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किसान आंदोलनों का इतिहास: तीसा, त्रिवेणी और एका आन्दोलन

किसान जब-जब आंदोलित हुआ है, राजनीति ने भी उलटासन किया है। किसानों के आन्दोलन की बात करते ही दिमाग में अवध का किसान आन्दोलन उभरता है, यह संभवतः देश का सबसे बड़ा किसान आन्दोलन था और इसने इतना असर डाला कि आज़ादी की लड़ाई लड़ रही कांग्रेस को भी किसान समस्याओं से रू-ब-रू होना पड़ा।
किसान आंदोलनों का इतिहास: तीसा, त्रिवेणी और एका आन्दोलन
फ़ोटो साभार: सोशल मीडिया

कोई भी जन आंदोलन व्यर्थ नहीं जाता। उसका असर दिखता ही है। सरकार कितना ही उसकी अनदेखी करने का नाटक करे, पर हर आंदोलन ज़मीनी लेबल पर हिट ज़रूर करता है। ज़ाहिर है आंदोलन सत्तारूढ़ दल को ही नुक़सान पहुँचाएगा। दिल्ली से यूपी को जोड़ने वाले ग़ाज़ीपुर बॉर्डर और हरियाणा-पंजाब को जोड़ने वाले सिंधु बॉर्डर पर पिछले लगभग 9 महीने से किसान जमा हैं और सरकार उनसे कोई सार्थक वार्ता नहीं कर रही है। जल्द ही उत्तर प्रदेश में विधान सभा चुनाव है। और इस आंदोलन ने प्रदेश में विपक्षी दलों को संजीवनी देने का काम किया है। अभी अपने अहंकार में डूबी भाजपा को भले सब कुछ सामान्य दिखता हो पर सच यह है कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश में राष्ट्रीय लोक दल (RLD), मध्य में समाजवादी पार्टी (SP) और पूर्वी उत्तर प्रदेश में बसपा (BSP) को नया जीवन मिला है। अभी कुछ महीने पहले हुए उत्तर प्रदेश के पंचायत चुनावों में किसानों के आंदोलन का प्रभाव दिखा था।

किसान जब-जब आंदोलित हुआ है राजनीति ने भी उलटासन किया है। किसानों के आन्दोलन की बात करते ही दिमाग में अवध का किसान आन्दोलन उभरता है, यह संभवतः देश का सबसे बड़ा किसान आन्दोलन था और इसने इतना असर डाला कि आज़ादी की लड़ाई लड़ रही कांग्रेस को भी किसान समस्याओं से रू-ब-रू होना पड़ा। यूँ तो 1917 में मोतीलाल नेहरू, मदन मोहन मालवीय और गौरीशंकर मिश्र आदि ने 'उत्तर प्रदेश किसान सभा' बनाई थी. मगर गाँधी जी के 'खिलाफत आन्दोलन'  के कारण उप्र किसान सभा में मतभेद प्रकट होने लगे।

आखिरकार अवध के किसान नेताओं ने बाबा रामचन्द्र के नेतृत्व में 1920 में 'उत्तर प्रदेश किसान सभा' से नाता तोड़कर 17 अक्टूबर, 1920 को 'अवध किसान सभा'  बना ली। चूँकि उत्तर प्रदेश किसान सभा में अवध के किसानों की भागीदारी ही सबसे ज्यादा थी इसलिए बाबा रामचंद्र ने अपने किसान संगठन का नाम अवध किसान सभा रखा। प्रतापगढ़ ज़िले का 'खरगाँव'  किसान सभा की गतिविधियों का प्रमुख केन्द्र बना। यह किसान सभा किसानों के हक में ब्रिटिश हुकूमत के सामने अपनी माँगे रखती थी और दबाव डालकर वाजिब मांगें मनवाती भी थी। लेकिन गठन के दो साल बाद 1919 ई. के अन्तिम दिनों में किसानों का संगठित विद्रोह खुलकर सामने आया। प्रतापगढ़ ज़िले की एक जागीर में 'नाई धोबी बंद' सामाजिक बहिष्कार करने की

पहली संगठित कार्रवाई थी।

अवध के किसान नेताओं में बाबा रामचन्द्र,  गौरीशंकर मिश्र,  माताबदल पांडेय,  झिंगुरी सिंह आदि शामिल थे। 'उत्तर प्रदेश किसान सभा' से नाता तोडकर 'अवध किसान सभा' तो बन ही चुकी थी। एक महीने के भीतर ही अवध की 'उत्तर प्रदेश किसान सभा' की सभी इकाइयों का 'अवध किसान सभा' में विलय हो गया। इन नेताओं ने प्रतापगढ़ की पट्टी तहसील के ‘खरगाँव’ को नवगठित किसान सभा का मुख्यालय बनाया और यहीं पर एक किसान कांउसिल का भी गठन किया। इस नवगठित 'अवध किसान सभा' के निशाने पर मूलतः ज़मींदार और ताल्लुकेदार थे।  उत्तर प्रदेश के हरदोई, बहराइच एवं सीतापुर ज़िलों में लगान में वृद्धि एवं उपज के रूप में लगान वसूली को लेकर अवध के किसानों ने 'एका आन्दोलन' चलाया था। इस आन्दोलन में कुछ ज़मींदार भी शामिल थे। इस आन्दोलन के प्रमुख नेता 'मदारी पासी' और 'सहदेव' थे।

अवध में जिस समय किसान, अवध किसान सभा के बैनर तले इकट्ठा हो रहे थे, उसी समय रूस में 'बोल्शेविक क्रांति' हुई। इसीलिए ब्रिटिश हुकूमत आन्दोलनकारी किसानों के लिए बोल्ल्शेविक, लुटेरे और डाकू जैसे शब्दों का प्रयोग करती थी। द्वितीय विश्वयुद्ध के छंटनीशुदा सैनिकों ने भी किसान आन्दोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।'अवध किसान सभा में गाँव-देहात के बाबा लोगों का रोल भी महत्त्वपूर्ण था। साधुओं और फकीरों की ज़मात भी इस आन्दोलन में शरीक थी और इसीलिए बाबा रामचंद्र खुद भी अपना बाना बाबाओं जैसा ही बनाए रहते।

किसान आन्दोलन में महिलाओं की सक्रिय भागीदारी 'अवध किसान सभा' की महत्वपूर्ण विशेषता थी। आगे चलकर महिलाओं की संगठित शक्ति का प्रतिरूप 'अखिल भारतीय किसानिन सभा' के रूप में सामने आई। 'अखिल भारतीय किसानिन सभा' शायद भारत में आम महिलाओं का पहला संगठन था। बाबा रामचंद्र की यह किसान सभा एक तरह से उन किसानों का संगठन थी, जो किसान भूमिधर कम ज्यादातर बटाईदार और खेतिहर मजदूर थे। उन पर बेदखली की तलवार हर वक़्त लटकी रहती थी।

यह सही है कि बाबा रामचंद्र को अपना किसान आन्दोलन शुरू करने की प्रेरणा कांग्रेस के सत्याग्रह आन्दोलन से ही मिली। उन्होंने चम्पारण में निलहे गोरों के खिलाफ गाँधी जी की अगुआई में शुरू हुए आन्दोलन को देखा था और उसका असर भी। इसलिए बाबा जी खुद गाँधी जी से प्रभावित थे। लेकिन उनके दिमाग का फोकस किसान-मजदूर पर था। यही कारण रहा कि कांग्रेस के आन्दोलन से उनका आन्दोलन भिन्न था। गांधी जी और कांग्रेस ने किसानों की पीड़ा को व्यापक रूप दिया और उसे आज़ादी के हथियार के रूप में इस्तेमाल किया किंतु बाबा रामचंद्र जानते थे कि जब तक ये किसान-मजदूर खुद खड़े होकर अपने लिए नहीं लड़ेंगे, तब तक आज़ादी एक छलावा ही रहेगी। अंग्रेज चले जाएंगे तो काले अंग्रेज आ जाएंगे, इसलिए महाजनों, जमींदारों और सूदखोरों से किसानों को लड़ना ही पड़ेगा।

उन्हें अच्छी तरह पता था कि एक मई 1876 को भारत में विधिवत ब्रिटिश हुकूमत कायम हुई थी और महारानी विक्टोरिया ने भारत को ब्रिटिश साम्राज्य के अधीन कर लिया था। लेकिन इससे न तो भारत का भाग्य बदला, न किसानों की पीड़ा। अंग्रेज सरकार किसानों का दमन तो करती ही थी, स्थानीय महाजनों, साहूकारों और जमींदारों ने सूद के बदले उनके खेत व जेवर छीनने शुरू कर दिए। बीसवीं सदी के शुरू होते ही बंगाल सूबे का बंटवारा हो गया और नई रैयतवारी व्यवस्था तथा बंदोबस्त प्रणाली लागू हुई।

अवध के किसानों पर इसका और भी बुरा असर पड़ा। जमीनें बढ़ाने के लिए जंगलों को उजाड़ा जाने लगा और नौतोड़ की इस व्यवस्था में किसानों ने मेहनत तो खूब की पर उन्हें अपनी इस मेहनत का लाभ नहीं मिला। उपजाऊ नई जमीनें समतल तो किसान करते लेकिन जैसे ही उनमें फसल उगाने का क्रम शुरू होता, उन पर लगान की नई दरें लागू हो जातीं। ऐसे ही बुरे समय में मोहनदास करमचंद गांधी ने राजनीति में आकर निलहे गोरों के जुल्मों को सबके समक्ष रखा। और किसानों की पीड़ा को उन्होंने धार दी। चंपारण में राजकुमार शुक्ल के साथ मोतिहारी जाकर उन्होंने किसानों की पीड़ा को महसूस किया। और किसानों को निलहे गोरों के जुल्म से आजाद कराया। गांधी जी इसके बाद कांग्रेस के बड़े नेता हो गए। लेकिन दूसरे विश्वयुद्ध के बाद से किसानों का गांधी जी से मोहभंग हो गया।

पूरे अवध के इलाके में किसान तबका बुरी तरह परेशान था। शहरी क्षेत्रों में नई मिलें खुल जाने तथा रेलवे, कचहरी और व्यापार के चलते गांवों का पढ़ा-लिखा तबका शहर आ बसा। शहरों की इस कमाई से उसने गांवों में जमींदारी खरीदनी शुरू कर दी। ये नए कुलक किसी और गांव में जाकर जमींदारी खरीदते और अपनी रैयत से गुलामों जैसा सलूक करते। इन नए शहरी जमींदारों को कांग्रेस का परोक्ष समर्थन भी रहता। यह वह दौर था जब अवध में किसानों के संगठन बाबा रामचंदर (बाबा रामचंद्र को अवध में इसी नाम से जाना गया) या मदारी पासी के नेतृत्व में बनने लगे। बिहार में त्रिवेणी संघ और अवध में तीसा आंदोलन इसी दौर में पनपे। इनको परोक्ष रूप से क्रांतिकारी संगठन हिंदुस्तान रिपब्लिकन आर्मी और साम्यवादी संगठनों का भी समर्थन था।

सत्यभक्त, राधा मोहन गोकुल जी, राहुल सांकृत्यायन, स्वामी सहजानंद भी किसानों को संगठित करने में लगे थे। यह तीसा आंदोलन काफी व्यापक रूप से फैला लेकिन गांधी जी के असहयोग और जवाहर लाल नेहरू की उदासीनता के चलते यह आंदोलन अंग्रेजों द्वारा कुचल दिया गया पर इससे यह समाप्त नहीं हुआ। अंग्रेजों को किसानों को तमाम सहूलियतें देर-सबेर देनी पड़ीं और एक निश्चित अवधि के बाद किसानों को ज़मीनें पट्टे पर लिखनी पड़ीं। पहले विश्वयुद्ध के कुछ पहले जब निलहे गोरों से किसानों को मुक्ति मिल गई तो देसी निलहों ने उन जमीनों पर क़ब्ज़ा कर लिया और अपने कारकुनों के सहारे किसानों पर जुल्म करने लगे। लगान नगद देने की व्यवस्था के कारण किसान के पास कुछ हो या न हो, लगान भरना ही पड़ता था। एक ऐसे समय में जब फसलों के नगदीकरण की कोई व्यवस्थन थी, लेकिन लगान नगद देना पड़ता था, इस वज़ह से अवध के किसान बेहाल थे। ऐसी बेहाली के वक्त अवध में किसानों का एक बड़ा आंदोलन हुआ जिसे तीसा आंदोलन कहा गया। अंग्रेजी के मशहूर उपन्यासकार मुल्कराज आनंद स्वयं चलकर इलाहाबाद व लखनऊ गए तथा उन्होंने एक उपन्यास लिखा- द स्वोर्ड एंड द सिकल. इसमें नायक को लगता है कि गांधी जी ने किसानों के साथ न्याय नहीं किया।

किसानों के आंदोलन का लम्बा इतिहास है। आज भले यह आंदोलन अलग दिखाई दें लेकिन यह ध्यान रखना चाहिए कि सत्ता की मनमानी का सबसे पहले किसानों ने ही विरोध किया है। आज भी किसानों का आंदोलन इसी मनमानी के विरोध में है, किसानों में असीम धैर्य होता है। वे महीने-दो महीने नहीं बल्कि कई साल तक आंदोलन चला सकते हैं और किसी भी सरकार में इतनी हिम्मत नहीं हुई कि उनके आंदोलन को कुचल सके।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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