किसान आंदोलन : नया चरण, नई चुनौतियाँ
हमारा राष्ट्रीय जीवन एक नए चरण में प्रवेश कर गया है जिसमें अब प्रत्यक्ष राजनीतिक प्रक्रिया केन्द्रीयता ग्रहण करती जा रही है। 2024 को केंद्र कर राजनीतिक संघर्ष तेज होता जा रहा है, आने वाले दिनों में सभी तबकों की सक्रियता और संघर्ष की यह धुरी बनता जायेगा।
यह चुनाव कोई सामान्य चुनाव नहीं है। यह तय करेगा कि भारत एक धर्मनिरपेक्ष लोकतान्त्रिक गणतंत्र बना रहेगा अथवा नहीं। स्वाभाविक है, विभिन्न तबकों के मुद्दों, हितों और संघर्षों का भविष्य भी अंततः 2024 की नियति से बंधा हुआ है।
इसीलिए किसान आंदोलन के सामने आज दुहरा कार्यभार है, एक ओर उन्हें देश, संविधान और लोकतन्त्र को बचाने की राष्ट्रीय लड़ाई की बड़ी ताकत बनना है, दूसरी ओर नए उभरते निज़ाम में अपने अधिकारों और हितों के लिए स्पेस बनाना है, जो वर्तमान नीतिगत ढांचे को बदले बिना सम्भव नहीं है।
ये दोनों लड़ाईयां एक दूसरे से जुड़ी हैं। किसानों का विश्वास जीते बिना और इस राजनीतिक लड़ाई में उन्हें galvanise किये बिना न मोदी-हटाओ, भाजपा-हटाओ मुहिम सफल होने वाली है, न ही मोदी-भाजपा के सत्ता से हटे बिना किसानों के सर पर लटकती कृषि के कारपोरेटीकरण की तलवार हटने वाली है और किसानों की जिंदगी में कोई खुशहाली आने वाली है।
खाया-अघाया शहरी मध्यवर्ग तो उनके साथ है ही, सर्वोपरि हिंदी पट्टी की विराट किसान आबादी को जिस तरह बहुसंख्यकवादी अंधराष्ट्रवाद के भावनात्मक सांस्कृतिक मोहपाश में मोदी ने बांध रखा है, वह फासीवादी सत्ता का मुख्य आधार है। जाहिर है मोदी राज के कारपोरेटपरस्त किसान-विरोधी चरित्र का पर्दाफाश कर, उसके विरुद्ध किसानों की राजनीतिक लामबंदी के बिना इससे मुक्ति मिलने वाली नहीं।
किसान-आंदोलन की अग्रगति मोदी-भाजपा हटाओ अभियान की सफलता की पूर्वशर्त हैं। इसीलिए राजनीति की केन्द्रीयता के बावजूद इस दौर में किसान-आन्दोलन का भारी महत्व बना हुआ है।
सच तो यह है कि हमारे राष्ट्रीय जीवन के एक बेहद नाजुक दौर में जब चारों ओर सन्नाटा पसरा हुआ था, न राजनीतिक मोर्चे पर कोई प्रतिरोध था, न ही समाज का कोई और वर्ग प्रतिकार की स्थिति में था, उस समय उन्मत्त फासीवादी अश्वमेध के घोड़े की लगाम 13 महीने तक थाम कर किसान आंदोलन ने हमारे लोकतन्त्र को ज़िंदा रखने में जो ऐतिहासिक भूमिका निभायी, उसके लिए कृतज्ञ राष्ट्र हमेशा उनका ऋणी रहेगा। वरना कारपोरेट-हिंदुत्व का रथ जिस तरह कश्मीर, धारा 370, समान नागरिकता आदि को रौंदते हुए आगे बढ़ रहा था, उसने क्या क्या तबाही मचाई होती, इसकी कल्पना मात्र से सिहरन होती है। शायद आज जो political process चल रही है, उसके लिए स्पेस ही न बचा होता।
पिछले दिनों संयुक्त किसान मोर्चा द्वारा लखीमपुर में आयोजित कार्यक्रम की जबरदस्त सफलता ने यह साफ कर दिया कि किसानों में अब भी अपने ऐतिहासिक आंदोलन की पुरानी स्पिरिट और जुझारूपन जिंदा है और वे अपने आंदोलन को मंज़िल तक पहुंचाने के लिए कृतसंकल्प हैं। किसानों के एक अन्य धड़े द्वारा जंतरमंतर पर आहूत कार्यक्रम में भी किसानों की उत्साहपूर्ण विशाल भागेदारी ने यह दिखाया कि किसान सभी सम्भव मंचों से अपने आंदोलन को आगे बढ़ाने के लिए कटिबद्ध हैं।
पंजाब, हरियाणा समेत देश के तमाम इलाकों में किसान लगातार आंदोलनरत हैं और शासन-सत्ता से टकरा रहे हैं। संयुक्त किसान मोर्चा से जुड़ी अखिल भारतीय किसान महासभा बिहार के मगध-शाहाबाद जोन में , जो इलाका स्वामी सहजानन्द सरस्वती के नेतृत्व में आज़ादी की लड़ाई के दौर में किसान आंदोलन का केंद्र था, वहां बिक्रमगंज में 23 सितंबर को विशाल किसान महापंचायत करने जा रही है, जिसमें मोर्चे के राष्ट्रीय नेता भाग लेंगे।
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जमीनी स्तर पर किसानों की इस लड़ाकू स्पिरिट और सक्रियता के बावजूद SKM के सामने इस समय सबसे बड़ी चुनौती अपने को reorganise करने और राष्ट्रीय स्तर पर सशक्त नेतृत्वकारी केंद्र के गठन की है।
दरअसल किसान आंदोलन और उसकी एकता की कीमत पर जिन संगठनों और नेताओं ने premature ढंग से पंजाब विधान सभा चुनाव में उतरने का फैसला किया , उन्होंने उसे अपूरणीय क्षति पहुंचाई। ठीक इसी तरह आज जो लोग किसान आंदोलन के कार्यभार को सेकेंडरी बना रहे हैं और उससे withdraw कर रहे हैं, वे भी किसान आंदोलन, बल्कि समग्रता में लोकतन्त्र की लड़ाई का बहुत भला नहीं कर रहे हैं।
दिल्ली बैठक में मोर्चा के सांगठनिक स्वरूप को लेकर एक ड्राफ्ट पर चर्चा हुई और उसे अंतिम रूप देने के लिए 11 सदस्यीय ड्राफ्ट कमेटी बनाई गई, जिसमें डॉ. अशोक धावले, राजा राम सिंह, अतुल अंजान, अविक शाह, मेधा पाटेकर, परगट सिंह जमवाय, रविन्द्र पटियाला, सत्यवान, डा. सुनीलम, एवं विकास सिसर शामिल हैं।
4 सितंबर को दिल्ली में हुई बैठक में SKM ने ऐलान किया कि किसान 26 सितंबर को देश भर में सांसदों-विधायकों को अपनी लंबित मांगों के सम्बन्ध में मांगपत्र सौपेंगे। साथ ही 3 अक्टूबर को लखीमपुर के चार किसानों और एक पत्रकार की शहादत के एक साल पूरा होने पर पूरे देश में विरोध कार्यक्रम आयोजित होंगे।
साथ ही 26 नवंबर को तीनों कृषि कानूनों की वापसी की मांग को लेकर दिल्ली मोर्चा के एक साल होने पर सरकार की वादाखिलाफी के विरोध में सभी राज्यों की राजधानियों में राजभवन के सामने विरोध-प्रदर्शन होगा।
सर्वसम्मति से लिए गए फैसले में एसकेएम के डिमांड चार्टर में किसानों के कर्ज़माफी, कृषि बीमा और किसान पेन्शन की मांग को जोड़ने का फैसला किया गया। बहरहाल SKM को अपनी केंद्रीय मांग- MSP की कानूनी गारंटी के सवाल पर डटे रहना होगा और किसी भी अन्य मांग के बदले इससे ध्यान divert नहीं होने देना चाहिए।
कर्जमाफी बेशक मोदी राज में तबाह किसानों के लिए बड़ी राहत होगी, पर अंततः वह अस्थाई ही होगी क्योंकि कर्ज तो बीमारी का लक्षण है। किसानों के सारे संकट का मूल तो उनकी फसल का उचित मूल्य न मिलना है। इसके समाधान से ही उनके संकट का मुकम्मल समाधान हो पायेगा।
कर्जमाफी अतीत में भी सरकारें करती रही हैं और अभी गुजरात चुनाव में राहुल गांधी ने 3 लाख तक कर्जमाफी और केजरीवाल ने 2 लाख कर्ज माफ करने का वायदा किया है। उधर तेलंगाना के मुख्यमंत्री के चन्द्रशेखर राव किसान नेताओं को बुलाकर अपने तेलंगाना मॉडल को प्रचारित करने में लगे हैं
बहरहाल, विपक्ष चाहे जितनी सदाशयता दिखाए, सच्चाई यह है कि कृषि विकास की दिशा को लेकर कारपोरेट के एजेंडे और किसान हित में सीधा और असमाधेय ( irreconcilable ) टकराव है। इसलिए भारी दबाव बनाए बिना MSP गारंटी कानून बनने वाला नहीं है। किसानों की इस मांग को वैश्विक वित्तीय पूँजी के प्रबल प्रतिरोध का भी सामना करना होगा जो हमारी कॄषि को अपने हितों के अनुरूप ढालने में लगी है। वे तो किसानों को मिलने वाली बची-खुची सब्सिडी को भी खत्म करवाने में लगे हैं। MSP गारंटी कानून वर्तमान अर्थनीति की पूरी दिशा को उलट देगा।
जाहिर है किसानों को अपने मूल सवालों को राजनेताओं की सदिच्छा के भरोसे छोड़ने की बजाय, उन्हें नीतिगत बदलाव के लिए बाध्य करना होगा।
किसान 26 सितंबर को देश भर में सांसदों-विधायकों को अपनी लंबित मांगों के सम्बन्ध में मांगपत्र सौंपेंगे। जरूरत इस बात की है कि किसान सभी विपक्षी दलों से MSP की कानूनी गारंटी के सवाल पर अपनी स्थिति स्पष्ट करने की मांग करें तथा चौतरफा कृषि विकास के लिए वैकल्पिक नीतियों को विपक्ष के साझा कार्यक्रम का सर्वप्रमुख एजेंडा बनाने के लिए बाध्य करें।
अपने आन्दोलन को धार देते हुए किसानों को तेज होती राजनीतिक प्रक्रिया में सक्रिय हस्तक्षेप करना होगा, ताकि दिल्ली बॉर्डर से लखीमपुर तक अकूत बलिदान देकर जो फसल उन्होंने लगाई है, उसे कोई और न काट ले जाय।
किसान-आंदोलन को 2024 के चुनाव को लोकतन्त्र की रक्षा तथा MSP गारंटी के मूलभूत प्रश्न पर referendum में बदलना होगा और इस पर सभी किसानों को मोदी-राज के ख़िलाफ़ लामबंद करना होगा।
(लेखक इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)
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