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बिहार चुनाव : नब्बे के पहले और बाद में जाति
अभी कोरोना की लड़ाई खत्म भी नहीं हुई और बिहार को चुनाव में झोंक देने ऐलान कर दिया गया। आने वाले समय में हर चुनाव की तरह बिहार के चुनाव को लेकर बहुत सारे मुद्दों पर चर्चा-परिचर्चा होगी। तो आइए कुछ अलग ढंग से बात शुरू करते हैं।
अजय कुमार
09 Jun 2020
बिहार चुनाव
Image courtesy: Facebook

अभी कोरोना की लड़ाई खत्म भी नहीं हुई और बिहार को चुनाव में झोंक देने ऐलान कर दिया गया। आत्मनिर्भर भारत का नारा देकर सरकार चुनावी दौड़ में शामिल हो गई है। विपक्ष की तरफ से ज़रूर इस पर कुछ सवाल उठाए गए हैं लेकिन सभी अक्टूबर से लेकर नवम्बर तक चलने वाले बिहार चुनाव के अभियान में जुट गए हैं। कोरोना से लड़ाई का अभियान पीछे छोड़ दिया गया है और भारत फिर से चुनावी पटरी पर लौट चुका है।  

चुनाव होना तो तय है और इस पर बातचीत भी खूब होगी। इसके लिए समीकरण भी बनेंगे और इस समीकरण को समझने-बूझने की कोशिश भी जायेगी। आने वाले समय में हर चुनाव की तरह बिहार के चुनाव को लेकर बहुत सारे मुद्दों पर चर्चा-परिचर्चा होगी। इन्हीं सबके बीच इन पंक्तियों का लेखक भी आपसे अक्सर बात करेगा लेकिन कुछ अलग कोशिश। रोज़ाना की चुनावी परिचर्चाओं से थोड़ा अलग।

तो सबसे पहले शुरुआत करते हैं बिहार की सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि और इसके सबसे ज़रूरी बिंदू बिहार की राजनीतिक जन सांख्यिकी से।  

बिहार का समाज कैसा है? रायशुमारी की दुनिया में बिहार एक पिछड़े हुए राज्य के तौर पर देखा जाता है। साल 1992 में छपी ‘द रिपब्लिकन ऑफ़ बिहार’ के लेखक अरविंद नारायण दास अपनी किताब में लिखते हैं कि दुनिया के किसी भी हिस्से में जो सबसे भयवाह कमियां है, वह बिहार में भी देखी जा सकती है। ऐसा लगता है कि सामाजिक असामनता, चुनावी आराजकता और सांस्कृतिक गिरावट के लिहाज से बिहार में अनेकों कहानियां भरी पड़ी है। यह अशोक नारायण दास का साल 1992 का नज़रिया है। पिछने तीन दशकों में इसमें बहुत अधिक सुधार और बदलाव हुआ है। फिर भी इतिहास की एक डोर होती है, जो उस समाज में बहुत लम्बे समय तक मौजूद रहती है। इसलिए अभी भी बिहार एक पिछड़े हुए राज्य के तौर पर माना जाता है।

कोई भी व्यक्ति वोट के जरिये राजनीति में अपने मत को जाहिर करता है। लेकिन वह वोट किसे देगा, यह बहुत सारे पहलुओं पर निर्भर करता है। इसमें सबसे प्रभावी पहलू है व्यक्ति की सामाजिक पृष्ठभूमि। व्यक्ति की सामाजिक पृष्ठभूमि ही व्यक्ति के राजनीतिक झुकाव को तय करती है। किसी नेता के समर्थन में व्यक्ति के तर्क को तय करती है। व्यक्ति किस महौल में पला बढ़ा है और किस माहौल में अपनी जिंदगी का गुजारा कर रहा है, यानी घर से लेकर दफ्तर और कारखाने तक की जिंदगी किसी व्यक्ति के चुनावी व्यवहार को निर्धारित करती है। इसी आधार पर किसी दल के लिए राजनीतिक जनाधार का निर्माण होता है।  

इलाका या क्षेत्र के लिहाज से पूरा बिहार पांच हिस्सों में बंटा गया है। तिरहुत, मिथिला, मगध , भोजपुर और सीमांचल।

वाल्मीकि नगर, पश्चिमी चम्पारण, पूर्वी चंपारण, गोपालगंज, सीतामढ़ी , शिवहर, सिवान जैसे जिले तिरहुत में आते हैं। मधुबनी, सहरसा, सुपौल, उजियारपुर जैसे जिले  में आते हैं। पटनासाहिब, पाटलीपुत्र, जहानाबाद, मुंगेर, नालंदा, औरंगाबाद जैसे जिले मगध में आते हैं। अररिया, किशनगंज, पूर्णिया, भागलपुर जैसे जिले सीमांचल में आते है और आरा, बक्सर और सासाराम जिला भोजपुर में आता है।

बोली के आधार पर यह बंटवारा किया गया है। सबकी भाषा तकरीबन एक ही है। लहजा यानी बोलने का तरीका अलग-अलग है। जैसे मिथिला वाले मैथिलि और मगध वाली मगधी बोलते हैं। इसी बंटवारे के आधार पर विद्वानों ने राजनीतिक प्रथाओं और व्यवहार का भी आकलन किया है।  

बिहार के इलाकों का परिचय लेने के बाद अब बिहार की राजनीति को सबसे अधिक प्राभवित करने वाली सामाजिक पहचान जाति पर बात करते हैं। जाति की पहचान जिस तरह भारत के दूसरे राज्यों की राजनीति को प्रभावित करती है, उससे कहीं ज्यादा बिहार की राजनीति को प्रभावित करती है। राजनीतिक दल बिहार में अपना सियासी आधार तैयार करने के लिए जाति का पुरजोर तरीके से इस्तेमाल करते हैं। बिहार की राजनीति में जाति की इतनी मजबूत भूमिका है कि इसी के आधार पर तय होता है कि टिकट किसे दिया जाए। यहाँ तक कि चुनाव के बाद मंत्रालयों के बंटवारे में भी जाति की भूमिका देखी जाती है।

देश की तरह बिहार की ऊँची जातियों में ब्राह्मण, भूमिहार, कायस्थ और राजपूत जैसी जातियां शामिल हैं। पिछड़ी जाति यादव, कोइरी और कुर्मी जैसी जातियां शामिल हैं। निम्न पिछड़े वर्ग में कुम्हार, तांती, धानुक और तेली जैसी जातियां आती हैं। अनुसूचित जाति में चमार, दुसाध और मुसहर जैसी जातियां शामिल हैं। अनुसूचित जातियों को ही अछूत जातियों के तौर पर देखा जाता था। हालाकिं बिहार के कई इलाकों में अभी भी इनके साथ अछूत के तौर पर व्यवहार किया जाता है।  

बिहार की राजनीति समझने के लिए जाति को दो कालखंडों में बाँटा जा सकता है। पहला दौर है आज़ादी से लेकर साल 1990 का दौर। दूसरा दौर है साल 1990 के बाद का दौर यानी मंडल का दौर। आज़ादी के बाद के दौर में बिहारी में ऊँची जातियों की ही तूती बोलती थी। हिन्दुओं में ब्राह्मण, राजपूत, भूमिहार और कायस्थ का सितारा चमक रहा था तो मुस्लिमों में सैयद, शेख और पठान सबसे आगे थे।

इस दौरान उच्च वर्ग की जातियों का राजनीति पर तो कब्ज़ा था ही लेकिन इसके साथ नौकरशाही, न्यायपालिका, कार्यपालिका, के हर छोटे से बड़े पद इनकी ही मौजूदगी थी। सरकार यानी हिन्दुओं की ऊँची जातियों का समूह था। ऐसे में बिहार की अनुसूचित जातियां और पिछड़ी जातियां,  ऊँची जातियों से केवल पीछे ही नहीं रही बल्कि ऊँची जातियों के शोषण का शिकार बनी। ऊँची जातियों के दबदबे की वजह से बिहार के भूमि सुधार कानून को इस तरह से तोड़ा गया कि इसका फायदा केवल ऊँची जातियों को ही मिला। समय के साथ ऊँची जातियां राजनीतिक और सामाजिक तौर पर बहुत अधिक मजबूत हुईं।  

ऊँची जातियों की हिन्दू धर्म में हिस्सेदारी महज 13 फीसदी की थी। पिछड़ी जातियों से यह लोग बहुत कम थे। फिर भी सत्ता से लेकर कारोबार तक के हर समीकरण में केवल ऊँची जातियों के लोग मौजूद थे। ,

साल 1990 के बाद की राजनीति में यादवों का दौर आया। बिहार की कुल आबादी में तकरीबन 11 फीसदी आबादी यादव जाति की है। यह बिहार के समाज का सबसे बड़ा समूह है और साथ में सबसे बड़ी पिछड़ी जाति है। साल 1990 की राजनीति में इस जाति ने अपने आपको राजनीतिक तौर मजबूत बनाया है। और अभी भी इनका समाजिक आधार मजबूत और इनकी राजनीतिक हैसियत मजबूत हो रही है।  

कोइरी और कुर्मी जैसी पिछड़ी जातियों को बिहार में लव-कुश समाज के तौर पर पुकारा जाता है। बिहार की कुल आबादी में यह जातियां 7.7 फीसदी की हिस्सेदारी रखती हैं। लेकिन इनका दबदबा वैसा नहीं है जैसा यादवों का है। लेकिन यादव और लव कुश समाज ने मिलकर साल 1990 के बाद की पिछड़ी जातियों की राजनीति में जान फूंकी है। यादव और लव-कुश समाज से जुड़ी जातियां साल 1990 से पहले खेती-किसानी में लगी हुई जातियां थी। इससे बाहर नहीं निकली थी। लेकिन अब ये जातियां खेती किसानी से बाहर निकलकर सेवा क्षेत्र में भी आयी हैं। शहरों में काम करने आती है। प्राइवेट और असंगठित क्षेत्र में इनकी मौजूदगी है। फिर भी शिक्षा के क्षेत्र में अभी भी ऊँची जातियों से बहुत पीछे है। नौकरशाही, न्यायपालिका और सरकारों के बड़े पदों पर अभी भी इनका पुराने जैसा है। अभी भी यहां ऊँची  जातियों का वर्चस्व है।

बिहार की कुल आबादी में अनुसूचित जातियों से जुड़े लोगों की आबादी तकरीबन 16 फीसदी है। अनुसूचित जाति की तकरीबन 93 फीसदी आबादी गांवों में रहती है। 23 जातियों को बिहार की अनुसूचित जातियों कैटगरी में रखा गया है। इसमें चमार जाति की हिस्सेदारी तकरीबन 31 फीसदी है। अनुसूचित जातियों का दूसरा बड़ा समूह दुसाध लोगों का है। ये लोग 1990 के पहले की राजनीति में भी पीछे थे और अब भी पीछे है। यह समाज का सबसे वंचित तबका है। सबसे दबा कुचला समूह है। साक्षरता दर सबसे कम है। गरीबी सबसे अधिक है। रहने की दशा अभी भी रुला देने वाली है। समय के साथ सरकार द्वारा लागू किये गए कुछ सामजिक न्याय नीतियों  के जरिये इन्होने अपने आपको आगे बढ़ाने की कोशिश तो की है लेकिन अभी भी इस समूह के लोग के बहुत पीछे हैं। इतना आगे नहीं बढ़े हैं कि कहा जाए इन दलित जातियों में कुछ परिवर्तन है।  

हाँ, यह बात सही है कि समाज की जातिगत संरचानाएँ पहले से थोड़ी नरम हुई हैं। सरकारों और अन्य सामाजिक समूहों ने इस पर ध्यान देने की कोशिश की है, इसलिए इन जातियों की पहले की अपेक्षा सजगता बढ़ी है। यह जातियां भी अपने हक़ों के लिए आगे आने लगी हैं।

मुस्लिम आबादी पूरे राज्य की आबादी की तकरीबन 16.87 फीसदी है। पूरे राज्य में इनका फैलाव नहीं है। बिहार के कुछ जिलों में यह बहुसंख्यक तौर पर मौजूद हैं। साल 1990 के बाद अगर मंडल की राजनीति का उभार हुआ तो बिहार के अलावा पूरे देश में कमण्डल की राजनीति का उभार हुआ। यानी साल 1990 की राजनीति भाजपा के आगे बढ़ने की राजनीति है, हिन्दू - मुस्लिम अलगाव की राजनीति है। इसलिए बिहार के मुस्लिमों में कुछ ज्यादा परिवर्तन नहीं आया। बिहार के मुस्लिम भी भारत के दूसरे जगह के मुस्लिमों की तरह सहम कर जीने वाले लोग हैं। कुछ इलाकों में बहुसंख्यक होने की वजह से बिहार के कुछ इलाकों में चुनाव में यह अपना असर दिखाने में कामयाब होते हैं। इसके बाद पांच साल चुपचाप गुजारते हैं। इनकी मुखर आवाज कहीं नहीं सुनाई देती।  

पटना विश्वविद्यालय के प्रोफेसर जयनाराण यादव कहते हैं कि बिहार में हिन्दू धर्म में अन्य पिछड़ी जातियों की आबादी 54 फीसदी थी। इसलिए पासा पलटने तो तय था। लेकिन यह पासा नब्बे के बाद पलट। सांसद बिंदेश्वरी प्रसाद मंडल ने अन्य पिछड़ी जातियों के लिए तीखी बहस की। दूसरे पिछड़े आयोग के अध्यक्ष थे। यह आयोग बाद में जाकर मंडल आयोग के नाम से जाना गया। इसी वजह से अन्य पिछड़ा वर्ग का भला हो पाया। साथ में लालू यादव जैसे मुखर नेता का साथ मिला तो पिछड़ी जातियों में एक तरह की हिम्मत आयी जो कागजों के लिखे शब्दों के दम पर कभी नहीं आती है। लेकिन इस मिज़ाज में केवल यादवों का दबदबा रहा। साल 1990 के बाद जातियों के लिहाज से समय तो बदला लेकिन ऐसा परिवर्तन नहीं हुआ जो होना चाहिए थी। अन्य पिछड़ा वर्ग केवल मुखर हुआ है, अपने हक़ों के लिए लामबंद भी हो जाता है। लेकिन भाजपा की राजनीति का इनके पास तोड़ नहीं है। अब तो यादवों का कुछ हिस्सा भाजपा को वोट देने लगा है। अन्य पिछड़ा वर्ग की राजनीति में हुंकार भरने की ज़रूरत है। राष्ट्रवाद के इस अंधे में दौर में यह हुंकार कहीं नजर नहीं आती।

राजनीतिक विश्लेषक आशीष रंजन का कहना है कि साल 1990 के पहल और बाद के समाज में बहुत बड़ा बदलाव हुआ है। अगर साल 1990 का पहले का समाज निचली जातियों को बंद रखने वाला समाज था तो साल 1990 का समाज निचली जातियों को आज़ाद करने वाला समाज है। एक समय था कि निचली जाति के लोग ऊँची जाति के सामने कुर्सी पर नहीं बैठते थे, ज़मीन पर बैठते थे। अब यह समय बदल गया है। आर्थिक तौर पर कमज़ोर होने के बाद भी यह जातियां, ऊँची जाति के सामने कुर्सी पर बैठ जाती हैं। खुलकर बात करती हैं। शिक्षा के क्षेत्र में निचली जातियों का नामांकन दर पहले से बढ़ा है। जबकि यह बात सही है कि सरकारी नौकरी में अभी भी ऊंची जातियों का दबदबा है। साल 1990 के बाद ही निचली जातियों ने बिहार से दूसरे राज्यों में  प्रवास करना शुरू किया। यह प्रवृत्ति निचली जातियों ने ऊँची जातियों से सीखी थी।  निचली जातियों को लगता था कि शहर जाकर ऊँची जाति के लोग और अधिक अमीर हो जाते हैं। जबकि सच बात यह थी कि ऊँची जाति के लिए अपना गाँव घर सरकारी नौकरी के लिहाज से छोड़ते थे।

हाल फिलाहल के समय में राजनीति करने का तौर तरीका बदला है लेकिन इतना नहीं बदला है कि इतिहास से बनता हुआ सामाजिक आधार पूरी तरह से बदल जाए।

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