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अविरलता और निर्मलता के लिए फिर शुरू होगा “गंगा” आंदोलन

गंगा की अविरलता और निर्मलता को बचाने के लिए कई गंगा प्रेमियों ने अपना अमूल्‍य योगदान दिया है। कई आंदोलन किए हैं। ऐसे ही मनीषियों को याद करता तथा गंगा आंदोलनों का इतिहास बताता व भविष्‍य में आंदोलन प्रारंभ करने की रूपरेखा दर्शाता पढ़‍िये अमरेंद्र कुमार राय का ये आलेख।
ganga

साध्वी (ब्रह्मचारिणी) पद्मावती को शायद आप भूल गए होंगे। गंगा की अविरलता, निर्मलता और खनन के खिलाफ 15 दिसंबर 2019 से मार्च 2020 तक इन्होंने 46 दिन तक अनशन किया था। 46 वें दिन की रात में प्रशासन उनके कमरे का दरवाजा तोड़कर उन्हें दून अस्पताल ले गया। वहां उन पर गर्भवती होने का आरोप लगाया। वहां से लौटने के बाद उनका स्वास्थ्य लगातार गिरता गया। यहां तक कि वे कोमा में पहुंच गईं। तब उन्हें दिल्ली एम्स में भर्ती कराया गया। वे वहां एक महीने तक आईसीयू में रहीं। उस घटना के करीब चार साल बीत जाने के बावजूद अभी भी पद्मावती स्वस्थ नहीं हैं। वे अपने पैरों पर चल नहीं सकतीं। चलने के लिए ह्वील चेयर का सहारा लेना पड़ता है। अब वे चलने की धीरे-धीरे प्रैक्टिस कर रही हैं। ह्वील चेयर पर ही वे खाना खाती हैं। लेकिन गंगा की पवित्रता कायम रखने को लेकर उनके उत्साह में कोई कमी नहीं आई है। जब भी उन्हें कोई मिलता है तो वे कहती हैं आप लोग मां गंगा के लिए कुछ नहीं कर रहे हैं।

वे मातृ सदन में रहती हैं। मातृ सदन के प्रमुख स्वामी शिवानंद उनका विशेष रूप से ध्यान रखते हैं। जब भी पद्मावती उनके पास जाती हैं, उनसे भी यही शिकायत करती है कि आप गंगा की अविरलता और निर्मलता के लिए कुछ नहीं कर रहे हैं। हमारे लिए तो इतने डॉक्टर लगाये गए हैं लेकिन मां गंगा की अविरलता के लिए कुछ नहीं किया जा रहा। वे कहती हैं कि हम भले ठीक न हों, लेकिन हमारी मां गंगा को आप लोग ठीक कर दो। वो ठीक हो जाएंगी तो हम अपने आप ठीक हो जाएंगे। गंगा आंदोलन में प्रोफेसर जीडी अग्रवाल के साथ भाग लेने वाले मैग्शेसे पुरस्कार विजेता और तरुण भारत संघ के अध्यक्ष राजेंद्र सिंह भी पिछले हफ्ते जब मातृ सदन पहुंचे तो पद्मावती ने उनसे भी यही कहा कि आप लोग गंगा के लिए कुछ नहीं कर रहे हैं। तब शिवानंद जी और राजेंद्र सिंह दोनों ने ही उन्हें आश्वासन दिया कि गंगा के लिए जल्दी ही कुछ फिर से शुरू किया जाएगा। बाद में दोनों ने इस पर गंभीरता से विचार भी किया और तय किया कि अब गंगा को बचाने के लिए फिर से आंदोलन करने का समय आ गया है।

यह सब चल ही रहा था कि 16 नवंबर गुरुवार की सुबह करीब सात बजे अचानक ज्योतिर्पीठ के शंकराचार्य स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद वहां आ पहुंचे। उनसे मिलने पद्मावती भी पहुंचीं। पद्मावती ने उनसे भी यही शिकायत की कि हमारी गंगा मां के लिए कोई कुछ नहीं कर रहा है। इस पर स्वामी अविमुक्तेश्वारानंद ने कहा कि मैं आपसे ही मिलने यहां आया हूं। उन्होंने पद्मावती को आश्वासन दिया कि जल्दी ही मां गंगा की अविरलता के लिए आंदोलन शुरू किया जाएगा। उन्होंने वहां मौजूद मातृ सदन के प्रमुख शिवानंद जी और राजेंद्र जी से कहा कि गंगा की अविरलता और निर्मलता के लिए आंदोलन करने का समय अब आ गया है।

लोकसभा 2024 के चुनाव आने वाले हैं। इस समय सरकार हम लोगों की बात मान सकती है। आप लोग आंदोलन की रूपरेखा तैयार करिए। स्वामी शिवानंद तो पहले से ही एक बार फिर आंदोलन का मन बनाये हुए हैं। उन्होंने राजेंद्र सिंह से भी कहा कि आप भी रणनीति बनाइये और बताइये कैसे आंदोलन शुरू किया जाए। स्वामी शिवानंद को कलकत्ता और गंगा सागर गंगा से संबंधित एक सम्मेलन में भाग लेने जाना था। राजेंद्र सिंह ने उनसे कहा कि आप वहां भी इसकी चर्चा करिये। फिर लौटकर आइये तो हम लोग बात करके इस मुद्दे पर फिर से अनशन आदि शुरू करते हैं।

गंगा को बचाने के लिए मातृ सदन 1998 से ही लगातार आंदोलन करता रहा है। अब तक यह 67 बार आंदोलन कर चुका है। इसके संतों ने गंगा के लिए अपने प्राणों की आहुति दे दी है जिसमें संत निगमानंद और जीडी अग्रवाल (स्वामी ज्ञान स्वरूप सानंद) प्रमुख हैं। आश्रम के संत खुद स्वामी शिवानंद और आत्मबोधा नंद कई बार कई-कई दिनों के अनशन पर बैठ चुके हैं।

1997 में मातृ सदन हरिद्वार की स्थापना हुई थी। जब इसके संस्थापक स्वामी शिवानंद जी यहां रहना शुरू किये तो उन्होंने देखा कि आसमान में धुंध और धूल की एक मोटी परत जमी हुई है। उसकी वजह इस इलाके में चल रहे चार स्टोन क्रशर थे। तब जगजीतपुर में शनि चौक के पास चार स्टोन क्रशर चल रहे थे। इलाके में खनन कार्य जोरों से चल रहा था। ट्रैक्टर और ट्रक पत्थर लादकर गंगा को रौंदते हुए गुजर रहे थे। उनका तेल और डीजल गंगा पर तैरता रहता था। पहला आंदोलन इसी के खिलाफ शुरू हुआ। दो संत स्वामी गोकुलानंद सरस्वती और स्वामी निगमानंद सरस्वती कुंभ क्षेत्र को क्रशिंग व खनन मुक्त घोषित करने तथा गंगा की धारा से होकर जाने वाले किसी भी वाहन पर प्रतिबंध लगाने के लिए अनशन पर बैठे। इनका अनशन 3 मार्च 1998 से 16 मार्च 1998 तक चला।

आश्रम के संत दयानंद जी ने बताया कि 1997 में चंडीपुर में खनन हो रहा था। तब हमलोगों ने मांग उठाई कि पूरे कुंभ क्षेत्र को खनन मुक्त किया जाए। हरिद्वार में मंशा देवी और चंडी देवी दोनों पहाड़ियों के बीच होकर गंगा बहती हैं। इसी के बीच के क्षेत्र को कुंभ क्षेत्र कहा जाता है। यह क्षेत्र भीमगौड़ा बैराज से लेकर अजीतपुर बांध तक फैला हुआ है। उस समय उन चारों स्टोन क्रशर के लिए चंडीघाट, धोबीघाट, जगजीतपुर, मिस्सपुर, अजीतपुर में खनन किया जा रहा था। खनन के लिए प्रशासन ने इन स्टोन क्रशर को पट्टा दे रखा था। कुल पांच पट्टे दिये गए थे। लेकिन पट्टेदार तय सीमा से ज्यादा खनन कर रहे थे। हमलोगों ने इन स्टोन क्रशर को बंद करने की मांग उठाई। तब नागेंद्र प्रताप सिंह (एनपी सिंह) सिटी मजिस्ट्रेट थे और आराधना शुक्ला डीएम थीं। दयानंद जी कहते हैं कि ठीक से तो नहीं पता लेकिन सुनने में आया कि इन पट्टों को हासिल करने में अप्रत्यक्ष रूप से तब के शराब व्यापारी पोंटी चड्ढा का हाथ था। इन लोगों ने गंगा किनारे इतना खनन किया कि किनारे के पेड़ गिर गए। वे कहते हैं कि कुंभ क्षेत्र के बीच में गौरी शंकर टापू, चंडी पुल के नीचे अभी भी करीब ढाई किलो मीटर लंबा और 100-150 मीटर चौड़ा गड्ढा देखा जा सकता है।

प्रशासन ने खुदाई की जांच कराई तो पाया कि पट्टेदार तय सीमा से अधिक क्षेत्र में खुदाई कर रहे हैं। इस आधार पर पांचों पट्टे निरस्त कर दिये गए। इस तरह खुदाई और स्टोन क्रशर बंद हो गए। तब उत्तराखंड उत्तर प्रदेश में ही था। लेकिन जब उत्तराखंड अलग राज्य बना तो चंडीघाट, धोबीघाट और जगजीतपुर को तो छोड़ दिया गया लेकिन बाकी नीचे वाले घाटों मिस्सरपुर, अजीतपुर, भोगपुर, चिड़ियापुर, श्यामपुर आदि में खनन बीच-बीच में चलता रहा।

दरअसल उत्तराखंड की सरकार ने कुंभ क्षेत्र में तो खनन कार्य रोके रखने की बात कही लेकिन कुंभ का क्षेत्र कम कर दिया। अजीतपुर का हिमालय स्टोन क्रशर तो कुंभ क्षेत्र में ही था लेकिन कागजों में हेराफेरी करके उसने अपने आप को कुंभ क्षेत्र से बाहर दिखा लिया था। 2008 में मातृ सदन ने उसके खिलाफ संघर्ष शुरू किया। इसी में निगमानंद जी की हत्या हुई। प्रशासन का कहना है कि निगमानंद जी की मौत अनशन करने के कारण हुई जबकि मातृ सदन के संत कहते हैं कि उन्हें अस्पताल में जहर दिया गया। दयानंद जी बताते हैं कि इसी आंदोलन के दौरान प्रो. जीडी अग्रवाल (बाद में दीक्षा लेने के बाद इनका नाम स्वामी सानंद हो गया) मातृ सदन के संपर्क में आए और वे भी गंगा बचाओ आंदोलन से जुड़ गए।

अभी तक मातृ सदन के संत गंगा को कुंभ क्षेत्र में ही अविरल, निर्मल और खनन मुक्त बनाने की कोशिश कर रहे थे। लेकिन स्वामी सानंद की सोच गोमुख से लेकर गंगा सागर तक की पूरी गंगा को अविरल और निर्मल बनाने की थी। इसके लिए उन्होंने गोमुख की यात्रा की और गंगा की अविरलता, निर्मलता और खनन को लेकर पूरा अध्ययन किया। उस समय केंद्र की कांग्रेस सरकार ने भागीरथी क्षेत्र के भैरो घाटी मे तीन बिजली परियोजनाएं बनाने का एलान किया था और उन पर काम भी शुरू कर दिया था। तब उन परियोजनाओं को रोके जाने के लिए स्वामी सानंद ने 2008 में उत्तरकाशी में पहला अनशन किया। उस अनशन के पहले दिन मातृ सदन के संत स्वामी शिवानंद भी शामिल हुए। ये तीनों हाइड्रो पॉवर प्रोजेक्ट लोहारी नागपाला, पाला मनेरी और भैरो घाटी थे।

गंगा आंदोलन से जुड़ने वालों में एक प्रमुख नाम मैग्सेसे पुरस्कार विजेता और तरुण भारत संघ के अध्यक्ष राजेंद्र सिंह का भी है। वह बताते हैं कि जीडी अग्रवाल प्रोफेसर होने के साथ ही बहुत बड़े आदमी थे। उनके काम करने का तरीका बहुत ही वैज्ञानिक था। वे हर काम को तथ्य जुटाकर बहुत ही व्यवस्थित ढंग से करते थे। जीडी अग्रवाल ने लोहारी नागपाला, मनेरी और भैरो घाटी तीनों परियोजनाओं का विस्तृत अध्ययन किया। तब केंद्र में ऊर्जा मंत्री सुशील कुमार शिंदे थे। उन्होंने इन परियोजनाओं को रोकने के लिए केंद्र सरकार से बातचीत शुरू की। केंद्र सरकार ने इन परियोजनाओं को रोकने में अपनी असमर्थता जताई। कहा कि इन परियोजनाओं को रोकने से सरकार को 2000 करोड़ रुपए की चपत लगेगी।

लेकिन जीडी अग्रवाल पूरी तैयारी करके गए थे उन्होंने बताया कि इन परियोजनाओं पर सरकार का कुल 900 करोड रुपए का खर्च हो रहा है जो पर्यावरण और गंगा की अविरलता, निर्मलता के सामने कुछ नहीं है। आखिर में सरकार ने उनकी बात मान ली और तीनों परियोजनाओं को रद्द कर दिया गया। राजेंद्र सिंह कहते हैं कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह बड़े आदमी है। गंगा और पर्यावरण को लेकर उनके मन में विशेष प्रेम है। वे हम लोगों की बात बहुत आराम से सुनते थे और उन्होंने ही जयराम रमेश को इस कार्य पर लगाया था। तब जयराम रमेश के पास पर्यावरण मंत्रालय का स्वतंत्र प्रभार था। 20 अगस्त 2009 को परियोजनाएं बंद करने का नोटिफिकेशन जारी किया गया। तब हमारी तीन मांगें थीं और तीनों ही मांगे मान ली गई। पहली मांग थी भागीरथी पर बन रहीं तीनों परियोजनाओं को रोकना, दूसरी मांग थी पूरी भैरो घाटी को इको सेंसेटिव जोन घोषित करना और तीसरी मांग थी नेशनल गंगा बेसिन अथॉरिटी बनाना। ये सारी मांगे पूरी हुईं। 2009 में ही गंगा को राष्ट्रीय नदी भी घोषित किया गया।

मातृ सदन के संत दयानंद जी इन सब के साक्षी हैं। वे गंगा आंदोलन में भी बड़ी भूमिका निभाते रहे हैं। कई बार कई-कई दिनों तक अनशन पर बैठे हैं। वे कहते हैं तब वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी थे और पर्यावरण मंत्रालय का स्वतंत्र प्रभार जयराम रमेश के पास था। तब की कांग्रेस सरकार गंगा की अविरलता और निर्मलता को लेकर गंभीर थी। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह खुद इस मामले में खासी दिलचस्पी ले रहे थे। उनकी दिलचस्पी को देखते हुए ही जयराम रमेश तीन दिन में दो बार मातृ सदन आये। सरकार ने हमारी सारी मांगे मान लीं। तीनों प्रोजेक्ट रद्द कर दिए गए। वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी के हस्ताक्षर से एक पत्र आया जिसमें कहां गया था कि तीनों प्रोजेक्ट खत्म होंगे, गंगोत्री से नीचे 120 से 150 किलोमीटर तक इको सेंसेटिव जोन घोषित किया जाएगा।

लेकिन तब तक जयराम रमेश की जगह जयंती नटराजन पर्यावरण मंत्रालय में आ चुकी थीं। उन्होंने इको सेंसेटिव क्षेत्र की दूरी 150 किलोमीटर से घटाकर 110 किलोमीटर कर दिया। फिर भी यह बहुत बड़ी जीत थी। इस आंदोलन की सफलता से गंगा प्रेमी और पूरे देश के लोग खुश हुए।

केंद्र सरकार ने भागीरथी पर बन रही परियोजनाओं को तो बंद कर दिया लेकिन थोड़े ही समय बाद वह अलकनंदा और मंदाकिनी नदी पर छह परियोजनाएं बनाने के काम में जुट गई। जीडी अग्रवाल ने इन परियोजनाओं का भी विरोध किया। उन्होंने कहा कि जिस तरह से भागीरथी नदी को अविरल बहने दिया जा रहा है उसी तरह अलकनंदा और मंदाकिनी नदियों को भी बिना बाधा के बहने दिया जाए क्योंकि ये नदियां भी हिमालय में गंगा की ही सहायक नदिया हैं। फिर जैसे भैरो घाटी को इको सेंसटिव जोन घोषित किया गया है वैसे ही पूरी अलकनंदा घाटी को भी इको सेंसटिव जोन घोषित किया जाए। लेकिन सरकार ने स्वामी सानंद की बात नहीं सुनी। तब स्वामी सानंद ने 2009 में पहले उत्तरकाशी में और फिर बाद में दिल्ली में अनशन किया। 2010 में उन्होंने मातृ सदन में अपने अनशन को आगे बढ़ाया।

सरकार ने अलकनंदा घाटी में जो छह नए प्रोजेक्ट शुरू किए वे श्रीनगर में अलकनंदा हाइड्रो पॉवर प्रोजेक्ट, विष्णु गार्डन पीपल कोटी प्रोजेक्ट, फाटा व्यूंग, सिंगोली भटवाड़ी और दो और प्रोजेक्ट थे। इन परियोजनाओं को रोकने में सानंद जी और मातृ सदन के संतों की अब तक की कोशिशें नाकाम हुई थीं। सानंद जी ने इन नई परियोजनाओं को रोकने के लिए गंभीर प्रयास शुरू किये। इन परियोजनाओं के खिलाफ उन्होंने 2012 में सरकार को पत्र लिखा और इन परियोजनाओं को रद्द करने की मांग की। सरकार ने जब इस पर ध्यान नहीं दिया तो उन्होंने 2012 में गंगासागर से आंदोलन शुरू किया। पहले उन्होंने अन्न त्यागा और फिर फल भी त्याग दिया।

मातृ सदन में आकर उन्होंने एक महीना सिर्फ जल पर अनशन किया। इसके बाद वे बनारस गए और वहां जल भी त्याग दिया। 2013 आते-आते माहौल काफी बदल चुका था। तत्कालीन कांग्रेस सरकार पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगने लगे थे और सरकार के खिलाफ आंदोलन शुरू हो गए थे। इस आंदोलन में बीजेपी के लोग भी सक्रिय हो चुके थे। बीजेपी इस आंदोलन की क्रेडिट अपने लिए भुनाना चाहती थी। तब तक नरेंद्र मोदी का कद भी काफी बढ़ गया था। वे गुजरात के मुख्यमंत्री रहते हुए राष्ट्रीय राजनीति में आ चुके थे और बीजेपी की ओर से देश के भावी प्रधानमंत्री के रूप में देखे जा रहे थे। उन्होंने सानंद जी का अनशन खत्म कराने के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के एक बड़े नेता और बीजेपी के कद्दावर नेता राजनाथ सिंह को सानंद जी से बात करने को कहा।

दोनों लोगों ने सानंद जी से मुलाकात की और उन्हें आश्वासन दिया कि आप अभी आंदोलन खत्म कर दें अगर हमारी सरकार बनी तो हम तीन महीने के अंदर आपकी सारी मांगे मान लेंगे। सानंद जी ने उन पर भरोसा किया और अपना अनशन समाप्त कर दिया। 2014 में सरकार बदल गई। नरेंद्र मोदी भारत के प्रधानमंत्री बने। सरकार बनने के बाद सानंद जी ने संघ के नेताओं, राजनाथ सिंह और प्रधानमंत्री को उनके आश्वासनों की याद दिलाई। कहा कि उनको दिए गए आश्वासन के तहत अब तक ये सभी प्रोजेक्ट रद्द कर दिए जाने चाहिए थे। लेकिन न संघ के नेताओं ने उनकी सुनी ना राजनाथ सिंह ने और न प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने। उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मिलने की भी कोशिश की। लेकिन मुलाकात नहीं हो सकी। तब फरवरी 2014 में इस बारे में उन्होंने पीएम को पहला पत्र लिखा। फिर बार-बार लिखा। लेकिन कोई भी उनकी बात सुनने को तैयार ना हुआ और ना ही उनके किसी पत्र का जवाब आया। आखिर में हार कर उन्होंने फिर आंदोलन का रास्ता अपनाया।

2018 में मातृ सदन में वे फिर अनशन पर बैठ गए। यह उनका आखिरी अनशन साबित हुआ। उनके अनशन का भी सरकार पर कोई असर नहीं पड़ा। अंत में 111 दिन के अनशन के बाद स्वामी सानंद की मृत्यु हो गई। मातृ सदन के संत कहते हैं कि यह स्वाभाविक मृत्यु नहीं थी बल्कि उन्हें जहर देकर मारा गया।

राजेंद्र सिंह कहते हैं कि मनमोहन सिंह और नरेंद्र मोदी की सोच में गंगा को लेकर बहुत बड़ा अंतर है। मनमोहन सिंह गंगा की अविरलता और निर्मलता को बनाए रखने के पक्ष में हैं जबकि नरेंद्र मोदी सिर्फ बातें ही करते हैं। मनमोहन सिंह के समय में ही गंगा को लेकर आंदोलनकारियों की सारी मांगे मानी गईं थीं। 2009 में उन्होंने नेशनल गंगा बेसिन अथॉरिटी बनाया था जिसमें 15 सदस्य थे। प्रधानमंत्री खुद उसके अध्यक्ष थे और दस मंत्री तथा अफसर। जबकि चार पर्यावरण से जुड़े जनता के प्रतिनिधि थे। उनमें से एक मैं भी था। बाद में जब सरकार ने अलकनंदा और मंदाकिनी नदियों पर बांध बनाने का ऐलान किया तो इसके विरोध में मैंने अपनी सदस्यता से इस्तीफा दे दिया। लेकिन प्रधानमंत्री ने हमारा इस्तीफा स्वीकार नहीं किया। उनका कहना था कि आप ही कुछ लोग हो जो अथॉरिटी में जनता का पक्ष रखते हो। बाकी तो सब सरकारी लोग हैं। वे सरकार की हां में हां मिलाते हैं। इसलिए आपका इस्तीफा हम स्वीकार नहीं करेंगे और आप अपने पद पर बने रहिए। मनमोहन सिंह के समय में अथॉरिटी की कई बैठकें हुईं और सार्थक विचार-विमर्श हुआ। लेकिन सरकार बदलने के बाद जब नए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी उस अथॉरिटी के अध्यक्ष बने तो उसकी पहली बैठक में ही अजब नजारा देखने को मिला। उस बैठक में जब मैंने अपनी बात रखी तो प्रधानमंत्री बहुत नाराज हो गए। उन्होंने कहा कि आपकी बात सरकार नहीं मान सकती। इस पर मैंने फिर इस्तीफा दे दिया और कहा कि जब सरकार हमारी बात मानने को ही तैयार नहीं है तो हमारे इसमें बने रहने का लाभ ही क्या है?

मनमोहन सिंह ने तो हमारा इस्तीफा स्वीकार नहीं किया था लेकिन मोदी जी ने हमारा इस्तीफा तुरंत स्वीकार कर लिया। राजेंद्र सिंह कहते हैं मुझे नहीं लगता कि उसके बाद उसे अथॉरिटी की कोई बैठक भी हुई है। वे कहते हैं दोनों प्रधानमंत्रियों की सोच में गंगा को लेकर फर्क है जिसे आप भी महसूस कर सकते हैं। मनमोहन सिंह गंगा को लेकर कोई घोषणा नहीं करते थे लेकिन गंगा को लेकर ठोस कार्य करते थे। जबकि मोदी जी वाराणसी में चुनाव लड़ने जाते हैं तो कहते हैं उन्हें मां गंगा ने बुलाया है जिस स्वामी सानंद को आश्वासन देकर अनशन तुड़वाते हैं उनसे बात तक नहीं करते और उन्हें अपनी जान देनी पड़ती है। लेकिन गंगा की अविरलता और निर्मलता के लिए वे कुछ नहीं करते हैं। लोगों को दिखाने के लिए बस नमामि गंगे परियोजना बना देते हैं।

राजेंद्र सिंह कहते हैं कि मनमोहन सरकार और मोदी सरकार में एक और बहुत बड़ा फर्क है। मनमोहन सरकार ने जहां हमारी सारी मांगे मानीं वहीं मोदी सरकार ने बिना मांगे माने ऐलान कर दिया कि हमने सानंद जी की सारी मांगे मान ली हैं। मोदी सरकार के चर्चित मंत्री नितिन गडकरी का अखबारों में बयान छपा। उसमें उन्होंने कहा था कि इकोलॉजिकल फ्लू से लेकर स्वामी सानंद की सारी मांगे हमने मान ली है। इस पर स्वामी सानंद बहुत नाराज हुए। उन्होंने कहा कि एक तरफ हमारी मांगे नहीं मानी जा रही हैं दूसरी तरफ अखबारों में झूठ बोला जा रहा है। तब स्वामी सानंद ने कहा था कि “ए” क्लास की नदी में कर्व फ्लोर प्रति क्यूसेक प्रति सेकंड मेंटेन करना होता है इसके तहत गंगा को 62 परसेंट फ्लो देना होगा। जबकि सरकार ने 30 परसेंट और वह भी लीन सीजन में दिया। इसी के बाद स्वामी सानंद अनशन पर बैठे और 111 दिन के अनशन के बाद उन्होंने अपनी देह लीला समाप्त कर ली।

फिलहाल ताजा स्थिति यह है कि 9 अक्टूबर 2018 को राष्ट्रीय स्वच्छ गंगा मिशन ने खनन और स्टोन क्रशर बंद करने के आदेश दिए हैं। लेकिन उत्तराखंड सरकार उन्हें पूरी तौर पर लागू करने में नाकाम साबित हो रही है। चोरी छिपे अभी भी खनन जारी है। स्टोन क्रेशर अभी भी अपने स्थान पर बने हुए हैं। हरिद्वार जिले में इस समय गंगा किनारे 113 स्टोन क्रशर हैं। मातृ सदन के लोगों का कहना है कि अगर ये स्टोन क्रशर बंद कर दिए जाएं और वहां से हटवा दिए जाएं तो चोरी छुपे हो रहा खनन भी बंद हो जाएगा। गंगा की निर्मलता और अविरलता के लिए नया आंदोलन इसी बात को लेकर होने वाला है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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