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ग्राउंड रिपोर्टः ज्ञानवापी विवाद की आग में और झुलस गई बुनकरों की बिनकारी और ज़िंदगी

"महंगाई और बेरोजगारी आसमान छू रही है, जिसकी चिंता किसी को नहीं है। असल मुद्दे जहां के तहां हैं, जिन्हें भुलाने के लिए शिवलिंग और फव्वारा विवाद डबल इंजन की सरकार के लिए मुफीद साबित हो रहा है। नंगा सच तो यही है कि सत्ता चाहे जिसकी भी रही हो, बनारस के बुनकर हर सरकार में ठगे गए। नोटबंदी-जीएसटी के बाद लॉकडाउन भी झेल लिया, लेकिन ज्ञानवापी की मुसीबत अब किसी से नहीं झेली जा रही है।"
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उत्तर प्रदेश के बनारस में ज्ञानवापी विवाद से उपजे हालात ने बुनकरों की तंगहाली, बेबसी, लाचारी, भूख और सन्नाटे की नई पटकथा लिख दी है। दड़बेनुमा घरों में दिन-रात खटर-पटर के बीच हुनरमंद बुनकरों की बिनकारी घुट-घुटकर दम तोड़ रही है। बनारस के आदमपुर, जैतपुरा, लल्लापुरा, अलईपुरा, मदनपुर, लोहता, आशापुर, खोजवां, बजरडीहा से लगायत लोहता तक में ज्ञानवापी विवाद ने बुनकरों की उस उम्मीद के दिए को बुझा दिया है जो विश्वनाथ कॉरिडोर बनने के बाद जगमगाने लगी थी।

शिवलिंग और फव्वारा विवाद के भंवर में फंसी बनारस के बुनकरों की जिंदगी अब एक ऐसे मोड़ पर पहुंच गई है जो हर वक्त खुद से जंग लड़ती नजर आती है। वैसे भी पूर्वांचल के बुनकर कभी नोटबंदी, जीएसटी और भारी-भरकम बिजली के बिल से जंग लड़ते रहे हैं तो कभी कोरोना महामारी में उपजे लॉकडाउन से। अब नया संकट ज्ञानवापी विवाद का खड़ा हुआ है, जिसने बुनकरी के कारोबार को करीब-करीब डुबो दिया है। इसकी जद में सिर्फ मुस्लिम ही नहीं, बड़ी संख्या में हिन्दू भी हैं। जानते हैं क्यों? बनारसी साड़ी उद्योग की सबसे बड़ी खासियत यह है कि इसका ताना हिन्दू बनाते हैं तो बाना मुस्लिम। जिस तरह का दौर नोटबंदी के वक्त था, कुछ वैसा ही सीन ज्ञानवापी विवाद के जलजले के उठने से पैदा हुआ है। देसी-विदेशी खरीदार बनारस आने से कतरा रहे हैं। शायद उन्हें किसी अनहोनी का खौफ सता रहा है।

पूर्वांचल निर्यातक संघ के पूर्व अध्यक्ष मुकुंद अग्रवाल भी इस बात को तस्दीक करते हैं। वह कहते हैं, "ज्ञानवापी विवाद के चलते विदेशी कारोबारी बनारस आने से कतरा रहे हैं। इनके इनकार से बनारसी सिल्क कारोबार से जुड़े हर आदमी को भारी नुकसान हो रहा है। जून 2022 में जर्मनी और इंडोनेशिया से दो बड़े व्यापारिक प्रतिनिधिमंडल बनारस आने वाले थे। उन्हें बनारसी साड़ियों के साथ हस्तशिल्प उत्पादों की खरीदारी करनी थी। ज्ञानवापी विवाद उठने के बाद उन्होंने अपनी बनारस यात्रा टाल दी। इन कारोबारियों का दौरा रद्द होने से बनारस में साड़ी कारोबार से जुड़े लोगों को करीब 40 से 50 करोड़ का नुकसान हुआ है। एक विदेशी खरीदार से कम से कम पांच करोड़ का बिजनेस मिलता है। कई अन्य देशों के कारोबारी भी बनारस आने वाले थे, लेकिन उन्होंने बनारस की यात्राएं रद्द कर दी हैं। इनके वाराणसी दौरे को लेकर संशय बरकरार है।"

बनारस को साड़ियों का मरकज माना जाता है। ऐसा मरकज जिसे गंगा से अलग करके नहीं देखा जा सकता है। इसी तरह बुनकरों को बनारस से जुदा करके नहीं समझा जा सकता। इस शहर से इनका रिश्ता चोली-दामन का है। यह रिश्ता कुछ उसी तरह का है जैसा कबीर का ताने बाने से, बिस्मिल्लाह खान का शहनाई से और मुंशी प्रेमचंद का साहित्य से था। बनारस में बुनकरों की आबादी करीब एक लाख से ज्यादा है, जिसमें ज्यादातर मुस्लिम हैं तो बड़ी संख्या में हिन्दू भी बुनकरी करते हैं। इनका कारोबार सैकड़ों साल पुराना और पुश्तैनी है। आदमपुर, जैतपुरा, लल्लापुरा, अलईपुरा, मदनपुर, लोहता, आशापुर, खोजवां, बजरडीहा, लोहता में साड़ी बनाने का सदियों पुराना हुनर पलता रहा है, जिस पर इन दिनों संकट की काली छाया सी पड़ गई है। भीषण गर्मी के बीच ज्ञानवापी का मुद्दा गरम है। शायद भाजपा खुद इस मुद्दे को गरम रखना चाहती है। स्थिति भयावह होने के बावजूद एक के बाद एक फायरब्रांड नेता बनारस आ रहे हैं और ज्ञानवापी विवाद पर नए जुमले उछाल कर लौट रहे हैं। हाल यह है कि इस शहर के बुनकर बहुल इलाकों में मशहूर शायर नज़ीर बनारसी का शेर, "कौन किसकी हंसी छीन कर शाद है/कौन किसके उजड़ने पर आबाद है/किसके लाश पे कोठी की बुनियाद है/तुम बताओ तुम्हें भी बताएंगे हम/इस कटौती की मैयत उठायेंगे हम" अब हर जगह खड़ा मिलता है।

किसने डुबोई मुल्क की लुटिया

बुनकरों की एक बड़ी आबादी वाले सरैया इलाके में व्यापारी नेता बदरुद्दीन अहमद के घर पर उनके साथ मौजूदा हालात पर गुफ्तगू करते मिले सरदार मतीउर रहमान और नेयाज अहमद। सब के सब ज्ञानवापी विवाद से खासे आहत नजर आए और बोले, "भाजपा सरकार ने सिर्फ बुनकरों का नहीं, पूरे मुल्क की लुटिया डुबो दी है। वोट बैंक मजबूत करने की सनक में ऐसी साजिशें रच डाली गईं जिससे कहीं मुस्लिम परेशान हैं, तो कहीं हिन्दू। महंगाई और बेरोजगारी आसमान छू रही है, जिसकी चिंता किसी को नहीं है। असल मुद्दे जहां के तहां हैं, जिन्हें भुलवाने के लिए शिवलिंग और फव्वारा विवाद डबल इंजन की सरकार के लिए मुफीद साबित हो रहा है। नंगा सच तो यही है कि सत्ता चाहे जिसकी भी रही हो, बनारस के बुनकर हर सरकार में ठगे गए। नोटबंदी-जीएसटी के बाद लॉकडाउन  भी झेल लिया, लेकिन ज्ञानवापी की मुसीबत अब किसी से नहीं झेली जा रही है।"  

सरदार मतीउर्हमान कई पावरलूम के मालिक भी हैं। कहते हैं, "महीने भर से कमाई एक तिहाई रह गई है। अब तो पेट पालना मुश्किल है। अस्सी फीसदी पावरलूम तो उसी समय बंद हो गए थे, जब महामारी विपत्ति और भूख दोनों मुसीबत एक साथ लेकर आई थी। तब बनारस के अधिसंख्य बुनकर कोरोना नहीं मरे, लेकिन भूख, बेबसी और लाचारी ने सबकी जिंदगी तबाह कर दी। योगी सरकार ने बुनकरों को फ्लैट रेट पर मिलने वाली योजना भी साल 2020 से खत्म कर दी, जिससे हमारा हाल टिमटिमाते दिये जैसा हो गया है।"

ज्ञानवापी विवाद के भूचाल से समूचे देश में तनातनी है, लेकिन बनारस में तल्खी ज्यादा नहीं है। इसकी वजह यह है कि इस शहर के बुनकर अपने पुश्तैनी कारोबार से बहुत प्यार करते हैं, लिहाजा वो इससे अलग हटकर कभी कुछ और सोचते ही नहीं हैं। बनारस के बुनकर भले ही जज्बाती हैं, लेकिन अमनपसंद हैं। सरैया के इब्राहिमपुरा में बुनकरों का जखेड़े रहता है। शाम के वक्त वहां जाएंगे तो माहौल किसी उत्सव से कम नहीं नजर आता। दिन भर बुनकरी करने वाले शाम ढलते ही सियासी चर्चा में मशगूल हो जाते हैं। ऐसी चर्चा जिनके ज्ञान के आगे बड़े-बड़े राजनीतिक गुरु घुटने टेक दें।

ज्ञानवापी विवाद उफान पर होने के बावजूद यह शहर शांत क्यों हैं? इसके जवाब में व्यापारी नेता बदरुद्दीन अहमद कहते हैं, "बनारस में बुनकरों की एक ऐसी कम्युनिटी रहती है जहां सरदारी अभी बाक़ी है। हर इलाके का अपना एक अलग सरदार होता है, जिनकी मर्जी के बगैर कोई पत्ता नहीं हिलता। पांचों के सरदार हों या 14, 22, 52 के अलावा 64वें के। इनका काम पांच दंगे-फसाद रोकना, पंचायत, मुर्री बंद का एलान और दुआख्वानी का ऐलान करना होता है। यही वजह है कि बनारस सांप्रदायिकता की आग में आसानी से नहीं धधकता। ऐसा नहीं है कि नुपुर शर्मा के बयान से बनारस का मुसलमान उद्वेलित नहीं हुआ।"  

"कई दंगे-फसाद झेल चुके बनारस के बुनकरों ने अबकी बहुत संयम बरता। सबने अपनी दुकानें बंद रखी, लेकिन सड़क पर कोई नहीं उतरा। पहली मर्तबा शिया-सुन्नी एक साथ हुकूमत के खिलाफ खड़े रहे। समूची दुनिया जानती है कि यूपी में माहौल किसने बिगाड़ा? और अब बुल्डोजर किनके घरों पर चलाया जा रहा है? सूबे में न जाने कितने निर्दोष लोगों को जेल में ठूंस दिया गया और उनके घरों पर जबरिया बुलडोजर चलवा दिया गया। ऐसे में नौजवानों के मन में कुंठा तो पैदा होगी ही। जुल्म और ज्यादती ज्यादा होने लगेगी तो हम नौजवानों को आखिर कैसे रोक पाएंगे? धर्म कोई खिलौना नहीं, जिससे आप जब चाहें खेलना शुरू कर दें। जब फव्वारे को शिवलिंग बताया जाएगा तो कोई भी धर्म कैसे बचेगा?"

बदहाल हो रहे बुनकर

बनारस के बुनकरों की माली हालत क्यों खराब रहती है? इनके उत्थान के लिए ये सरदार आगे क्यों नहीं आते? इस सवाल पर बुनकर नफीस का तल्ख जवाब मिलता है। वह कहते हैं, "बनारस में बुनकरों के सरदार कभी बुनकरों के हित में किसी बड़े आंदोलन अथवा गरीब बुनकरों की मजदूरी बढ़ाने की बात नहीं करते। इनमें से ज्यादातर हुकूमत से डरे हुए होते हैं। कुछ ऐसे भी होते हैं जिनकी दिलचस्पी मकान वगैरह बिकवाने ज्यादा रहती है। शायद सरकार भी जानती है कि मुट्ठी भर अमीर पावरलूम के मालिक हजारों गरीब बुनकरों का धड़ल्ले से शोषण करते हैं। तमाम मुश्किलें झेलने के बाद हमारे जैसे कुछ बुनकर एक-दो पॉवरलूम तो लगा लेते हैं, लेकिन पता नहीं होता कि साड़ियों का मेहनताना कब और कितने दिन बाद नसीब होगा?"

दरअसल, बनारसी साड़ियों का पूरा कारोबार ‘क्रेडिट’ पर आधारित है। कोठीदर तैयार माल तो ले लेता है, लेकिन वह भुगतान अपनी सुविधा के मुताबिक करता है। वह भी तब जब माल बिक जाता है। दूसरी ओर, लूम का कारखाना चलाने वालों को बुनकरों की मजदूरी का इंतज़ाम पहले ही कर लेना पड़ता है। बनारसी साड़ी (हाथकरघा पर) तैयार करने में 10 से 15 दिन का समय लगता है, जिसमें ढाई से तीन हजार सिर्फ मजूरी होती है। साटन की साड़ी बनाने में एक हफ्ते का समय लगता है, जिसमें धागे की कीमत 700-800 होती है। बनने के बाद बनारसी साड़ी बिकती है 2800 से 3000 में। यह रक़म गद्दीदार को कब मिलेगी पता नहीं, क्योंकि इनका सारा कारोबार ही उधार पर अधारित है।

सरैया के बुनकर फरमान अली कहते हैं, "बनारस में अब गिने-चुने हथकरघे रह गए हैं। हमारे जैसे बुनकरों को एक दिन में 10 से 12 घंटे काम करने के बाद मुश्किल से उन्हें 250 से 300 रुपये मेहनताना मिल पाता है। गद्दीदारों से मजदूरी बढ़ाने की बात करते हैं तो वह अपनी दुखती रगों का रोना लेकर बैठ जाते हैं। हाल यह है कि जो मजूरी दो दशक पहले थी, वही आज भी है। ज्ञानवापी विवाद के बाद बुनकरों को काम नहीं मिल पा रहा है। हालत अजीबोगरीब है। कभी बीमारी हमें मारती है तो कभी सरकार की नीतियां हौसला तोड़ देती हैं। मुश्किल दौर से उबरने की कोशिश करते हैं, तभी कोई न कोई नया जलजला उठ खड़ा होता है। पहले यूक्रेन और रूस की लड़ाई से भी हमारी बुनकरी प्रभावित हो रही थी और अब ज्ञानवापी विवाद ने हमारी कमर तोड़ दी है।" 

कमालुद्दीन कहते हैं, "मुलायम सिंह सरकार ने बुनकरों के लिए 72 रुपये फिक्स रेट तय किया था। योगी सरकार ने साल 2020 इस व्यवस्था को खत्म करते हुए मीटर रीडिंग यानी यूनिट के हिसाब से बिल की अदायगी करने का फरमान जारी कर दिया। किसी तरह से यह मामला टलता जा रहा है। अच्छी बात यह है कि बनारस में दंगा-फसाद की नौबत नहीं आई, अन्यथा हम तो भूख से बेमौत मारे जाते। ज्ञानवापी का बवाल जब से तेज हुआ  है तब से जिंदगी कठिन हो गई है। हमारे लिए इस बात से फर्क नहीं पड़ता कि हम कल भी मजदूर थे और आज भी हैं। हम पहले से ही महंगाई का मुकाबला नहीं कर पा रहे थे और अब स्थिति और भी ज्यादा दुष्कर हो गई है। आप ही बताइए कि आखिर एक वक्त के भोजन से जिंदगी कितने दिन चलेगी।"

बुनकरों को सबने नचाया

बुनकर बहुल क्षेत्र बजरडीहा में रेशमा, निखत, रोजी, रबीना की तरह न जाने कितने चेहरे हैं, जिनकी बेहतर जिंदगी की उम्मीद धुंधली पड़ती जा रही है। बुनकरों के पास इतने भी पैसे नहीं हैं कि वो अपने बच्चों को स्कूल में भेज सकें। इनके बच्चे खुद अपना भविष्य नहीं जानते। ये वो बच्चे हैं जिनकी उंगलियों में छिपा हुनर ज्ञानवापी के जलजले में दम तोड़ता जा रहा है। साड़ी के कारोबारी एजे लारी कहते हैं, "आर्थिक, सामाजिक और शैक्षणिक तौर पर पिछड़े बुनकरों को जिसने जैसा चाहा, नचाया। हुकूमत ने बुनकरों का दर्द कभी समझा ही नहीं। बनारस में हर कोई चाहता है कि बेजोड़ हस्तशिल्प को बचाने के लिए इस शहर में बवाल नहीं शांति चाहिए, अन्यथा बुनकरी की कला धीरे-धीरे दम तोड़ देगी।"

बनारस के नाटी-इमली में बुनकरों का एक बड़ा तबका रहता है। ये वही बुनकर हैं जो सिल्क की साड़ी पर ज़री के ऐसे बारीक़ और सुंदर डिज़ाइन बनाने के लिए मशहूर हैं जिनकी वजह से दुनिया भर में बनारसी साड़ी का नाम है। यहां के बुनकर बताते हैं कि पिछले कुछ सालों में उनका कारोबार बुरी तरह प्रभावित हुआ है। ज्ञानवापी विवाद ने उनके दुखते जख्मों पर नमक छिड़कने के काम किया है। मोहम्मद अहमद अंसारी कहते हैं, "बनारस के आधे बुनकर इस शहर से पलायन कर गए हैं। ज्यादतर बुनकर अब बेंगलुरु में साड़ी की फैक्ट्रियों में तयशुदा तनख़्वाह पर काम करते हैं। बहुतों ने अपना पारंपरिक और पुश्तैनी धंधा छोड़ दिया है। हमारे पास पावरलूम तो है, लेकिन 12 घंटे काम करने के बावजूद 380 से 400 रुपये कमाना मुश्किल हो जाता है। महंगी बिजली और आसमान छू रही महंगाई ने बुनकरों को कटोरा थमा दिया है। बनारस के जिस इलाके में जाएंगे कोई न कोई बुनकर पान बेचते और पकौड़े तलता जरूर मिल जाएगा।"

अहमद अंसारी की बातों में सच्चाई है। सरैया के हाजी कटरा के बदरुद्दीन पहले रेशमी ताने-बाने पर सोने-चांदी की साड़ियां बुना करते थे। इनके पास कई पावरलूम और हथकरघे थे। लॉकडाउन में सब बिक गए और अब वह टॉफी-बिस्कुट बेचकर अपनी आजीविका चला रहे हैं। सूफी शहीद इलाके के अजीजुर्रहमान ने बुनकरी छोड़कर आटा-चक्की की दुकान खोल ली है। इब्राहिमपुरा में को भूख बर्दाश्त नहीं हुई तो कर बिस्कुट और पाव रोटी बेचने लगे। सबकी आंखों में अपने सांसद और देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से बस एक ही सवाल है, "आठ साल गुजर गए। आखिर उनके वादे जमीनी हकीकत पर कब उतरेंगे? कब बदलेगी बुनकरों की सूरत? बदहाली के इस मझधार से खुशहाली का किनारा आखिर कब आएगा? हुनरमंद हाथों से अब हथकरघे का हत्था क्यों उखड़ता जा रहा है? बुनकरों के हाथ में रिक्शा, फावड़ा है या फिर भीख का कटोरा क्यों है?"

अस्सी के दशक तक बनारसी साड़ी उद्योग लाखों बुनकरों को रोजगार देने के साथ ही दुनियाभर में बनारसी साड़ी के लिए मशहूर था। कुछ साल पहले तक इस उद्योग से लाखों लोग जुड़े थे, जिनमें सर्वाधिक तादाद मुसलमानों की थी। साल 2007 तक बनारस में तकरीबन 5,255 छोटी-बड़ी इकाइयां थीं, जिनमें सिर्फ साड़ियां ही नहीं बुनी जाती थी। ब्रोकेड, ज़रदोज़ी, ज़री, मेटल क्राफ्ट, गुलाबी मीनाकारी, कुंदनकारी, ज्वेलरी, पत्थर की कटाई, ग्लास पेंटिंग, बीड्स, दरी, कारपेट, वॉल हैंगिंग, मुकुट वर्क जैसे कारोबार होते थे। ये कारोबार बनारस के लाखों लोगों की जिंदगी हुआ करते थे। इससे बनारस हर साल करीब 7500 करोड़ का कारोबार कर लेता था। बनारसी कला को पहचान देने वाली ज्यादातर इकाइयों पर अब ताले लग गए हैं। कुछ बंद हो चुकी हैं और कुछ बंद होने की कगार पर हैं। पिछले आठ सालों में देश की राजनीतिक फिजा बदली है। बुनकरी करने वाला तबका नागरिकता संशोधन विधेयक के चलते भी एक अनकही उपेक्षा का शिकार हुआ है।

भारत में बनारसी साड़ी का चलन 16वीं शताब्दी में, गुजरात से चलकर यहां पहुंचा था। उस समय मुगल शासकों ने इस कारोबार को प्रश्रय दिया तो दस्तकारी में उनकी झलक दिखने लगी। नब्बे के दशक में उदारीकरण के चलते साड़ी कारोबार की रफ्तार धीमी पड़ने लगी। फिर पॉवरलूम के बाद चीनी सिल्क और सूरत की साड़ियों ने बची-खुची कसर पूरी कर दी। बनारसी बुनकर भुखमरी के कगार पर पहुंचने लगे। पीएम नरेंद्र मोदी ने बनारस के बुनकरों में उम्मीद जगाई और पांच सौ करोड़ की लागत से बनारस के बड़ा बड़ा लालपुर में ट्रेड फैसिलिटी सेंटर भी बनवाया, लेकिन उसकी साड़ी बुनकरों के घरों तक पहुंची ही नहीं। नेताओं के हवा-हवाई दावों और वादों से उलट पहले नोटबंदी और जीएसटी ने साड़ी उद्योग को बंदी के कगार पर पहुंचा और कोरोना के बाद अब ज्ञानवापी विवाद ने इस उद्योग को बंदी की दहलीज पर लाकर खड़ा कर दिया है।

सन्नाटे में बनारस के बाजार

ज्ञानवापी विवाद से पैदा भय और आशंका के चलते सिर्फ बनारसी साड़ी का कारोबार ही नहीं, होटल उद्योग पर भी खासा असर पड़ने लगा है। टूरिज्म वेलफेयर एसोसिएशन के कोषाध्यक्ष संतोष कुमार सिंह कहते हैं, "विगत 15 मई से होटलों की बुकिंग रद्द होनी शुरू हुई है। पर्यटकों में डर बैठ गया है और वह अपनी यात्राएं टालते जा रहे हैं। बहुतों ने जून की बुकिंग रद्द कराई है और अपना टूर पैकेज स्थगित कर दिया है। ज्ञानवापी विवाद के चलते होटल संचालक और टूर एंड ट्रैवल ऑपरेटर खासे चिंतित हैं। बनारस में बहुत से होटल थे, जहां नवंबर तक बुकिंग फुल थी। अचानक माहौल बदलने से पर्यटन कारोबार को नुकसान उठाना पड़ रहा है। बुकिंग कैंसिल कराने वालों में तमिलनाडु, कर्नाटक, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, गुजरात, मध्य प्रदेश, राजस्थान, दिल्ली, महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल आदि राज्यों के पर्यटक ज्यादा हैं।"

ज्ञानवापी विवाद के चलते बनारस से उखड़ रहे साड़ी और पर्यटन के कारोबार को बचाने की चिंता उद्यमियों के चेहरों पर आसानी से पढ़ी जा सकती है। वाराणसी महानगर उद्योग व्यापार समिति ने हाल ही में एक बैठक आयोजित कर ज्ञानवापी विवाद पर चिंता जताई है और कहा है कि व्यापार के लिए हिंसा ठीक नहीं है। व्यापारी चाहे जिस धर्म और संप्रदाय के हों, उन्हें किसी बहकावे में नहीं आना चाहिए। कोशिश हो कि शहर में अमन चैन बना रहे। हम ऐसा कोई काम न करें, जिससे शहर पर किसी तरह की आंच आए और द्रोहियों को भारत को बदनाम करने का मौका मिले। बैठक में महानगर उद्योग व्यापार समिति के संरक्षक-श्री नारायण खेमका, अध्यक्ष-प्रेम मिश्रा, महामंत्री-अशोक जायसवाल, उपाध्यक्ष-सोमनाथ विश्वकर्मा ने कहा, "ज्ञानवापी प्रकरण कोर्ट से जुड़ा मामला है। हमें इससे कोई लेना-देना नहीं है। कोर्ट का जो भी फैसला आएगा, सभी उसे स्वीकार करेंगे। नहीं टूटनी चाहिए तो सिर्फ बनारस की गंगा-जमुनी तहजीब की परंपरा। दुनिया को संदेश देना चाहते हैं कि हम सभी एक हैं।" 

बनारस के प्रतिष्ठित व्यापारी मुख्तार अहमद और ओवैदुल हक के अलावा अनुज डिडवानिया, शोक जायसवाल, रजनीश कन्नौजिया, मनीष चौबे, दिनेश कालरा, विजय जायसवाल, केदार धन्ननी, संजय अग्रवाल, फैजान अहमद ने कहा, "हम बनारस की फिजां कतई बिगड़ऩे नहीं देंगे। बनारस की फिजां में भाईचारा घुला हुआ है, जो फिरकापरस्तों की काली कारगुजारियों से मिटने वाला नहीं है। नजीर और विस्मिल्लाह खां के शहर के लोग लड़ते नहीं, इंसानियत की भाषा समझते हैं।"

एक्टिविस्ट मोहम्मद आबिद कहते हैं, "ज्ञानवापी विवाद के बाद बनारसी साड़ी का कारोबार 70 फीसदी तक प्रभावित हुआ है। भाजपा के फायरब्रांड नेताओं ने ही देश को दंगा-फसाद की ओर धकेला है। इन पर किसी की लगाम नहीं है। इनके थोथे बयान से दुनिया भर में भारत की इमेज बिगड़ने लगी तो थोड़ा अंकुश लगा, लेकिन हालात तो अब भी जस के तस हैं। अदालतें खुलेंगी तो ज्ञानवापी विवाद मिलते-जुलते मुकदमे थोक में डाले जाने लगेंगे। ऐसे मुकदमें जिनके मजमून एक जैसे ही होंगे। बदला होगा तो सिर्फ तारीख और याचक का नाम। बड़ा सवाल यह है कि आखिर इन पर अंकुश कौन लगाएगा? ऐसी सरकार का क्या मतलब जब पेट पालने के लिए किसी को लूम बेचने पड़ें और किसी को अपनी अपनी बीवियों के गहने।"

बनारस के वरिष्ठ पत्रकार विनय मौर्य कहते हैं, "कोई भी देश जुमलों से तरक्की नहीं करता। जिस देश में बेरोजगारी से लड़ने के लिए सरकारी नौकरी की जगह पर आत्मनिर्भर भारत की डींगें भरी जाती हैं, वहां शिवलिंग और फव्वारे के विवाद आखिर क्यों खड़ा किया जा रहा है? विश्व प्रसिद्ध बनारसी साड़ी और उससे जुड़े लाखों हुनरमंद बुनकरों की बेकदरी के लिए कौन जिम्मेदार है? बुनकरों को हाशिये पर धकेले जाने के क्या ‘मेक इन इंडिया’ का सपना पूरा हो पाएगा? भारत को सचमुच आर्थिक रूप से स्वावलंबी बनाना है तो सबसे पहले वोटबैंक के झगड़े-फसाद रोकने होंगे। साथ ही परंपरागत उद्यमों, दस्तकारी, कारीगरी और बुनकरी को संरक्षित करना होगा।"

(बनारस स्थित विजय विनीत वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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