Skip to main content
xआप एक स्वतंत्र और सवाल पूछने वाले मीडिया के हक़दार हैं। हमें आप जैसे पाठक चाहिए। स्वतंत्र और बेबाक मीडिया का समर्थन करें।

मध्यप्रदेश चुनाव: कांग्रेस-सपा के बीच सबकुछ ठीक क्यों नहीं है?

‘इंडिया’ में साथी मध्यप्रदेश में अलग-अलग चुनाव लड़ रहे हैं। प्रदेश में जहां कांग्रेस जीत का दावा कर रही है, तो सपा का राजनीतिक इतिहास यहां बहुत अच्छा नहीं रहा है।
madhya pradesh

अगले साल लोकसभा चुनाव होंगे, ऐसे में राजनीतिक दल उत्तर प्रदेश के चक्कर काटेंगे ही। सिर्फ चक्कर ही नहीं काटेंगे बल्कि प्रदेश में मज़बूती से स्थापित नेताओं के साथ राजनीतिक सौदेबाज़ी भी होगी। अब इस सौदेबाज़ी की धुरी में जो सबसे कीमती हैं, वो पूर्व मुख्यमंत्री और सपा प्रमुख अखिलेश यादव हैं और पूर्व मुख्यमंत्री मायावती हैं।

इन दोनों में अखिलेश यादव ऐसे हैं जो ‘इंडिया’ का हिस्सा भी हैं। यानी इनकी प्रमुखता ज़्यादा है। ऐसे में अखिलेश यादव को ये ख़ूब मालूम है कि ‘इंडिया’ में शामिल बड़े विपक्षी दल और नेता प्रदेश की 80 सीटों के लिए उनका ही सहारा लेंगे।

शायद यही कारण है कि अखिलेश और उनकी पार्टी अपनी साख को बनाए रखने के लिए कांग्रेस के सामने आकर खड़े हो गए हैं, और डिमांड करने लगे हैं कि मध्यप्रदेश में उनके लिए सीटें छोड़ी जाएं। मग़र कांग्रेस नेताओं का कहना है कि मध्यप्रदेश में समाजवादी पार्टी का कोई आधारा नहीं है, तो सीटें छोड़ने का भी कोई मतलब नहीं है।

क्यों न मानें कि ‘इंडिया’ में सबकुछ ठीक नहीं है?

जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री और नेशनल कॉन्फ्रेंस नेता उमर उब्दुल्ला ने साफ कहा है कि ‘इंडिया’ में सबकुछ ठीक नहीं है, क्योंकि कांग्रेस-सपा आपस में लड़ रहे हैं।

इधर अब्दुल्ला ने बयान दिया तो बिहार से जेडीयू ने इसपर प्रतिक्रिया भी दे दी। जेडीयू की ओर से कहा गया है कि उनकी चिंताएं वाजिब हैं, हम विधानसभा चुनावों के बाद फिर एकसाथ बैठेंगे और फिर विचार-मंथन करेंगे कि कैसे केंद्र से भाजपा को हटाया जाए।

उधर आरएलडी प्रमुख जयंत चौधरी ने भी कांग्रेस को नसीहत दी है कि उसकी ज़िम्मेदारी है सबको साथ लेकर चलने की।

अखिलेश-कांग्रेस के बीच तू-तू-मैं-मैं

कांग्रेस के साथ उत्तर प्रदेश में वैसे ही व्यवहार किया जाएगा, जैसे हमारे साथ मध्यप्रदेश में हुआ है... ये बात अखिलेश यादव ने कही थी।

इसके बाद कमलनाथ ने एक कार्यक्रम में पत्रकारों से कह दिया, "छोड़ो भई, अखिलेश-वखिलेश"... इसका जवाब भी आया और जवाब में अखिलेश ने कहा "ये बात तो ठीक कही उन्होंने... वखिलेश कौन है... अखिलेश तो है ना... तो अगर ये बातें कहेंगे तो समाजवादी पार्टी भी इन बातों को कह सकती है, लेकिन हम उन उलझनों में नहीं फंसना चाहते हैं। कमलनाथ जी से हमारे संबंध बहुत अच्छे हैं, नाम देखो उनका कितना अच्छा है, जिनके नाम में ही कमल हो तो वो वखिलेश ही कहेंगे। अखिलेश तो नहीं कहेंगे ना।"

इसे भी पढ़ें: सियासतः यूपी में सपा को जलाने लगी है एमपी में टिकट बंटवारे की आग

बात यही नहीं रुकती... उत्तर प्रदेश में कांग्रेस प्रमुख अजय राय ये कह देते हैं कि अखिलेश यादव ने कभी अपने पिता यानी मुलायम सिंह यादव का सम्मान नहीं किया तो हमारा क्या करेंगे। दरअसल ये जवाब अखिलेश की उस बात के लिए था, जिसमें उन्हें चिरकुट नेता कहा गया था। ये बात अखिलेश यादव ने सीतापुर में पत्रकारों से कही थी। उन्होंने कहा था कि मध्यप्रदेश में गठबंधन के लिए दिग्विजय सिंह ने 6 सीटों का वादा किया था, हमने अपने नेताओं को भेजा मग़र उन्होंने मना कर दिया। अखिलेश ने कहा था कि हमने पता होता कि विधानसभा स्तर पर गठबंधन नहीं हो रहा है तो हम अपने नेताओं को नहीं भेजते। कांग्रेस वाले भाजपा से मिले हुए हैं। और आख़िर में उन्होंने कहा कि मैं कांग्रेस से कहना चाहता हूं कि वो सपा के बारे में अपने छोटे नेताओं से न बुलवाएं।

‘इंडिया’ गठबंधन में सपा-कांग्रेस के बीच चल रही रार तो अब छुपी नहीं है, ऐसे में ये कहना ग़लत नहीं होगा कि अगर हालात नहीं सुधरे, और दोनों दलों को एक-दूसरे पर विश्वास नहीं हुआ तो 29 लोकसभा सीटों वाले मध्यप्रदेश और 80 सीटों वाले उत्तर प्रदेश की जनता को भी इनपर विश्वास होना मुश्किल है।

फिलहाल हम ये जानेंगे कि जिस मध्यप्रदेश के लिए समाजवादी पार्टी कांग्रेस के सामने आकर अगर खड़ी होने को तैयार है, तो वहां इनकी राजनीतिक हैसियत क्या है?

दरअसल उत्तर प्रदेश से सटे हुए मध्यप्रदेश के बुंदेलखंड, बघेलखंड और ग्वालियर-चंबल संभाग इलाके में सपा का प्रभाव रहा है, निवाड़ी, राजनगर और भांडेर सीट बुलंदेखंड क्षेत्र में, तो मेहगांव सीट चंबल-ग्वालियर क्षेत्र में है, जबकि धौहनी और चितरंगी सीट बिंध्य क्षेत्र में आती है। सपा इन्हीं इलाकों की सीटों पर फोकस कर रही है।

बात अगर मध्यप्रदेश में सपा के राजनीतिक इतिहास की करें तो 1998 में चुनाव लड़ी थी, जब मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ एक हुआ करते थे, तब विधानसभा सीटें 320 थीं। इस दौरान सपा ने 94 सीटों पर अपने प्रत्याशी उतारे थे, जिनमें चार को जीत मिली थी और 84 की ज़मानत ज़ब्त हो गई थी। इस साल रौन, दतिया, चांदला और पवई विधानसभा क्षेत्र की जनता ने सपा पर विश्वास किया था।

इसके बाद 2003 का विधानसभा चुनाव सपा के लिए ऐसा रहा जिसने चुनावी पंडितों के पंचाग ही बदल डाले। इस चुनाव में 230 में 161 सीटों पर अपने प्रत्याशी उतारे, और सात सीटें जीत लीं। इसमें छतरपुर, चांदला, मैहर, गोपदबनास, सिंगरौली, पिपरिया और मुल्ताई शामिल हैं। इस बार सपा को 5.26 प्रतिशत वोट मिले थे। छत्तीसगढ़ अलग होने के बाद ये पहला चुनाव था, और इसी चुनाव में कांग्रेस 10 साल का अंत भी हुआ था, तब भाजपा ने मुख्यमंत्री की कुर्सी हासिल की थी। इस चुनाव में भाजपा ने 173 सीटे जीती थीं।

फिर आता है विधानसभा चुनाव 2008, इन चुनाव में सपा ने 187 उम्मीदवार मैदान में उतारे थे, जिनमें से एक को जीत मिली। निवाड़ी से मीरा यादव ने सपा का खाता खोला था। बची 183 की जमानत जब्त हो गई थी। पार्टी को 2.46 फीसदी वोट मिले थे। तब के चुनाव में भी भाजपा का दबदबा कायम रहा और 230 में से 143 सीटें जीतकर उसने एक बार फिर सरकार बनाई थी।

इसके बाद 2013 के चुनाव में भी सपा खाता नहीं खोल पाई थी। तब मोदी लहर और शिवराज का जादू ऐसा चला कि 165 सीटें लाकर भाजपा लगातार तीसरी बार सरकार बनाने में कामयाबी रही थी। तब के चुनाव परिणामों में कांग्रेस को 58, बसपा को 4 और निर्दलीय को 3 सीटें मिली थीं। सपा ने 164 सीटों पर प्रत्याशी उतारे थे, जिनमें से 161 जमानत जब्त हो गई थी। इस पार्टी को 1.70 फीसदी वोट मिले थे।

इसके बाद 2018 के विधानसभा चुनाव में सपा एक सीट जरूर जीतने में सफल रही थी, लेकिन बाद में हुए सियासी उलट फेर में उन्होंने पार्टी का दामन छोड़ दिया था। बिजावर सीट से जीतने वाले सपा विधायक राजेश शुक्ला ने भाजपा दामन थाम लिया था।

यानी अगर मध्यप्रदेश विधानसभा में सपा के राजनीतिक सफर को देखेंगे तो ग्राफ गिरता गया है। अगर बात ये करें कि सपा किस आधार पर मध्यप्रदेश में चुनाव लड़ने को उत्सुक रहती है तो यहां इनका सियासी आधार सिर्फ यादव समुदाय के बीच ही है। यादव समुदाय में भी कांग्रेस और भाजपा का प्रभाव सपा से कहीं ज्यादा है, सूबे में 6 फीसदी यादव समुदाय बुलंदेखंड और चंबल के इलाके में किसी भी पार्टी का खेल बनाने और बिगाड़ने की ताकत रखते हैं। प्रदेश में राजनीतिक प्रतिनिधित्व के मामले में कांग्रेस और भाजपा दोनों में ही यादव समुदाय के नेताओं का दबदबा है।

कांग्रेस में पूर्व केंद्रीय मंत्री अरुण यादव लंबे समय से अहम पदों पर रहे हैं, इस बार के चुनाव में उन्हें बुंदेलखंड के यादव बहुल चार जिलों की जिम्मेदारी दी गई है। उनके अलावा सचिन यादव, संजय यादव, लाखन सिंह यादव और हर्ष यादव जैसे विधायक इस समुदाय से मौजूदा समय में कांग्रेस के अहम नेता हैं। वहीं, भाजपा में मंत्री मोहन यादव, ब्रजेंद्र सिंह यादव और शिशुपाल यादव जैसे विधायक इस समुदाय से ही हैं, ऐसे में सपा के लिए मध्य प्रदेश में यादव समुदाय के बीच अपनी पकड़ को बनाए रखना आसान नहीं है। देखना है कि अखिलेश कैसे कांग्रेस और भाजपा के बीच यादव समुदाय का दिल जीतकर 20 साल पुराने इतिहास को दोहराते हैं?

अब अगर अखिलेश यादव उत्तर प्रदेश से जुड़े कुछ क्षेत्रों में अच्छी सीटें पा जाते हैं, तो कोई बड़ी बात नहीं है कि लोकसभा चुनाव में भी अपने लिए सीटें छोड़ने का दम भरें।

फिलहाल देखना ये होगा कि ‘इंडिया’ में शामिल कांग्रेस और सपा जैसे बड़े दल के बीच कैसे सब कुछ ठीक होता है, क्योंकि अगर जनता को दोनों के बीच रार दिखती रहेगी, तो चुनाव में इसका ख़ामियाज़ा भुगतना पड़ जाएगा।

अपने टेलीग्राम ऐप पर जनवादी नज़रिये से ताज़ा ख़बरें, समसामयिक मामलों की चर्चा और विश्लेषण, प्रतिरोध, आंदोलन और अन्य विश्लेषणात्मक वीडियो प्राप्त करें। न्यूज़क्लिक के टेलीग्राम चैनल की सदस्यता लें और हमारी वेबसाइट पर प्रकाशित हर न्यूज़ स्टोरी का रीयल-टाइम अपडेट प्राप्त करें।

टेलीग्राम पर न्यूज़क्लिक को सब्सक्राइब करें

Latest