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EXCLUSIVE: ‘ज़िदा’ होने के लिए अब ‘मुर्दे’ कर रहे संघर्ष, चंदौली में कई जीवित लोगों को सिस्टम ने मार दिया

एक अनुमान के अनुसार, केवल यूपी में ऐसे लोगों की तादाद क़रीब 42 हज़ार के आसपास है, जो ज़िंदा है, लेकिन सरकारी अभिलेखों में उन्हें मृतक दर्शा दिया गया है। इनमें से अधिकांश बेहद ग़रीब, निरक्षर और पिछड़ी जातियों के लोग हैं।
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जिंदा होने की उम्मीद लगाए बैठे हैं नरैना गांव के ये पीड़ित

उत्तर प्रदेश के चंदौली जिले का एक गांव हैं नरैना। जिला मुख्यालय से करीब 13 किलोमीटर दूर। इस गांव में सिस्टम ने न जाने कितने लोगों को कागजों पर मार डाला है, जो जिंदा होने के लिए छटपटा रहे हैं। वो हुक्मरानों की देहरी पर मत्था टेक रहे हैं, लेकिन कई ‘मुर्दे’ अभी तक न्याय के लिए उम्मीद लिए कागजों पर ‘जिंदा’ होने की लड़ाई लड़ रहे हैं। इनमें वो लोग शामिल हैं जिन्हें मृतक दर्शाए जाने के कारण राशन कार्ड से नाम कट गया है। ऐसे लोगों की तादाद तो बहुत ज्यादा है जिनका हक मारने के लिए सिस्टम ने कागजों में उनकी बलि दे दी है।

चंदौली के नियामताबाद प्रखंड का बेहद पिछड़ा गांव है नरैना। मुगलसराय से चंदौली की ओर जाने वाली जीटी रोड से निकली एक सर्पीली सड़क गंगा नहर की माइनर के साथ नरैना तक जाती है। इस गांव में सिर्फ एक ही बात की चर्चा है कि कौन जिंदा है और कौन मर चुका है? सिस्टम ने कितनों को मार डाला है और कितने बचे हैं? दरअसल, यदि किसी की मौत हो जाए तो उसको मिलने वाली सरकारी सुविधाएं खत्म हो जाती हैं। कागजों पर मुर्दा लोग कई बार जमीन-जायदाद से भी बेदखल कर दिए जाते हैं। इसका पता जब तक लोगों को होता है, तब तक वो ऐसी मुश्किल में फंस चुके होते हैं, जिससे निकलने के लिए उन्हें लंबी लड़ाई लड़नी पड़ती है।

नरैना के रेंगई प्रसाद की 20 जून 2023 को मौत हो गई। इन्हें उस समय सदमा लगा जब वह राशन लेने के लिए कोटेदार मोहन लाल गुप्ता के पास गए। रेंगई के पुत्र किशन ने न्यूजक्लिक को बताया, "मेरे पिता कोटेदार के सामने खड़े थे और वहां मौजूद लोग उन्हें घूर रहे थे, मानो वो एक भूत हों। कइयों ने कहा कि आपकी तो मौत हो चुकी है और आपका अंतिम संस्कार भी हो चुका है। तब मेरे पिता ने कहा कि 'मैं ज़िंदा हूं, तुम्हारे सामने खड़ा हूं और तुम मुझे कैसे पहचान नहीं रहे हो। बाद में कोटेदार ने फरमान सुना दिया कि हमारे पास जो कागज है उसमें तुम मर चुके हो। राशन नहीं मिलेगा।"

"हजूर, हमारे पिता सिस्टम के सदमे से मरे हैं। वह जब जिंदा थे, तभी प्रधान और सेक्रेटरी ने उन्हें मृतक बताते हुए उनका नाम राशन कार्ड की सूची से हटा दिया था। उनकी उम्र तो सिर्फ 50 साल ही थी। यह कोई मरने की उम्र होती है। टेंशन के चलते उनकी जान चली गई।" किशन ने थोड़ा रुकने के बाद कहा, " मूर्दा घोषित होने की चिंता में डूबे मेरे पिता कई दिनों तक रोते रहे। बाद में सदमे के चलते उनकी धड़कन बढ़ गई और कुछ ही दिनों बाद वह चल बसे। यह वाक्या 20 जून 2023 का है।"

रेंगई बिंद के तीन बेटे हैं, सुदामा, अखिलेश और किशन। जून 2023 से पहले रेंगई पूरी तरह से स्वस्थ थे। उन्हें आघात तब लगा जब पता चला कि सरकारी काग़ज़ों में सिस्टम उन्हें मौत की नींद सुला चुका है। रेंगई के पास कुल दस बिस्वा जमीन है और उसी जमीन के भरोसे उनके तीन बेटों का परिवार पल रहा है। इनका मकान कच्चा है। इनके पास न तो सरकारी आवास है और न ही दूसरी सुविधाएं। सरकारी सुविधा के नाम पर कई साल पहले एक शौचालय भर मिला था। रेंगई की मौत के बाद आजीविका चलाने की सारी जिम्मेदारी उनके बेटों के ऊपर आ गई है।

कहानी यहां से शुरू होती है

नरैना गांव के बाहर सबसे पहले हमारी मुलाकात पारस बिंद से हुई और वह ‘मुर्दा’ घोषित लोगों से मिलवाने के लिए हमारी गाड़ी में बैठ गए। पारस ग्राम प्रधान गुलाब बिंद के पटीदार हैं और रिश्ते में उनके भाई लगते हैं। प्रधान की संस्तुति पर ही नरैना में बड़ी तादाद में जिंदा लोगों को मृतक घोषित किया गया है। पारस बिंद ने हमसे वादा किया कि वह उन सभी लोगों से मिलवा देंगे, जिनकी मौत कागजों पर हो चुकी है। कुछ ही देर में हम नरैना पहुंच गए। वह हमें माइनर की पुलिया पर बैठा कर पीड़ितों को बुलाने की बात कहते हुए गांव की तरफ निकल गए। कुछ देर बाद लौटकर आ गए और अफसोस जाहिर करते पारस ने कहा, "गांव के ज्यादातर लोग खेती-बाड़ी करने सीवान में चले गए हैं। कोई नहीं मिल रहा है। आप बेवजह धूप में क्यों दौड़ लगा रहे हैं। बीमार हो जाएंगे। लौट जाइए। फिर आइएगा तब हम सभी को जुटाए रखेंगे।"

पारस बिंद के जवाब से हमारी चिंता बढ़ गई। हमने अपनी गाड़ी मोड़ी और सीधे नरैना गांव में घुस गए। सरकारी प्राइमरी स्कूल के कुछ ही फासले पर मुर्दा घोषित किए गए शमशेर बिंद का घर था। टूटे-फूटे खपरैल के घर में शमशेर भोजन करते मिले। एक चारपाई पर उनके बुजुर्ग पिता किशोर लेटे हुए थे। हमें देखकर उन्होंने खाना छोड़ दिया। हमें बैठने के लिए चारपाई बिछाई। पीने के लिए गिलास में पानी और कटोरी में चीनी लेकर आ गए। घर की औरतें खेतों में रोपाई करने गई थीं।

शमशेर बिंद

शमशेर बिंद ने हमसे तपाक से कहा, "आप हमें नहीं जानते होंगे। मैं मर चुका हूं।" मुझे झटका लगा। सोचने लगा आखिर ये कैसे हो सकता है? मैं अवाक रह गया। तब शमशेर ने कहा, "हम महीनों से जिंदा होने के लिए अफसरों की देहरी पर मत्था टेक रहे हैं। अफसोस यह है कि हमें सिर्फ कोरे आश्वासन ही मिले हैं। किसी ने यह नहीं बताया कि हमारा नाम सरकारी कागजों में जिंदा होने के तौर पर चढ़ चुका है?"

शमशेर के साथ उनके पुत्र रोहित को भी सिस्टम मुर्दा घोषित कर चुका है। खुद को मृतक बताए जाने की कहानी सुनाते हुए वह रो पड़े। कहा, "ग्राम प्रधान गुलाब से हमारी कोई रंजिश नहीं थी। हमने उनके साथ कभी छल नहीं किया। कभी गाली-गलौज भी नहीं की। उनके खिलाफ किसी अफसर को शिकायत भी नहीं की। न जाने किस रंजिश में उन्होंने सेक्रेटरी एसके यादव से मिलकर हमारा नाम मृतकों की सूची में डलवा दिया। हमारे पास तो सिर्फ एक कच्चा मकान है। हमें न तो सरकारी आवास मिला है, न ही शौचालय।"

बातचीत के दौरान बीजेपी के कट्टर समर्थक सरयू प्रसाद बिंद भी शमशेर के यहां आ गए और अपना दुखड़ा सुनने लगे। बोले, "पिछले पंचायत चुनाव में हम भी प्रधान पद के दावेदार थे। चुनाव में गुलाब को हमने कड़ी टक्कर दी थी। जिस समय आवास के लाभार्थियों की सूची बन रही थी तभी प्रधान ने हमारा नाम मृतकों की सूची में डलवा दिया। हमारे साथ हमारी पत्नी संतरी देवी पत्नी को भी सुविधाओं से वंचित कर दिया गया। प्रधान और सेक्रेटरी ने पहले हमें मुर्दा घोषित किया और बाद में मेरी पत्नी को नौकरीशुदा बता दिया, जबकि वो निरक्षर और अंगूठाटेक हैं। प्रधान गुलाब बिंद के गलत कामों का हमने खुला विरोध किया था, जिसके चलते वह हमसे चिढ़े हुए थे। प्रधान ने सरकारी खड़ंजे की ईंटें उखड़वाकर प्राइमरी स्कूल की बाउंड्री बनवा डाली है।"

"साल भर पहले स्कूल का सबमर्सिबल उखड़वाकर ले गए और उसे दोबारा लगवाने की जरूरत नहीं समझी। बाद में हमें पता चला कि स्कूल के बाउंड्री में लगी ईंटों का पैसा भी सरकार ले लिया और डकार गए। नरैना गांव में आवास के लिए पूर्व प्रधान ने कुल 42 पात्र लाभार्थियों की सूची बनाई थी, जिसमें से ज्यादातर लोगों का नाम काट दिया गया। जिनके पास पहले से पक्का मकान थे और जो संपन्न थे, प्रधान व सेक्रेटरी की संस्तुति पर उन्हें आवास मिल गया। नरैना गांव में घपला ही घपला है। सबकी जांच होनी चाहिए। जांच से पहले प्रधान गुलाब और सेक्रेटरी आरबी यादव को निलंबित किया जाना चाहिए।"

बहुत दर्दनाक है ‘मुर्दों’ की मुश्किलें

"नरैना गांव में मुर्दा घोषित किए गए लोगों में तमाम लोग शामिल हैं, लेकिन जांच-पड़ताल में सिर्फ शमशेर पुत्र किशोर, सोमरू पुत्र दल्लू, बेचन पुत्र जोखू, रोहित कुमार पुत्र शमशेर, पांचू पुत्र रामसेवक, मराछू पुत्र शिवनाथ और भरत पुत्र मराछू को जिंदा पाया गया है। मुर्दा घोषित किए गए लोगों में मराछू बिंद और उनके पुत्र भरत से मुलाकात हुई तो उनकी आंखें डबडबा गईं। उन्होंने कहा, "हमारे पास सिर्फ चार बिस्वा जमीन है। मेरे तीन बेटे मजूरी करके परिवार चलाते हैं। हमारा मकान भी कच्चा है, फिर भी कागजों में हमें मार दिया गया। हमारे कच्चा घर को पक्का दर्शा दिया गया। हमारे घर की पड़ताल कर लीजिए, आपको खुद ही पता चल जाएगा कि हमारी माली हालत कैसी है? "

नरैना गांव के लोगों ने "न्यूजक्लिक" को कई ऐसे साक्ष्य मुहैया कराए, जिससे पता चलता है कि ग्राम प्रधान गुलाब बिंद और सेक्रेटरी आरबी यादव ने मिलकर आवास के लाभार्थियों की जो सूची बनाई थी उसमें कई जिंदा लोगों को मुर्दा घोषित कर रखा है। किरन, सोनी, काजल, भरतोरनी, रेखा, रोशनी समेत कई लड़कियों को शादी-शुदा बताकर लाभार्थियों की सूची से नाम काट दिए गए हैं। रामदौर बेहद गरीब हैं और उनके पास सिर छिपाने के लिए कायदे का कोई ठौर नहीं है, फिर भी लाभार्थियों की सूची से इनका नाम हटा दिया गया।

खेतिहर किसान पांचू की बेटी सिताबी और मन्नर की बेटी पूनम कुवारी हैं, लेकिन सरकारी अभिलेखों में शादीशुदा दर्शाया गया है। डोमन को पागल बताकर राशन कार्ड की सूची से नाम हटाया गया है, जबकि इस व्यक्ति को सरकारी राशन की सबसे ज्यादा जरूरत है। विकलांग रामदुलार की पत्नी छांगुर के बारे में लिख दिया गया है कि वो गांव छोड़कर चली गई हैं, जबकि वो नरैना गांव में ही रहती हैं। बुद्धू की पत्नी बेचनी देवी बेहद गरीब हैं, लेकिन इन्हें संपन्न दर्शाया गया है। इसी तरह बेहद गरीब जहीदा बेगम, ऋषि नंदर की पत्नी किरन देवी, नरसिंह की पत्नी ज्योति, अमरदेव की पत्नी गीता देवी के लिए दो वक्त की रोटी जुटा पाना मुहाल है, लेकिन सिस्टम ने इन्हें अमीर बता दिया है। इनका नाम सूची से काटने की संस्तुति की गई है। गिरजा देवी के पति वासुदेव के पास सिर्फ चार बिस्वा जमीन है। पति-पत्नी दोनों मजूरी करते हैं, लेकिन इनका नाम लाभार्थियों की सूची से गायब कर दिया गया है।

बीजेपी नेता सरयू प्रसाद बिंद ने प्रधान पर कई आरोप लगाते हुए ऐलानिया तौर पर कहा, "प्रधान और सेक्रेटरी ने आवास आवंटन के नाम पर लाभार्थियों से 20 से 25 हजार रुपये तक रिश्वत वसूली है। घरों के अंदर हैंडपंप लगवाने के नाम पर भी खूब पैसे लिए गए हैं। प्रधान ने अपने चहेतों को खुश करने के लिए कई उनके निजी घरों में सरकारी हैंडपंप लगवा दिया है। पप्पू बिंद और कैलाश के आंगन में सरकारी नल गाड़ा गया है। रामबहल के घर लगे हैंडपंप का निजी तौर पर इस्तेमाल किया जा रहा है। प्यारेलाल गुप्ता, दीनानाथ, राम विलास भारती समेत कई लोगों के घरों में सरकारी हैंडपंप गाड़ा गया है, जबकि उन हैंडपंपों के लिए सार्वजनिक जगह पर बोरिंग कराई जानी चाहिए थी।"

प्राइमरी स्कूल के लिए खरीदा गया सबमर्सिबल वारंटी में था और वह दो महीने के अंदर फुंक गया। करीब एक साल गुजर जाने के बाद भी दोबारा नहीं लगाया जा सका। प्राथमिक विद्यालय नरैना के प्रधानाध्यापक सुधीर कुमार ने कायाकल्प योजना के तहत कराए गए कार्यों को आधा-अधूरा छोड़े जाने की शिकायत नियामताबाद के बीडीओ समेत कई अफसरों से की है। शिकायती-पत्र में कहा है कि स्कूल की चहारदीवारी आधी-अधूरी बनवाई गई है। मूत्रालय और हैंडवाश अधूरा है। हैंडपंप खराब है। फर्श नहीं बना है। सबमर्सिबल प्रधान के घर है। कई मर्तबा शिकायत के बावजूद स्थिति जस की तस है। नरैना के पूर्व प्रधान वीरेंद्र कुमार कहते हैं, "हाल के दिनों में विकास के नाम पर यहां जितने घपले-घोटाले हुए हैं, उसकी उच्चस्तरीय जांच होनी चाहिए। अफसर घपले-घोटाले दबा रहे हैं और योगी सरकार बदनाम हो रही है। दोषियों को दंडित नहीं किया गया तो ग्रामीण प्रदेश सरकार और चंदौली के कलेक्टर से शिकायत करेंगे।"

चंदौली के नियामताबाद के बीडीओ जिन्होंन कहा घपलों-घोटालों की होगी जांच

प्रधान ने खुद को बताया बेकुसूर

जिंदा लोगों को मुर्दों घोषित किए जाने के बाबत "न्यूजक्लिक" ने ग्राम प्रधान गुलाब बिंद से बात की तो वह साफ मुकर गए और कहा, "हमने किसी लाभार्थी का नाम राशन कार्ड अथवा आवास सूची से काटने के लिए नहीं दिया है। संभव है कि हमारा दस्तखत और मुहर फर्जी हो। जिंदा लोग मुर्दा कैसे हो गए, हमें कुछ नहीं पता है? " नरैना गांव के सेक्रेटरी एसके यादव से बातचीत की गई तो उन्होंने कहा, " जिंदा लोगों को मुर्दा घोषित करने के मामले में हमारी ओर से बड़ी गलती हुई है। हमारा गुनाह सिर्फ इतना है कि हमने प्रधान गुलाब बिंद पर भरोसा किया। प्रधान का सारा काम उनका बेटा देखता है। उसी ने हमें लाभार्थियों की सूची दी और मृतकों का ब्योरा भी दिया। प्रधान अपनी जिम्मेदारी से नहीं बच सकते, क्योंकि तमाम अभिलेखों पर उनकी मुहर है और उनके दस्तखत भी हैं। उनकी संस्तुति के बाद हमने लोगों के नाम को मृतक सूची में डाला, जिनके बारे में हमें यह पता नहीं था कि वो वाकई जिंदा हैं। सच पता होता तो हम ऐसा हरगिज नहीं करते।"

"नरैनी के गुलाब प्रधान ने कई गरीबों को अमीर दर्शाया है और कई कुवारी लड़कियों को शादीशुदा बता कर अपनी रिपोर्ट हमारे पास भेजी, जिसके आधार पर हमने कई लोगों का नाम लाभार्थियों की सूची से काट दिया। जो गड़बड़ियां हुई हैं, उसे हम सुधारने की कोशिश कर रहे हैं। हम जानते हैं कि कागजों पर मुर्दा लोगों को दोबारा जिंदा करना आसान नहीं होता है। प्रधान ने जिस तरह का कृत्य किया है, उसे देखते हुए अब उन पर भला कौन भरोसा करेगा? सारी गलती प्रधान की है। लगता है कि वो हमारी नौकरी ही खा जाएंगे?"

नियामताबाद के खंड विकास अधिकारी शरद चंद्र शुक्ला से मुलाकात हुई तो उन्होंने माना कि लाभार्थियों की शिकायत सच है। कई लोगों के जिंदा होते हुए भी मृतक घोषित किया गया है। कहा, "समूचे प्रकरण की त्रिस्तरीय जांच के लिए हमने एडीओ स्तर के तीन अफसर धर्मेंद्र कुमार, मनोज कुमार सिंह और प्रमोद शर्मा को मौके पर भेजा था। जांच के समय पीड़ित रेंगई बिंद जिंदा थे और बाद में उनकी मौत हो गई थी। जांच से यह साफ हो चुका है कि नरैना के लोगों को मुर्दा बताने वाले सेक्रेटरी आरबी यादव और प्रधान गुलाब बिंद प्रथम दृष्टया दोषी हैं। जांच टीम और गांव वालों के सामने दोनों ने अपनी गलती स्वीकार की है। प्रधान ने पहले कई लोगों के नाम कटवाए और फिर उनके स्थान पर कई नए लोगों का नाम जोड़वा दिए। प्रधान और सेक्रेटरी के इस कृत्य को दुस्साहस की श्रेणी में गिना जा सकता है।"

"करीब दो महीने पहले हमने नियामताबाद प्रखंड का चार्ज लिया है। हम यह पता लगाने की कोशिश कर रहे हैं कि आरोपित सेक्रेटरी एसबी यादव को कठौड़ी, छपरी, घूरो, नरैना, रोहड़ा, लौंदा, बरहुली, देवई, महदेऊर, नई कोट, पचोखर, चंदाइत, बुधवार, हसनपुर, शिवनाथपुर, सिकंदरपुर समेत कुल 16 गांवों का चार्ज क्यों दिया गया है? नरैना गांव के लोगों की ओर से मिलने वाली सभी शिकायतों की जांच कराई जा रही है। सरकारी धन के दुरुपयोग, लाभार्थियों को आवास आवंटन की गड़बड़ी और अन्य सरकारी योजनाओं की खामियों को दुरुस्त करने की कोशिश की जा रही है।"

नरैना गांव में बिंद समुदाय की आबादी सर्वाधिक है। साल 2011 की जनगणना के आंकड़ों के मुताबिक इस गांव की आबादी 1348 है। यहां पुरुषों की जनसंख्या 685 और महिलाओं की 663 है। 723 लोगों में सिर्फ 458 पुरुष और 265 महिलाएं साक्षर हैं। जनसंख्या का घनत्व 30 व्यक्ति प्रति हेक्टेयर है। यहां कुल परिवारों की संख्या 220 है। लड़कों की 1000 आबादी के सापेक्ष 1049 लड़कियां हैं। विकास के मामले में यह गांव काफी पिछड़ा हुआ है। तरक्की के नाम आने वाला सरकारी धन कहां जा रहा है, किसी को नहीं पता है?

नरैना गांव का हर आदमी शिकायत करता नजर आया कि उन्हें नरेगा का काम नहीं मिल पा रहा है। इस गांव से गुजरने वाली मुख्य सड़क भले ही पक्की हो, लेकिन सिंचाई के लिए बनी माइनर की दशा चिंताजनक है। माइनर में घास-फूस और झाड़ियों की सालों से सफाई नहीं हो पाई है। सिंचाई बाधित है। धान रोपने के लिए की लोग पंपसेट चला रहे हैं।

अभी जिंदा नहीं हुए मुर्दे

नरैना गांव में जिन लोगों को मुर्दा घोषित किया गया है, उनके नाम अभी तक नहीं सुधारे जा सके हैं। हालांकि उप-जिलाधिकारी अविनाश कुमार ने इस मामले में काफी सख्ती दिखाई है और प्रधान व सेक्रेटरी के खिलाफ सख्त एक्शन लेने के लिए चंदौली के जिलाधिकारी के पास संस्तुति भेजी है। गांवों में सेक्रेटरी का काम करने वाले ग्राम विकास अधिकारियों पर एक्शन लेने का अधिकार जिला विकास अधिकारी के पास होता है। जिंदा लोगों को मृतक घोषित किए जाने का मामला काफी उछल चुका है। दोषी सेक्रेटरी और प्रधान पर आरोपों की पुष्टि भी हो चुकी है, इसके बावजूद चंदौली के जिला विकास अधिकारी लक्ष्मण प्रसाद चुप्पी साधे हैं। यह स्थिति तब है जब आरोपित ग्राम विकास अधिकारी आरबी यादव इनके अधीन ही काम करता है।

अविनाश कुमार
अविनाश कुमार

ग्रामीण पत्रकार एसोसिएशन के जिलाध्यक्ष आनंद सिंह कहते हैं, "भ्रष्टाचारियों के लिए चंदौली ऐशगाह बनती जा रही है। हाल के दिनों में जिले में जितने भी ग्राम विकास अधिकारी भ्रष्टाचार में लिप्त पाए गए हैं उनमें से किसी के खिलाफ कोई एक्शन नहीं हुआ है। नौगढ़ में दो ग्राम विकास अधिकारी संजीव सिंह और आशीष साहनी के खिलाफ सरकारी धन के गबन के मामले में एफआईआर दर्ज हुई, लेकिन जिला विकास अधिकारी लक्ष्मण प्रसाद ने दोषियों पर कोई कार्रवाई नहीं की। इसी तरह चहनियां प्रखंड के ग्राम विकास अधिकारी कमलेश यादव पर भ्रष्टाचार के कई संगीन आरोप लगे। विधायक सुशील सिंह ने कलेक्टर तक से उसके खिलाफ शिकायत की। जिला पंचायतराज अधिकारी की संस्तुति के बावजूद जिला विकास अधिकारी ने दागी ग्राम विकास अधिकारी के खिलाफ एक्शन नहीं लिया। मुगलसराय के एसडीएम और नियामताबाद के बीडीओ की संस्तुति के बावजूद नरैना के मुर्दा कांड में भी जिला विकास अधिकारी ने कोई कार्रवाई नहीं की। भ्रष्टाचारियों के खिलाफ एक्शन नहीं होने के कारण डबल इंजन की सरकार की इमेज जनता में खराब हो रही है। भ्रष्टाचारियों के गुनाहों का कलंक चंदौली के सांसद एवं काबीना मंत्री महेंद्रनाथ पांडेय के माथे पर भी चस्पा हो रहा है।"

पूर्वांचल में सालों से चल रहा खेल

उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल इलाके में जिंदा लोगों को मृतक घोषित करने का खेल काफी पुराना है। आजमगढ़ के लाल बिहारी के जिंदगी का एक बड़ा हिस्सा मूर्दा शख्स के तौर पर गुजरा। इसी दौरान उन्होंने 'मृतक संघ' नाम की संस्था बनाई और कागजों पर मृत घोषित किए जाने वाले लोगों की लड़ाई लड़ने लगे। इनकी संघर्ष गाथा तब शुरू हुई जब वह गांव में तैनात सरकारी कर्मचारी ने जमीन के कागजों के साथ उन्हें उनका मृत्यु प्रमाण-पत्र भी सौंपा। कर्मचारी ने लाल बिहारी से साफ-साफ कहा, "काग़ज़ों में लिखा है कि तुम मर चुके हो और तुम्हारी सारी पैतृक जमीन तुम्हारे चाचा के नाम चली गई है।" दरअसल उनकी जमीन हथियाने के लिए रिश्तेदारों ने धोखाधड़ी करके उन्हें मृत घोषित कर दिया, जिसके चलते उनके परिवार के सामने भूख से मरने की नौबत आ गई। उन्होंने अपने नाम के आगे 'मृतक' लगाते हुए विरोध-प्रदर्शन और भूख हड़ताल की तब उन पर मीडिया का ध्यान गया।

लाल बिहारी को उम्मीद थी कि क़ानून तोड़ने के चलते पुलिस उन्हें गिरफ़्तार करेगी और इससे यह भी साबित हो जाएगा कि वे जीवित है, क्योंकि आप एक मृत व्यक्ति को गिरफ़्तार नहीं कर सकते। पुलिस को उनकी इस योजना का अंदाज़ा हो गया था, लिहाजा इस मामले में पुलिस ने कोई दख़ल नहीं दिया। आज़मगढ़ में तैनात एक कलेक्टर ने उनके मामले को नए सिरे से देखने का आदेश दिया और 18 साल की लंबी लड़ाई के बाद लाल बिहारी सरकारी दस्तावेज़ों में फिर से जीवित हो सके।

एक अनुमान के अनुसार, अकेले यूपी में ऐसे लोगों की तादाद करीब 42 हज़ार के आसपास है, जो जिंदा है, लेकिन सरकारी अभिलेखों में उन्हें मृतक दर्शा दिया गया है। इनमें से अधिकांश बेहद ग़रीब, निरक्षर और पिछड़ी जातियों के लोग हैं। ‘मृतक संघ’ के मुखिया लाल बिहारी कहते हैं, "हज़ारों लोगों में उनकी तरह कोई किस्मत वाला नहीं होता। सालों तक संघर्ष करने के बाद नाउम्मीदी के चलते बहुत से लोग आत्महत्या कर लते हैं।"

सरकारी दस्तावेजों में मृत लखनऊ के मोहनलालगंज तहसील के गुलालखेड़ा के राजे को साल 2013 में मृत घोषित किया गया और उनकी एक बीघा जमीन किसी दूसरे के नाम कर दी गई। अब राजेश तहसील के चक्कर काट रहे हैं और यह बताते फिर रहे हैं कि वह जिंदा हैं। यह कहानी सिर्फ लखनऊ के राजेश की ही नहीं है, हाथरस से लेकर मऊ, गोरखपुर, कौशांबी, चंदौली से लगायत बनारस तक में ऐसे कई जिंदा ‘भूत’ हैं जो अपना हक मांग रहे हैं।

वाराणसी में पिछले 23 वर्षों से राजस्व अभिलेखों में खुद को जीवित साबित करने के लिए चौबेपुर के छितौनी गांव के संतोष सिंह की लड़ाई अभी चल रही है। साल 1995 में वह 18 साल के थे तभी उनके गांव में नाना पाटेकर अभिनीत फिल्म ‘आंच’ की शूटिंग हो रही थी। शूटिंग के बाद वह उस टीम के साथ मुंबई चले गए। तीन साल बाद गांव लौटे तो पता चला कि गांव के कुछ लोगों ने राजस्व के अभिलेखों में उन्हें मृत घोषित करा कर उनकी 12 एकड़ जमीन हड़प ली है। तब से संतोष खुद को जिंदा साबित करने के लिए बनारस के प्रशासन व पुलिस अफसरों से मिलकर अपनी आवाज उठा चुके हैं। ‘मैं जिंदा हूं’ की तख्ती लिए संतोष को अक्सर तहसील, कभी मुख्यालय तो कभी लखनऊ-दिल्ली में देखा जा सकता है। कौशांबी जिले में 50 से अधिक ऐसी महिलाएं हैं, जिनके पति जिंदा हैं, लेकिन वह कागजों में मृत साबित हो चुके हैं। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग और राज्य सरकार ने साल 2008 में सरकारी अभिलेखों में मृत घोषित 535 लोगों के नाम दोबारा दर्ज कराए थे।

सरकारी अभिलेखों में मुर्दा घोषित किए गए ज़िंदा लोगों के कई मुकदमों में पैरवी करने वाले बनारस के सिविल मामलों के अधिवक्ता आनंद पाठक कहते हैं, "पूर्वांचल में सरकारी अभिलेखों में मुर्दा लोगों की तादाद सैकड़ों में है, जो खुद को जिंदा होने की लड़ाई लड़ रहे हैं। ज़मीन हथियाने के इरादे से कुछ लोगों को कई-कई बार मृत घोषित किया गया है। कई मर्तबा सरकारी नुमाइंदों की गलती से तो कई बार सरकारी कर्मचारी रिश्वत लेकर फ़र्जी मृत्यु प्रमाण-पत्र जारी कर देते हैं। सरकारी अभिलेखों में जिंदा लोगों का नाम मृतक के रूप में दर्ज कर दिया जाता है। षड्यंत्र और फर्जीवाड़े के ऐसे मामले जब कोर्ट में चलते होते हैं, तो न्याय मिलने में काफ़ी देर होती है। कई बार खुद को जिंदा घोषित कराने में लोगों की पूरी जिंदगी गुजर जाती है। दुर्भाग्य की बात यह है कि यूपी सरकार इस मामले में तनिक भी संजीदा नहीं है। अगर ऐसे मामलों की सुनवाई फास्ट ट्रैक अदालतों में हो तो धोखाधड़ी करने वालों को सजा मिल सकती है और इससे दूसरे लोगों में डर पैदा होगा।"

(लेखक बनारस के वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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