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क्या भारत के पास आत्मनिर्भर होने का आत्मविश्वास है?

आपसी भाईचारे की समझ के बिना जो जाति की व्यवस्था को आगे बढ़ाती है, आत्मनिर्भरता नव-उदारवादी सुधार के परिदृश्य में केवल एक मुखौटा है।
आत्मनिर्भर
Image Courtesy: The Indian Express

जब उन्हें लगा कि "न्यू इंडिया" की आकांक्षाओं को पूरा करने की उम्मीद अब नहीं है, तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भारत को "आत्मनिर्भर" बनाने की एक बहुत ही आवश्यक और नई कल्पना को जन्म दे दिया है। यहां तक कि अर्थव्यवस्था को भी एक निश्चित कल्पना के आधार पर चलाया जा रहा है और बताया जा रहा है कि राष्ट्र के लिए क्या अच्छा है क्या नहीं। शीत युद्ध की गहरी ठंड से उभरने के बाद, राष्ट्रों ने सामूहिक रूप से तय किया कि वैश्वीकरण व्यवस्था को आमंत्रित करना चाहिए और इस तरह वह एक नई आदर्श व्यवस्था बनाई गई थी। आज, एक संकट की घड़ी में नव-उदारवादी व्यवस्था के बावजूद राष्ट्र, संरक्षणवाद, राष्ट्रीय हित और आर्थिक राष्ट्रवाद की ओर लौट रहे हैं, जिसे पहले स्वदेशी के रूप में जाना जाता था।

हालांकि, स्वदेशी की अवधारणा की तुलना में आत्मनिर्भर एक उच्च आदर्श है। आत्मनिर्भरता आर्थिक दायरे तक सीमित नहीं है बल्कि आत्मनिर्भरता पर आधारित एक सामाजिक व्यवस्था की कल्पना की जाती है। लेकिन आत्मनिर्भरता के लिए आत्मविश्वास की जरूरत होती है। जिस प्रश्न की जांच होनी चाहिए वह यह है कि क्या भारत और भारतीयों में आत्मनिर्भर बनने का आत्मविश्वास है?

भारत एक ऐसे राष्ट्र के रूप में पेश आता है जहाँ आत्मविश्वास की भारी कमी है। आत्मविश्वास शायद इसकी सबसे दुर्लभ वस्तु है। बिना किसी हिचकिचाहट या कलंकित या संकोच को महसूस किए, आत्मविश्वास खुद के बारे में है। आत्मविश्वास सामाजिक दुनिया का पता लगाने और स्वयं की भावना का विस्तार करने की एक आवश्यक शर्त है।

महत्वपूर्ण सिद्धांतकार एक्सल होनैथ का तर्क है कि खुद का विचार और उसकी मान्यता के तीन अकाट्य आयाम हैं: प्रेम और भावनात्मक सुरक्षा से उत्पन्न आत्मविश्वास; समान उपचार या व्यवहार से पैदा हुआ आत्म-सम्मान और समान कानूनी हैसियत और उपलब्धि और योग्यता की भावना से उत्पन्न एक आत्म-सम्मान।

यह तर्क देना संभव है कि गैर-उपनिवेशवाद केवल संप्रभुता के लिए ही नहीं है बल्कि संक्षेप में, यह उपरोक्त तीन पहलुओं को फिर से हासिल करने की एक परियोजना भी थी। दूसरे शब्दों में, इसके तहत राजनीतिक स्वतंत्रता के साथ-साथ कठोर पदानुक्रमों के सामाजिक परिवर्तन की आवश्यकता थी। “आधुनिक भारत के निर्माताओं” के योगदान को ठीक उसी रूप में देखा जा सकता है ,जिन्होंने नए स्वय और उसमें आवश्यक एकता को बनाए रखा। जबकि गांधी प्रेम और अहिंसा की अपने विचार के माध्यम से आत्मविश्वास बहाल करने के लिए संघर्ष कर रहे थे, अंबेडकर और अन्य समाज सुधारक और जाति-विरोधी आंदोलनों के नेता आत्म-सम्मान और समान हैसियत पर ध्यान केंद्रित कर रहे थे। नेहरू ने भी आधुनिक बांधों, नई प्रौद्योगिकियों और नवाचार पर जोर देने के साथ-साथ आत्म-सम्मान को संस्थागत बनाने पर ध्यान केंद्रित किया।

फिर भी यह मानना होगा कि एक उत्तर-औपनिवेशिक लोकतंत्र के रूप में, भारत इन तीनों आयामों को एक साथ लाने में विलक्षण रूप से असफल रहा है। परिणामस्वरूप, हम एक राष्ट्र हैं, लेकिन खुद पर गौर करने में सक्षम होने के लिए हमने पर्याप्त आत्मविश्वास हासिल नहीं किया है। हम जाति और लिंग के संरचनात्मक पदानुक्रम को तोड़ने में विफल रहे है। जातीय उत्पीड़न से जुड़ी हिंसा अभी भी भारत की सामाजिक वास्तविकता को उजागर करती है और इसके लिए हमें अपने सार्वजनिक तर्क, विश्वास के सवाल पर फिर से विचार करने की जरूरत है।

यह भारत के सामाजिक रूप से अभिजात वर्ग का शायद एक अनूठा पहलू है कि उनमें सामाजिक विश्वास का अभाव है, जितना कि उपजातीय जातियों का है। जाति पदानुक्रम के दोनों छोर अपने-अपने तरीके से आत्मविश्वास की कमी का सामना करते हैं। पूंजीवादी आधुनिकता ने पारंपरिक जीवन-शैली को इस तरह से विस्थापित कर दिया है कि सामाजिक कुलीन वर्ग भी "विषय" थे, जैसे कि उपजातीय जातियां थीं। यहां तक कि जाति संरचना की क्रमिक असमानता भ्रमित विषय पैदा करती है। भारत में अधिकांश सामाजिक समूहों के पास एक निश्चित सामाजिक हैसियत नहीं है - उनकी हैसियत एक ऐसी चीज है जिसे प्रतिदिन की बातचीत और वार्ताओं में क्रियात्मक रूप से लागू करना और पुन: प्रस्तुत करना है। दूसरे शब्दों में, जातिगत संरचनाएं प्रतिदिन की चेतना में पुन: उत्पन्न होती हैं।

हालाँकि, जो बात भारतीय संदर्भ को खास बनाती है वह पदानुक्रम के दोनों सिरों पर विश्वास की कमी का होना है। आत्मविश्वास को दिखावे और अनुकरण द्वारा प्रतिस्थापित किया जाता है। उदाहरण के लिए, भारत ने पश्चिमीकरण और संस्कृतिकरण की प्रक्रियाओं को देखा है। फिर भी, भद्रलोक बाबुडम से वर्ण व्यवस्था के उच्च स्थानों से संबंधित कई तिमाहियों के दावों को देखें, तो सभी अनुकरण एक विशिष्ट पहचान हैं। अंग्रेजी भाषा की सांस्कृतिक पूंजी के स्रोत के रूप में उसकी भूमिका पर विचार करें: निचली जातियों के लिए, अंग्रेजी सांस्कृतिक पूंजी का एक स्रोत है, यह जाति के आधार पर कलंक के खिलाफ लड़ाई का चारा भी है और यह उच्च जातियों के अनुकरण करने का एक उपकरण भी है। यह इस ढांचे के भीतर है कि विभिन्न जातियां अलग-अलग डिग्री का सामना करती हैं, वह भी अपनी विविधता और दुर्बल संकोच के साथ।

भारतीय इतिहास प्रमुख जातियों से भरा हुआ है, जैसे कि आंध्र प्रदेश में कम्मा, भूमिहीन होने के बावजूद, वे कम्युनिस्ट आंदोलन के मशाल वाहक बन गए। इसका स्पष्टीकरण आंशिक रूप से प्रगतिशील विचारधाराओं के माध्यम से आधुनिकीकरण के महत्व में निहित है जो स्वयं को वर्ग की हैसियत के साथ बदलते हैं। निचले सिरे पर, भारत ने बसवा और पेरियार जैसी हस्तियों के नेतृत्व में आत्म-सम्मान के लिए आंदोलन किया है।

भारतीय संदर्भ में जाति की सीढ़ी पर विभिन्न जातियाँ विश्वासपात्र अभिजात्य जातियों में बड़े करीने से बदलती नहीं हैं, खासकर निम्न जातियों में भिन्न और कलंकित जातियाँ। इसके बजाय, विभिन्न सामाजिक हैसियत मोटे तौर पर आत्मविश्वास का मुकाबला करने के विभिन्न तरीकों में बदलती हैं। यहां तक कि उच्च जाति होने की वजह से योग्यता का दावा वास्तविक आत्म-विश्वास की तुलना में अधिक आसान है। यह इस बात से स्पष्ट हो जाता है जब वे निजी शिक्षा और धन के बदले सीटों को खरीदते हैं और उस माध्यम से अवसरों को हड़प लेते हैं, जिस तक पहुंचने के लिए न तो योग्यता की जरूरत होती है और न ही प्रदान की जाने वाली शिक्षा की गुणवत्ता की। उच्च जातियों का दावा है कि मेधावी छात्र होना विश्वास का संकेत नहीं है, लेकिन नैतिक वैधता हासिल करने के लिए मुकाबला करने का एक ही तरीका है, और इसलिए वह रास्ता जातिगत पूर्वाग्रहों को दोहराकर असुरक्षा को दूर करना है।

मुकाबला करने के तौर-तरीकों का सावधानीपूर्वक अध्ययन हमें यह एहसास दिलाता है कि सामाजिक कुलीन वर्ग, यानी उच्च जातियां कलंकित महसूस नहीं करती है, लेकिन वे विशेष रूप से आश्वस्त सामाजिक समूह नहीं हैं। आधुनिक संदर्भों में, पारंपारिक सामाजिक पदानुक्रम बड़े पैमाने पर सामाजिक आधिपत्य में तब्दील  नहीं होता हैं। इस तरह के पदानुक्रम या बपौती संसाधनों और अवसरों को हासिल करने और नेटवर्क स्थापित करने में सक्षम हो सकते हैं, लेकिन इन्हें सामाजिक विश्वास और आत्म-विश्वास की धुरी नहीं माना जा सकता है। दूसरी ओर, जाति पदानुक्रम का निचला छोर कलंक और शर्म की भावना से ग्रस्त होना है।

इस तरह के संदर्भ में, सवर्णों के लिए यह जरूरी हो जाता है कि वे आत्मनिर्भर बनने के लिए सामाजिक पूर्वाग्रहों से खुद को मुक्त करें। जाति व्यवस्था और उसका पदानुक्रम विशेषाधिकार का निर्माण करती है, लेकिन आत्मानिर्भरता का नहीं। जाति-आधारित सामाजिक व्यवस्था से मुक्ति, हिंदुजातियों के खुद के लिए बहुत जरूरी है।

जाति आधारित कमजोरी पर काबू पाने के लिए अंततः हिन्दू जातियों और बाकी सभी लोगों के बीच आपसी भाईचारे की आवश्यकता होगी। भारत अब भी इस दिशा में आगे बढ़ने को तैयार नहीं है, लेकिन वर्तमान में हम जो प्रति-क्रांति देख रहे हैं, उससे यह संभावना उभर सकती है। यह भाईचारा ही है जो एक बेहतर समझ हो सकती है और समझा सकती है कि हमारे आत्मनिर्भर होने का क्या मतलब है –यह उस स्वैच्छिकवाद की तुलना में अधिक समझदारी रखता है जिसमें प्रधानमंत्री ने नव-उदारवादी सुधार को आगे बढ़ाने की बात की है।

(लेखक एसोसिएट प्रोफेसर, सेंटर फॉर पॉलिटिकल स्टडीज, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से ताल्लुक रखते हैं। व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं।)

मूल रूप से अंग्रेजी में प्रकाशित इस लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें।

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