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विश्व में बढ़ता पेयजल संकट : कौन है ज़िम्मेदार

एक आंकड़े के अनुसार हर साल क़रीब 12 लाख लोग पीने के पानी की कमी के कारण मर जाते हैं। दक्षिणी अफ़्रीका और नाइजीरिया जैसे अफ़्रीका महाद्वीप के देशों की हालत बहुत ख़राब हैं। अपने देश भारत में भी हालात बहुत अच्छे नहीं हैं।
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प्रतीकात्मक तस्वीर।साभार :गूगल

आज दुनिया की बड़ी आबादी भयानक पेयजल संकट से जूझ रही है, विशेष रूप से इसमें तीसरी दुनिया के देश - एशिया, अफ़्रीका और लैटिन अमेरिकी देश शामिल हैं। एक आंकड़े के अनुसार हर साल करीब 12 लाख लोग पीने के पानी की कमी के कारण मर जाते हैं, इनमें 6% मौतें पीने के साफ़ पानी की कमी के कारण होती हैं। दक्षिणी अफ़्रीका और नाइजीरिया जैसे अफ़्रीका महाद्वीप के देशों की हालत बहुत ख़राब है। भारत में भी महाराष्ट्र, आंध्रप्रदेश, तमिलनाडु और झारखंड जैसे राज्य इस संकट से काफ़ी समय से पीड़ित हैं। विश्व भर के पर्यावरणविद यह चेतावनी दे रहे हैं कि निकट भविष्य में जल संसाधनों पर क़ब्ज़े के लिए दुनिया भर में बड़े युद्ध भी हो सकते हैं, कुछ लोग तो यह भी कहते हैं कि तीसरा महायुद्ध पानी पर क़ब्ज़े के लिए होगा।

हमारे ग्रह के 70% हिस्से पर पानी है तथा यह प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है, हालांकि ताज़ा पानी जिसे हम खाना बनाने तथा पीने-नहाने जैसे दैनिक कार्यों में इस्तेमाल करते हैं, वह केवल 3% है। इसमें दो-तिहाई जमे हुए बर्फ़ में छिपा हुआ है, जो हमारे लिए अनुपलब्ध है, इस सबके बावजूद हमारे पास इतना पानी मौजूद है कि सभी को अनंत काल के लिए पानी मिल सकता है। समुद्र में अथाह जल है जिसे वाष्पीकरण विधि द्वारा शुद्ध करके करोड़ों लोगों को उपलब्ध कराया जा सकता है, यह प्रक्रिया बहुत महंगी भी नहीं है। फिर क्या कारण है कि हर वर्ष दुनिया में गंदे विषाणुजनित पानी पीकर लाखों लोग मरते हैं या फ़िर गम्भीर रोगों के शिकार हो जाते हैं? अकेले डायरिया से हर वर्ष 20 लाख लोग मरते हैं, जिसमें अधिकांश बच्चे ही होते हैं, आख़िर इन हालात के लिए कौन ज़िम्मेदार है? कई पूंजीवादी बुद्धिजीवी जलसंकट को प्राकृतिक जलवायु परिवर्तन या जनसंख्या की वृद्धि से जोड़ते हैं, जो पूरी तरह से अतार्किक और अवैज्ञानिक सोच है। वास्तव में वर्तमान जलवायु परिवर्तन भी प्रकृतिविरोधी मुनाफ़े पर आधारित व्यवस्था का ही परिणाम है। आज दुनिया जिस जलसंकट का सामना कर रही है, वह भी प्राकृतिक नहीं है, बल्कि वर्तमान पूंजीवादी व्यवस्था के कारण है। इस संकट का कारण पानी की कमी ही नहीं है, बल्कि उसका उचित प्रबंधन और लोगों तक न पहुंचना भी है, इस प्रकार जल संसाधनों का बेसमझी से इस्तेमाल, अवैज्ञानिक प्रबंधन और जल का निजीकरण जलसंकट के प्रमुख कारण हैं।

इस समय अफ़्रीकी महाद्वीप में जलसंकट सबसे गहरा है। दक्षिण अफ़्रीका 2015 से जलसंकट का सामना कर रहा है। दक्षिण अफ़्रीका की लगभग 19% ग्रामीण आबादी के पास पानी तक स्थायी पहुंच नहीं है। 33% लोगों के पास बुनियादी ज़रूरतों के लिए साफ़ पानी नहीं है। देश के बड़े शहरों में सप्ताह में कम से कम एक दिन पानी बंद रहता है। अमीर लोग तो महंगे बोर कराकर भूमिगत जल से अपनी ज़रूरतें पूरी कर लेते हैं, लेकिन ग़रीबों के पास यह सुविधा नहीं है। एक रिपोर्ट के अनुसार दक्षिण अफ़्रीका के केपटाउन में 14% लोग शहर के आधे से ज़्यादा साफ़ पानी का इस्तेमाल करते हैं। इसमें कोई संदेह नहीं है कि दक्षिण अफ़्रीका में लंबे समय से बहुत कम वर्षा हुई है लेकिन पानी की कमी का मुख्य कारण देश का ख़राब बुनियादी ढांचा है, जिससे 40 फ़ीसदी पानी लोगों तक पहुंचने से पहले ही पाइप लीकेज के कारण बर्बाद हो जाता है, जिसे आसानी से ठीक किया जा सकता है, लेकिन यह फ़ि‍लहाल सरकार की प्राथमिकताओं में नहीं है।

अफ़्रीका के ही एक दूसरे देश नाइजीरिया में भी हालात बहुत अच्छे नहीं हैं। इस देश में हालात इतने ख़राब हैं कि लोगों के लिए पानी उपलब्ध नहीं है और जो है भी, वो लोगों के लिए बीमारियों का कारण बना हुआ है। इस देश में लोग हैजा जैसी बीमारियों से मर रहे हैं। नाइजीरिया में 6 करोड़ लोगों को पीने का साफ़ पानी उपलब्ध नहीं है। सरकार देश में पानी इकट्ठा करने के बुनियादी ढांचे पर नाममात्र ख़र्च करती है। इसके बजाय सरकार ने कई बार पानी के बुनियादी ढांचे का निजीकरण करने की कोशिश की है, जिसे लोगों ने सफल नहीं होने दिया। पानी के एक बैग की क़ीमत 250 नाइजीरियाई नायर है। लोगों के घरेलू ख़र्च का एक बड़ा हिस्सा पानी पर होने वाला ख़र्च है। पानी की भारी कमी के बावजूद सरकार कोल्ड-ड्रिंक बनाने वाली कंपनियों को ज़मीन से बेतहाशा पानी निकालने से नहीं रोक रही है, बल्कि सार्वजनिक-निजी भागीदारी के नाम पर जल संसाधनों का निजीकरण करने पर उतारू है।

मौजूदा समय में पानी की कमी भी विभिन्न देशों के बीच संघर्ष का कारण बन रही है। 2020 में अमेरिका और मैक्सिको के बीच रियो नदी को लेकर एक बड़ा मसला खड़ा हो गया था, जब मैक्सिको के किसानों ने 1944 के समझौते के तहत अमेरिका को जाने वाले पानी को रोकने के लिए नदी के बांध पर क़ब्ज़ा कर लिया था। इराक़ और ईरान में टिंगरिस नदी के पानी के इस्तेमाल को लेकर काफ़ी तीखे विवाद हैं। निकट भविष्य में यह विवाद दोनों के बीच झड़प का कारण भी बन सकता है। अफ़्रीका और दुनिया में सबसे लंबी नदी नील पर इथियोपिया द्वारा बनाई जा रही एक परियोजना के कारण इथियोपिया, मिस्र और सूडान के बीच संबंध तनावपूर्ण हो गए हैं। इथियोपिया नील नदी पर एक बांध बना रहा है, जिसके कारण मिस्र और सूडान में पानी के प्राकृतिक बहाव में रुकावट आ सकती है इसलिए सूडान में हिंसक विरोध प्रदर्शन भी हो चुके हैं।

जल संसाधनों पर बढ़ते दबाव का मुख्य कारण बड़ी निजी कंपनियों द्वारा भूमिगत जल का बेतहाशा दोहन है। अमेरिका के कैलिफ़ोर्निया में एक कंपनी ने 2 करोड़ 30 लाख गैलन पानी निकालने की अनुमति के बावजूद ज़मीन से 6 करोड़ गैलन पानी निकाला। उसी कंपनी के मालिक ने 2005 में यह बयान दिया कि पानी को मानव अधिकार के तौर पर मान्यता देना बेहद ज़रूरी है। एक अन्य कंपनी विभिन्न देशों में भूजल को प्रदूषित करने और लूटने के लिए बदनाम है। बताया जाता है कि एक लीटर कोल्ड ड्रिंक बनाने के लिए तीन लीटर पानी की खपत होती है और इसे ज़मीन से निकाला जाता है। भारत के राजस्थान राज्य के कालाडेरा में 1999 में कोल्ड ड्रिंक के एक कारख़ाने के लगाने के बाद भूजल स्तर 10 मीटर से अधिक गिर गया, जिसका पूरे इलाक़े की खेती पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ा।

दक्षिण अमेरिका के अल सल्वाडोर, मैक्सिको जैसे देशों में कोल्ड ड्रिंक बनाने वाली मल्टीनेशनल कंपनी लगातार जल संसाधनों का दोहन करने के लिए इसके निजीकरण की वकालत कर रही है। जैसा कि हमने उपरोक्त उदाहरणों में देखा है, पानी के संकट की समस्या को बहुत आसानी से हल किया जा सकता है। इसके लिए तत्काल ही जलवितरण, रखरखाव और जलनिकासी का वैज्ञानिक, व्यवस्थित बुनियादी ढांचा खड़ा करने की ज़रूरत है। ज़्यादातर देशों में अधिकांशतः बारिश का पानी बर्बाद हो जाता है। अगर इसके भंडारण और जलनिकासी की ठीक व्यवस्था की जाए, तो बाढ़ और सूखा दोनों से निपटा जा सकता है, लेकिन ज़्यादातर सरकारें ऐसा करने के लिए तैयार नहीं हैं, क्योंकि नवउदारवादी नीतियों के कारण दुनिया भर की सरकारें लोगों को बुनियादी सुविधाएं मुहैया कराने से अपने हाथ खींच रही हैं। पानी का निजीकरण भी इसी से जुड़ा है, एक तरफ़ जहां सरकारें अपनी ज़िम्मेदारी से भागती हैं, वहीं दूसरी तरफ़ निजी कंपनियां पानी जैसी बुनियादी इंसानी ज़रूरत को बिकाऊ वस्तु बनाकर व्यापार कर रही हैं। पानी के निजीकरण और व्यापारीकरण को रोके जाने की ज़रूरत है। पानी एक प्राकृतिक संसाधन है और इसका व्यापारिक इस्तेमाल पूरी तरह ग़ैर-वाजिब है।

हम इन बातों को अपने देश के संदर्भ में भी आसानी से समझ सकते हैं। बचपन में हम लोग जब ट्रेनों में सफ़र करते थे, तब साथ में पानी की सुराही लेकर चलते थे। हर स्टेशन पर यात्रियों को पानी पिलाने के लिए रेलवे के कर्मचारी होते थे जो मुफ़्त में यात्रियों की सुराहियों को भरते थे। स्टेशनों पर भी यात्रियों के पानी पीने की व्यवस्था होती थी। पानी ख़रीदकर पीने की तो उस समय किसी ने कल्पना भी नहीं की होगी लेकिन आजकल स्टेशनों पर साफ़ पानी न मिलने के कारण अब लोग पानी की बोतलों पर निर्भर हो गए हैं। रेलवे ख़ुद पानी की बोतलों को बेचकर लाखों-करोड़ों का व्यवसाय कर रहा है। इस व्यवसाय में बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियां तक आ गई हैं जो बिलकुल मुफ़्त मिलने वाले पानी को 10 रुपए लीटर से लेकर 60-70 रुपए लीटर तक बेच रही हैं। भारत में बोतलबंद पानी का बाज़ार साल 2021 में 20 हज़ार करोड़ रुपए का था इसमें केवल बिसलेरी की ही हिस्सेदारी करीब चार से पांच हज़ार करोड़ रुपए है। दिल्ली जैसे महानगरों में जहां पर व्यापक भूगर्भ दोहन से पानी का स्तर बहुत ही नीचे चला गया है, वहां पर भी ढेरों कंपनियां वैध-अवैध रूप से बड़े-बड़े मोटरों से पानी खींचकर स्वच्छ पानी के नाम पर इसे घर-घर पहुंचा रही हैं तथा बोतलबंद करके बेच रही हैं। कमोबेश यही हालात आज देश के सभी नगरों-महानगरों के हो गए हैं। मुनाफ़े की होड़ में भूमिगत जल बहुत तेज़ी से ख़त्म हो रहा है और अगर यही हालात बने रहे तो भविष्य में स्थितियां और भी भयानक हो सकती हैं।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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