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दिल्ली दंगा: एक साल बाद बीजेपी की बुनी कहानियों की हवा निकालते ज़मानती आदेश?

पिछले साल की हिंसा से जुड़े कई मामलों में अदालती फ़ैसलों ने भाजपा नेता कपिल मिश्रा के बदज़ुबानी से भरे सोशल मीडिया अभियान को क्रूर मज़ाक के तौर पर सरेआम कर दिया है।
दिल्ली दंगा

20 फ़रवरी को भारतीय जनता पार्टी के नेता,कपिल मिश्रा ने ट्विटर पर एक वीडियो पोस्ट किया था,जिसमें देहली रॉयट: ए टेल ऑफ़ बर्न एंड ब्लेम के रिलीज़ की घोषणा करते हुए एक वीडियो बनाया गया था,जो कि पूर्वोत्तर दिल्ली में हुए दंगों के एक साल पूरे होने पर बनायी गयी फ़िल्म है,यह दंगा पिछले साल के 23 फ़रवरी को हुआ था। यह वीडियो वॉयस-ओवर-"हाथ काटे,पैर काटा, पकड-पकड़ कर गोल मारीं” के साथ हिंसा के दृश्यों को दिखाते हुए शुरू होती है।"

कुछ सेकंड बाद, एक और आवाज़ सुनाई देती है,"जिस तरीक़े से मेरा भाई काटा गया,वह तो बिलकुल कसाई का काम था।" उर्दू शब्द कसाई के इस्तेमाल से किसी को भी इस बात पर संदेह नहीं होना चाहिए कि यह फ़िल्म मुसलमानों को 2020 के दिल्ली दंगों के खलनायक के तौर पर पेश करती है।

इसके बाद तो मिश्रा हद ही पार करते चले गए। उन्होंने वीडियो को कई बार ट्वीट किया और बार-बार इस बात का ऐलान किया कि 22 फ़रवरी को पिछले साल की हिंसा पर दिल्ली दंगा: द अनटोल्ड स्टोरी लिखने वाली उन तीन महिला लेखकों द्वारा  एक चर्चा आयोजित की जाएगी, जिसे ब्लूम्सबरी इंडिया ने पिछले साल अपने प्रकाशनों की सूची से हटा दिया था।

मिश्रा ने यह मांग करते हुए दिल्ली के उपराज्यपाल को एक पत्र लिखने का दावा किया है कि आम आदमी पार्टी के (निलंबित) पार्षद ताहिर हुसैन का वह घर, जिसमें पिछले साल फ़रवरी में दंगे भड़काने की साज़िश रचे जाने का आरोप है, उसे ढहा दिया जाना चाहिए। एक अन्य ट्विटर पोस्ट में उन्होंने कहा,"पिछले साल, उसी समय,वे मेरे शहर को जलाने की योजना बना रहे थे। उन्होंने सड़कों को रोक दिया था और हमारे घरों को जला दिया था…”

व्यापक रूप से यह माना जाता है कि पिछले साल दिल्ली के दंगों को भड़काने के पीछे जिस शख़्स के भाषण का हाथ है, वह कपिल मिश्रा ही हैं, ऐसे में मिश्रा का यह सोशल मीडिया अभियान उन लोगों पर एक क्रूर मज़ाक लगता है, जो हिंसा के दौरान मारे गये थे और जिनके परिवारों को एक गंभीर आर्थिक झटका लगा था। फिर तो यह आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि दिल्ली के दंगों उस गढ़ी गयी धारणा के नतीजा थे, जिसके तहत नागरिकता संशोधन अधिनियम, 2019 (सीएए) के ख़िलाफ़ विरोध प्रदर्शन करने वालों को राष्ट्र-विरोधी के रूप में चित्रित करने की कोशिश की गयी थी।

इस धारणा को दिल्ली पुलिस की जांच के ज़रिये वैध बनाने का प्रयास किया गया था,जिसमें दावा किया गया था कि प्रदर्शनकारियों के एक जत्थे ने सीएए को वापस लेने के लिए केंद्र सरकार को "आतंकित" करने की साज़िश रची थी। इस सिद्धांत को एफ़आईआर 59/2020 में दायर आरोपपत्र में ठोस रूप दिया गया है,जो ग़ैर-क़ानूनी गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम की मांग करता है। ताहिर हुसैन आरोपियों में शामिल हैं।

हालांकि, दिल्ली दंगों की जांच अभी चल ही रही है, लेकिन कई अन्य मामलों के आरोपी, जिनमें से कुछ पर एक साथ एफ़आईआर 59 के तहत मामला दर्ज किया गया था, उन्होंने दरख़्वास्त दिया और उन्हें ज़मानत मिल गयी। उन्हें ज़मानत देने के कुछ न्यायिक आदेश तो उस प्रक्रिया के ग़लत तौर-तरीक़े अपनाने और प्रेरित होकर अंजाम दिये जाने की तरफ़ ध्यान खींचते ही हैं, जिसमें दिल्ली पुलिस ने दंगों की अपनी जांच-पड़ताल की थी।  ध्यान से पढ़ने पर ये आदेश बीजेपी की फैलायी गयी बातों को हल्की, झूठी, बिना किसी सुबूत वाली एक धारणा के निर्माण की व्यर्थता को स्थापित करती है।

ख़ालिद सैफ़ी; एफ़आईआर 101/2020

यह एफ़आईआर पिछले साल 24 फ़रवरी को एफ़आईआर 101/2020 के मुख्य आरोपी ताहिर हुसैन की इमारत की छत से फेंके गये बोतलों, पत्थरों, पेट्रोल और एसिड बम आदि से सम्बन्धित है। आरोपियों में 39 साल का व्यापारी ख़ालिद सैफ़ी भी है। अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश, विनोद यादव ने सैफ़ी को ज़मानत देने के अपने आदेश में इस बात का ज़िक़्र किया है कि "यह कहीं से भी इस अभियोजन का मामला नहीं बनता कि अपराध के समय (ज़मानत) आवेदक (सैफ़ी) शारीरिक तौर पर मौजूद था।" मसलन, उसे किसी भी सीसीटीवी फ़ुटेज / वायरल वीडियो में नहीं देखा गया। यादव ने कहा, "यहां तक कि आवेदक (सैफ़ी) के मोबाइल फ़ोन का सीडीआर (कॉल डेटा रिकॉर्ड) का स्थान भी  घटना की उस तारीख़ में अपराध स्थल पर नहीं पाया गया है।" जज ने कहा कि सैफ़ी को अपने ही ख़ुलासे और हुसैन के बयान की बुनियाद पर इस केस में फंसाया गया था।

इसी अभियोजन पक्ष का मामला था कि सैफ़ी हुसैन और नौजवान नेता, उमर ख़ालिद के साथ नियमित संपर्क में था, उमर ख़ालिद पर भी एफआईआर 59 के तहत मामला दर्ज किया गया था। यह आरोप इस तथ्य पर आधारित था कि 8 जनवरी 2020 को उनके कॉल रिकॉर्ड से पता चलता है कि वे देशव्यापी सीएए विरोधी विरोध प्रदर्शन के केंद्र शाहीन बाग़ में थे। हालांकि,यादव का ख़्याल है कि सैफ़ी के ख़िलाफ़ यह बात "प्रथम दृष्टया कथित आपराधिक साज़िश स्थापित करने का मामला किसी भी तरह से नहीं बनती दिखती है।"

अभियोजन पक्ष के गवाह-राहुल कसाना ने पुलिस को दिये अपने बयान में सैफ़ी, ख़ालिद और हुसैन के बीच मुलाक़ात की बात कही थी। कसाना एफ़आईआर नंबर 59 में भी गवाह हैं। एफ़आईआर 101 के इस मामले में कसाना का बयान 21 मई 2020 को दर्ज किया गया था ,यादव ने इस पर कहा, “इस तारीख़ को उसने आवेदक (सैफ़ी) के ख़िलाफ़ किसी ‘आपराधिक साज़िश’ को लेकर एक भी शब्द नहीं कहा था और अब अचानक 27.09.2020 की उस वीडियोग्राफ़ी में रिकॉर्ड उसके बयान पर ग़ौर कीजिए, जिसमें उसने आवेदक के ख़िलाफ़ 'आपराधिक साज़िश' का बिगुल फूंक दिया है। यह बात पहली नज़र में समझ से बाहर की बात लगती है।”

यादव ने कहा कि कसाना के 27 सितंबर के बयान का विश्लेषण करने से उन्होंने ख़ुद को संयमित रखा है,भले ही उस बयान की रिकॉर्डिंग की तारीख़ ख़ुद उसकी विश्वसनीयता को लेकर विस्तार से बताती हो। ऐसा क्यों? ऐसा इसलिए, क्योंकि  27 सितंबर को कसाना ने कहा था कि जब वह शाहीन बाग़ में एक इमारत के बाहर खड़ा था, जहां उसने हुसैन को छोड़ा था, तो उसने सैफ़ी और ख़ालिद को उसी इमारत में जाते देखा। यादव ने कहा, "मेरी विनम्र राय में इस तरह की निरर्थक बात के आधार पर इस मामले में आवेदक (सैफ़ी) को आरोप पत्र में शामिल किया जाना पुलिस की तरफ़ से तैयार की गयी पूरी तरह से मनगढ़ंत बातें है, जो कि बर्बरता की हद तक जाती हैं।"

एफ़आईआर 101 में सैफ़ी को ज़मानत दे दी गयी।

आरिफ़ उर्फ़ मोटा; एफ़आईआर नंबर 158/2020

आरिफ़ 25 फ़रवरी को दंगाई भीड़ द्वारा मारे गये चार लोगों में से एक नौजवान लड़के-ज़ाकिर की मौत का आरोपी है। आरिफ़, जिसे उस भीड़ का हिस्सा बताया गया था, उसे ज़मानत दे दी गयी। अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश, विनोद यादव ने ज़िक़्र किया है, “यह बहुत ही भ्रम पैदा करने वाली बात है कि कोई मुसलमान लड़का उस 'ग़ैर-क़ानूनी जमावड़े' का हिस्सा बनेगा, जिसमें ज़्यादातर हिंदू समुदाय के सदस्य शामिल थे, जिसका आम मक़सद दूसरे समुदाय के जान-माल और अंग-प्रत्यंगों को ज़्यादा से ज़्यादा नुकसान पहुंचाना था। इस तरह, पहली ही नज़र में आवेदक (आरिफ़) को उस ‘ग़ैर-क़ानूनी जमावड़े’ का हिस्सा नहीं कहा जा सकता है या उस घटना की तारीख़ पर उनके मक़सद का वह ‘साझेदार’ नहीं हो सकता है।”

शाहिद की मौत

उस सप्तऋषि भवन की छत पर एक बंदूक की गोली से शाहिद की मौत हो गयी थी, जहां एक भीड़ जमा हो गयी थी और जहां से पथराव किया गया था और माना जाता है कि गोलीबारी की गयी थी। एफ़आईआर नंबर 84/2020 में जुनैद, चांद मोहम्मद और इरशाद पर शाहिद की हत्या का आरोप लगाया गया है। हालांकि, दिल्ली हाई कोर्ट के न्यायाधीश, सुरेश कुमार कैत का कहना था कि चोट की प्रकृति से पता चलता है कि शाहिद को नज़दीक से नहीं, बल्कि दूर से गोली मारी गयी थी, जबकि जुनैद, चांद और इरशाद पर मामला दर्ज करते हुए लिखा गया है कि शाहिद को नज़दीक से गोली मारी गयी थी।

यह कहते हुए कि अभियोजन पक्ष ने चार्जशीट में "संभावना" शब्द का इस्तेमाल किया था, कैत का कहना था, "क्योंकि उन्हें ख़ुद इस बात का इत्मिनान नहीं है कि बंदूक की जिस गोली से वह घायल हुआ था, वह कहां से चलायी गयी थी, तो ऐसे में वे कैसे तय कर सकते हैं कि गोली नज़दीक से चलायी गयी थी, जबकि वह पहले से ही इस बात का ज़िक़्र कर रहे हैं इस बात की महज़ एक 'संभावना' है, इस बात को लेकर कोई इत्मिनान नहीं है।" उन्होंने कहा कि जांच एजेंसी का यह निष्कर्ष "वैज्ञानिक तौर पर मुमकिन" नहीं है।

कैत ने अभियोजन पक्ष के मामले में अन्य विसंगतियों की ओर भी इशारा किया। मसलन, उन्होंने कहा कि यह विश्वास कर पाना मुश्किल है कि याचिकाकर्ताओं द्वारा इस दंगे का इस्तेमाल "अपने ही समुदाय के व्यक्ति की मौत के कारण" के तौर पर किया जा सकता है। उन्होंने कहा कि अभियोजन पक्ष ने यह भी स्वीकार किया था कि हिंदू समुदाय के तीनों लोगों- मुकेश, नारायण, अरविंद और उनके परिवारों से कहा गया कि वे अपनी ज़िंदगी को बचाने की ख़ातिर सप्तर्षी को छोड़कर चले जायें। कैत का कहना था, "अगर, वे वास्तव में इस सांप्रदायिक दंगे में शामिल थे और दूसरे समुदाय / हिंदू समुदाय से जुड़े लोगों को नुकसान पहुंचाना चाहते थे, तो वे दूसरे समुदाय के उपरोक्त सदस्यों की ज़िंदगी को बचाने की कोशिश नहीं करते।"

इरशाद अहमद; एफ़आईआर संख्या 80/2020

25 फ़रवरी 2020 को इरशाद को उन तक़रीबन 100 लोगों में से एक बताया गया था, जो ताहिर हुसैन की इमारत से पत्थर बरसा रहे थे। अभियोजन पक्ष ने दावा किया कि इरशाद, उस हुसैन का सहयोगी था, जिसने कथित तौर पर पुलिस को बताया था कि इरशाद उसी छत पर था। किसी रोहित ने पथराव करने में इरशाद की भूमिका की पहचान और पुष्टि उसी तरह की थी, जिस तरह पवन और अंकित ने की थी, जो कथित अपराध के प्रत्यक्षदर्शी थे। कैत ने कहा, "उन्होंने (पवन और अंकित) घटना की तारीख़, यानी 25.02.2020 को कोई शिकायत नहीं की थी, जबकि प्राथमिकी 28.02.2020 को दर्ज की गयी थी। इस तरह, लगता है कि कथित गवाह असली नहीं थे। लिहाज़ा, इरशाद को ज़मानत दे दी गयी।

देवांगना कलिता; एफ़आईआर 50/2020

ख़ालिद और सैफ़ी की तरह देवांगना कलिता भी एफ़आईआर 59 की एक आरोपी है। हालांकि,एफ़आईआर 50/2020 में देवांगना पर 25 फ़रवरी 2020 को हिंसक मोड़ देने के लिए एक भीड़ को संगठित करने,भीड़ जुटाने और उस भीड़ को उकसाने का आरोप था,जिससे किसी आमन की मौत हो गयी थी।

2 जून 2020 को दायर एफ़आईआर 50 के आरोप पत्र में शाहरुख़ के एक खुलासे का विवरण था, लेकिन, जैसा कि दिल्ली हाई कोर्ट के न्यायाधीश कैत ने कहा कि उसने देवांगना का नाम ही नहीं लिया था। कैत का कहना था कि उसे "पेन ड्राइव के साथ सीलबंद कवर में अंदरूनी केस डायरी के ज़रिये पेश किया गया था।" इसमें उन्होंने पाया कि "देवांगना की मौजूदगी शांतिपूर्ण आंदोलन में देखी गयी, जो कि भारत के संविधान के अनुच्छेद 19 के तहत एक मौलिक अधिकार है, हालांकि, (अभियोजन पक्ष) ऐसे किसी भी सामग्री को पेश कर पाने में नाकाम रहा है, जिससे यह तय हो कि देवांगना ने अपने भाषण में महिलाओं को उकसाया था...या नफ़रत फ़ैलाने वाला कोई ऐसा भाषण दिया हो, ”जिसके चलते किसी मन की मौत हो गयी हो।

इसके अलावा,उन्होंने कहा कि डायरी को ध्यान से पढ़ते हुए पाया कि 08.07.2020 को धारा 164 (आपराधिक प्रक्रिया संहिता) के तहत दर्ज किए गये बयान सहित 30 जून, 3 जुलाई, और 8 जुलाई को "गवाहों (पहचान पर रोक) के बयान  बहुत दिन बाद दर्ज किये गये थे,जबकि सीएए के ख़िलाफ़ शुरू हुए उस आंदोलन की शुरुआत,यानी दिसंबर 2019 के बाद से ही उस गवाह के लगातार मौजूद होने का दावा किया गया है।” क़ानूनी तौर पर स्पष्ट समझ बनने के बाद कैत का अवलोकन यही है कि संरक्षित गवाहों के बयानों की यह रिकॉर्डिंग,जिनके नाम चार्जशीट में सामने नहीं आये हैं,उनके साक्ष्य को संदिग्ध बना देते हैं। लिहाज़ा देवांगना को ज़मानत दे दी गयी।

गुरमीत सिंह; एफ़आईआर नंबर 61/2020

रिक्शा चालक गुरमीत को उस मामले में गिरफ़्तार कर लिया गया था, जिसमें 25 फ़रवरी 2020 को 11.30 बजे किसी रिज़वान को गोली लगी थी। रिज़वान ने यह नहीं देखा था कि भीड़ में से किसने उस पर गोली चलायी थी। हालांकि, एक प्रत्यक्षदर्शी, रफ़ीक़ ने पुलिस को बताया कि जब वह उस रात सब्ज़ियां बेच रहा था, तो उसने भीड़ को मुसलमानों पर हमला करने के साथ-साथ गोलीबारी का भी सहारा लेते देखा था। रफ़ीक़ ने उस भीड़ के जिन 5-6 लोगों की पहचान की थी, गुरमीत उनमें से एक था।

अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश, अमिताभ रावत ने गुरमीत को ज़मानत दे दी। न्यायाधीश ने कहा, “गवाह (रफ़ीक़) ने 24.04.2020 को यह बयान दिया था, जबकि घटना 25-25.2020 से सम्बन्धित है। आवेदक को गवाह के नहीं होने के बिना पर उस मामले में गिरफ़्तार नहीं किया गया, लेकिन, मंडोली जेल में उसे औपचारिक रूप से गिरफ़्तार कर लिया गया था। यदि ऐसा है, तो सवाल है कि गवाह रफ़ीक़ ने आरोपी के चेहरे से कैसे उसकी पहचान की, यह अब भी अनुमान के परे है। ऊपर बताये गये दोनों ही पहलुओं में एक फ़ासला है।" लिहाज़ा, गुरमीत को भी ज़मानत मिल गयी।

फ़िरोज़ खान; एफ़आईआर 105/2020

पिछले साल के इन दंगों के दौरान मोहम्मद शनावाज़ की दुकान में तक़रीबन 250-300 लोगों की भीड़ ने कथित तौर पर उपद्रव मचाया था। शनावाज ने उस बयान के आधार पर एक प्राथमिकी दर्ज करवायी थी, जिसमें उसने दावा किया था कि जिस समय उपद्रवी आये थे, उस दरम्यान उन्होंने पुलिस को बार-बार फ़ोन किया था, लेकिन पुलिस के फ़ोन व्यस्त थे। इसलिए, वह अपनी जान बचाने के लिए भाग खड़ा हुआ था। लेकिन, कांस्टेबल विकास ने 5 मार्च 2020 को दर्ज किये गये अपने बयान में कहा कि वह घटना स्थल पर ही मौजूद था और उन उपद्रवियों के बीच फ़िरोज़ ख़ान और मोहम्मद अनवर की पहचान की थी।

दिल्ली हाई कोर्ट के न्यायाधीश,अनूप जयराम भंभानी ने शनावाज़ और विकास के बयानों में विरोधाभास की ओर इशारा किया, "अगर कॉन्स्टेबल-विकास पहले से ही वहां मौजूद था, तो पहली ही नज़र में यह बात समझ में नहीं आती कि शिकायतकर्ता यह क्यों कहेगा कि वह टेलीफ़ोन के ज़रिये पुलिस तक पहुंचने की कोशिश में नाकाम रहा।” एक बार फिर, गवाह का बयान संदेहास्पद लगता है।

अभियोजन पक्ष ने दावा किया कि शनावाज़ और अनवर, जिन्हें पहले ज़मानत दे दी गयी थी, दोनों की पहचान उस राजधानी स्कूल में लगे सीसीटीवी कैमरे के फ़ुटेज से की गयी थी, जो शनावाज़ की दुकान से 400 मीटर की दूरी पर स्थित है। इन दो स्थानों के बीच की दूरी को महज़ "पांच मिनट के पैदल सफ़र से तय किया जा सकता है, लेकिन ये दोनों जगह गुज़रने वाली सड़क के एक मोड़ के दो अलग-अलग हिस्सों" पर स्थित हैं। भंभानी ने कहा, "यह अविश्वसनीय लगता है, इसलिए कि विद्यालय में स्थापित कैमरा शिकायतकर्ता की (शानवाज़ की) दुकान को देख पाने में सक्षम होगा।" लिहाज़ा, फ़िरोज़ खान को भी ज़मानत दे दी गयी।

दिल्ली पुलिस लोगों को जांच के सिलसिले में बुलाना जारी रखा हुआ है। सूत्रों का कहना है कि अब कोशिश विदेश में रह रहे उन लोगों पर नज़र रखने की है जो नागरिक समाज संगठनों को अंशदान देते हैं, और ख़ास तौर पर उन मुसलमानों पर नज़र हैं, जो पूरे भारत में नफ़रत फ़ैलाने की राजनीति से चिंतित हैं। दिल्ली दंगों के एक साल बीत जाने के बाद भी यह बकवास सुनकर किसी को हैरत में नहीं पड़ना चाहिए कि यह दंगा जिहादियों द्वारा वित्तपोषित था। एक झूठी कहानी महज़ कपोल-कल्पित सबूत बना सकती है, जाहिर है, ऐसा करने के लिए कपिल मिश्रा और भाजपा का ट्रोल तो ट्वीट करेंगे ही करेंगे।

लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं, इनके विचार निजी हैं।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

Delhi Riots: A Year Later Bail Orders Puncture BJP Narrative?

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