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घोसी : सीएम योगी के प्रचार के बावजूद बीजेपी की करारी हार

घोसी उपचुनाव जीतने के लिए बीजेपी ने कोई क़सर नहीं छोड़ी थी। उसने घोसी में यूपी के मंत्रियों की पूरी फौज उतार दी थी। सीएम योगी समेत 26 मंत्री और 60 से अधिक विधायकों ने प्रचार किया था फिर भी पार्टी को हार का सामना करना पड़ा।
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फ़ोटो साभार : ट्विटर/X

उत्तर प्रदेश के मऊ जिले की घोसी विधानसभा सीट पर एनडीए के प्रत्याशी दारा सिंह चौहान की करारी हार के बाद यह बहस शुरू हो गई है कि क्या पूर्वांचल में बीजेपी की लोकप्रियता कम हो गई है? इंडिया अलायंस क्या पीएम नरेंद्र मोदी की राह मुश्किल कर सकता है? इंडिया में शामिल सपा, कांग्रेस, माकपा, भाकपा, रालोद, आप आदि दलों का गठबंधन क्या अब बीजेपी को हराने में सक्षम हो गया है?

घोसी में बीजेपी की हार से समाजवादी पार्टी की जीत ज्यादा महत्वपूर्ण है। बीजेपी पिछले नौ सालों से केंद्र की सत्ता में है। पिछले साल दूसरी मर्तबा यूपी विधानसभा में भी उसने अपना परचम फहराया था। अबकी घोसी उप-चुनाव जीतने के लिए बीजेपी ने कोई कसर बाकी नहीं छोड़ी। उसने घोसी में यूपी के मंत्रियों की पूरी फौज उतार दी थी। 26 मंत्री और 60 से अधिक विधायकों ने अपने प्रत्याशी दारा सिंह चौहान का गांव-गांव में घूमकर चुनाव प्रचार किया। बीजेपी ने राजभर वोटरों को साधने के लिए ओमप्रकाश राजभर, निषाद के लिए संजय निषाद, भूमिहारों के लिए एके शर्मा, कुर्मी वोटरों के लिए स्वतंत्र देव सिंह और आशीष पटेल, ब्राह्मण वोटरों के लिए डिप्टी सीएम ब्रजेश पाठक, मौर्य-कुशवाहा वोटरों के लिए केशव प्रसाद मौर्य और पसमांदा समुदाय के लोगों को फेवर में करने के लिए दानिश आजाद अंसारी को घोसी के रण उतारा था। सूबे के ज्यादातर मंत्री एक पखवाड़े तक घोसी के गांवों की पगडंडियां नापते रहे। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ खुद आखिरी दिन घोसी में चुनाव प्रचार करने आए। बीजेपी ने घोसी में ज़ोर तो पूरा लगाया, लेकिन उसे झटका भी जोर से लगा।

घोसी इलाके में मतदान के दिन और इससे पहले भी बीजेपी पर खुलेआम ये आरोप चस्पा हुए कि पुलिस के जरिये मुस्लिम व यादव वोटरों को धमकाया और रोका जा रहा है। यूपी में इन्हें सपा का कोर वोटर माना जाता है। बीजेपी ने यह सीट जीतने के लिए हर संभव कोशिश की, लेकिन उसकी सारी मेहनत बेकार गई। इसके सभी अस्त्र चूक गए और कोई कोशिश रंग नहीं ला सकी। दूसरी ओर, समाजवादी पार्टी ने घोसी उप-चुनाव की जिम्मेदारी पार्टी के वरिष्ठ नेता शिवपाल यादव के कंधे पर डाली थी। वह भी करीब एक हफ्ते तक घोसी में डेरा जमाए रहे। माहिर खिलाड़ी की तरह सियासी बिसात पर उन्होंने अपने मोहरों को खड़ा किया और यह प्रतिष्ठापरक चुनाव आसानी से जीत लिया।

पूर्वांचल की घोसी सीट पर पिछले छह सालों में चौथी बार चुनाव हुआ। कांग्रेस से सपा, सपा से बसपा, बसपा से भाजपा, भाजपा से दूसरी बार सपा और अब एक बार फिर भाजपा में लौटने के बाद दारा सिंह चौहान अबकी जनता की आंख की किरकिरी बन गए। उनकी दल-बदल की राजनीति बड़ा मुद्दा बन गया। सपा मुखिया अखिलेश यादव ने चुनावी प्रचार के दौरान कहा, "घोसी के मतदाताओं ने मन बना लिया है कि जो पलायन करने वाले हैं, जिन्होंने पलायन किया है, जिन्होंने लोकतंत्र में मत का विश्वास तोड़ा है, इस बार घोसी के वोटर उन्हें सबक सिखाने जा रहे हैं। अखिलेश का यह भाषण जनता के मन को छू गया और वोटर सुधाकर सिंह के पक्ष में झूमकर वोट देने पहुंच गए।"

उलटा पड़ा दारा का दांव

घोसी में समाजवादी पार्टी के प्रत्याशी सुधाकर सिंह से बीजेपी के दारा सिंह चौहान से सीधा मुकाबला हुआ, लेकिन दांव उलटा पड़ गया। सपा प्रत्याशी सुधाकर सिंह ने बीजेपी के दारा सिंह चौहान को 42,672 वोटों से हरा दिया है। समाजवादी पार्टी ने यहां बीजेपी को पराजित कर इंडिया अलायंस के लिए एक बड़ा संदेश दिया। सपा मुखिया अखिलेश यादव ने सुधाकर सिंह की जीत पर त्वरित प्रतिक्रिया देते हुए कहा, "ये झूठे प्रचार और जुमला जीवियों की पराजय है। ये दलबदल-घरबदल की सियासत करने वालों की हार है। घोसी का नतीजा भाजपा का अहंकार और घमंड को चकनाचूर करने वाला है। ये एक ऐसा चुनाव है, जिसमें जीते तो एक विधायक हैं, लेकिन कई दलों के भावी मंत्री हार गए हैं। यह जीत इंडिया की जीत है। पीडीए की रणनीति की जीत है। जीत का हमारा ये नया फॉर्मूला सफल साबित हुआ है। घोसी की जनता को धन्यवाद। सुधाकर सिंह को जीत की बधाई।"

साल 2022 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी से बगावत करने वाले दारा सिंह चौहान को समाजवादी पार्टी ने टिकट दिया था। तब चौहान ने 1,08,430 वोट हासिल कर बीजेपी के विजय कुमार राजभर को 22 हजार से ज्यादा वोटों से हराया था। उस समय राजभर को 86,214 वोट मिले। तीसरे स्थान पर रहे बसपा के वसीम इकबाल ने 54,248 वोट हासिल किया था।

यूपी विधानसभा चुनाव के सिर्फ 15 महीने बाद दारा सिंह चौहान ने गृहमंत्री अमित शाह से मुलाकात की और वह एक बार फिर भाजपा में लौट आए। साल 2022 के विधानसभा चुनाव के ठीक पहले बीजेपी सरकार में कैबिनेट मंत्री रहे दारा सिंह चौहान ने भाजपा छोड़ समाजवादी पार्टी की सदस्यता ली थी। वह सपा के टिकट पर घोसी से चुनाव जीते थे। सपा छोड़कर बीजेपी में शामिल दारा सिंह ने विधानसभा सीट से इस्तीफा दिया तो घोसी सीट खाली हो गई। पिछड़ा, दलित, अल्पसंख्यक (पीडीए) का नारा बुलंद करने वाली समाजवादी पार्टी ने राजपूत समुदाय के सुधाकर सिंह पर दांव लगाया। दोनों प्रत्याशियों का राजनीतिक करियर करीब चालीस साल पुराना है। फर्क सिर्फ इतना रहा कि दारा सिंह चौहान ने मौके देख कर कई बार पार्टी बदली, लेकिन सुधाकर सिंह हमेशा अपनी पार्टी के प्रति वफ़ादार रहे।

कामयाब रही सपा की रणनीति

घोसी में समाजवादी पार्टी की जीत बीजेपी के लिए किसी भी लिहाज से अच्छी ख़बर नहीं हो सकती है। इस चुनाव के नतीजे से इस बात को बल मिला है कि इंडिया अलायंस अगर मजबूती के साथ मैदान में उतरा तो बीजेपी को लोकसभा चुनाव में कड़ी चुनौतियों का सामना करना पड़ सकता है। सिर्फ लोकसभा ही नहीं, राज्यों में होने वाले विधानसभा के चुनाव में भी बीजेपी की बाजी पलट सकती है। घोसी में चुनाव प्रचार करने पहुंचे अखिलेश यादव ने ऐलानिया तौर पर कहा था, "यह चुनाव इंडिया अलायंस बनाम एनडीए हो रहा है। इसका संदेश उत्तर प्रदेश में ही नहीं, पूरे देश में जाएगा। जब से समाजवादी और देश के दल एक हो गए, जब से इंडिया गठबंधन बना है, लोग घबराए हुए हैं कि यह गठबंधन कैसे बन गया?"

मऊ के वरिष्ठ पत्रकार हरिद्वार राय कहते हैं, "दल-बदल कर चुनाव मैदान में उतरे दारा सिंह चौहान को लेकर वोटरों में बहुत अधिक गुस्सा था। दारा से वो लोग भी खफा थे जो सालों से बीजेपी को वोट देते आ रहे थे। सपा में जाने के कारण भाजपा के वोटर इनसे पहले से ही गुस्सा थे। आम मतदाताओं को यह भी समझ में आ गया था कि चौहान ने एक बार फिर दल बदलकर उन्होंने घोसी की जनता को जबरिया चुनाव में झोंका है। भाजपा की चुनावी टीम वोटरों के इस गुस्से को मैनेज नहीं कर सकी। योगी-मोदी का जाप करने वाले भी दारा सिंह चौहान का विरोध करते रहे।"

दल-बदल बना हार का कारण

बीजेपी प्रत्याशी दारा सिंह की पराजय की एक बड़ी वजह यह भी रही कि वो अपनी चौहान बिरादरी के अलावा दलित, भूमिहार, राजभर समुदाय का वोट नहीं जोड़ पाए। भाजपा ने ऐसा करने के लिए इन बिरादरियों के कई मंत्रियों की ड्यूटी भी लगाई, जिसमें हाल ही में भाजपा के साथ आए सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के ओमप्रकाश राजभर भी थे। पत्रकार प्रवीन राय कहते हैं, "कभी यहां-कभी वहां" वाली इमेज के चलते बीजेपी के स्थानीय कार्यकर्ता और वोटर पसोपेश में थे। जब वो बसपा में थे तो घोसी के दलित वोटरों ने उन्हें सिर आंखों पर बैठाया था। दल बदले तो दलितों ने उनसे दूरी बना ली। शायद दलितों ने उनसे अपना पुराना हिसाब चुकता कर लिया। यूपी में बीजेपी की तुलना में सपा बहुत ज्यादा कमजोर नहीं है। पिछला विधानसभा चुनाव वह इसलिए बुरी तरह हार गई थी, क्योंकि उसने हड़बड़ी में ज्यादतर सीटों पर बोगस प्रत्याशियों को रण में उतार दिया था।"

साहित्यकार मनोज सिंह कहते हैं, "वाम दलों ने भी इस चुनाव में बीजेपी को जोर का झटका दिया। सियासी हलकों में यह इलाका दूसरा केरल माना जाता रहा है। इसे वामदलों का गढ़ माना भी जाता है। घोसी के उप-चुनाव में कांग्रेस की रणनीति ने चुनाव पर खासा असर डाला। कांग्रेस के नवनिर्वाचित प्रदेश अध्यक्ष अजय राय ने समाजवादी पार्टी को समर्थन देने का ऐलान किया तो उनकी पार्टी के सैकड़ों कार्यकर्ता व नेता गांव-गांव घूमने लगे। जब से पूर्व विधायक अजय राय को पार्टी की कमान मिली है तब के सियासी हलकों में कांग्रेस चर्चा का केंद्र बनने लगी है। खासतौर पर दलितों और सवर्णों में कांग्रेस फिर से अपना वजूद खड़ा करने लगी है, जिससे यूपी में उसका ग्राफ तेजी से बढ़ने लगा है।"

मनोज यह भी कहते हैं, " बसपा सुप्रीमो ने घोसी के वोटरों को नोटा दबाने अथवा घर पर रहने का संदेश दिलवाया था, लेकिन उनका यह संदेश बेअसर रहा। दलितों ने इंडिया अलायंस के पक्ष में बढ़चढ़कर मतदान किया। इसकी एक बड़ी वजह यह रही कि इस समुदाय के लोग बाबा भीमराव अंबेडकर द्वारा बनाए गए भारतीय संविधान में संशोधन के अंदेशा से बेहद खफा हैं। अगर बीजेपी भविष्य में कोई बड़ा संविधान संशोधन करती है तो देश भर में दलित समुदाय के लोग घोसी की तरह बीजेपी के खिलाफ गोलबंद होकर मतदान कर सकते हैं।"

नहीं चला राजभर का जादू

सुभासपा प्रमुख ओमप्रकाश राजभर पहले मऊ में खूब दमखम दिखाया करते थे। सपा के साथ गठबंधन तोड़ा और दोबारा भाजपा में लौटे, इससे पहले उनकी पार्टी ही दो-फाड़ हो गई थी। उनके बेहद करीबी रहे सुभासपा के उपाध्यक्ष महेंद्र राजभर ने सितंबर 2022 में पार्टी छोड़कर अपना नया दल सुहेलदेव स्वाभिमान पार्टी बना ली। राजभर समुदाय के बीच महेंद्र राजभर का कद ओमप्रकाश से कमतर नहीं है। उनकी पैठ आम जनता में है। घोसी में उन्होंने अपना प्रत्याशी मैदान में उतारा था, लेकिन उसका पर्चा रद हो गया। तब उन्होंने सुधाकर सिंह को समर्थन देने का ऐलान किया और उनके पक्ष में घोसी में जमकर चुनाव प्रचार भी किया।

सिर्फ ओमप्रकाश ही नहीं, घोसी के वोटरों ने निषाद पार्टी के प्रमुख डॉ.संजय निषाद को भी सिरे से खारिज कर दिया। घोसी का नतीजा आने के बाद जनता ने दोनों नेताओं को जिस तरह से खारिज किया है उससे एनडीए गठबंधन में उनकी साख भी खारिज हो सकती है। इस चुनाव के नतीजे यह भी बताते हैं कि बड़बोलेपन की राजनीति को जनता अब कतई बर्दाश्त नहीं करने के मूड में है।

घोसी के चुनाव ने एक और बड़ा संदेश यह दिया है कि दल-बदल की राजनीति करने वाले क्षत्रपों को नकारने का जनता मन बना चुकी है। बीजेपी के दारा सिंह चौहान की भारी पराजय की एक बड़ी वजह भी यही है। जनता को अपने ऊपर दोबारा चुनाव थोपा जाना बेहद नागरवार लगा। सपा प्रत्याशी सुधाकर सिंह को घोसी की जनता ने इसलिए भी सिर आंखों पर बैठाया, क्योंकि वो स्थानीय प्रत्याशी थे। आजमगढ़ के दारा सिंह की तरह वो बाहर से यहां चुनाव लड़ने नहीं आए थे।

टूट गया मंत्री बनने का मंसूबा

वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक प्रदीप कुमार कहते हैं, "घोसी की जनता ने दारा सिंह चौहान के योगी सरकार के मंत्रिमंडल में ताजपोशी के मंसूबों पर पानी फेर दिया। लालबत्ती पाने के लिए ही चौहान ने घोसी सीट से इस्तीफा दिया और दोबारा मैदान में उतरे। इलाके की जनता को इनकी मनमानी रास नहीं आई। यह भी कहा जा रहा है कि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ न तो दारा सिंह चौहान को पसंद करते रहे हैं और न ही सुभासपा के ओमप्रकाश राजभर को। राजनीतिक हलकों में चर्चा यह थी कि दारा सिंह चौहान पीएम नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह की पसंद थे। उनके खासम-खास माने जाने वाले एके शर्मा चुनाव खत्म होने तक घोसी में डेरा डाले रहे। यहां के वोटरों ने इन्हें भी किनारे लगा दिया। मतदाताओं ने बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष भूपेंद्र चौधरी को भी एक बड़ा संदेश यह दिया कि सिर्फ जुमलों से देश नहीं चलता है।"

"घोसी में चुनाव के दौरान कहा जा रहा था कि निर्णायक दलित वोटर होंगे। अब नतीजा सामने है तो इस बात को मानने से कोई गुरेज नहीं होना चाहिए कि दलित वोट भी अपने पुराने ठिकानों को बदलकर नया ठौर तलाशने लगे हैं। यह स्थिति मायावती की चिंता बढ़ाने वाली है। हालांकि कुछ विश्लेषकों की राय है कि मायावती भी घोसी के नतीजों के बाद अपना रुख स्पष्ट कर सकती हैं। पिछले कुछ सालों से वह जिस तरह की राजनीति कर रही थीं उसमें हाल के दिनों में थोड़ा बदलाव आया है और वह मुखर होकर बोलने भी लगी हैं। सियासी हलकों में इस चुनाव को इंडिया गठबंधन बनाम एनडीए के नजरिये से नहीं लिया गया था, लेकिन कांग्रेस और वामदलों ने सपा प्रत्याशी को खुला समर्थन देकर इसे दो गठबंधनों की लड़ाई बना दिया था। अभी तक इंडिया गठबंधन शीर्ष नेताओं के स्तर पर है, लेकिन घोसी उप-चुनाव ने यह जता दिया कि यह अलायंस जमीनी स्तर पर मजबूत शक्ल अख्तियार कर रहा है। अलायंस में शामिल कार्यकर्ताओं में एक बड़ी समरसता कायम कर रहा है।"

प्रदीप कहते हैं, "यूपी की राजनीति अब करवट ले रही है। बीजेपी के सोशल इंजीनियरिंग का जो तानाबाना था वो पूर्वांचल में तेजी से दरक रहा है। चुनाव का नतीजा बताता है कि सभी जाति और समुदाय के लोगों का वोट इंडिया गठबंधन को मिला है। इस नतीजे से एक ओर जहां देश और प्रदेश में इंडिया गठबंधन के प्रयोग को बल मिलेगा, वहीं दूसरी तरफ यूपी के अंदर पुराने नेताओं को खारिज करते हुए पिछड़ों और अति-पिछड़ों की एक नई गोलबंदी तैयार हो रही है। इसमें कुछ हद तक दलित वोटों की जबर्दस्त भूमिका रही है और आगे भी रहेगी।"

(लेखक बनारस के वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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