिखे हैं। जैसा कि सीईएस के कार्यकर्ता, लेखक और निर्देशक हर्ष मंदर बताते हैं, "विभिन्न तबकों या लोगों को अलग-थलग किये जाने पर तैयार की गयी इस रिपोर्ट श्रृंखला का मुख्य आधार यह है कि किसी भी लोकतांत्रिक स्टेट का मुख्य कर्तव्य यही है कि वह जनहित से जुड़े सभी कार्यों और गतिविधियों की पहुंच को सबसे कमज़ोर तबकों सहित सभी लोगों तक बराबरी के साथ सुनिश्चित करे।”

इस रिपोर्ट के पहले भाग में प्रवासी कामगार, शहरी भारतीय मुसलमान,भारत के विभिन्न शहरों के सेक्स वर्कर और मैला साफ़ करने वाले कामगार जैसे कुछ चुनिंदा कमज़ोर वर्ग पर किया गया गहन शोध कार्य शामिल हैं। रिपोर्ट का दूसरा भाग चुने गये आम लोगों से जुड़े चार पहलुओं-नागरिक अधिकार,शिशु देखभाल और शिक्षा,सार्वजनिक रोज़गार और श्रमिकों की मज़दूरी के संरक्षण से लोगों या तबकों को अलग-थलग किये जाने पर रौशनी डालता है। अध्याय "सिटिजनशिप एण्ड मास प्रोडक्शन ऑफ़ स्टेटलेसनेस से लिया गया एक अंश नीचे दिया गया है।"

यह पूरी रिपोर्ट सेंटर फॉर इक्विटी स्टडीज़ की वेबसाइट पर यहां उपलब्ध है।

जनतहित के रूप में नागरिकता

इंडिया एक्सक्लुज़न रिपोर्ट (IXRs) अलग-थलग किये जाने को उस स्टेट की तरफ़ से बनायी गयी प्रक्रियाओं के तौर पर परिभाषित करती है,जो व्यक्तियों और समूहों की जनहित तक पहुंच की राह में बाधायें पैदा करता है,उस पहुंच को झेलाऊ बना देता है या उन बाधाओं को और गहरा कर देता है। वे किसी जनहित को उस व्यक्तिगत या सार्वजनिक हित,सेवा,लाभ, सामर्थ्य या स्वतंत्रता के तौर पर परिभाषित करते हैं, जो हर मनुष्य के लिए गरिमामय जीवन जीने में सक्षम होने के लिए ज़रूरी है।' नौकरशाही और क़ानूनी प्रक्रियाओं की ओर से नागरिकता को लेकर पैदा किये गये ख़तरे का इस मायने के भीतर इस अलग-थलग किये जाने के सिलसिले में एक सूक्ष्म और गहरा निहितार्थ है।

एक बहुआयामी अवधारणा के तौर पर नागरिकता को सबसे अच्छा समझा जाता है। एक क़ानूनी नज़रिये से नागरिकता सही मायने में राजनीतिक हैसियत और अधिकारों की गारंटी होती है। आधुनिक राजनीति में नागरिक संवैधानिक समुदाय से जुड़ाव रखते हैं। इसका आम तौर पर मतलब यही है कि स्टेट उन्हें कम से कम सैद्धांतिक रूप से नागरिक,राजनीतिक और सामाजिक-आर्थिक अधिकारों का क़ानूनी तौर पर उपलब्ध एक व्यापक गुंज़ाइश देता है। जानकारों ने अक्सर अधिकारों की इस गारंटीशुदा गुंज़ाइश के सिलसिले में ही नागरिकता की अवधारणा को एक रूप-रेखा दी है। मसलन,उनका कहना है कि नागरिकों के लिए वह नागरिकता ही हो सकती है,जो क़ानून और व्यक्तिगत अधिकारों की सुरक्षा की समान गारंटी देती है, राजनीतिक नागरिकता मतदान जैसे राजनीतिक अधिकारों की गारंटी देती है, और सामाजिक नागरिकता सभी सदस्यों को जीवन स्तर के बुनियादी मानकों की गारंटी देती है (मार्शल, 1963)।

आधुनिक लोकतांत्रिक स्टेट भी नागरिक भागीदारी को राजनीतिक भागीदारी की गारंटी के साथ जोड़ते हैं, मसलन-वोट देने का अधिकार। नागरिक क़ानूनी रूप से चल रहे लोकतांत्रिक विचार-विमर्श और नीति-निर्माण में भाग लेने के हक़दार होते हैं। इसी तरह,एक नागरिक न सिर्फ़ अधिकार पाने के हक़दार होते हैं, बल्कि कर्तव्यों के निर्वहन से भी बंधे होते हैं। आधुनिक राजव्यवस्थायें अपने नागरिकों से अक्सर क़ानून के साधन के ज़रिये सामूहिक राजनीतिक जीवन में योगदान करने की अपेक्षा करती हैं।

ज़ाहिर है,नागरिकता की हैसियत रखने वाले व्यक्ति का हमेशा यही मतलब नहीं होता कि क़ानूनी रूप से गारंटी वाली हर चीज़ से वास्तव में उसे ही फ़ायदा मिलेगा,बल्कि,इसका मतलब यह होता है कि जिस किसी भी चीज़ की क़ानूनी तौर पर गारंटी दी गयी है,उसे लेकर उसकी मांग के लिहाज़ से एक संस्थागत रूप से व्यवहारिक दावा तो बनता है (सॉमर, 1994)। इस मायने में नागरिकता की अवधारणा बनाने का एक और तरीक़ा होता है-राज्य और समुदाय से बड़े पैमाने पर इस दावे को लेकर इसकी व्यापक संस्थागत पहुंच की गारंटी का हासिल होना।

वैधता को छोड़ भी दें,तो नागरिकता अपना होने की भी निशानी होती है। नागरिकता की पात्रता और अपात्रता का सीमांकन करते हुए स्टेट नागरिकता के नियम-क़ायदे बनाते हैं। इस तरह, नागरिकता के नियम यह दर्शाते हैं कि एक राजनीतिक समुदाय अपनी मानकीय आधार को कैसे समझता है। मिसाल के  तौर पर, अगर कोई देश अपने यहां पैदा लेने वाले प्रत्येक व्यक्ति को नागरिकता प्रदान करता है (जिसे अक्सर जन्मजात या जन्मसिद्ध नागरिकता के रूप में वर्णित किया जाता है), तो हम यह मान सकते हैं कि इसने राष्ट्र से सम्बन्धित क्षेत्रीय अवधारणा को अपना लिया है।

नागरिकता का यह बहुआयामी वैचारिकता हमें नागरिकता और जनहित,और उन विभिन्न तरीक़ों,जिसमें नागरिकता के सिलसिले में अलगाव हो सकता है,उनके बीच के सम्बन्ध के बारे में सोचने देती है।

पहले स्तर पर,नागरिक होने की हैसियत में बाधायें आती हैं और एक साधन के अर्थ में अलग-थलग किये जाने को लेकर व्यापक पैमाने पर इस बाधा का इस्तेमाल होता है। नागरिक होने की हैसियत अधिकारों और पात्रता के प्रावधान के ज़रिये अन्य जनहित के इस्तेमाल की सुविधा प्रदान करती है। अगर स्टेट किसी तरह का अतिक्रमण करता है, या अपने दायित्वों को पूरा करने या निष्पादित कर पाने में नाकाम रहता है, तो नागरिकता संस्थागत पहुंच,भागीदारी और निवारण की अनुमति देती है। इस तरह,नागरिकता एक शानदार जनहित है,क्योंकि नागरिकता की हैसियत व्यक्तियों और समूहों को आईएक्सआर के अपनाये गये अर्थ के भीतर ज़्यादातर अन्य कार्य करने की अनुमति देती है। नतीजतन,नागरिता से वास्तविक इन्कार या उससे वंचित होना जनहित से अलग-थलग किये जाने के तौर पर सामने आता है।

स्टेट का नागरिकता से इनकार करना या वंचित किया जाना भी एक अहम साधनों के सिलसिले में लोगों या तबकों को अलग-थलग किये जाने के तौर पर ही सामने आता है। नागरिकता की हैसियत उस अहम पहलू  का निर्माण करती है,जिसे राजनैतिक दार्शनिक जॉन रॉल्स ‘आत्मसम्मान के सामाजिक आधार’ कहते हैं। उनके विचार में किसी भी न्यायिक प्रणाली को व्यक्तियों के आत्म-सम्मान या आत्म-गरिमा की गारंटी देनी चाहिए,क्योंकि किसी व्यक्ति के लिए सम्मान का यह तत्व अच्छा जीवन जीने के लिए सबसे अहम तत्व होता है।

रॉल्स के मुताबिक़,यह तभी मुमकिन है,जब न्यायपूर्ण समाज सभी को समान नागरिकता की गारंटी देता हो, एक व्यक्ति के रूप में सभी समान रूप से प्रतिष्ठित होने की हैसियत को मान्यता देता हो (रॉल्स,1999,पृष्ठ 386) । मार्था नुसबॉम ने बाद में अपने मुख्य सामर्थ्य की इस सूची में 'आत्म-सम्मान के सामाजिक आधारों' को भी शामिल कर लिया (नुसबौम, 2011, पृष्ठ 34)। नागरिकता,समुदाय के सदस्यों के बीच पारस्परिक मान्यता को और स्पष्ट कर देती है,क्योंकि उनमें से हर एक समान रूप से उस समुदाय से सम्बन्धित होता है, और इस प्रकार,हर एक व्यक्ति बराबरी के सम्मान का हक़दार भी होता है। नागरिकता से इन्कार किया जाना या वंचित किया जाना अनिवार्य रूप से एक ऐसी घोषणा है,जो किसी व्यक्ति के उस दावे को नामंज़ूर कर देती है कि कोई व्यक्ति समुदाय के समान सदस्य के रूप में बराबरी के सम्मान का हक़दार है। इस तरह,नागरिकता एक ग़ैर-साधन के अर्थ में भी एक जनहित ही है, क्योंकि आईएक्सआर की तरफ़ से अपनाये गये अर्थ के भीतर यह लोगों का गरिमामय जीवन जीने का एक सामर्थ्य है।

हन्ना आरेंट ने नागरिकता और मानव गरिमा के बीच के सम्बन्धों के एक और सम्मोहक बदलाव को स्पष्ट किया है। आरेंट के मुताबिक़, मानवीय गरिमा तभी संभव है,जब कोई व्यक्ति किसी राजनीतिक समुदाय से जुड़ा हुआ हो। मानव गरिमा भी व्यक्ति की स्थिति और स्वतंत्र घटक होने की पात्रता को मान्यता दिलाने वाली राजनीति के अन्य तरह के जुड़ाव का ही परिणाम होती है।

आरेंट के मुताबिक़,जब कोई भी व्यक्ति नागरिकता से वंचित कर दिया जाता है, तो इसके नतीजे के तौर पर उससे मानवता अपने आप छिन जाती है। इससे दुखि होकर वह कहती हैं कि ‘इस अधिकार के बिना नागरिक के रूप में कुछ राजनीतिक समुदाय से जुड़े होने के किसी भी तरह के अधिकार सभी के लिए मानव गरिमा की गारंटी नहीं हो सकते (1973, पृष्ठ संख्या 296- 299)। जैसा कि मानवाधिकारों की सार्वभौमिक घोषणापत्र के अनुच्छेद 15 से संकेत मिलता है कि अंतर्राष्ट्रीय क़ानून नागरिकता की इस महत्ता को एक मानवाधिकार के रूप में मान्यता देता है, यह अनुच्छेद इस बात का ऐलान करता है कि सभी को राष्ट्रीयता का अधिकार है,और किसी को भी उसकी राष्ट्रीयता से मनमाने तरीक़े से वंचित नहीं किया जा सकता है। इस मायने में नागरिकता से इन्कार किया जाना और वंचित किया जाना गहरे तौर पर किसी को अलग-थलग किया ही जाना है,क्योंकि यह स्थिति किसी व्यक्ति को राज्यविहीन बना सकती है और उसे बिना किसी राजनीतिक जुड़ाव के सामने रख सकता है, और इस तरह उसकी गरिमा के साथ पूरी तरह से समझौता किया जाता है।

जनहित के रूप में नागरिकता के मूल्यांकन से पता चलता है कि राज्य को क़ानूनी और संस्थागत साधनों के ज़रिये इस हैसियत की गारंटी को सुरक्षित करना चाहिए। इसे व्यक्ति की नागरिकता की हैसियत को मनमाने ढंग से निशाने पर लिये जाने का विषय नहीं बनने देना चाहिए। नागरिकता सत्यापन और प्रमाणीकरण का मुद्दा उठने की स्थिति में इसके लिए एक पारदर्शी क़ानूनी संरचना भी तैयार करनी चाहिए।

इसके साथ-साथ इस बात का भी ख़्याल रखा जाना चाहिए कि किसी व्यक्ति से उसकी नागरिकता की हैसियत को लेकर मनमाने ढंग से और बहुत ज़्यादा पूछताछ की मांग नहीं करनी चाहिए। किसी की नागरिकता पर,ख़ास तौर पर पारदर्शी, निष्पक्ष और उचित संस्थागत प्रक्रियाओं की ग़ैर-मौजूदगी में मनमाने ढंग से सवाल उठाना सही मायने में ख़ासकर नागरिकता के नुकसान के गंभीर नतीजों के लिहाज़ से उसके जीवन में गंभीर अनिश्चितता को दावत देना होगा। इन क़ानूनी प्रक्रियाओं को अचानक मनमाने आधिकारिक विवेकाधिकार और मर्ज़ी पर छोड़ने से नागरिकता संदिग्ध बनायी जा सकती है। संदिग्ध नागरिकों को अपनी हैसियत को बरक़रार रखने के लिए अपने सभी मानव और भौतिक संसाधनों को दांव पर लगाने के लिए मजबूर किया जाता है, और यह स्थिति उन्हें किसी अन्य सरकारी जनकल्याण की योजनाओं के फ़ायदे उठाने से रोक देती है। ऐसे में संदिग्ध या अनिश्चित नागरिकता प्रदान करने वाली ये प्रक्रियायें सामान्य जीवन को पूरी तरह ठप कर देती हैं।

इस तरह,जनहित के रूप में किसी को नागरिकता से बाहर किये जाने की स्थिति तब पैदा होती है,जब किसी व्यक्ति को क़ानूनन (या यहां तक कि वास्तविक) नागरिकता दिये जाने से इनकार कर दिया गया हो या नागरिकता से वंचित कर दिया जाता हो,बल्कि यह स्थिति तब भी पैदा होती है,जब नागरिकता की हैसियत को अनुचित और मनमानी प्रक्रियाओं से ख़तरा पैदा हो जाता हो। इन हालात से नुकसान की संभावना को बढ़ा-चढ़ाकर बताया जाता है,और ऐसी स्थिति जानबूझकर पैदा करके अप्रत्यक्ष रूप से अलग-थलग किये जाने की स्थिति पैदा की जाती है। संदिग्ध नागरिकता सही मायने में नागरिकता से अलग-थलग किया जाना ही होता है, क्योंकि यह स्थिति नागरिक होने की हैसियत की उस सुरक्षा के अहसास को कमज़ोर कर देती है,जो आत्म-सम्मान की एक अहम बुनियाद है।

इस तरह,नागरिकता के सिलसिले में अलग-थलग किया जाने की स्थिति तीन तरह की हो सकती है। सबसे पहली स्थिति, नागरिकता के वापस लिये जाने के नतीजे के तौर पर अलग-थलग किये जाने की वह स्थिति हो सकती है, जो नागरिक होने की हैसियत के लिहाज़ से जनहित तक की पहुंच को संदिग्ध बना देती है। दूसरी स्थिति,जनहित के इनकार और राजनीतिक समुदायों से जुड़ाव से बेदखली के परिणामस्वरूप नागरिकता के अपदस्थ किये जाने वाली अवहेलना के तौर पर अलग-थलग किये जाने की एक वास्तविक स्थिति पैदा हो सकती है। और तीसरी स्थिति,वह स्थिति है,जिसे आईएक्सआर प्रतिकूल समावेश के रूप में वर्णन करता है। नागरिकता के जनहित के सिलसिले में यह प्रतिकूल समावेशन की स्थिति वास्तविक या क़ानूनी तौर पर नागरिकता वापस लिये जाने से नहीं, बल्कि उस अस्थिर नागरिकता से पैदा होती है,जो सभी जनहितों के सार्थक अवसर और पहुंच की संभावना को कम कर देती है।

हन्नाह आरेंट (1973)। द ओरिजिन्स ऑफ़ टोटैलियनिज़्म। न्यू यॉर्क: हार्वेस्ट, पृष्ठ संख्या: 296– 299.

टी.एच.मार्शल (1963)। सिटिजनशइप एण्ड सोशल क्लासेज़। इन सोशियोलॉजी ऐट द क्रॉसरोड्स। लंदन: हेइनमन, पृष्ठ संख्या: 67–127.

एम.सी.नुस्बॉम, (2011)। क्रियेटिंग कैपेबिलिटीज़। कैंब्रिज: हार्बर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस

जॉन रॉल्स (1999)। अ थियरी ऑफ़ जस्टिस ( संशोधित संस्करण)। कैंब्रिज: हार्बर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस।

एम.आर.सॉमर्स (1994)। राइट्स,रैशनैलिटी,एण्ड मेंबरशिप:रिथिंकिंग द मेकिंग एण्ड मीनिंग ऑफ़  शिटिजनशिप। लॉ एण्ड सोशल इन्कवॉयरी, 19(1), 63–112.

साभार: इंडियन कल्चरल फ़ोरम

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें।

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