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कोरोना लॉकडाउनः ज़बरिया एकांत के 60 दिन और चंद किताबें

इस लॉकडाउन ने व्यापक मेहनतकश जनसमुदाय के लिए भयानक, विनाशकारी स्थितियां पैदा कर दीं, वहीं इसने मुझ-जैसे लोगों को ज़बरिया, अनचाहे एकांत में धकेल दिया। इस स्थिति में कुछ हिंदी किताबें उलटने-पुलटने का मौका मिला।
ज़बरिया एकांत के 60 दिन और चंद किताबें

25 मार्च 2020 से जनता पर ज़बरन थोप दिये गये देशव्यापी लॉकडाउन के साठ दिन से ज़्यादा हो चले हैं। इसने जहां व्यापक मेहनतकश जनसमुदाय के लिए भयानक, विनाशकारी स्थितियां पैदा कर दीं, वहीं इसने मुझ-जैसे लोगों को ज़बरिया, अनचाहे एकांत में धकेल दिया। इस स्थिति में कुछ हिंदी किताबें उलटने-पुलटने का मौका मिला। यह सही है कि ऐसे ‘एकांत’ के बग़ैर भी किताबें ख़ूब देखी-पढ़ी जाती रही हैं, लेकिन इस ‘एकांत’ ने मुझे ‘ज़बरन मौक़ा’ दे दिया।

पंकज बिष्ट के दो उपन्यासों—‘लेकिन दरवाज़ा’ और ‘उस चिड़िया का नाम’—को आम तौर पर काफ़ी सराहना मिली है, वे ख़ूब पढ़े गये हैं और लोकप्रिय रहे हैं। इन दो उपन्यासों ने पंकज बिष्ट को समर्थ उपन्यासकार के रूप में स्थापित कर दिया। लेकिन उनका लिखा तीसरा उपन्यास ‘पंखवाली नाव’ जो 2009 में छपा था, लगभग अनदेखा रह गया। इस पर बहुत कम चर्चा व बातचीत हुई है। ज़्यादातर पाठक इस उपन्यास से अनजान रहे हैं। इस उपन्यास की थीम या विषयवस्तु के चलते शायद ऐसा हुआ हो।

यह उपन्यास (‘पंखवाली नाव’) पुरुष समयौनिकता (मेल होमोसेक्सुअलिटी) पर केंद्रित है। शायद इस थीम की वजह से यह उपन्यास क़रीब-क़रीब अलक्षित रह गया। पुरुष समयौनिकता पर खुलकर बात कौन करे! ख़ुद पंकज में भी अपने इस उपन्यास को लेकर हिचकिचाहट दिखायी देती है। साहित्यिक बातचीत में यह उपन्यास आम तौर पर दरकिनार कर दिया जाता रहा है। जबकि इस पर संजीदगी से बात होनी चाहिए थी, क्योंकि एक महत्वपूर्ण विषय को उठाया गया था।

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‘पंखवाली नाव’ उपन्यास संवेदना व सहानुभूति के साथ लिखा गया है। भाषा में कुछ गड़बड़ियां व ग़लतियां हैं, लेकिन रवानी है, और पठनीयता है। लेकिन असल समस्या यह है कि उपन्यास पुरुष समयौनिकता को विकृति के रूप में—मानसिक/शारीरिक विकृति या अप्राकृतिक कृत्य या बीमारी के रूप में—देखता है, जिससे ‘व्यक्तिगत-पारिवारिक-सामाजिक समस्याएं पैदा होती हैं’। उपन्यास इसे स्वाभाविक, प्राकृतिक यौन रुझान के तौर पर, जिसका हक़ एक व्यक्ति को है, देखने से इनकार करता है।

स्त्री या पुरुष यौनिकता को लेकर दुनिया भर में जो बहसें चली हैं, उनका सकारात्मक असर यह रहा कि इसे अब मानसिक विकृति या शारीरिक बीमारी नहीं माना जाता, स्वाभाविक यौन रुझान माना जाता है, और भारत-समेत कई देशों ने इसे अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया है। उपन्यास में इस मसले पर गहरी हिचक दिखायी देती है। पुरुष/स्त्री समयौनिकता को लेकर पंकज बिष्ट नैतिक संकट व दुविधा में दिखायी देते हैं। उपन्यास में एक स्त्री पात्र (शर्मिष्ठा) का जिस तरह चित्रण किया गया है, वह कई लोगों को स्त्री-द्वेषी लग सकता है। इसके चलते यह उपन्यास कुछ कमज़ोर हो गया है।

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कहानीकार किरण सिंह का पहला उपन्यास ‘शिलावहा’ (2019) आये डेढ़ साल होने को आ रहा है। लेकिन अभी तक किसी पत्र-पत्रिका में इसकी समीक्षा मेरे देखे में नहीं आयी। यहां तक कि ‘हंस’ पत्रिका में भी, जहां यह उपन्यास 2017 में दो अंकों में छपा (तब इसे लंबी कहानी कहा गया था), इसकी समीक्षा नहीं दिखायी पड़ी। (हालांकि पाठकों की चिट्ठियां तब ‘हंस’ में ख़ूब छपी थीं।) एक या दो अनौपचारिक साहित्यिक महफ़िलों में इस पर बातचीत ज़रूर हुई (और वह बातचीत मानीख़ेज़ भी रही), लेकिन जिस गंभीर तैयारी के साथ इस महत्वपूर्ण उपन्यास पर विचार-विमर्श होना चाहिए था, वह नहीं हुआ। इसकी वजह क्या हो सकती है?

क्या इसकी वजह यह है कि हिंदी साहित्य का जो सत्ता प्रतिष्ठान है, उसके किसी खेमे में किरण सिंह फ़िट नहीं बैठतीं? क्या इसकी वजह यह हो सकती है कि उनका प्रखर, विद्रोही, परंपरा-विध्वंसक, रैडिकल नारीवादी स्वर प्रतिष्ठानी महानुभावों को ख़ासा परेशान कर देता है? (‘शिलावहा’ उपन्यास में यह स्वर बहुत मुखर है।) क्या इसकी वजह यह हो सकती है कि ‘शिलावहा’ में किरण सिंह ने हिंदू धर्म की जो निर्मम चीरफाड़ की है और साहित्यिक धरातल पर उसके अमानवीय, स्त्री-द्रोही व दलित-द्रोही चरित्र का जो पर्दाफ़ाश किया है, उससे हिंदी का पोंगापंथी, रूढ़िग्रस्त, ब्राह्मणवादी व स्त्री-विरोधी साहित्यिक लघुमानव गिरोह बहुत आतंकित हो गया है? और, उसने सोचा हो कि ऐसे हिंदू धर्म-द्रोही उपन्यास पर कुछ न बोलो और उसे नज़रअंदाज़ करो! आत्ममुग्ध क्षुद्रताओं के इस दौर में कुछ भी हो सकता है!

‘शिलावहा’ उपन्यास वाम की ओर झुका हुआ प्रखर स्त्रीवादी स्वर लिये हुए है। अपने कथा विन्यास और शिल्प विधान में उपन्यास हिंदू धर्मसत्ता, ब्राह्मणवादी पितृसत्ता और जन-विरोधी राजसत्ता पर ज़ोरदार हमला करता है। यह हिंदुत्व की फ़ासीवादी विचार पद्धति का प्रति-आख्यान (काउंटर नैरेटिव) रचता है और इसलिए आज के दौर की महत्वपूर्ण रचना है, जिस पर ध्यान दिया जाना चाहिए।

हिंदू पुराणकथा की पात्र अहल्या और इंद्र के संबंध के इर्दगिर्द ‘शिलावहा’ का तानाबाना बुना गया है। लोक कथा में जो कहानी सदियों से चली आ रही है, उससे ठीक उलट किरण ने कहानी कही है—कि अहल्या और इंद्र के बीच यौन संबंध आपसी सहमति व प्रेम पर आधारित था। और, अहल्या व गौतम का रिश्ता बेमेल, प्रेमविहीन और यौन हिंसा पर आधारित था।

‘शिलावहा’ नागरिक अवज्ञा व विद्रोह को बढ़ावा देनेवाला और पर्यावरण-मित्रता की वकालत करनेवाला उपन्यास है। यह मनुष्य और प्रकृति के बीच द्वंद्वात्मक सामंजस्य की तरफ़दारी करता है, जहां मनुष्य प्रकृति पर हमलावर नहीं है। इस उपन्यास के माध्यम से किरण सिंह ने स्त्री के स्वतंत्र, अ-पारंपरिक व्यक्तित्व और स्वतंत्र यौनिकता की दावेदारी पेश की है। अपनी थीम, ट्रीटमेंट, शिल्प और विचार पद्धति में ‘शिलावहा’ कृष्णा सोबती के उपन्यास ‘मित्रो मरजानी’ (पहले इसे लंबी कहानी कहा गया था) से काफ़ी आगे है।

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‘महाभियोग’ उपन्यास की लेखक अंजली देशपांडे के पहले कहानी संग्रह ‘अंसारी की मौत की अजीब दास्तान’ (2019) में कुल तेरह कहानियां हैं। ये कहानियां आज के समय की विद्रूप व विसंगत स्थितियों को पकड़ने की कोशिश करती हैं। ‘समाज में अन्याय के अनेक रूपों को ये कहानियां उजागर करती हैं, ख़ास तौर से स्त्रियों के प्रति होने वाले अन्याय को।’ मनुष्यता जो लगातार छीज रही है, अंजली इसे अपनी कहानियों में व्यक्त करती हैं।

इन कहानियों को पढ़कर लगता है कि अंजली देशपांडे के जीवनानुभव कई तरह के हैं। हालांकि उनकी कहानियों में सहज मानव संबंध, दोस्ती, भरोसा, कोमलता, करुणा, प्रेम, सहज यौन संबंध नहीं मिलते। लगता है, सारी चीज़ें उलट-पुलट या क्रूर व हिंसक और बेमतलब हैं। अंजली को लगता होगा कि शायद ज़िंदगी ऐसी ही हो गयी है!

‘अंसारी की मौत की अजीब दास्तान’ शीर्षक कहानी ज़ोरदार है। पुलिस-समेत समूचा सरकारी प्रशासन तंत्र किस तरह इस्लामोफ़ोबिया (इस्लाम व मुसलमान से तीखी नफ़रत व ख़ौफ़ का भाव) से ग्रस्त है और उसका हिंदू सांप्रदायिक दिमाग़ बना हुआ है, इसे यह कहानी प्रभावशाली तरीक़े से रखती है। कहानी जिस तरह रची-बुनी गयी है, वह क़ाबिलेतारीफ़ है।

अंजली में ब्यौरे में ज़्यादा जाने की प्रवृत्ति दिखायी देती है। कई बार लगता है, कहानियां हड़बड़ी में लिखी गयी हैं। इतनी हड़बड़ी की क्या ज़रूरत!

(लेखक वरिष्ठ कवि व राजनीतिक विश्लेषक हैं)

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