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कृषि कानून वापसी पर संसद की मुहर, लेकिन गोदी मीडिया का अनाप-शनाप प्रलाप जारी!

आज के दौर में मोदी सरकार शोले फ़िल्म में अमिताभ बच्चन के उस सिक्के जैसी हो गई है जिसके दोनों ओर 'मास्टरस्ट्रोक' लिखा है। गोदी मीडिया के उन एंकरों पर तरस भी आता है जिन्होंने सालभर इस कानून और सरकार का महिमामंडन किया और आज अपने आत्मसम्मान की तिलांजलि देकर इन एंकरों को सरकार के हर कदम को मास्टरस्ट्रोक बताना पड़ रहा है। खैर प्रोपेगैंडा फैक्ट्री के द्वारा सरकार के 'हिट विकेट' को 'फाइन सिक्स' बताने का अथक प्रयास जारी है।
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प्रतीकात्मक तस्वीर। साभार : गूगल

प्रधानमंत्री मोदी को सरप्राइज देने की आदत है जिसे देश अक्सर कई मौकों पर देख भी चुका है कुछ इसी अंदाज़ में प्रधानमंत्री टीवी पर आए और तीनों विवादित कृषि कानूनों को वापस लेने का ऐलान कर दिया। जिसपर कल 29 नवंबर को संसद के दोनों सदनों की मुहर भी लग लग गई। लेकिन मेनस्ट्रीम मीडिया के लिए प्रधानमंत्री का ये ऐलान सरप्राइज से कहीं अधिक एक सदमे जैसा था जिससे अब तक ये लोग नही निकल पाएं हैं। गोदी मीडिया और दरबारी पत्रकार इस वक़्त बेहद बुरे दौर से गुज़र रहे हैं और आजकल टीवी डिबेट्स में उनकी ये खीज साफ तौर पर देखी जा सकती है।

कल यानी 29 नवंबर को कृषि कानून वापसी बिल को संसद के दोनों सदनों से पास कर दिया गया। सबसे बड़े लोकतंत्र की संसद में इसपर चर्चा करना ज़रूरी नही समझा गया। इस ऐतिहासिक आंदोलन में अपनी जान की आहूति देने वाले शहीद किसानों को श्रद्धांजलि देना ज़रूरी नही समझा गया, MSP कानून समेत किसानों की बाकी मांगों पर चर्चा नही हुई, किसानों को रौंदने वालों पर बहस नही हुई, पिछले एक साल से प्रोपेगैंडा के तहत देश के किसानों को न जाने कितने ही लेबल से नवाज़ा गया, उन्हें अपमानित किया गया इस बात पर भी कोई चर्चा नही हुई और ध्वनिमत के आधार पर लाया गया ये कानून बिना किसी चर्चा के ही वापस ले लिया गया।

इस ऐतिहासिक आंदोलन के संघर्ष को एक वर्ष पूरा हो चुका है और आज भी ये संघर्ष बाकी मांगे पूरी होने तक जारी है। विवादास्पद कृषि कानूनों की वापसी के बाद सरकार बैकफुट पर है और किसानों के धैर्य, संकल्प और जुनून की जीत हुई है। बीते 26 नवंबर को देश ने संविधान दिवस मनाया। आज इस आंदोलन के प्रति सम्मान व्यक्त करने की भी ज़रूरत है क्योंकि इस आंदोलन ने संविधान के द्वारा प्रदान किए गए लोकतांत्रिक अधिकारों की ताकत से देश के हुक्मरानों को रूबरू कराया है।

देश के ज़हन में वो तस्वीरें आज भी ताज़ा हैं जब कृषिप्रधान देश मे आंदोलनकारी किसानों को देश की राजधानी में आने से रोकने के लिए 'सरहदें' तैयार की गईं, कीले बिछवाई गयीं, वॉटर-कैनन और आँसू गैस के गोलों के साथ उनका स्वागत किया गया। इन सबके बावजूद एक लोकतांत्रिक देश में संगठित विरोध और आंदोलन की क्या भूमिका व महत्ता है इसका परिचय इस किसान आंदोलन ने कराया। ये किसानों की जीत के साथ-साथ जनतंत्र की भी जीत है।

बीते एक वर्ष में बहुत कुछ बदला। मौसम बदला, सरकार के तेवर बदले, जनविरोध और आंदोलन की ताकत को कम आंकने वालो की सोच भी बदली लेकिन वो एक चीज़ जो बिल्कुल नही बदली वो है किसान आंदोलन के प्रति मेनस्ट्रीम मीडिया के एक वर्ग का रवैया। आंदोलन की शुरुआत से इसे बदनाम करने और महत्वहीन बनाने की हरसंभव कोशिश की गई और आज जब किसान आंदोलन अपनी ऐतिहासिक जीत की ओर है ऐसे वक़्त में भी पूरी प्रोपगैंडा मशीनरी किसानों को ज़िद्दी, मोदी विरोधी और सरकार को उदार छवि वाला मसीहा बनाने पर तुली हुई है।

गोदी मीडिया के वो दरबारी पत्रकार जिन्होंने चाटुकारिता और सत्ता उपासना को नया आयाम देते हुए सालभर इस कृषि कानून को ऐतिहासिक बताते हुए फायदे गिनवाए थे आज उन्ही कानूनों की वापसी को भी ऐतिहासिक और क्रांतिकारी बताना पड़ रहा है और ये काम वो बखूबी कर भी रहे हैं इसके साथ ही एक नए नैरेटिव के साथ कार्यक्रम किये जा रहे हैं जिसके तहत मोदी सरकार को विराट हृदय वाली परम उदार और संवेदनशील सरकार सिद्ध करने का एजेंडा जारी है।

आज के दौर में मोदी सरकार शोले फ़िल्म में अमिताभ बच्चन के उस सिक्के जैसी हो गई है जिसके दोनों ओर 'मास्टरस्ट्रोक' लिखा है। गोदी मीडिया के उन एंकरों पर तरस भी आता है जिन्होंने सालभर इस कानून और सरकार का महिमामंडन किया और आज अपने आत्मसम्मान की तिलांजलि देकर इन एंकरों को सरकार के हर कदम को मास्टरस्ट्रोक बताना पड़ रहा है। खैर प्रोपेगैंडा फैक्ट्री के द्वारा सरकार के 'हिट विकेट' को 'फाइन सिक्स' बताने का अथक प्रयास जारी है।

आजकल किसान आंदोलन पर होने वाली टीवी डिबेट्स और कार्यक्रमों पर नज़र डालें तो पता चलता है कि कुछ भी ऊल-जलूल हेडलाइन्स के साथ एक सुनियोजित प्रोपगैंडा को टेलीविज़न में माध्यम से घर-घर तक परोसने का काम किया जा रहा है। इस आंदोलन को खत्म करने को सबसे ज़्यादा आतुर ये चैनल्स ही प्रतीत होते हैं इसीलिए अपने कार्यक्रमों  के माध्यम से वे एक प्रायोजित एजेंडा चला रहे हैं की किसान ज़िद्दी हैं। एक नए नैरेटिव के साथ किसानों की MSP पर कानून की मांग को एक नई मांग बताकर ये सिद्ध करने की बेशर्म कोशिश की जा रही है कि किसान हठधर्मी हैं और वे इस आंदोलन को खत्म ही नही करना चाहते हैं।

इसके साथ ही कुछ ज़हरीले चैनल्स 'डर' बेच रहे हैं कि ये किसान आंदोलन की ऐवज में मात्र मोदी विरोध है और आने वाले वक्त में CAA वापसी की भी बात होगी, आर्टिकल 370 हटाने का भी विरोध होगा, शाहीन बाग पार्ट-2 होगा, आन्दोलनजीवी सड़कें जाम करेंगे और ऐसी ही तमाम ज़हरीली चर्चाओं के साथ आमजन में इस आंदोलन के प्रति नफरत पैदा करने की कवायद जारी है। "आंदोलन को जीवित रखने को आतुर आन्दोलनजीवी", "आंदोलन की आग को जलाए रखने के नए बहाने", "आंदोलन या सियासी खेला?" जैसी हेडलाइन्स के साथ किसान आंदोलन को बदनाम करने की साज़िश आज भी बदस्तूर जारी है।

ध्यान रहे किसानों के लिए सरकारी नीतियां ही एकमात्र चुनौती नहीं थी बल्कि उनके इस आंदोलन को खत्म करने की मंशा के साथ चलाए जा रहे प्रोपेगेंडा के खिलाफ भी किसान संघर्षरत था। खालिस्तान जैसे मरे हुए मुद्दे व शब्द को आम बोलचाल और चर्चा में प्रचलित करने के ज़िम्मेदार भी ये चैनल्स हैं जिन्होंने सत्ता उपासना की पराकाष्ठा को पार करते हुए इस आंदोलन को खत्म करने की मंशा के साथ इसे खालिस्तानी एंगल देने की भरपूर कोशिश की थी।

ध्यान रहे किस तरह से 'देशद्रोह' जैसे शब्द को इस देश में एक फैशन बना दिया गया है। और इस शब्द को आम जनमानस के शब्दकोश तक पहुंचाने का काम भी इन्ही ज़हरीले चैनलों ने किया है। सरकार के खिलाफ बोलने पर किस तरह से इस शब्द को उनपर चिपका दिया जाता है ये जगजाहिर है। राष्ट्रविरोधी, टुकड़े-टुकड़े गैंग, लेफ्टिस्ट, जिहादी, नक्सली, जयचंद, मोमबत्ती गैंग, अवॉर्ड वापसी गैंग और ना जाने क्या-क्या! विरोध की हर आवाज़ को इनमें से किसी न किसी लेबल से नवाज़ा जाता है। किसान आंदोलन को खालिस्तान से जोड़ना भी इसी का हिस्सा है।

आंदोलनकारी किसानों ने अपने जुनून और संकल्प से सत्ता के गुरूर को तोड़कर जनविरोध की ताकत का एहसास कराया है। और गोदी मीडिया बखूबी इस बात से वाकिफ हो चुकी है कि किसान समझौते के साथ इस आंदोलन को खत्म नही करेगा। इसीलिए जब से किसान मोर्चा की ओर से ये बात की गई कि MSP पर कानून के साथ अन्य मांगों को मानने के बाद ही ये आंदोलन खत्म होगा तब से गोदी मीडिया अपने कार्यक्रमों में MSP के नुकसान बता रही है। MSP किस प्रकार से देश के लिए आर्थिक बोझ बनेगी इस पर ज्ञान बांटने का काम जारी है। MSP की मांग को अप्रासंगिक बता कर ये प्रसारित करने का एजेंडा जारी हैं कि किसान समाधान चाहता ही नही है और जानबूझकर इस आंदोलन को लंबा खींचना चाहता है।

खैर पिछले एक साल से इन सभी साज़िशों से लड़ता-झूझता, अपमान और गालियां झेलता ये किसान आंदोलन आज अपनी जीत के मुकाम पर खड़ा है। इस आंदोलन ने सत्ता के अहंकार को चकनाचूर करते हुए लोकतांत्रिक मूल्यों को मजबूत करने का काम किया है। इसके अलावा इस आंदोलन ने भविष्य की सरकारों को भी ये साफ संदेश दिया है कि कृषि से सम्बंधित कानूनों को बिना किसान को भरोसे में लिए पारित नही किया जा सकता। "छप्पन इंची सीना कभी नही झुकेगा" इस मानसिकता के साथ जीने वाले एंकरों को भी इस आंदोलन ने आईना दिखाते हुए जनविरोध की ताकत का एहसास कराया है।

राकेश टिकैत के छलकते आंसुओं को हाई वोल्टेज ड्रामा बताने वाली मेनस्ट्रीम मीडिया और उसके कार्यक्रम आज के दौर में सबसे बड़े 'ड्रामा' हैं और इनके ड्रामा की कहानी और कंटेंट कुछ भी हो पर पूरा प्रोग्राम इसके चिरपरिचित Protagonist यानी 'नायक' के महिमामंडन पर केंद्रित होता है। इस प्रोपेगेंडा कम्पनी के प्रोपेगेंडा के सभी तारों को अपनी एकताबद्ध कतारों से काटते हुए किसान अपनी मांगों पर अडिग और अटल है।

(अभिषेक पाठक स्वतंत्र लेखक हैं)

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